मई दिवस का सन्देश – स्मृति से प्रेरणा लो! संकल्प को फौलाद बनाओ! संघर्ष को सही दिशा दो!
मजदूर साथियो! नयी सदी में पूँजी के खिलाफ वर्ग युद्ध में फैसलाकुन और मुकम्मल जीत के लिए आगे बढ़ो!!
सम्पादक मण्डल
जब तक लोग कुछ सपनों और आदर्शों को लेकर लड़ते रहते हैं, किसी ठोस, न्यायपूर्ण मकसद को लेकर लड़ते रहते हैं, तब तक अपनी शहादत की चमक से राह रोशन करने वाले पूर्वजों को याद करना उनके लिए रस्म या रुटीन नहीं होता। यह एक जरूरी आपसी, साझा, याददिहानी का दिन होता है, इतिहास के पन्नों पर लिखी कुछ धुँधली इबारतों को पढ़कर उनमें से जरूरी बातों की नये पन्नों पर फिर से चटख रोशनाई से इन्दराजी का दिन होता है, अपने संकल्पों से फिर नया फौलाद ढालने का दिन होता है।
संस्कृत काव्यशास्त्र के रचयिताओं ने स्मृति (अतीत की जानकारी और समझ), मति (वर्तमान की समझ) और प्रज्ञा (भविष्य को ऑंकने-समझने की क्षमता) के आपसी रिश्तों की बात की है। जीवन और इतिहास में भी चेतना की इन तीन गतियों या खास गुणों की बुनियादी भूमिका होती है। जिन्दगी के हालात को बदलने की सतत जारी प्रक्रिया के दौरान, स्मृति हमारी मति समृद्ध करती है और फिर प्रज्ञा आलोकित होती है। प्रज्ञा फिर हमारी गति को समृद्ध करती है और मति फिर स्मृति को जरूरी मार्गदर्शन के लिए टटोलती हुई उसका नवीकरण करती है और इस तरह इस क्रम को हर बार उन्नततर धरातल पर दोहराया जाता है।
अक्सर ऐसा होता है कि लोग लड़ते हैं और हारते हैं और हार के बावजूद, वे पाते हैं कि अन्तत: उन्हें वह हासिल हो गया है, जिसके लिए वे लड़े थे। लेकिन तब वे पाते हैं कि वास्तव में उससे आगे की किसी चीज को पाने के लिए उन्हें लड़ना है और वे उसकी तैयारियों में जुट जाते हैं। अक्सर ऐसा भी होता है कि लोग कुछ सपनों-आदर्शों के लिए लड़ते हैं और जीतने के बाद उन्हें अमल में उतारना भी शुरू कर देते हैं। इस सिलसिले में वे नौसिखुए की तरह कुछ अनगढ़ गढ़ते हैं, गलतियाँ करते और सीखते हैं। फिर उन्हें दिल तोड़ देने वाली हार का सामना करना पड़ता है। ऐसा लगता है कि सब कुछ खो-बिखर गया और हालात फिर एकदम वैसे ही हो गये, जैसे उनकी जीत के पहले थे। लेकिन हताशा और संशय से उबरने के बाद वे पाते हैं कि हालात एकदम पहले जैसे नहीं हैं। इन नये हालात में वे फिर से अपने उन्हीं सपनों-आदर्शों के लिए लड़ना शुरू करते हैं तो पाते हैं कि अब उन्हें एक नये उन्नततर धरातल पर लड़ना है और विगत के अनुभवों की समझ (स्मृति) और नये वर्तमान की समझ (मति) ने उनके सपनों-आदर्शों का नवीकरण करते हुए उन्हें भी उन्नत बना दिया है, यानी उनकी प्रज्ञा का विस्तार कर दिया है। लोग पाते हैं कि उनकी लड़ाई की जमीन उन्नत हो गयी है; नीति, रणनीति और रणकौशल बदल गये हैं, लेकिन पूरी लड़ाई में रोजमर्रे की