मोदी सरकार का नया तोहफ़ा: जीवनरक्षक दवाओं के दामों में भारी वृद्धि
नयी अपडेट 6 फरवरी 2016
2014 के ‘मज़दूर बिगुल’ के इस लेख के बाद मोदी सरकार ने स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण की ओर तेजी से कदम बढ़ाये हैं। ‘द हिन्दु’ के आज के अंक में 76 जीवनरक्षक दवाओं के दामों मे वृद्धि की ख़बर उसी की एक कड़ी है। ये खबर आप इस लिंक से पढ़ सकते हैं। As customs duty exemption goes, 76 life-saving drugs to get costlier
जुलाई माह में राष्ट्रीय दवा मूल्य नियंत्रण प्राधिकरण द्वारा 108 दवाओं को मूल्य नियंत्रण के दायरे में लाने वाले फैसले पर मोदी सरकार ने सितम्बर 2014 में रोक लगा दी है। देशी-विदेशी दवा कम्पनियों और उनकी प्रतिनिधि संस्थाओं ने सरकार के फैसले का दिल खोलकर स्वागत किया है। इस फैसले के तुरन्त बाद शेयर मार्केट में दवा कम्पनियों के शेयरों के भाव में चार प्रतिशत उछाल देखने में आया। ग़ौरतलब है कि सरकार का यह फैसला ऐसे समय में आया जब मोदी की अमेरिकी यात्रा का शोर चारों ओर सुनाई दे रहा था। चुनावी नेताओं, खबरिया चैनलों व अखबारों के कलमघसीट पत्रकारों ने इस विषय पर आम जनता का दृष्टिकोण साफ़ करने की बजाय और अधिक उलझाने का ही काम किया।
मोदी सरकार के वर्तमान फैसले से कुछ महत्वपूर्ण जीवनरक्षक दवाओं की कीमतों में भारी बढ़ोतरी हो गयी है। मसलन रक्तचाप व हृदय की दवा कार्डेस प्लेविक्स जो कि 92 से 147 रुपये में उपलब्ध थी, अब 147 से 1615 रुपये के बीच बिक रही है। कुत्ता काटने पर लगाया जाने वाला एंटीरैबीज़ इंजेक्शन कैमरेब जो कि 2670 रुपये में मिलता था अब उसकी कीमत 7000 रुपये तक जा पहुँची है। इसी तरह कैंसर की दवा जैफ्रटीनेट ग्लीवेक जो कि 5900 से 8500 रुपये के बीच बिक रही थी, अब 11500 से 1,08,000 के बीच बिक रही है। इस फैसले से दवा कम्पनी सनोफ़ी को 139 करोड़ रुपये, रैनबैक्सी को 38 करोड़ रुपये, ल्यूपिन को 32 करोड़ रुपये, सिपला को 19 करोड़ रुपये का अतिरिक्त मुनाफ़ा हासिल होगा। इसके अलावा सैकड़ों अन्य कम्पनियों को भी इस फैसले से करोड़ों का लाभ मिलेगा।
असल में दवाओं के मूल्य को नियंत्रित करने का क़ानून पहली बार 1970 में बनाया गया। इसके तहत दवा मूल्य नियंत्रण सूची में 370 दवाओं को शामिल किया गया। इसके बाद 1987 में इस सूची को 142 दवाओं तक सीमित कर दिया गया और 1995 में फिर से इसे घटाकर मात्र 75 दवाओं तक समेट कर रख दिया गया। यह कदम मुख्यतः देशी दवा कम्पनियों के कारोबार को बढ़ावा देने के मक़सद से उठाया गया था। यहाँ ग़ौर करने की बात यह है कि वर्ष 1980-85 के बीच दवाओं के दामों में 197 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई। दवाओं की बेतहाशा बढ़ती कीमतों और स्वास्थ्य सुविधाओं की खस्ता हालत से कहीं जनता का असंतोष न बढ़ जाये इसलिए कांग्रेस सरकार ने वर्ष 2013 में दवा मूल्य नियंत्रण सूची को 75 से बढ़ाकर 348 दवाओं तक कर दिया। हलाँकि इस कदम को उठाने के पीछे कांग्रेस सरकार का एक अन्य मक़सद अपनी चुनावी गोट सेंकना भी था। बहरहाल यहाँ यह जानना दिलचस्प होगा कि सरकार द्वारा 348 दवाओं का मूल्य नियंत्रण करने के बावजूद दवा कम्पनियों पर कुल बाज़ार मूल्य का मात्र 1.8 प्रतिशत यानी 1290 करोड़ रुपये का ही नियंत्रण लग पाता है। यह ऐसा हुआ मानो हाथी के शरीर से एक मच्छर खून पी जाये! यह अनायास नहीं है कि वर्ष 1947 में जहाँ दवा कम्पनियों का कारोबार 26 करोड़ का था वही आज 75,690 करोड़ रुपये तक पहुँच गया है। दवा कम्पनियाँ दवाओं के कारोबार के ज़रिये किस कदर बेतहाशा मुनाफ़ा कूट रही हैं इसे एकाध उदाहरण से समझा जा सकता है। ब्लड प्रेशर की एक दवा एमलोडिपीन की दस गोलियों को बनाने का खर्च मात्र 1 रुपये है जबकि सराकार ने उसके लिए न्यूनतम मूल्य 30 रुपये निर्धारित किया है! अगर बुखार उतारने वाली दवाओं का ही बाज़ार देख लिया जाये तो मालूम पड़ता है कि उसका 80 प्रतिशत से ज़्यादा