पंजाब में चुनावी पार्टियों की नशा-विरोधी मुहिम का ढोंग
छिन्दरपाल
पंजाब में आम आबादी, ख़ासकर नौजवानों को शिकार बना रहे नशे के कारोबार का मुद्दा पिछले काफ़ी समय से गर्माया हुआ है। शासक पार्टी अकाली दल से लेकर विरोधी संसदीय पार्टियाँ भी नशों का विरोध करने में लगी हुई हैं। कहीं अकाली दल सरहद पर धरना देने का ड्रामा कर रही है तो कहीं भाजपा नशों के ख़िलाफ़ जागरूकता रैली करने का ऐलान कर रही है तो कांग्रेसियों द्वारा की गयी ललकार रैली में उनकी सरकार आने पर नशों को जड़ से मिटाने की बातें की जा रही हैं। सभी पार्टियाँ इस मुद्दे को लेकर एक-दूजे को पूरा ज़ोर लगाकर बुरा-भला कह रही हैं, इस मुद्दे का फ़ायदा उठाकर अपना वोट बैंक पक्का करने के लिए राजनीतिक रोटियाँ सेंक रही हैं।
हुक्मरानों द्वारा नशों का विरोध एक बात तो दिखाता है कि ये सभी बुर्जुआ पार्टियाँ लोगों के गुस्से से बुरी तरह से डरी हुई हैं। इसके चलते अपनी बची-खुची इज़्ज़त बचाने के लिए इस तरह की ड्रामेबाज़ियाँ करने पर मजबूर हैं। अकाली दल नशों को ख़त्म करना केन्द्र सरकार की ज़िम्मेदारी कह रही है और सरहद पर नशों की तस्करी पर रोक लगाने के लिए केन्द्र सरकार को अर्जियां भेज रही है। लेकिन हाल में नशीले पदार्थों की तस्करी पर हुए खुलासों ने सभी की पोल खोल दी है कि कैसे पंजाब में अकाली दल (बादल) के बड़े-छोटे नेताओं से लेकर अधिकतर अफ़सर तक इस धन्धे में पूरी तरह शामिल हैं।
इस व्यवस्था में जहाँ हर चीज़ के केन्द्र में सिर्फ़ मुनाफ़ा है और जहाँ इंसान की ज़रूरतें गौण हो जाती हैं – वहाँ हर वह धन्धा चलाया जाता है जिसमें अधिक से अधिक पैसा कमाया जा सके। भले ही यह पैसा लोगों की लाशें बिछाकर ही क्यों न कमाया जाये। पंजाब में फल-फूल रहा नशे का कारोबार और नशे में डूब रही जवानी इसका जीता-जागता सबूत है। नशा इस व्यवस्था में एक अतिलाभदायक धन्धा है। हर वर्ष सरकार (चाहे किसी भी पार्टी की हो) हज़ारों करोड़ रुपये की शराब लोगों को पिलाकर अपना ख़ज़ाना भरती है। नशीले पदार्थों की तस्करी के रूप में होने वाली कमाई इससे अलग है। सन् 2012-13 में पंजाब सरकार को सिर्फ़ शराब की बिक्री से लगभग 3500 करोड़ रुपये की आमदनी हुई थी जो अगले वित्तीय वर्ष में बढ़कर 4,000 करोड़ रुपये हो गयी। अब चालू वर्ष के लिए लक्ष्य 4,700 करोड़ रुपये रखा गया है। सन् 2006 तक पंजाब में शराब के ठेकों की संख्या 4192 थी जो अकाली- भाजपा सरकार की मेहरबानी से 12,188 हो चुकी है। शराब की आपूर्ति के लिए जहाँ पंजाब में सिर्फ़ चार फ़ैक्ट्रियाँ थीं आज इनकी संख्या बढ़कर ग्यारह हो चुकी है। शराब की कई नई डिस्टलरियों को मंज़ूरी देने की तैयारियाँ भी चल रही हैं। इस तरह शराब से लेकर ड्रग्स की तस्करी का धन्धा अत्यधिक कमाई का साधन बन चुका है। सरकारों के अलावा शराब उद्योग के मालिकों को इसमें से बेहिसाब मुनाफ़ा होता है। सरकार इन्हें टैक्सों से छूट देती है, नये ठेके खोलने में मदद करती है। इसके बदले में शराब से कमाये मुनाफ़े में से हाकिमों को भी क़ानूनी-ग़ैरक़ानूनी ढंग से अपना हिस्सा मिलता है। इनमें से कई व्यापारी और ठेकेदार कांग्रेस, भाजपा और अकाली दल जैसी पार्टियों से ख़ुद ही जुड़े हुए हैं। भोला ड्रग केस मामले में तो सरहद पार से होती ड्रग्स की तस्करी में अकाली मन्त्री और बादल परिवार के रिश्तेदार बिक्रमजीत सिंह मजीठिया का नाम बार-बार आगे आ रहा है। हालाँकि अपने असर-रसूख के दम पर वह आज भी आज़ाद घूम रहा है। ऐसे में कोई भी यह समझ सकता है कि चुनावी पार्टियों द्वारा छेड़ी गयी नशा विरोधी मुहिम शुद्ध नाटक है और कुछ भी नहीं।