छोटी-छोटी लड़ाइयों की कड़ियाँ पिरोते हुए कई बार मुद्दों के स्तर पर पीछे लौटकर शुरुआत उन्हें उन प्रारम्भिक स्तर की माँगों से करनी पड़ती है, जो लोगों ने कभी हासिल कर ली थीं और जो अब फिर उनसे छीन ली गयी हैं। ये कुछ बुनियादी नारे और मुद्दे पुराने लगते हुए भी नये होते हैं क्योंकि लड़ाई की जमीन (परिप्रेक्ष्य) बदल चुकी होती है। लगता है कि शुरुआत फिर वहीं से करनी पड़ रही है, लेकिन वास्तव में यह एक नयी शुरुआत होती है।
अब से 124 वर्षों पहले मई दिवस के वीर शहीदों – पार्सन्स, स्पाइस, एंजेल, फिशर और उनके साथियों के नेतृत्व में शिकागो के मजदूरों ने आठ घण्टे के कार्यदिवस के लिए एक शानदार, एकजुट लड़ाई लड़ी थी। तब हालात ऐसे थे कि मजदूर कारखानों में बारह, चौदह और सोलह घण्टों तक काम करते थे। काम के घण्टे कम करने की आवाज उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य से ही यूरोप, अमेरिका से लेकर लातिन अमेरिकी और एशियाई देशों तक के मजदूर उठा रहे थे। पहली बार 1862 में भारतीय मजदूरों ने भी इस माँग को लेकर कामबन्दी की थी। 1 मई, 1886 को पूरे अमेरिका के 11,000 कारखानों के तीन लाख अस्सी हजार मजदूरों ने आठ घण्टे के कार्यदिवस की माँग को लेकर एक साथ हड़ताल की शुरुआत की थी। शिकागो शहर इस हड़ताल का मुख्य केन्द्र था। वहीं 4 मई को इतिहास-प्रसिद्ध ‘हे मार्केट स्क्वायर गोलीकाण्ड’ हुआ। फिर मजदूर बस्तियों पर भयंकर अत्याचार का ताण्डव हुआ। भीड़ में बम फेंकने के फर्जी आरोप (बम वास्तव में पुलिस के उकसावेबाज ने फेंका था) में आठ मजदूर नेताओं पर मुकदमा चलाकर पार्सन्स, स्पाइस, एंजेल और फिशर को फाँसी दे दी गयी। अपने इन चार शहीद नायकों की शवयात्रा में छह लाख से भी अधिक लोग सड़कों पर उमड़ पड़े थे। पूरे अमेरिकी इतिहास में इतने लोग केवल दासप्रथा समाप्त करने वाले लोकप्रिय अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन की हत्या के बाद, उनकी शवयात्रा में ही शामिल हुए थे।
शिकागो की बहादुराना लड़ाई को ख़ून के दलदल में डुबो दिया गया, पर यह मुद्दा जीवित बना रहा और उसे लेकर दुनिया के अलग-अलग कोनों में मजदूर आवाजें उठाते रहे और कुचले जाते रहे। काम के घण्टे की लड़ाई उजरती ग़ुलामी के खिलाफ इंसान की तरह जीने की लड़ाई थी। यह पूँजीवाद की बुनियाद पर चोट करने वाला एक मुद्दा था। इसे उठाना मजदूर वर्ग की बढ़ती वर्ग-चेतना का, उदीयमान राजनीतिक चेतना का परिचायक था। इसीलिए मई दिवस को दुनिया के मेहनतकशों के राजनीतिक चेतना के युग में प्रवेश का प्रतीक दिवस माना जाता है।