हिस्सा नियंत्रण से मुक्त है। ऐसे अनेकों उदाहरण मौजूद हैं जो यह साबित करते हैं कि मूल्य नियंत्रण की राजनीति तो महज़ एक ढकोसला है जो जनता को भ्रमित करने मक़सद से ही किया जाता है। पूँजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी की भूमिका अदा करने वाली सरकारें जनता में यह भ्रम ज़िन्दा रखने का काम करती हैं कि सरकार को आम जनता की कितनी “चिन्ता” है। दवाओं के मूल्य नियंत्रण की कवायदें भी इसी का हिस्सा हैं। हालाँकि मौजूदा मोदी सरकार ने तो जनता की चिन्ता का स्वांग रचने के लिए अपना जनमुखी मुखौटा भी उतार फेंककर स्पष्ट कर दिया है कि बड़े-बड़े पूँजीपतियों के मुनाफ़े की दर को अप्रत्याशित रूप से बढ़ाने के लिए वह कितनी आतुर है।
यहाँ जानना ज़रूरी होगा कि दवा मूल्य नियंत्रण प्राधिकरण द्वारा जुलाई माह में 108 दवाओं को मूल्य नियंत्रित करने की कवायद के खि़लाफ़ कई दवा कम्पनियों ने अदालत का दरवाज़ा खटखटाया और सरकार की सार्वजनिक आलोचना की। यूरोप और अमेरिकी दवा कम्पनियाँ तो पहले से ही इस मसले पर भारत सरकार से ख़फ़ा थीं। दवा मूल्य नियंत्रण प्राधिकरण के जुलाई महीने में लिए गये फैसले ने आग में घी डालने का काम किया। इस फैसले से अमेरिका और भारत के रिश्तों में काफ़ी तनाव आ गया था। मोदी सरकार ने तुरन्त घुटने टेकते हुए इस फैसले को वापस लिया ताकि अमेरिकी शासकों का दिल खुश किया जा सके। यूँ तो कांग्रेस सरकार ने ही वर्ष 2005 में मुख्यतः अमेरिकी दवा कम्पनियों के दबाव के आगे दण्डवत होते हुए बौद्धिक सम्पदा क़ानूनों में महत्वपूर्ण संशोधन करना स्वीकार कर लिया था। अमेरिकी पूँजी और खासकर दवा उद्योग में लगी पूँजी अपने बौद्धिक एकाधिकारी क़ानूनों को लागू करवाना चाहती है जिससे दवा निर्माण में उसका एकछत्र वर्चस्व कायम हो जाये। नरेन्द्र मोदी ने अमेरिकी यात्रा के दौरान अमेरिकी शासकों की कई शर्तों को मान लिया है। आम जनता का जीवन व चिकित्सा की उसकी ज़रूरतें ज़्यादा-से-ज़्यादा दवा कम्पनियों के चंगुल में फँसती जा रही हैं। सरकारें तो असल में दवा मूल्य नियंत्रण के नाम पर जनता को बेवकूफ बनाकर देशी-विदेशी दवा कम्पनियों के मुनाफ़े की रक्षा कर रही हैं।
आज दुनिया में हथियारों के बाद सबसे ज़्यादा मुनाफ़े का धन्धा दवाओं का व्यापार बन चुका है। जीवन के हर क्षेत्र की तरह ही दवाएँ भी मुनाफ़ा कमाने का एक ज़बर्दस्त ज़रिया बन गयी हैं। आज लाखों-लाख लोग महज़ महँगी दवाओं के चलते छोटी-मोटी बीमारियों में भी अपना इलाज करवा पाने में सक्षम नहीं हैं। निजीकरण-उदारीकरण की नीतियों के चलते देश की सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली को पूरी तरह से ध्वस्त कर दिया गया है। इसका अन्दाज़ा तो इसी बात से लगाया जा सकता है कि हमारे देश में दुनिया की कुल आबादी का छठवाँ हिस्सा रहता है, लेकिन स्वास्थ्य पर पूरे विश्व द्वारा खर्च की जाने वाली कुल रकम का 1 प्रतिशत से भी कम हिस्सा भारत सरकार स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च करती है। जनता के स्वास्थ्य को पूरी तरह से बाज़ार की शक्तियों के रहमो-करम पर छोड़ दिया जा रहा है। स्वास्थ्य सेवाओं का प्रश्न केवल दवाओं तक सीमित नहीं है। आज दवा कम्पनियों से लेकर प्राइवेट अस्पतालों व डाक्टरों, पैथॉलोजी लैब एवं डायग्नॉस्टिक सेंटरों का जो पूरा ताना-बाना विकसित हुआ है उसने अपनी ऑक्टोपसी जकड़बन्दी से जनता को इस क़दर अपनी गिरफ्त में ले लिया है कि वह आम जनता के शरीर से खून की आखिरी बूँद तक सोख लेना चाहती है। हमें यह समझना होगा कि स्वास्थ्य सेवा जनता का मूलभूत अधिकार है और जनता तक यह अधिकार पहुँचाने की ज़िम्मेदारी राज्य व्यवस्था की होती है। अगर कोई राज्य व्यवस्था अपनी इस ज़िम्मेदारी से मुँह चुरा ले तो क्या ऐसी राज्य व्यवस्था को बनाये रखने का कोई औचित्य है?
मज़दूर बिगुल, अक्टूबर 2014
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन