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अदम्य बोल्शेविक – नताशा एक संक्षिप्त जीवनी (छठी किश्त)
एल. काताशेवा
अनुवाद : विजयप्रकाश सिंह
रूस की अक्टूबर क्रान्ति के लिए मज़दूरों को संगठित, शिक्षित और प्रशिक्षित करने के लिए हज़ारों बोल्शेविक कार्यकर्ताओं ने बरसों तक बेहद कठिन हालात में, ज़बरदस्त कुर्बानियों से भरा जीवन जीते हुए काम किया। उनमें बहुत बड़ी संख्या में महिला बोल्शेविक कार्यकर्ता भी थीं। ऐसी ही एक बोल्शेविक मज़दूर संगठनकर्ता थीं नताशा समोइलोवा जो आखि़री साँस तक मज़दूरों के बीच काम करती रहीं। हम ‘बिगुल’ के पाठकों के लिए उनकी एक संक्षिप्त जीवनी का धारावाहिक प्रकाशन कर रहे हैं। हमें विश्वास है कि आम मज़दूरों और मज़दूर कार्यकर्ताओं को इससे बहुत कुछ सीखने को मिलेगा। – सम्पादक
नताशा, स्त्री मज़दूर और अक्टूबर क्रान्ति।
”हमे यूरोप की मौजूदा शमशान-जैसी नीरवता के धोखे में नहीं आना चाहिए”, लेनिन ने कहा। ”यूरोप क्रान्तिकारी भावना से आवेशित है। साम्राज्यवादी युद्ध की राक्षसी भयावहता, महँगाई से पैदा हुई बदहाली, हर जगह क्रान्तिकारी भावना को जन्म दे रही है। और सत्ताधारी वर्ग, अपने चाकरों के साथ बुर्जुआ वर्ग, सरकारें अधिकाधिक एक अन्धी गली की तरफ बढ़ रही हैं, जहाँ से ज़बरदस्त उथल-पुथल के बिना वे कभी भी बाहर नहीं निकल सकतीं। ”ठीक वैसा ही जैसाकि 1905 में रूस में एक जनवादी गणराज्य की स्थापना के लक्ष्य के साथ सर्वहारा के नेतृत्व में ज़ारशाही शासन के ख़िलाफ एक आम बग़ावत हुई थी, आने वाले वर्षों में, यूरोप में भी, इसी परभक्षी युद्ध की वजह से सर्वहारा के नेतृत्व में वित्तीय पूँजी की शक्ति के ख़िलाफ, बड़े बैंकों के ख़िलाफ, पूँजीपतियों के ख़िलाफ आम बग़ावतें होंगी और समाजवाद की विजय के बिना, बुर्जुआ वर्ग के स्वामित्वहरण के बिना इन विप्लवों का अन्त नहीं होगा।” (1905 की क्रान्ति पर लेनिन का भाषण, लेनिन, संकलित रचनाएँ, खण्ड 19) लेनिन ने ये बातें 1917 की जनवरी में कही थीं। उसी साल 23 फरवरी को मेहनतकश जनता का एक आन्दोलन शुरू हुआ। एक ऐसा आन्दोलन जिसे 1914 में अन्तरराष्ट्रीय साम्राज्यवाद ने बाधित कर दिया था। युद्ध ने मामले को सिर्फ टाल दिया था, और इस देरी से बेड़ियाँ और भी कस गयीं। आन्दोलन की शुरुआत एक उच्चतर धरातल, एक व्यापक आधार पर हुई। 12 मार्च को जब लेनिन अभी जेनेवा में ही थे, आगामी घटनाक्रमों के बारे में उनका निम्न आकलन था :
”उन समाजवादियों की भविष्यवाणी सच साबित हुई जो युद्ध की नृशंस और पाशविक भावना से अप्रभावित रहकर समाजवाद के प्रति वफादार बने रहे। विभिन्न देशों के पूँजीपतियों के बीच छिड़ गये विश्वव्यापी परभक्षी युद्ध के चलते पहली क्रान्ति फूट पड़ी। साम्राज्यवादी युद्ध, यानी पूँजीपतियों द्वारा लूट के माल के बँटवारे के लिए, कमज़ोर जनता को कुचलने के लिए छिड़ा युद्ध, गृहयुद्ध में, अर्थात एक ऐसे युद्ध में तब्दील होने लगा जो पूँजीपतियों के ख़िलाफ मज़दूरों का, ज़ारों और राजाओं, ज़मींदारों और पूँजीपतियों के ख़िलाफ मेहनतकशों और उत्पीड़ितों का युद्ध था, युद्धों से मानवता की, ग़रीबी से जनता की और इन्सान के हाथों इन्सान के शोषण से सम्पूर्ण मुक्ति का युद्ध था।