शिकागो के मजदूरों को कुचल दिया गया। पूरी दुनिया में 8 घण्टे के कार्यदिवस की माँग उठाने वाले मजदूर आन्दोलनों को कुछ समय के लिए पीछे धकेल दिया गया। लेकिन पूँजीवादी व्यवस्था को चलाने वाले दूरदर्शी नीति-निर्माता यह समझ चुके थे कि इस माँग को दबाया नहीं जा सकता और पूँजीपतियों के हित में पूँजीवाद को बचाने के लिए 8 घण्टे कार्यदिवस के लिए कानून बना देना ही उचित होगा। बीसवीं सदी के शुरुआती दशकों में ही दुनिया के ज्यादातर देशों में ऐसे कानून बनाये जा चुके थे। हालाँकि उन्नत मशीनें लाकर, कम समय में ज्यादा उत्पादन करके मजदूर के शोषण का सिलसिला फिर भी जारी रहा (बल्कि पहले से भी ज्यादा मुनाफा निचोड़ा जाने लगा) फिर भी मजदूर को सोने-आराम करने, परिवार के साथ समय बिताने के लिए, इंसान की तरह जीने के लिए, कुछ वक्त नसीब होने लगा। हालाँकि एक समस्या यह भी थी कि कानून बनने के बावजूद, इसके प्रभावी अमल के लिए मजदूर वर्ग को लगातार लड़ना पड़ा और असंगठित मजदूरों के लिए यह कानून, और ऐसे तमाम कानून कभी भी बहुत प्रभावी नहीं रहे।
बात अब केवल काम के घण्टों की नहीं रह गयी थी। मजदूर अब अपनी ऐसी तमाम राजनीतिक माँगों को उठाने लगे थे। पेशागत संकुचित वृत्तिा टूटने लगी थी। केवल अपने ही कारखाने या अपने ही पेशे के मजदूरों से जुड़े मसलों को उठाने और कुछ आर्थिक माँगों की सँकरी चौहद्दी तक कैद रहने के बजाय मजदूर अब उन्नत वर्ग-चेतना से लैस होकर अपने पूरे वर्ग के आम हितों और राजनीतिक अधिकारों की माँग उठाने लगे थे। इसमें इतिहास की गति-नियति को वैज्ञानिक ढंग से समझने वाले हरावल तत्तवों ने – वैज्ञानिक भौतिकवादी दर्शन को मानने वाले लोगों ने विशेष भूमिका निभायी। उन्होंने मजदूर आन्दोलन में वैज्ञानिक समाजवादी विचारों के बीज डाले। उन्होंने मजदूर वर्ग को बताया कि अपनी राजनीति का वर्चस्व स्थापित करके ही वे पूँजी की आर्थिक जकड़बन्दी को तोड़ सकते हैं। उन्होंने मजदूर वर्ग को बताया कि केवल इसी चौहद्दी के भीतर कुछ सहूलियतें और दुअन्नी-चवन्नी माँगते रहने के बजाय मजदूर वर्ग को उजरती ग़ुलामी को ही समाप्त करने के बारे में सोचना होगा। पूँजीवाद को कब्र तक पहुँचाना मजदूर वर्ग का ऐतिहासिक मिशन है। लेकिन हर लड़ाई या मोर्चे की सबसे बड़ी कमजोरी भितरघाती तत्तव होते हैं। मजदूर आन्दोलन के ऐसे भितरघाती वे अर्थवादी, टे्रड यूनियनवादी थे, जो मजदूरों को अपनी राजनीतिक लड़ाई और ऐतिहासिक मिशन को भुलाकर केवल तात्कालिक आर्थिक मुद्दों और कुछ सहूलियतों के लिए लड़ने की नसीहत देते रहते थे। मजदूर आन्दोलन के भितरघाती वे संशोधनवादी थे जो मजदूरों को बताते थे कि पूँजीवादी राज्यसत्ता का धवंस करना – यानी क्रान्ति – जरूरी नहीं है। मजदूर वर्ग चुनाव जीतकर संसद में बहुमत ला देगा तो पूँजीपति उसे सरकार बनाकर समाजवाद लाने का मौका देने को मजबूर होंगे। मजदूर आन्दोलन में ऐसे विभीषण, जयचन्द और मीरजाफर पिछले सौ सालों से भी अधिक समय से तरह-तरह के भेस बदलकर मौजूद रहे हैं और उनकी शातिराना चालें आज भी जारी हैं। बीसवीं शताब्दी के शुरुआती दशकों में इन भितरघातियों को सरेआम नंगा करके दौड़ा लेने के बाद ही मजदूर वर्ग अपनी राजनीतिक लड़ाई आगे बढ़ा पाया था। एक बार जब राजनीतिक चेतना और राजनीतिक लड़ाई आगे विकसित हुई तो फिर उसे आखिरकार राज्यसत्ता दखल की लड़ाई बनना ही था।