जब हम नशों की बीमारी के ख़ात्मे की बात करते हैं तो सबसे पहले यह सवाल उठता है कि क्या ऐसा सम्भव है सवाल है कि नौजवान नशों के चंगुल में फँसते ही क्यों हैं पहली बात, नशाख़ोरी इस पूँजीवादी समाज में कभी ख़त्म नहीं हो सकती। इसका पहला कारण तो यह है कि नशों का कारोबार आज एक विश्वव्यापी कारोबार है। बेहिसाब मुनाफ़े का साधन होने के चलते मुनाफ़े पर टिकी इस व्यवस्था में, पूँजीपतियों के मैनेजर की भूमिका निभाने वाली सरकारें कभी नहीं चाहेंगी कि यह मुनाफ़े वाला कारोबार बन्द हो। दूसरा, पूँजीवादी समाज लगातार बड़े स्तर पर ऐसी आबादी पैदा करता रहता है जो अपने जीवन से पूरी तरह निराश होती है। इस निराशा का कारण व्यवस्था द्वारा समाज में व्यापक स्तर पर फैलायी गयी बेगानगी, मानवद्रोही सांस्कृति होती है। इसके अलावा लगातार बढ़ती बेरोज़़गारी इस मुनाफ़ाख़ोर व्यवस्था का अन्तर्निहित अंग है। इसके चलते बहुत से नौजवान भविष्य में बेहतर जीवन की कोई उम्मीद की किरण न देखकर निराशा के माहौल में डूबकर नशों की तरफ़ बढ़ जाते हैं। तीसरा, समाज का बड़ा हिस्सा यानी मेहनतकश जनता आज अपनी रोज़़ाना की ज़रूरतें पूरा करने से वंचित है। सारा दिन कारख़ानों-खेतों में काम करने के बाद भी उनकी आमदनी इतनी कम होती है कि तीन वक़्त की रोटी भी ढंग से नसीब नहीं होती। सारा दिन हाड़-तोड़ मेहनत करने के बाद अपने शरीर को चलता रखने के लिए उसे नशे की खुराक देनी ज़रूरी हो जाती है क्योंकि काम करने लायक कम से कम ऊर्जा भी उन्हें नहीं मिलती। चौथी बात, आम आबादी का एक हिस्सा, ख़ासकर नौजवान, तरह-तरह के नशों की ख़ुमारी में ही पड़ा रहे, यह बात इस व्यवस्था के भी हित में है। इसलिए नशों का समूचा कारोबार इस व्यवस्था के भीतर ख़त्म हो पाना बिलकुल भी सम्भव नहीं है। न ही इतिहास में इसका कोई उदाहरण मिलता है कि कभी पूँजीवादी व्यवस्था में ऐसा हुआ हो। केवल समाजवाद के दौर में रूस और चीन जैसे देशों में नशाख़ोरी और इसके सामाजिक कारणों को ख़त्म कर दिया गया था। इसके बारे में जो लोग अधिक जानना चाहते हैं उन्हें अमेरिकी पत्रकार की प्रसिद्ध किताब ‘पाप और विज्ञान’ ज़रूर पढ़नी चाहिए।
लेकिन इसका यह भी अर्थ नहीं है कि समाज में प्रगतिशील शक्तियों को आज इसका विरोध करना ही छोड़ देना चाहिए। पूँजीवादी व्यवस्था में नशों का पूरी तरह ख़ात्मा भले ही सम्भव नहीं है लेकिन नशों के ख़िलाफ़ व्यापक प्रचार और जुझारू आन्दोलन से हुक्मरानों पर दबाव बनाकर व जनता को जागरूक करके कुछ हद तक इस समस्या से निजात पायी जा सकती है। लेकिन इसके लिए हमें चुनावी पार्टियों के झूठे प्रचार से कोई उम्मीद नहीं पालनी चाहिए। इनका कुल मकसद ही लोगों की आँखों में धूल झोंकना है। समाज में काम करने वाली प्रगतिशील ताक़तों को लगातार हुक्मरानों की इन जनविरोधी करतूतों का पर्दाफ़ाश करना चाहिए। हमें हर स्तर पर लोगों को नशे जैसी बीमारियाँ पैदा करने वाली इस पूँजीवादी व्यवस्था के ख़िलाफ़ जागरूक करना चाहिए। हमें लोगों को बताना होगा कि नशे जैसी भयानक समस्या का ख़ात्मा मुकम्मल तौर पर किया जाना सम्भव है लेकिन ऐसा मुनाफ़े पर टिकी पूँजीवादी व्यवस्था में नहीं होगा बल्कि समाजवादी व्यवस्था में होगा जो मुनाफ़े पर टिकी नहीं होगी, जिसका मकसद लोगों का कल्याण होगा।
मज़दूर बिगुल, फरवरी 2015
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