तमाम छात्रों और मज़दूरों को ग़ैर-राजनीतिक बनाकर मुनाफ़े के लिए खटने वाला गुलाम नहीं बनाया जा सकता
राजकुमार
अगले महीने दिल्ली में चुनाव होने वाले हैं और चुनावी राजनीति के इस मौसम में एक बार फिर जनता के नये-नये “मसीहा” उभरने लगे हैं। इससे पहले देश के कई अन्य राज्यों में राजनीतिक उठा-पटक का दौर जारी था और लोकसभा चुनाव से लेकर कभी एक तो कभी दूसरी पार्टी के नेता ख़ुद को जनता की सभी समस्याओं का “समाधान” करने वाले मसीहा के रूप में प्रस्तुत करके सत्ता हथिया चुके हैं।
इन चुनावी सरगर्मियों के बीच देश की आम जनता की स्थिति को दर्शाते कुछ आँकड़ों की तरफ़ ध्यान दें तो हालत यह है कि देश में हर साल एक करोड़ नये काम करने वाले नौजवान श्रम के बाज़ार में आ रहे हैं, जिनमें से सिर्फ़ 5 लाख को ही स्थाई काम मिलता है, जबकि बाक़ी 95 लाख बेरोज़गारी में या कहीं सब्ज़ी-भाजी बेचकर या दिहाड़ी करके किसी तरह जीते हुए काम की तलाश में भटकते रहते हैं (Report on Third Annual Employment and Unemployment Survey 2012-13)। इन्हीं बेरोज़गार नौजवानों के सहारे ‘मेक इन इंडिया’ के नाम पर सरकार की तरफ़ से पूरी दुनिया के पूँजीपतियों को भारत में अपने उद्योग लगाने का न्यौता दिया जा रहा है। इन पूँजीपतियों को मुनाफ़ा कमाने में कोई परेशानी न हो इसके लिए सरकार उन्हें पूरी तरह से “सन्तुष्ट” करने के लिए तत्पर है। इसी के साथ निवेश के लिए “अच्छा-माहौल” बनाने के नाम पर कई सरकारी उपक्रमों, जैसे ओएनजीसी और रेलवे को भी निजी लूट के लिए खोल दिया गया है। और मज़दूरों के बचे-खुचे क़ानूनों को लागू करना तो दूर बल्कि इन क़ानूनों को बदलकर निष्प्रभावी बनाने की कोशिशें तेज़ हो चुकी हैं जिससे पूँजी का निवेश करने वाले देशी-विदेशी पूँजीपतियों को किसी “समस्या” का सामना न करना पड़े।
इन सभी सरगर्मियों के बीच अक्सर छात्रों और मज़दूरों के बीच एनजीओ, धार्मिक संगठनों, बाबाओं, धर्मगुरुओं जैसे अनेक माध्यमों से यह प्रचार किया जाता है कि उन्हें राजनीति के चक्कर में पड़कर अपना समय बर्बाद नहीं करना चाहिए और अपने काम पर ध्यान देना चाहिए। साथ ही सभी धर्मों के कोई न कई राजनीतिक या ग़ैर-राजनीतिक संगठन भी पूरे देश में मौजूद हैं जो अपने-अपने धर्म के नाम पर देश के बेरोज़गार नौजवानों और मज़दूरों के बीच फूट डालकर मूल मुद्दों से उनका ध्यान भटकाने का काम करते हैं। आज छात्रों-युवाओं को “ग़ैर-राजनीतिक” बने रहने का प्रचार करने वाले सभी फ्शुभचिन्तकों” के बारे में गहराई से पड़ताल करने की ज़रूरत है।
सबसे पहले मज़दूरों के ग़ैर-राजनीतिक बने रहने की बात करें तो फ़ैक्टरियों, दफ्तरों और कम्पनियों में मज़दूरी के रूप में जो वेतन उन्हें दिया जाता है और काम की परिस्थितियाँ निर्धारित करने के लिए जो क़ानून बने हैं उनको लागू करवाने का काम प्रशासन द्वारा किया जाता है। और इन क़ानूनों को बनाने और उन्हें लागू करने में आने वाली “समस्याओं” का समाधान करने का काम सत्ता में मौजूद राजनीतिक पार्टियों के निर्देश पर होता है। वर्तमान पूँजीवादी जनतन्त्र में काम करने वाले हर इंसान के जीवन में हर पल मौजूद इस राजनीतिक दख़ल के बावजूद उन्हें यह विश्वास दिलाने की कोशिश की जाती