सही फरमाया प्रधानमन्त्री महोदय!
यह व्यवस्था अनाज सड़ा सकती है लेकिन भुख से मरते लोगों तक नहीं पहुँचा सकती है!
सुजय
पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज़ की जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए भारत के माननीय उच्चतम न्यायालय ने हज़ारों टन अनाज के सड़कर बरबाद हो जाने पर सरकार को ”फटकार” लगायी और कहा कि सड़ रहे अनाज को ग़रीबों में बाँट दिया जाये। ज्ञात हो कि 19 अक्टूबर को भारत सरकार ने माना कि केन्द्रीय सरकार और राज्य सरकारों के गोदामों को मिला दिया जाये तो करीब 1 लाख टन अनाज सड़ गया है। उच्चतम न्यायालय की फटकार पर भारत के अर्थशास्त्री प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह ने अपनी अर्थविद्या का इस्तेमाल करते हुए यह स्पष्ट कर दिया कि सरकार इस बाबत कोई प्रतिबद्धता नहीं जता सकती है। साथ ही प्रधानमन्त्री महोदय ने न्यायपालिका को चेताया कि वह सरकार के कामकाज में हस्तक्षेप करने का प्रयास न करे। उसका काम संसद द्वारा बनाये गये कानूनों की व्याख्या करना और उसके लागू होने या न होने के बारे में पैदा होने वाले विवादों का निपटारा करना है। वह शासन के मसलों में दख़ल न दे। आगे ”मानवतावादी”प्रधानमन्त्री ने कहा कि सरकार के लिए सड़ रहे अनाज को ग़रीबों में वितरित कर पाना मुमकिन नहीं है। यानी कि अनाज सड़ जाये तो सड़ जाये, वह भूख से मरते लोगों के बीच नहीं पहुँचना चाहिए। लेकिन क्यों? सामान्य बुद्धि से यह सवाल पैदा होता है कि जिस समाज में लाखों लोग भुखमरी और कुपोषण के शिकार हों वहाँ आख़िर क्यों हर साल लाखों टन अनाज सड़ जाता है, उसे चूहे खा जाते हैं या फिर न्यायालय ही उसे जला देने का आदेश दे देता है? हाल में ही एक अन्तरराष्ट्रीय एजेंसी की रिपोर्ट आयी जिसमें यह बताया गया कि भुखमरी के मामले में भारत 88 देशों की तालिका में 67वें स्थान पर है। श्रीलंका, पाकिस्तान, बांग्लादेश, भूटान और अफ्रीका के कई बेहद ग़रीब देश भी भुखमरी से ग्रस्त लोगों की संख्या में भारत से पीछे हैं। पूरी दुनिया के 42 प्रतिशत कुपोषित बच्चे और 30 प्रतिशत बाधित विकास वाले बच्चे भारत में पाये जाते हैं। लेकिन इसके बावजूद इस देश में लाखों टन अनाज गोदामों में सड़ जाता है। आख़िर क्यों? ऐसा कौन-सा कारण है?
आइये मनमोहन सिंह का कारण सुनते हैं। माननीय प्रधानमन्त्री महोदय कहते हैं कि अगर यह सड़ रहा अनाज भूखे लोगों के बीच बाँट दिया गया तो किसानों के पास अनाज का उत्पादन बढ़ाने का कोई कारण नहीं रह जायेगा! क्या अद्भुत तर्क है! मनमोहन सिंह ने वाकई साबित कर दिया है कि उन्होंने लन्दन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में आम मेहनतकश जनता को मूर्ख बनाने के लिए पूँजीवादी अर्थशास्त्र की ज़बर्दस्त पढ़ाई की है! लेकिन इस दिव्य तर्क के जवाब में एक सवाल दिमाग़ में आता है। किसके लिए अनाज उत्पादन बढ़ाया जाये, जब उत्पादित अनाज ही गोदामों में सड़ जा रहा है? आज जितना अनाज पैदा हो रहा है वह भारत की जनसंख्या को पोषणयुक्त भोजन देने के लिए पर्याप्त है। लेकिन वही अगर गोदामों में सड़ जा रहा है और सरकार उसको वितरित करने से इंकार कर रही है तो आख़िर अनाज का उत्पादन बढ़ाया किसके लिए जाये? साफ है कि मनमोहन सिंह ने यह कुतर्क किसी और सच्चाई को छिपाने के लिए दिया था। यह सच्चाई क्या है?
