रिको ऑटो मज़दूरों की कहानी!

रिको का एक मज़दूर

‘रिको ऑटो’ यह कम्पनी (दिल्ली-जयपुर हाईवे) गुड़गाँव के 38 माइन स्टोन खटोला गाँव में स्थित है। इस कम्पनी के मालिक का नाम अरविन्द कपूर है। यह कम्पनी देशी-विदेशी ऑटोमोबाइल कम्पनियों के पार्टस-पुर्जे बनाती है। रिको ऑटो कम्पनी के भारत के कई राज्यों में लगभग 8 से 10 प्लाण्ट हैं। (जैसे – चेन्नई, हरिद्वार, गुड़गाँव, मानेसर, धारूहेड़ा, बावल, लुधियाना आदि।) इस कम्पनी में लगभग 2500 मज़दूर काम करते हैं। जिसमें 1000 के आसपास स्थाई मज़दूर हैं, बाक़ी सभी ठेका, ट्रेनी व कैजुअल मज़दूर हैं। स्थाई मज़दूरों को छोड़कर बाक़ी सभी मज़दूर अधिकतर हरियाणा ग्रेड 5640 रुपये पर ही भर्ती होते हैं व कुछ आईटीआई किये मज़दूरों को थोड़ा ज़्यादा 6500-7000 रुपये मिलता है। इस कम्पनी का एक साल का टर्नओवर लगभग एक हज़ार करोड़ रुपये है।

रिको के मज़दूर की मृत्‍यु के बाद रिको व अन्‍य फैक्‍टरियों के मज़दूरों द्वारा किया गया प्रदर्शन, 20 अक्‍टूबर 2009

रिको के मज़दूर की मृत्‍यु के बाद रिको व अन्‍य फैक्‍टरियों के मज़दूरों द्वारा किया गया प्रदर्शन, 20 अक्‍टूबर 2009

रिको के गुड़गाँव प्लाण्ट के मज़दूरों ने तनख़्वाह बढ़ाने व यूनियन बनाने के लिए सितम्बर 2009 में आन्दोलन की शुरुआत की और इस आन्दोलन ने काफ़ी उग्र रूप धारण किया व इसी आन्दोलन में अजीत यादव नाम के मज़दूर की मृत्यु हुई। जिसका कारण कम्पनी मैनेजमेण्ट और बाउंसरों द्वारा हड़ताली मज़दूरों पर अचानक किया गया हमला था। अजीत यादव की मृत्यु के बाद पूरे गुड़गाँव के लगभग एक लाख से ज़्यादा मज़दूर स्वतःस्फूर्त तरीक़े से रिको के मज़दूरों के समर्थन में पूरे हाईवे पर जमा हो गये। (इस घटना की ख़बरें उस समय के समाचारपत्रों व न्यूज़ चैनलों पर लगातार आ रही थीं) इस घटना की ख़बर देश व दुनिया के मज़दूरों को होने लगी। कम्पनी मैनेजमेण्ट व सरकारी तन्त्र मज़दूरों की एकता से दहल उठा। और उस स्वतःस्फूर्त घटना ने यह साबित कर दिया कि मज़दूरों की समस्याएँ चाहे जितनी हों मगर हम मज़दूर एक वर्ग के रूप में एकजुट होकर रहेंगे। और इसके बाद तथाकथित बहुत बड़ी केन्द्रीय ट्रेड यूनियन एटक के नेता गुरूदास गुप्ता ने अपनी नौटंकी करते हुए कम्पनी से 5 किलोमीटर पहले ही टोल प्लाज़ा पर अपनी गिरफ्तारी दे दी। साफ़ है केन्द्रीय ट्रेड यूनियन की आपसी होड़ की वजह से लाखों मज़दूरों का आन्दोलन सही दिशा नहीं ले पाया।

ख़ैर मज़दूरों की इस वर्ग एकजुटता के आगे कम्पनी मैनेजमेण्ट को झुकना पड़ा। मृत मज़दूर अजीत यादव के घरवालों को सम्मानजनक मुआवज़ा मिला। हम मज़दूरों की 4 हज़ार रुपये वेतन में बढ़ोतरी हुई लेकिन साथ ही कम्पनी मैनेजमेण्ट ने मालिकों की तलवे चाटने वाली एक जेबी ट्रेड यूनियन गठित करा दी। और उसके बाद 2009 से आजतक लगभग 300 मज़दूरों को निकाला जा चुका है। ठेकेदार के मज़दूर व कैजुअल मज़दूरों की तो कोई गिनती ही नहीं होती। अब मालिक व मैनेजमेण्ट की नीति यह है कि हाईवे के किनारे की यह ज़मीन बिल्डरों के हाथों सोने के भाव बेच दी जाये। और स्थाई मज़दूरों की जगह पर ठेका मज़दूरों की फ़ौज को गुलामों की तरह खटाकर मुनाफ़ा पीटा जाये। जैसे आज पूरे ऑटो मोबाइल सेक्टर में किया जा रहा है।

 

मज़दूर बिगुल, जनवरी 2015

 


 

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