मजदूर वर्ग ने रूस में अक्टूबर 1917 में पूँजीपति वर्ग की राज्यसत्ता का धवंस करके सर्वहारा राज्यसत्ता की स्थापना की। इसके पहले, मई दिवस से भी पहले, 1871 में पेरिस के मजदूर पूँजीवादी राज्यसत्ता को उखाड़कर प्रफ़ांस की राजधानी पेरिस में 72 दिनों तक कम्यून का शासन चला चुके थे। यह पहला प्रयोग कुछ ही समय तक टिका था, लेकिन इससे मजदूर वर्ग को समाजवाद के दौर की राज्यसत्ता और नीतियों के बारे में बेशकीमती सबक मिले थे।
सोवियत संघ में मजदूर वर्ग ने एक लम्बी लड़ाई लड़कर पूँजीपति वर्ग के प्रतिरोध को चकनाचूर किया, पूरी दुनिया के साम्राज्यवादियों की घेरेबन्दी, हमले और साजिशों को नाकाम किया और समाजवाद के निर्माण को आगे बढ़ाया। इतिहास में पहली बार उत्पादन के साधनों के निजी स्वामित्व का खात्मा हुआ – मजदूर राज्य ने कारखानों का राष्ट्रीकरण और खेतों का सामूहिकीकरण किया जो मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण के खात्मे की दिशा में पहला बुनियादी कदम था। उजरती ग़ुलामी के खात्मे के साथ, उत्पादक शक्तियों की अभूतपूर्व गति से तरक्की हुई। न केवल आर्थिक, बल्कि सामाजिक-सांस्कृतिक प्रगति के भी नये कीर्तिमान स्थापित हुए। स्त्रियों के मुक्त होने और स्त्री-पुरुष समानता कायम होने के साथ ही मानव-समाज की असली सुन्दरता निखरकर सामने आयी। सोवियत समाज में स्वास्थ्य, शिक्षा नि:शुल्क थे। सामाजिक अपराध नगण्य हो चले थे। बेरोजगारी समाप्त हो चली थी। इन्हीं सबके चलते समाजवाद ने जनसमुदाय की वह एकजुट ताकत हासिल की थी, जिसके बूते (दो करोड़ 70 लाख लोगों की अभूतपूर्व कुर्बानी देकर) सोवियत संघ ने फासीवादी राक्षस को मिट्टी में मिलाकर पूरी दुनिया को उसके कहर से बचाया।
लेकिन इन महान उपलब्धिायों के बावजूद मजदूर वर्ग का वास्तविक लक्ष्य – हर प्रकार की असमानता और शोषण के बारीक रूपों से भी इंसानियत की पूरी आजादी – अभी काफी दूर था। पूँजीवादी उत्पादन के छोटे से छोटे रूप के खात्मे के बाद भी समस्या माल के रूप में श्रम के खरीद-फरोख्त के खात्मे की थी, शारीरिक श्रम-मानसिक श्रम के अन्तर से पैदा होने वाले विशेषाधिकारों के खात्मे की थी, वर्गीय असमानता के हजारों वर्षों के दौरान निर्मित उफपरी ढाँचे – संस्कृति, आचार-विचार, सामाजिक मूल्यों-संस्थाओं – को बदलने की थी और समूचे मेहनतकश जनसमुदाय को उस स्तर तक शिक्षित-सुसंस्कृत बनाने की थी कि वह ग्रासरूट स्तर से सीखते