है कि राजनीति उनके जीवन से अलग कोई परायी वस्तु है, और राजनीति करना कुछ विशेष लोगों का काम है। हमारे देश के संसदीय जनतन्त्र के परिप्रेक्ष्य में यह एक सीमा तक सच भी है, क्योंकि वोट बैंक की राजनीति में ज़्यादातर पैसे के दम पर चुनाव लड़ा जाता है जिसमें ठेकेदारों, दलालों और बड़े-बड़े पूँजीपतियों के पैसों पर खड़ी की गयीं राजनीतिक पार्टियों के सिवाय आम लोगों के लिए कोई स्थान नहीं होता। लेकिन ध्यान देने वाली बात यह है कि क्या राजनीति का अर्थ सिर्फ़ वोट डालकर सरकार चुनना ही है। इतिहास की थोड़ी भी जानकारी रखने वाले व्यक्ति को इतना पता होगा कि राजनीति से सिर छुपाकर गुलामों की तरह काम करके आज तक जनता ने कुछ भी हासिल नहीं किया है। गुलामी और साम्राज्यवाद-सामन्तवाद से लेकर वर्तमान पूँजीवादी समाज में आने तक जो भी अधिकार आज आम जनता को मिले हैं वे सभी समय-समय पर पूरी दुनिया की मेहनतकश जनता के किसी न किसी संगठित राजनीतिक संघर्ष और आन्दोलनों के दम पर हासिल किये गये हैं। हर देश में मेहनतकश जनता का जीवन-स्तर उस देश के मज़दूरों के संघर्षों के इतिहास की ही देन है, चाहे प्रत्यक्ष रूप में या अप्रत्यक्ष रूप में।
लेकिन पूँजी के दम पर खड़ी की गयी अनेक राजनीतिक पार्टियाँ लोगों के सामने उनके मसीहा खड़े कर, अपने भाड़े के कार्यकर्ताओं के सहारे समाज के कोने-कोने में मज़दूरों-नौजवानों को गुमराह करने के लिए उन्हें यह विश्वास दिलाने की कोशिश करते हैं कि “राजनीति में समय लगाना समय की बर्बादी है”, “सिर झुकाकर कारख़ानों और फ़ैक्टरियों में अपना समय बेचते रहो” और अगर “काम नहीं करोगे तो खाओगे क्या”, “ब़ाक़ी सारी ज़िम्मेदारी नेताओं पर छोड़ दो”। बचपन से इस तरह के भ्रामक प्रचार के साये में पले-बढ़े लोगों पर इसका असर ज़रूर पड़ता है जो मज़दूरों-नौजवानों को राजनीतिक रूप से उदासीन एक वेतनभोगी गुलाम में तब्दील करने में कोई कसर नहीं छोड़ता।
इसी तरह छात्रों से भी कहा जाता है कि कॉलेज सिर्फ़ पढ़ाई करने के लिए होते हैं जहाँ राजनीति में समय बर्बाद नहीं करना चाहिए। लेकिन साथ ही यह भी कहा जाता है कि छात्र-नौजवान देश का भविष्य होते हैं। लेकिन क्या छात्र-नौजवान देश का भविष्य सिर्फ़ इसलिए होते हैं कि चुपचाप स्कूल-कॉलेज में पढ़ाई करके किसी एक क्षेत्र में विशेषज्ञता हासिल करके कारख़ानों या ऑफ़िसों में सिर झुकाकर मशीनों की तरह काम करने में लग जायें? बिना यह जाने कि वे पढ़कर जिस काम में विशेषज्ञता हासिल कर रहे हैं, उसका क्या सामाजिक महत्व है, क्या उससे जनता का कुछ भला हो रहा है या सिर्फ़ पूँजी की जुगाली करने वाले कुछ मुट्ठीभर लोगों की जेबें गरम हो रही हैं, जो जनता की मेहनत और प्राकृतिक संसाधनों को निचोड़ने के नये-नये तरीक़े ईजाद करने में लगे हैं, और जो काम करने वाली व्यापक आबादी को उदासीन बनाकर और उन्हें आपस में बाँटकर ख़ुद बिना किसी मेहनत के अय्याशी भरी ज़िन्दगी जी रहे हैं। जबकि दूसरी ओर देश-समाज की बड़ी आबादी बेरोज़गारी, कुपोषण और शोषण की शिकार है। क्या छात्रों को ऐसे ही भविष्य के निर्माण के लिए प्रेरणा और शिक्षा दी जाती है जिससे कि आज का छात्र कल किसी कारख़ाने या ऑफ़िस में अराजनीतिक रूप से “शिक्षित” होकर समाज की वर्तमान परिस्थितियों पर कोई सवाल उठाये बिना, कुछ लोगों के मुनाफ़े के लिए उत्पादन के काम में या सेवा करने में लग जाये? ऐसे में हर एक छात्र को सवाल उठाना चाहिए कि क्या राजनीतिक रूप से अशिक्षित करके उन्हें अर्द्ध-शिक्षित उत्पादन मशीन नहीं बनाया जा रहा है।