मनमोहन सिंह पूँजीवादी व्यवस्था के सिद्धान्तकार होने के नाते अच्छी तरह से जानते हैं कि पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था में उत्पादन समाज की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए नहीं बल्कि मुनाफे के लिए होता है। सारा उत्पादन इस बात पर निर्भर करता है कि उसे बाज़ार में मुनाफे पर बेचा जा सकता है या नहीं। बाज़ार में माँग कितनी होगी, यह इससे तय होता है कि जनता का कितना बड़ा हिस्सा ख़रीदने की क्षमता रखता है और कितना ख़रीदने की क्षमता रखता है। पूँजीवादी उत्पादन अपनी प्रकृति से ही ऐसा होता है जो जनता के बड़े हिस्से, यानी मज़दूरों की ख़रीदने की ताकत को कम करता जाता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि निजी स्वामित्व और परस्पर प्रतियोगिता की पूँजीवादी व्यवस्था में हर पूँजीपति अपने मुनाफे को बढ़ाने के लिए उत्पादन की लागत को घटाना चाहता है। जो लागत जितनी घटा पाता है उसके मुनाफे का मार्जिन उतना अधिक होता है। लागत को घटाना तभी सम्भव होता है जब उत्पादन को अधिक से अधिक बड़े पैमाने पर किया जाये, श्रम की उत्पादकता को अधिक उन्नत मशीनें लगाकर बढ़ाया जाये और साथ ही मज़दूरों की मज़दूरी को काम के घण्टे बढ़ाकर और बढ़ती उत्पादकता की तुलना में मज़दूरी को घटाकर और मुद्रास्फीति के ज़रिये बहुसंख्यक आबादी की वास्तविक आय को घटाकर मज़दूर वर्ग को अधिक से अधिक दरिद्र बनाया जाये। इससे लागत घटती है और उत्पादन बढ़ता है। लेकिन साथ ही बड़ी आबादी उस उत्पादन को बाज़ार में ख़रीद पाने की क्षमता खोती जाती है। नतीजा यह होता है कि उत्पादन डम्प पड़ा रह जाता है। लेकिन इसके बावजूद पूँजीपति वर्ग उस उत्पादन को ग़रीब जनता में वितरित नहीं कर सकता, क्योंकि अगर वह ऐसा करेगा तो उत्पाद की प्रति इकाई कीमत घट जायेगी क्योंकि आपूर्ति का पहलू माँग के पहलू पर हावी हो जायेगा। इसलिए कीमतों को गिरने से बचाने के लिए पूँजीपति वर्ग को यह स्वीकार होता है कि केवल30 फीसदी लोग ही उस अनाज को बढ़ी हुई कीमतों पर ख़रीदें और 70 फीसदी लोग भुखमरी और कुपोषण की स्थिति में रहें। अनाज की कीमतों को लागत से कई गुना बढ़ाकर पूँजीपति वर्ग इस बात की भरपाई करने की कोशिश करता है कि कुल लागत से अधिक मुनाफा कमाया जा सके। लेकिन यह भी सम्भव नहीं हो पाता है क्योंकि बढ़ी हुई कीमत चुका पाने की स्थिति समाज के आम मध्यवर्ग तक के लिए मुश्किल होती जाती है, जैसा कि आज की महँगाई में हुआ भी है। दाल,तेल, दूध और सब्ज़ी की कीमतें धीरे-धीरे देश के मध्यवर्ग के निचले हिस्से की पहुँच से भी बाहर होती जा रही हैं। नतीजतन, पूँजीवाद का संकट बढ़ता जाता है। लेकिन इन सबके बावजूद उपभोग को बढ़ाने का कोई भी प्रयास पूँजीपति वर्ग