हुए उफपर तक, राजकाज के सभी कामों को ख़ुद सामूहिक तौर पर सँभाल सके। पहली बार मजदूर वर्ग समाजवाद का निर्माण कर रहा था, अनगढ़ तरीके से और गलतियाँ करके सीखते हुए, क्योंकि उसके सामने अतीत की कोई व्यावहारिक मिसाल नहीं थी। समस्या उसके सामने पूरी विश्व-पूँजी की आर्थिक-राजनीतिक-फौजी ताकत की थी और उससे भी बड़ी समस्या देश के भीतर की उन छुपी हुई समाजवाद-विरोधी ताकतों की थी, जो विशेषाधिकार और शासन करने की अपनी ताकत छोड़ना नहीं चाहते थे। ऐसी ताकतें मजदूर राज्यसत्ता और मजदूर वर्ग की पार्टी के भीतर भी थीं। ये पूँजीवादी राह के राही वैसे ही लोग थे, जैसे इन्कलाब के पहले के समय में ट्रेड यूनियनवादी, अर्थवादी और संसदवादी नामधारी मजदूर नेता होते हैं। इनकी, इनकी नीतियों और उनके मकसद की तथा इनके सामाजिक-आर्थिक आधार की सही शिनाख्त नहीं हो पाने के कारण सोवियत संघ में इनके खिलाफ सही तरीके से वर्ग-संघर्ष नहीं चल सका। वर्ग शक्तियों का सन्तुलन बदलता रहा, ये ताकतें मजबूत होती रहीं और मौका देखकर 1955-56 के वर्षों में इन्होंने सत्ता हथिया ली। झण्डे का रंग वही रहा, पर पार्टी और राज्य का चरित्र बदल गया। समाजवादी राजकीय और सामूहिक सम्पत्तिा पूँजीवादी किस्म का पब्लिक सेक्टर बन गयी। फिर 1990-91 में कलई भी उतर गयी। ‘पब्लिक सेक्टर’ की जगह खुले तौर पर प्राइवेट सेक्टर वाला पूँजीवाद आ गया। 1949 में चीन में क्रान्ति हुई और साम्राज्यवाद से मुक्ति और सामन्तवाद के खात्मे के बाद वहाँ भी समाजवाद का निर्माण शुरू हुआ। चीन के मेहनतकश जनसमुदाय और उसके नेतृत्व के सामने सोवियत संघ की उपलब्धिायों और नाकामयाबियों की नजीर थी। उनसे सीखकर क्रान्तिकारी नेतृत्व में चीनी जनता ने समाजवाद का निर्माण शुरू किया। सोवियत संघ में सत्तारूढ़ नकली कम्युनिस्टों के विरुद्ध संघर्ष चलाकर उन्हें बेनकाब किया और अपने देश के भीतर भी ऐसे पूँजीवादी राह के राहियों के खिलाफ संघर्ष भी चलाये। समस्या यह थी कि चीन एक बेहद पिछड़ा हुआ, किसानी अर्थव्यवस्था वाला देश था। वहाँ का मजदूर वर्ग तादाद के हिसाब से कम और चेतना के हिसाब से पिछड़ा था। फिर भी, कठिन संघर्षों में तपकर वहाँ मजदूर वर्ग की पार्टी मजबूत और समझदार बनी। आखिर, 1966 तक आते-आते (सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान) चीन के समाजवादी प्रयोगों में यह रास्ता निकल ही गया कि समाजवादी समाज में वर्ग-संघर्ष कैसे चलाया जाये और पूँजीवाद की वापसी कैसे रोकी जाये। रास्ता तो निकल गया, पर पूँजीवाद की वापसी रोकी नहीं जा सकी। 1976-77 में समाजवाद का झण्डा वहाँ भी गिर गया। वजह साफ थी। एक तो चीन में समाजवाद की वस्तुगत जमीन शुरू से कमजोर थी। दूसरे, सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के देशों में मजदूर राज के पतन के बाद, दुनिया में वह यूँ भी अलग-थलग पड़ गया था। तीसरे, समाजवादी समाज में वर्ग-संघर्ष की राह समझने तक इतना समय लग चुका था कि वर्ग-शक्ति सन्तुलन बदल चुके थे। चौथे, इस समझ को पहली बार अमल में लाते हुए, जाहिर है कि कुछ गलतियाँ हुई थीं।