”क्रान्ति का, यानी अकेला विधिसंगत, न्यायोचित और महान युद्ध का, उत्पीड़कों के ख़िलाफ उत्पीड़ितों के युद्ध का, प्रणेता होने का गौरव और सौभाग्य रूसी मज़दूरों को मिला है।
”पेत्रोग्राद के मज़दूरों ने ज़ारशाही राज को उखाड़ फेंका है। पुलिस और ज़ार की सेनाओं के ख़िलाफ अपने साहसिक युद्ध में, मशीनगनों के सामने निहत्थे मज़दूरों ने बग़ावत की शुरुआत कर पेत्रोग्राद की दुर्ग सेना के अधिकांश सिपाहियों को अपनी तरफ कर लिया। मास्को और दूसरे शहरों में भी यही हुआ। अपनी सेनाओं द्वारा ठुकराये गये ज़ार को आत्मसमर्पण करना पड़ा उसने अपने और अपने बेटे के राजगद्दी छोड़ने के काग़ज़ पर हस्ताक्षर किये। उसने प्रस्ताव रखा कि राजगद्दी उसके भाई माइकेल के हवाले कर दी जाये।
”विद्रोह की अत्यन्त द्रुतगति के चलते, अंग्रेज़-फ्रांसीसी पूँजीपतियों की सीधी मदद के चलते, पेत्रोग्राद के मज़दूरों, जनता के बीच पर्याप्त वर्गीय चेतना के अभाव के चलते, तथा रूसी ज़मींदारों और पूँजीपतियों के संगठन और तैयारी के चलते पूँजीपति राजसत्ता पर कब्ज़ा करने में कामयाब रहे।” (लेनिन, रूस में क्रान्ति और सभी देशों के मज़दूरों के कार्य, संकलित रचनाएँ, खण्ड 20, पृष्ठ 64)
1917 में ज़ारशाही का तख्ता पलटे जाने के बाद बनी केरेंस्की की अन्तरिम सरकार को लेनिन ने इसी तरह परिभाषित किया था। दरअसल, मज़दूर इस तरह की सरकार पर विश्वास नहीं कर सके। मज़दूरों ने रोटी, अमन और आज़ादी की ख़ातिर लड़ते हुए राजतन्त्र को उखाड़ फेंका था। पेत्रोग्राद के मज़दूरों ने ज़ारशाही को पराजित करने के फौरन बाद, स्वयं अपना संगठन मज़दूर प्रतिनिधियों की सोवियतें बनाया और उसे तत्काल संगठित व विस्तारित करना तथा सैनिकों और किसानों के प्रतिनिधियों की स्वतन्त्र सोवियतों का गठन करना शुरू कर दिया।
इत्तेफाक से फरवरी क्रान्ति का पहला दिन अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस का दिन भी था। युद्ध ने स्त्री मज़दूरों और किसानों की भारी आबादी को रूसी जीवन की वास्तविकता के रू-ब-रू कर दिया था। रूसी स्त्रियों का घरेलू जीवन बुरी तरह अस्त-व्यस्त हो गया था और उन्हें देश के आर्थिक जीवन के भँवर में घसीट लिया गया था। मज़दूर औरतें युद्ध में गये अपने पतियों की जगह मशीनों पर काम कर रही थीं। जबकि किसान औरतें खेत में हल चला रही थीं (युद्ध के लिए उनके पति और घोड़े अक्सर बलात् भरती कर लिये जाते थे)। 1916-17 की सर्दियों के दिन बहुत विकट थे। खाद्य पदार्थों के दाम तेज़ी के साथ आसमान छूने लगे। खाने-पीने की चीज़ों की किल्लत थी और दूकानों पर लम्बी कतारें लगी रहतीं।