छात्र और नौजवान देश का भविष्य होते हैं, लेकिन उस तरह नहीं जैसाकि आजकल की शिक्षा-व्यवस्था और पूरा प्रचार तन्त्र में हमें बताया जाता है। छात्र और नौजवान भविष्य में खटने वाले मज़दूर ही नहीं होते हैं, बल्कि इतिहास बनाने वाले राजनीतिक रूप से सचेत मेहनतकश होते हैं, जो विज्ञान और तकनीकी विशेषज्ञता के साथ ही देश की राजनीति और संस्कृति को अपने काम से संगठित एकता बनाकर बदलते आये हैं और नये मूल्यों तथा नये विचारों का सूत्रपात करते हैं। आज छात्रों और मेहनतकश नौजवानों को यह नहीं बताया जाता कि उनकी सारी सृजनशीलता को पुरानी घिसी-पिटी राजनीति, सामाजिक मूल्यों और संस्कृति के पाटों के बीच कुचला जा रहा है और एक उत्पादन मशीन तथा सिर झुकाकर आज्ञा पालन करने वाले रोबोट में बदलने का काम किया जा रहा है।
राजनीति पर अपनी इज़ारेदारी बनाये बैठे लोगों को लगता है कि यदि देश की युवा आबादी को राजनीतिक रूप से उदासीन और अशिक्षित कर दिया जायेगा तो वे बेरोज़गार होकर काम की तलाश में भटकते रहेंगे, या किसी कारख़ाने में या किसी ऑफ़िस में किसी भी शर्त पर काम करने लगेंगे और कुछ मुट्ठीभर देशी-विदेशी पूँजीवादी-साम्राज्यवादी मुनाफ़ाखोरों को देश की प्राकृतिक तथा मानव सम्पदा को खुले आम लूटते हुए देखते रहेंगे। एक सीमा तक वर्तमान प्रचार तन्त्र मज़दूरों और नौजवानों के बीच लम्पट और कूपमण्डूक संस्कृति के माध्यम से ऐसा करने में सफल भी हो रहा है। राजनीति में हिस्सा लेने के नाम पर कुछ राजनीतिक पार्टियाँ “मिस-कॉल” करके सदस्यता दे रही हैं, लेकिन मिस-कॉल करके समाज के भविष्य का ठेका किसी और को दे देना राजनीति नहीं है, बल्कि देश की मेहनतकश जनता के साथ एक मज़ाक़ है। इन सच्चाइयों के बीच भी यह सम्भव नहीं है कि देश की व्यापक आबादी को उसकी अपनी बदहाली के वास्तविक कारण के बारे में हमेशा के लिए अँधेरे में धकेले रखा जाये। पूँजीवाद के रहते जहाँ श्रम शक्ति एक माल हो, और जहाँ इंसान को बाज़ार में बिकने वाले माल में तब्दील कर दिया गया हो, वहाँ छात्रों और मज़दूरों को राजनीतिक रूप से अशिक्षित बनाकर सिर झुकाकर काम करने वाली भेड़ों में तब्दील करके नहीं रखा जा सकता। आने वाले समय में शोषक सम्बन्धों के कारण पैदा हुईं जीवन की बदतर परिस्थितियाँ बार-बार मज़दूरों, किसानों और नौजवानों को अपने अधिकारों के बारे में जानकारी हासिल करने के साथ संघर्षों के इतिहास को समझते हुए मुनाफ़ा-केन्द्रित पूँजीवादी व्यवस्था और समाज में व्याप्त दकियानूसी मान्यताओं और प्रचलनों को बदलने के लिए ख़ुद आगे आने और व्यापक स्तर पर हर प्रकार के शोषण के विरुद्ध संगठित होने का आह्वान करती रहेंगी। और जैसाकि भगतसिंह ने कहा था, कि यह संघर्ष तब तक जारी रहेगा जब तक आदमी द्वारा आदमी के शोषण का पूरी तरह ख़ात्मा नहीं हो जाता।
मज़दूर बिगुल, जनवरी 2015
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