पूरी दुनिया में समाजवाद का परचम गिरने के बाद, इतिहास मानो उलटकर, कुछ वक्त के लिए पीछे की ओर चल पड़ा। पूँजी की ताकतों ने श्रम की ताकतों को एकदम कोने में धकेल दिया। विशेषकर, 1990 के बाद, पूरी दुनिया में उदारीकरण-निजीकरण की जो लहर चली, उसमें मजदूरों ने उन अधिकांश अधिकारों को खो दिया जो उन्होंने लगभग एक शताब्दी लम्बी लड़ाई के दौरान हासिल किये थे। सारी सामाजिक सुरक्षाएँ छीन ली गयीं। लगभग सभी राजनीतिक अधिकार निरस्त कर दिये गये। कागजों पर कुछ कानून मौजूद रहे, श्रम विभाग भी मौजूद रहे, लेकिन वास्तव में, कारखानों में मजदूरों की स्थिति वैसी हो गयी जैसी यूरोप में उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में थी। संगठित मजदूरों का हिस्सा कारखानों में भी सिकुड़कर, बेहद कम हो गया। आज ज्यादातर मजदूर ठेका, दिहाड़ी, पीस रेट पर काम करते हैं जिनके साप्ताहिक अवकाश तक नहीं होते हैं, काम के घण्टे बारह-चौदह तक होते हैं, ओवरटाइम की मजदूरी सिंगल रेट पर ही मिलती है और पी.एफ., पेंशन, ई.एस.आई., स्वास्थ्य-सुविधा, आवास भत्ता कुछ भी नहीं मिलता। दुर्घटनाओं के मुआवजे देने के बजाय गुण्डागर्दी करके भगा दिया जाता है। स्त्री मजदूरों की दशा तो और भी नारकीय है। कहने को श्रम कानून, श्रम विभाग और श्रम न्यायालय अभी भी मौजूद हैं, पर मजदूरों के लिए उनका कोई मतलब नहीं है। समय-समय पर कुछ राहतें, रियायतें भी दी जाती हैं, कुछ कानून भी बनते हैं और प्रशासनिक सुधार के कुछ वायदे भी होते हैं, कुछ कवायदें भी होती हैं, वह भी तब जब ऍंधोरगर्दी एकदम हद पार कर जाती है और तमाम पस्ती के बावजूद मजदूर भड़क उठते हैं, या फिर तब, जब पूँजीवादी जनवाद को अलफ नंगा होने से बचाना जरूरी हो जाता है।
यह है मजदूर वर्ग की जिन्दगी की आज की हकीकत। ऐसा लगता है कि उसे वापस उन्नीसवीं शताब्दी में, मई 1886 और 1871 के पेरिस कम्यून के दिनों से भी काफी पीछे धकेल दिया गया है। लगता है कि जैसे, एकबारगी सब कुछ खो-बिखर गया है। पिछली शताब्दी के अन्तिम दशक के वर्षों में ऐसा लगता था मानो, अब पीछे लौटकर लड़ाई 1886 के शिकागो मजदूर आन्दोलन के दिनों से शुरू करनी पड़ेगी; काम के घण्टे आदि की वही माँगें, वही स्थितियाँ…