फरवरी 1917 के अन्त में ”युद्ध मुर्दाबाद”, ”राजशाही मुर्दाबाद” के नारे के साथ पेत्रोग्राद और मास्को की तमाम बड़ी फैक्टरियों में एक के बाद एक हड़तालें होती गयीं। इस आन्दोलन का मार्गदर्शन बोल्शेविक कर रहे थे। स्त्री मज़दूरों ने, जिनकी तादाद फैक्टरियों में काफी बढ़ गयी थी और जिनके कन्धों पर अपने परिवारों के भरण-पोषण की ज़िम्मेदारी आ पड़ी थी, इस आन्दोलन में सक्रिय भूमिका निभायी। स्त्रियों का आन्दोलन स्वत:स्फूर्त ढंग से शुरू हो गया। अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस ने उन्हें संगठन के कुछ बुनियादी तत्वों से परिचित करा दिया था और वे स्त्रियाँ ”रोटी और अमन”, तथा ”हमारे पतियों को मोर्चे से वापस लाओ” के नारे के साथ सड़कों पर उतर पड़ीं। फरवरी क्रान्ति के पहले दिन अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस का संयोगवश होना कोई बड़ी घटना नहीं थी। युद्ध के पहले ही इस दिन की सांगठनिक और शैक्षणिक अहमियत स्पष्ट हो चुकी थी। युद्ध के भी पहले स्त्री मज़दूर यह समझने लगी थीं कि वे समग्रता में मेहनतकश वर्ग के आन्दोलन में भाग लेकर ही मुक्ति पा सकती हैं। युद्ध के दौरान देश के आर्थिक जीवन में औरतों की भूमिका बढ़ जाने के साथ महिला आन्दोलन उच्चतर मंज़िल में पहुँच गया।
23 फरवरी को पेत्रोग्राद में पुरानी सरकार ने औरतों को अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाने से रोकने की कोशिश की। इससे पुतिलोव कारख़ाने में विवाद खड़ा हो गया जो बढ़कर विरोध प्रदर्शन और क्रान्ति में तब्दील हो गया। इस प्रकार जीवन की भीषण परिस्थितियों से जन्मे एक स्वत:स्फूर्त आन्दोलन ने अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस में अपना सांगठनिक आधार हासिल किया जो बोल्शेविकों के पार्टीकार्य की शृंखला की एक कड़ी था। लेनिन अप्रैल में आये और बोल्शेविक शक्तियों को एकजुट करने, संगठित करने, उन्हें कार्य बाँटने, तथा आने वाली लड़ाइयों के लिए उन्हें प्रशिक्षित करने के काम ने लम्बे डग भरे। समोइलोवा जो उन दिनों पेत्रोग्राद में थीं, लेनिनवादी बोल्शेविक कतारों के साथ अपनी समस्त स्वाभाविक ऊर्जा और उत्साह से काम करने लगीं। वह महिला कार्यकर्ताओं के बीच चल रहे आन्दोलन का वर्णन इन शब्दों में करती हैं : ”शुरू में हमारे पास अगुवा स्त्री मज़दूरों का एक छोटा-सा समूह था जो 1913-14 में ‘वूमन वर्कर’ के पहले प्रकाशन के समय से ही उसके इर्दगिर्द इकट्ठा हो गया था।”