नहीं कर सकता है। क्योंकि संकट के गहराने के साथ यह उसके साथ और अधिक मुश्किल होता जाता है कि वह बेकार पड़े उत्पादन को, जैसे कि सड़ता हुआ अनाज, जनता के बीच वितरित कर पाये। अनाज के इस रूप में वितरित होने पर पूँजीपति वर्ग का घाटा तेज़ी से बढ़ेगा क्योंकि कोई भी उपभोक्ता उससे अनाज ख़रीदने की बजाय, निशुल्क वितरण वाले अनाज को ख़रीदेगा। ऐसे में खाद्यान्न उत्पादन और संसाधन लगे पूँजीपति और धनी किसान तबाह हो जायेंगे। इस तरह हम देख सकते हैं कि पूँजीवाद अतिउत्पादन के संकट के पैदा होने के बावजूद ऐसे उत्पादन सम्बन्धों पर खड़ा होता है जो उसे इस अतिउत्पादन को (जो कि वास्तव में ”अतिउत्पादन” नहीं होता है) ग़रीबों में वितरित करने की इजाज़त नहीं देता है। इस प्रकार पूँजीवाद एक तरफ वस्तुओं की विशाल दुनिया खड़ी करता है और दूसरी तरफ़ दरिद्रों और वंचितों की। यह वस्तुओं की विशाल दुनिया जब बहुत अधिक बढ़ जाती है तो इसे नष्ट कर दिया जाता है (युद्धों के ज़रिये, या प्राकृतिक आपदाओं से बचाव न करके) या फिर नष्ट होने दिया जाता है (जैसे कि अनाज को सड़ने दिया जाना)।
तो हम देख सकते हैं कि मनमोहन सिंह ने एक पूँजीवादी व्यवस्था के नीतिकार होने के नाते पूँजीवादी व्यवस्था की इस अक्षमता को साफ तौर पर न्यायपालिका के सामने रख दिया कि अनाज सड़ जाये तो सड़ जाये, भूखों तक नहीं पहुँचाया जा सकता है। क्योंकि इससे भूख से मरते लोगों की जान तो बचेगी लेकिन पूँजीपति वर्ग को घाटा और तबाही का सामना करना पड़ेगा। और एक पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर यह सम्भव ही नहीं है क्योंकि एक पूँजीवादी सरकार कभी भी यह होने नहीं देगी, भले ही उसके लिए उसे लाखों ग़रीबों को हर साल भूख की बलि चढ़ाना पड़े।
विडम्बना की बात है कि भाकपा, माकपा और भाकपा (माले) के नकली वामपन्थी बुद्धिजीवी और अर्थशास्त्री इस बात को नहीं समझ पा रहे हैं जिसे मनमोहन सिंह और शरद पवार आसानी से समझ रहे हैं। सीताराम येचुरी, उत्सा पटनायक,प्रभात पटनायक, जयति घोष, सी.पी. चन्द्रशेखर जैसे तमाम अर्थशास्त्री सरकार को अपनी वितरण व्यवस्था दुरुस्त करने और अनाज के वितरण को बेहतर बनाने के रास्ते सुझा रहे हैं। क्या वास्तव में वे मानते हैं कि पूँजीवादी व्यवस्था के दायरे के भीतर अनाज को ग़रीबों तक पहुँचाया जा सकता है? नहीं! वे मार्क्सवादी अर्थशास्त्र और पूँजीवादी समाज के आधार को अच्छी तरह समझते हैं। बस दिक्कत यह है कि वे इस ज्ञान को भी पूँजीवाद की सेवा में लगाते हैं। ये वास्तव में मज़दूर वर्ग के मीर ज़ाफर, विभीषण और जयचन्द हैं। सरकार ने इस सबकी तरह-तरह की समितियाँ बना रखी हैं जो बीच-बीच में सरकार को इस बारे में सुझाव देती रहती हैं कि पूँजीवादी समाज के गहराते