लेकिन नयी शताब्दी के शुरुआती वर्षों तक आते-आते हालात काफी बदले हुए दिखने लगे। आज मजदूर वर्ग की लड़ाई के कई नारे (काम के घण्टे, काम की परिस्थितियाँ, बुनियादी सुविधाएँ, सामाजिक सुरक्षा आदि) भले ही वही हों, लेकिन लड़ाई की जमीन बदल गयी है और परिप्रेक्ष्य बदल गया है। उत्पादन के तौर-तरीकों में आये बदलावों के चलते मजदूर वर्ग को पुराने मुद्दों पर नयी लड़ाई लड़नी है और ख़ुद को नये ढंग से संगठित करना है। ज्यादातर मजदूर दिहाड़ी और ठेका मजदूर हैं, पर वे उन्नत स्तर के उत्पादन-तन्त्र में काम करते हैं। साथ ही, एक कारखाने की चौहद्दी में बँधाव से पैदा होने वाली संकुचित वृत्तिा उनमें कम है। उनकी ज्यादातर माँगें प्रकृति से राजनीतिक हैं और पूँजीवादी ढाँचे की चौहद्दी को आज वे आसानी से देख सकते हैं। इन मजदूरों में ट्रेड यूनियन के धन्धोबाज नेताओं की पैठ-पकड़ भी कम है। मुख्य समस्या इन मजदूरों को जागृत, लामबन्द और संगठित कर सकने वाले एक नये क्रान्तिकारी नेतृत्व की है, जो वर्ग संघर्ष की प्राथमिक पाठशाला (ट्रेड यूनियन) को और उसके पाठयक्रम को आज के हिसाब से संगठित कर सके, जो मजदूर वर्ग को एक बार फिर उसके ऐतिहासिक मिशन से परिचित कराये, जो मजदूर वर्ग को विभिन्न मंचों और कार्रवाइयों के दौरान मजदूर वर्ग की सामूहिक पहलकदमी और सर्जनात्मकता को विकसित करे और उसे यह विश्वास दिलाये कि उत्पादन, राजकाज और समाज के संचालन का काम और फैसला करने की ताकत वह अपने हाथों में ले सकता है। केवल उसकी नहीं बल्कि मानव जाति की मुक्ति का एकमात्र यही रास्ता है। मानव जाति के निवासस्थल – इस पृथ्वी को भी पूँजीवाद मुनाफे की हवस में इस कदर तबाह कर रहा है कि शायद इस सदी के अन्त तक यह रहने लायक ही न रह जाये। इसलिए पृथ्वी पर मनुष्य के जीवन को बचाने के लिए लोभ-लाभ पर टिके सामाजिक ढाँचे को और लोभ-लाभ की संस्कृति को नष्ट करना होगा और यह काम केवल दुनिया के मजदूर कर सकते हैं जिनके पास खोने को सिर्फ उजरती ग़ुलामी की बेड़ियाँ हैं।
मजदूर वर्ग का इतिहास पिछले डेढ़ सौ से भी अधिक वर्षों के संघर्षों का इतिहास है, कई सर्वहारा क्रान्तियों और समाजवाद के संघर्ष और निर्माण का इतिहास है। मजदूर वर्ग के उन्नत वर्ग-सचेत तत्तव और नेतृत्वकारी तत्तव इस सच्चाई को जानते हैं। वैज्ञानिक विचारधारा से लैस मजदूर वर्ग के क्रान्तिकारी हरावल चाहे आज जिस भी अवस्था में हों, पर वे हैं और अपनी आस्थाओं- सपनों-आदर्शों के साथ सक्रिय हैं। उनकी मति स्मृति को जगाकर स्वयं को समृद्ध करेगी और नयी प्रज्ञा को आलोकित करेगी। इतिहास की शिक्षाएँ सर्वहारा क्रान्तिकारियों को वर्तमान को समझने में मदद करेंगी और पुनर्नवा भविष्य-स्वप्नों को नयी विधि से परियोजनाओं में ढालने का मार्ग प्रशस्त करेंगी। फिर से नया मजदूर आन्दोलन नयी सदी में समाजवादी क्रान्ति के नये संस्करण के निर्माण की चेतना से लैस होगा। इसलिए यह मायूसी का नहीं, बल्कि नये संकल्पों का समय है। यह इतिहास का अन्त नहीं है। पूँजीवाद अजर-अमर नहीं है। एक नये प्रकार की दीर्घकालिक मन्दी के रूप में फूट पड़ने वाला पूँजीवाद का असाध्य ढाँचागत संकट भी यही साबित कर रहा है। इतिहास में पहले भी सामाजिक क्रान्तियाँ फैसलाकुन जीत के पहले हारती रही हैं और फिर लौटकर दूनी ताकत से हमला करके जीतती रही हैं। आश्चर्य नहीं कि पूँजीवादी विश्व को आज फिर कम्युनिज्म का हौवा सता रहा है।
