पुलिस हिरासत में बढ़ती मौतें
नमिता
देश की सेवक, जनता की रक्षा करने वाली, अपराधियों को सजा दिलाने वाली, कानून व्यवस्था को बनाये रखने वाली पुलिस, ये कुछ उपमाएँ हैं जो अक्सर पुलिसकर्मियों के लिए इस्तेमाल होते हैं। लेकिन क्या वाकई ऐसा ही है या बिल्कुल इसके उलट। रोज-रोज की घटनाओं में आज एक आम आदमी भी अपने अनुभव से जानता है कि ये जनता के रक्षक नहीं बल्कि भक्षक हैं, वर्दीधारी गुण्डे हैं।
जेलों में कैदियों के साथ अमानवीय बर्ताव, झूठे मामलों में लोगों को फँसा देना, हिरासत में उत्पीड़न की इन्तहा से लोगों की जान ले लेना, ये आम बातें हैं। तभी तो हाईकोर्ट के एक प्रसिध्द वकील ने कहा था कि ‘इस देश की पुलिस एक संगठित सरकारी गुण्डा गिरोह है।’
हिरासत में मौतों की खबर हम आये दिन पढ़ते हैं। एशियन सेण्टर फॉर ह्यूमन राइट्स की हाल की एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले दशक में भारत में हिरासत में मौतों का प्रतिशत बढ़ा है।
1999-2009 के दौरान पुलिस हिरासत में मौतों के मामले में सबसे आगे रहने वाले राज्य
महाराष्ट्र – 246
उत्तरप्रदेश – 165
गुजरात – 139
पश्चिम बंगाल – 112
आंध्रप्रदेश – 99
2000 से 2008 तक जेल में कैदियों की मौतों की घटनाएँ 54.02 प्रतिशत बढ़ी थीं और पुलिस हिरासत में मौतों की घटनाएँ 19.88 प्रतिशत बढ़ गयीं। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और सरकारी विभाग की रिपोर्ट के अनुसार 2000 से2008 के बीच जेल में मरने वालों की संख्या 10,721 थी जबकि पुलिस हिरासत में 1,345।
यह आँख खोल देने वाला आँकड़ा भी 2010 में उस वक्त सामने आया, जब सरकार यातना विरोधी विधोयक लाने के बारे में फैसला कर रही है। हालाँकि कौन नहीं जानता कि सरकार की मंशा वाकई यातना पर रोकथाम करना नहीं, बल्कि दुनिया की निगाह में भारत की छवि बनाना है। अगर इस विधोयक को संसद में मंजूरी मिल जाती है तो मानवाधिकारों के लिए फिक्रमन्द देश के तौर पर भारत की छवि भी दुनिया की नजरों में पुख्ता होगी।
इस देश में कानूनों की कमी नहीं है। कितने मानवाधिकार कानून भी बने हैं लेकिन फिर भी विचाराधीन कैदी के रूप में हजारों बेगुनाह बरसों जेल में सड़ते रहते हैं। लोगों को सिर्फ शक के आधार पर पकड़े और परेशान करने की घटनाएँ भी आम तौर पर होती हैं।
गौरतलब तथ्य यह भी है कि पुलिस हिरासत में अक्सर गरीब लोग ही मारे जाते हैं। उन्हीं को शारीरिक मानसिक यन्त्रणाएँ देकर मारा जाता है। अमीरों के लिए तो जेल में भी सुविधा रहती है।
कहने को तो जेल अपराधों को रोकने के लिए है लेकिन जितनी बुरी तरह बेगुनाहों को जेल में प्रताड़ित किया जाता है वह उन्हें पक्का अपराधी बनने के लिए मजबूर करता है।
हमारे लिए हमारे साथ होने का दम भरने वाली पुलिस द्वारा कानून-व्यवस्था का नाम लेकर आम सीधो-साधो नागरिकों पर आतंक का जंगलराज कायम किया जाता है। जुल्म और अन्याय के ख़िलाफ आवाज उठाने वालों को पुलिस दमन का शिकार होना पड़ता है।
लेकिन सोचने की बात है कि क्या पुलिस के लोग इतने दरिन्दे और वहशी जन्मजात होते हैं या उन्हें वैसा बनाया जाता है। यह व्यवस्था उन्हें वैसा बनाती है, ताकि आम जनता में भय और दहशत फैलाकर निरंकुश पूँजीवादी लूट को बरकरार रखा जा सके। जिस तरह से समाज में आम बेरोजगारों की फौज खड़ी है, उन्हीं में से वेतनभोगियों की नियुक्ति की जाती है और अनुभवी घाघ नौकरशाहों की देखरेख में उन्हें समाज से पूरी तरह काटकर उनका अमानवीकरण कर दिया कर जाता है और इस व्यवस्था रूपी मशीन का नट-बोल्ट बना दिया जाता है।
इसी बात से अन्दाजा लगाया जा सकता है कि क्यों आज तक बहुत ही कम पुलिसकर्मियों को सख्त सजा मिली है। आसानी से समझा जा सकता है कि अगर ऐसा हुआ तो उनका मनोबल गिर सकता है और वे व्यवस्था के वफादार चाकर नहीं बने रह सकते।
बिगुल, मई 2010
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