अन्तरविरोधों पर पानी के छींटों का छिड़काव कैसे किया जाये। वे अच्छी तरह से जानते हैं कि सड़ रहे अनाज को ग़रीबों के बीच पूरी तरह से वितरित कर पाना पूँजीवादी व्यवस्था के लिए असम्भव है। इसलिए वे सुझाव दे रहे हैं कि थोड़ा-सा भी अनाज वितरित कर दिया जाये तो पूँजीवाद की इज्ज़त थोड़ी बच सकती है और उसकी निर्मम सच्चाई को जनता के सामने पूरी तरह से आने से कुछ समय के लिए रोका जा सकता है। इसलिए सारे संसदीय वामपन्थी एक कोरस में सार्वजनिक वितरण व्यवस्था को बेहतर बनाने की माँग उठाते हैं। निश्चित रूप से सार्वजनिक वितरण व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए संघर्ष करना होगा। लेकिन हमें इस गफलत में नहीं रहना चाहिए कि पूँजीवादी व्यवस्था को तबाह कर सर्वहारा सत्त की स्थापना किये बिना, महज़ सार्वजनिक वितरण व्यवस्था को ठीक-ठाक करके भुखमरी और कुपोषण की समस्या का समाधान हो जायेगा। इससे बस मामूली-सी फौरी राहत मिल सकती है। इसीलिए यह एक तात्कालिक माँग है और इस पर संघर्ष करते हुए भी मज़दूर वर्ग को इस सच्चाई से अवगत कराना आवश्यक है कि हमारी लड़ाई सत्त की है, और जब तक हम समाजवाद और सर्वहारा अधिनायकत्व की स्थापना नहीं करते और कल-कारख़ाने, ज़मीन और समस्त प्राकृतिक संसाधन समेत समस्त उत्पादन के साधनों पर मेहनतकश वर्ग का सामूहिक मालिकाना कायम नहीं करते, हमारी भूख, हमारे कुपोषण, हमारी ग़रीबी, हमारी बेरोज़गारी की समस्या का समाधान नहीं हो सकता है। यहीं पर संसदीय वामपन्थी अपनी ग़द्दारी को नंगा कर डालते हैं। वे पूँजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध मज़दूर इन्कलाब की ज़रूरत को नकारते हैं और पूँजीवादी व्यवस्था को अपनी पैबन्दसाज़ी से बचाने में लगे रहते हैं। मज़दूर वर्ग के हिरावल को इन ग़द्दारों की असलियत को पूरी मज़दूर जनता में ले जाना होगा।
पूँजीवाद के स्पष्टवादी प्रतिनिधि (मनमोहन सिंह, मोण्टेक सिंह आहलूवालिया, शरद पवार, आदि) से लेकर उसकी नंगई को ढँकते-तोपते और उसके बर्बर कुकृत्यों के लिए जनता से ‘सॉरी-सॉरी’ कहते हुए पीछे-पीछे चलने वाले संसदीय वामपन्थियों तक की सच्चाई एक ही बात की ओर इशारा कर रही है। यह दिन की रोशनी की तरह साफ है कि यह पूरी पूँजीवादी व्यवस्था पन्द्रह फीसदी लोगों के मुनाफे की ख़ातिर 85 फीसदी जनता के जीवन को नर्क बनाती है; यह मुट्ठी भर अमीरज़ादों की लूट और मेहनतकश जनता की बरबादी पर टिकी एक अमानवीय, अवैज्ञानिक, अतार्किक, अनैतिहासिक और आदमख़ोर व्यवस्था है। इसकी जगह इतिहास का कूड़ेदान है और इसे वहाँ पहुँचाने का काम मेहनतकश करेगा। आज देश के मेहनतकश अवाम को इसी काम के लिए तैयार होना है।
मज़दूर बिगुल, नवम्बर 2010
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