दुनिया के मजदूर वर्ग की बिखरी हुई हरावल ताकतों को सबसे पहले यह बात समझनी होगी कि कुछ परिस्थितियों और कुछ नारों की अतीत से सादृश्यता के बावजूद हमें दरअसल एक नयी जमीन पर पूँजी की उन ताकतों से मोर्चा बाँधकर लड़ना है जो उत्पादन, शोषण और राजकाज के तरीकों को काफी हद तक बदल चुकी हैं। अत: नये वर्ग-महासमर की रणनीति भी अलग होगी, आम रणकौशल भी अलग होंगे। पुरानी क्रान्तियों से सीखना है, उन्हें दोहराने की कोशिश मूर्खता होगी। नायक और नेतृत्व नहीं, जनता इतिहास बनाती है। यदि आज की क्रान्तिकारी ताकतें आज की सच्चाई को समझकर नयी क्रान्ति की राह नहीं निकाल सकेंगी तो जनसमुदाय के बीच से नये हिरावल आगे आयेंगे और इस काम को अंजाम देंगे। इतिहास रुका नहीं रहेगा।
मई दिवस के हमारे नारे आज भी वही हैं। काम के घण्टे का सवाल और ऐसे तमाम सवाल आज भी हैं। हमारे आज के नये सिरे से शुरू हो रहे मजदूर वर्ग के राजनीतिक संघर्ष में ये नारे प्रासंगिक हैं, पर लड़ाई की नयी जमीन ने इन नारों को भी नयी अर्थवत्ता और ताजगी दे दी है। मजदूर वर्ग को फिर से राजनीतिक अधिकारों के लिए लड़ते हुए राज्यसत्ता-दखल के सवाल को केन्द्रीय मुद्दा बनाना है। इसीलिए, जैसा कि हमने शुरू में ही लिखा है, कई बार मुद्दों के स्तर पर पीछे लौटकर शुरुआत हमें उन प्रारम्भिक माँगों से करनी पड़ती हैं, जो हमने कभी हासिल कर ली थीं और जो फिर हमसे छीन ली गयीं। ऐसे में लगता है कि पीछे लौटकर हम फिर वहीं से शुरू कर रहे हैं, पर वास्तव में वह एक नयी शुरुआत होती है।
मौत की सजा सुनाये जाते समय, मई दिवस के शहीद मजदूर नेता स्पाइस ने अदालत में चिल्लाकर कहा था, ”अगर तुम सोचते हो कि हमें फाँसी पर लटकाकर तुम मजदूर आन्दोलन को, गरीबी और बदहाली में कमरतोड़ मेहनत करने वाले लाखों लोगों के आन्दोलन को कुचल डालोगे, अगर यही तुम्हारी राय है – तो ख़ुशी से हमें फाँसी दे दो। लेकिन याद रखो – आज तुम एक चिंगारी को कुचल रहे हो, लेकिन यहाँ-वहाँ, तुम्हारे पीछे, तुम्हारे सामने, हर ओर लपटें भड़क उठेंगी। यह जंगल की आग है। तुम इसे कभी भी बुझा नहीं पाओगे।”
वह जंगल की आग फिलहाल यहाँ-वहाँ सुलगते पत्तों के बीच मौजूद है। दीखती भी है तो उसकी ताकत का अहसास नहीं होता। लेकिन उसे प्रचण्ड तूफानी ताकत से भड़कना ही है। तब उसे रोक पाना किसी भी तरह से मुमकिन नहीं होगा।
बिगुल, मई 2010
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