उसके बाद वह स्त्री मज़दूरों की राजनीतिक शिक्षा के लिए युद्ध के क्रान्तिकारी प्रभाव के बारे में प्रचार करती हैं। यह 23 फरवरी, 1917 की एक ऐसी स्वत:स्फूर्त कार्रवाई थी, जिसने सैनिकों के दिलों में घर कर लिया और उन्होंने लोगों पर, जो बग़ावत करने के लिए उठ खड़े हुए थे, गोलियाँ चलाने की जगह अपनी संगीनों का मुँह ज़ारशाही राजतन्त्र की ओर मोड़ दिया और तीन दिनों के भीतर ज़ारशाही के सड़े-गले तख्तेताज को नेस्तनाबूद कर दिया। फरवरी क्रान्ति ने स्त्री मज़दूरों के मन में संगठन के प्रति गहरी दिलचस्पी जगायी। वे पार्टी का सदस्य बनने के लिए लालायित हो पार्टी में आने लगीं और उसमें से कई ट्रेड यूनियनों में शामिल हो गयीं। लेनिन ने जब 21 अप्रैल, 1917 की कार्रवाई को ”दुश्मन की स्थिति की टोह लेने” के रूप में निरूपित किया तब उनका यह मानना था कि क्रान्ति के पहले चरण से दूसरे चरण में संक्रमण के दौरान कार्रवाई के लिए उपयुक्त नारा ”क्रान्ति के दूसरे चरण में जीत के लिए तैयार रहो” ही होगा। और अचानक आज़ाद देश धोबिनों की आर्थिक हड़ताल से भौंचक्का रह गया। यह स्त्री मज़दूरों की कतार में भी सबसे पिछड़ा तबका था। लेकिन यह हैरत तब और बढ गयी जब पता चला कि उन्होंने जो माँगें रखी हैं उनमें लॉण्ड्रियों के राष्ट्रीयकरण और उनको स्थानीय दुमा (नगरपालिकाओं) के हवाले करने की माँग पहली माँग है। यह माँग पूँजीवादी सरकार में मज़दूर वर्ग के हितों के ”प्रतिनिधि” श्रम मन्त्री सामाजिक-जनवादी ग्वोज्देव के सामने तौरिदा पैलेस (अन्तरिम सरकार के मुख्यालय) में रखी गयी।
लेकिन मज़दूर वर्ग के हितों के ”संरक्षक” ने इन माँगों को ”अपरिपक्व” बताया।
पेत्रोग्राद की स्त्री मज़दूरों में, जो ”तौरिदा पैलेस पर बारीकी से नज़र रख रही थीं” और जो वहाँ बैठे अपने ”संरक्षकों” की राय से सहमत नहीं थीं, क्रान्तिकारी भावना के बढ़ने से लॉण्ड्री हड़ताल को समर्थन मिला। मज़दूर औरतों ने लिखा कि ”अप्रैल 21 का अन्त असन्तोषजनक रहा” लेकिन इसने हमारी ऑंखें खोल दीं। पूँजीपतियों के ख़िलाफ भरी नफरत और बढ़ गयी और मेंशेविकों और समाजवादी क्रान्तिकारियों से भरोसा उठ गया।
स्त्री मज़दूरों में बढ़ती क्रान्तिकारी भावना उर्जस्वी अक्टूबर क्रान्ति के महान संगठनकर्ता की नज़रों से छिपी नहीं रही, बोल्शेविक केन्द्रीय कमेटी के फैसले के अनुरूप ‘वूमन वर्कर’ का पुनर्प्रकाशन (10 मई) शुरू किया गया और इस पत्रिका ने पेत्रोग्राद की स्त्री मज़दूरों के बेहतरीन तत्वों को अपने इर्दगिर्द फौरन एकजुट कर लिया।
सम्पादकीय मण्डल में क्रुप्सकाया, इनेस्सां अरमां, स्ताल, कोल्लोन्ताई, एलिज़ारोवा, कुदेली, समोइलोवा, निकोलेयेवा और पेत्रोग्राद की बहुत-सी मज़दूर स्त्रियाँ शामिल थीं।
‘वूमन वर्कर’ के सम्पादकों ने अपने इर्दगिर्द स्त्री मज़दूरों को एकजुट किया, सभाओं के ज़रिये व्यापक आन्दोलनात्मक काम किये, युद्ध के ख़िलाफ, बढ़ी कीमतों के ख़िलाफ परचे बाँटे।
चिनीजेली सर्कस में जून में आयोजित सभा ने विशेष रूप से युद्ध के ख़िलाफ एक बड़ी भूमिका निभायी। जिस समय मोर्चे पर युद्ध अपने चरम पर था, जंग के ख़िलाफ यह अन्तरराष्ट्रीय सभा थी, जिसके विरोध में केरेंस्की और समूचे पूँजीवादी प्रेस ने ज़बरदस्त मुहिम चला रखी थी। सभा में इतनी बड़ी तादाद में मज़दूर शामिल हुए कि वहाँ पहुँचने वाले सभी स्त्री-पुरुष इमारत में समा न सके। यह तख्ता पलटने के लिए की गयी सभा थी, जिसमें समोइलोवा ने भाषण दिया। इस सभा ने पूँजीवादी अख़बारों को बहुत क्षुब्ध किया।
‘वूमन वर्कर’ के सम्पादकों ने कारख़ानों में भी काफी सांगठनिक काम किये। समोइलोवा और निकोलेयेवा इस काम में विशेष रूप से महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही थीं। हर फैक्टरी ने ‘वूमन वर्कर’ के सम्पादकीय मण्डल में अपने प्रतिनिधि नियुक्त कर रखे थे। हर सप्ताह यह अकेली ”सोवियत” एकत्र होती थी और विभिन्न इलाकों की रिपोर्टों पर चर्चा करती थी। इस तरह सम्पादक मण्डल फैक्टरियों में चल रही हर चीज़ के बारे में जानता था और पेत्रोग्राद के सर्वहारा के बीच उठ रही क्रान्तिकारी लहर को पहचान सकता था। क्रान्ति अपने क्रान्तिकारी रूप ख़ुद पैदा करती है और कारख़ानों की ये महिला प्रतिनिधि भावी महिला संगठनकर्ताओं का आदि रूप थीं, जिन्हें मज़दूर स्त्रियों के बीच काम करने के लिए कारख़ाना सेल द्वारा नियुक्त किया गया।
1917 के ”जुलाई दिनों” में, जब ‘प्रावदा’ के कार्यालयों को ध्वस्त कर दिया गया था, ‘वूमन वर्कर’ ने अपने जुलाई अंक में बोल्शेविक केन्द्रीय कमेटी के सदस्यों के लेख प्रकाशित किये। इन लेखों में मज़दूरों को ”जुलाई दिनों” का आशय समझाया गया था और उस रास्ते के बारे में इंगित किया गया था जिसे भविष्य में अपनाया जाना था। उसके बाद सरकार ने ‘वूमन वर्कर’ पर भी दमन का पाटा चलाने का फैसला किया। अंक निकलने के दूसरे दिन जब केरेंस्की की पुलिस सम्पादकीय कार्यालय पर पहुँची तो वहाँ कोई भी नहीं था। मज़दूर औरतें रात ही में अख़बार की प्रतियाँ फैक्टरियों में उठा ले गयी थीं। यह सच है कि बोल्शेविक प्रेस के दमन के बाद बोल्शेविकों के ख़िलाफ जो उन्मादी अभियान चलाया गया उसने स्त्री मज़दूरों के आन्दोलन में कुछ दुविधा पैदा कर दी। उनमें से कुछ तो बोल्शेविक विरोधी अख़बारों के उस कुत्सा प्रचार से भी प्रभावित होती जान पड़ीं जिसमें लेनिन पर जर्मन जासूस होने का आरोप लगाया गया था।
अपने एक परचे में समोइलोवा ने कटुता से (और साथ ही साथ इस बात पर ज़ोर देते हुए कि हमें आलोचनाओं और ग़लतियों के सामने आने से नहीं डरना चाहिए) कहा कि ”जुलाई दिनों” के बाद कुछ स्त्री मज़दूर जो बोल्शेविक पार्टी में पहले ही शामिल हो चुकी थीं, डाँवाडोल होने लगीं। उनमें से एक-दो ने ‘वूमन वर्कर’ के कार्यालय में आकर यह कहते हुए अपने पार्टी कार्ड फेंक दिये कि ”वे जर्मन जासूसों की पार्टी में नहीं बने रहना चाहतीं।” लेकिन इन उतारों-चढ़ावों ने समोइलोवा और निकोलेयेवा को अपने सांगठनिक, आन्दोलनात्मक और प्रचारात्मक कार्यों को और तेज़ करने की प्रेरणा दी।
(अगले अंकों में जारी)
बिगुल, जून 2009
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन