हर साल इस आदमखोर पूँजीवादी व्यवस्था की भेंट चढ़ जाते हैं हज़ारों मासूम
मनन विज
इस साल जनवरी 2014 से लेकर अब तक जापानी इंसेफेलाइटिस(जेई) और एक्यूट इंसेफेलाइटिस (ऐई) के कारण पूर्वी उत्तर प्रदेश स्थित गोरखपुर जिले में 130 बच्चों की जान जा चुकी हैं (गोरखपुर न्यूज लाइन, 2 अगस्त 2014)। इसके अलावा, असम में भी जापानी इंसेफेलाइटिस का कहर जारी है, जिसके चलते अब तक इस बीमारी के कारण 388 लोगो की जान जा चुकी हैं (न्यूज टाइम्स असम, 8 अगस्त 2014)। गोरखपुर में सन 1978 में जापानी इंसेफेलाइटिस के पहले मरीज की पुष्टि होने के बाद से लेकर अब तक लगभग 50,000 से ज्यादा बच्चे इस बीमारी की चपेट में आकर काल के ग्रास में समा चुके हैं। स्थिति कितना भयंकर रूप ले चुकी है इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अब यह बीमारी देश के अन्य 19 राज्यों के 171 जिलो में अपने पैर पसार चुकी है, जिनमें तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, और असम जैसे राज्य शामिल हैं।
अगर सिर्फ पूर्वी उत्तर प्रदेश की ही बात करे तो इस क्षेत्र मे रहने वाले करोड़ों लोगों के लिए बीआरडी मेडिकल कालेज गोरखपुर को छोड़कर दूसरा कोई उच्च स्तरीय चिकित्सा संस्थान नही हैं। इसके अलावा, बीआरडी मेडिकल कालेज ही वह एकमात्र अस्पताल हैं जहाँ जापानी इंसेफेलाइटिस और एक्यूट इंसेफेलाइटिस का इलाज संभव हैं। इसलिए यहाँ हर साल न सिर्फ गोरखपुर, बल्कि बिहार और नेपाल से भी जापानी इंसेफेलाइटिस और एक्यूट इंसेफेलाइटिस के मरीज अपना ईलाज करवाने के लिए आते हैं। परन्तु इस अस्पताल के पास भी मरीजों की इतनी बड़ी संख्या को उचित चिकित्सा प्रदान करने के लिए न तो पर्याप्त संख्या में डॉक्टरों की टीम है, और न ही वेंटीलेटर, आक्सीजन, तथा दवाईयाँ। इसी के चलते बहुत सारे मरीज तो सिर्फ समय पर ईलाज न मिलने के कारण ही दम तोड़ देते हैं।
जापानी इंसेफेलाइटिस, क्यूलेक्स विश्नोई नामक एक मच्छर जो कि मुख्यतः धान के खेतों, तथा गंदे पानी वाले गाँवों मे पाया जाता है के काटने से फैलती हैं। इस बीमारी के मुख्य स्रोत सूअर होते है, जिनके शरीर में अन्य पक्षियों और जानवरों की उपेक्षा जापानी इंसेफेलाइटिस का विषाणु तेजी से फैलता है, और फिर यहीं से होता हुआ मानव शरीर में पहुँच जाता है। परन्तु ऐसा भी नहीं है कि यह कोई लाईलाज बीमारी हो, जबकि असलियत तो यह है कि न सिर्फ इसका ईलाज संभव है, बल्कि सघन टीकाकरण, तथा साफ-सफाई, जैसे कुछ जरूरी कदम उठा इसको हर साल फैलने से भी रोका जा सकता हैं। इसका सबसे अच्छा उदाहरण तो जापान है, जिसने बहुत साल पहले ही टीकाकरण के द्वारा इस पर पूरी तरह से काबू पा लिया था। परंतु अगर भारत कि बात करें तो स्थिती इसके एकदम विपरीत हैं, तमिलनाडु के वेल्लोर जिले में जापानी इंसेफेलाइटिस का पहला मामला सामने आने से लेकर अब तक हजारों बच्चों की मौत के बावजूद सरकार के कान पर जूँ तक नही रेंगी हैं। जबकि उन्हे पता हैं कि हर साल मानसून के शुरु होते ही जापानी इंसेफेलाइटिस और एक्यूट इंसेफेलाइटिस के मामलों में तेजी से बढ़ोतरी होती है, परंतु सरकार और प्रशासन की नींद तब तक नही टूटती जब तक की कई हजार बच्चे बेमौत मारे न जाएँ। इस पर भी बेशर्मी की हद यह है कि सरकार सिर्फ 1-2 लाख रुपए का मुआवजा दे अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेती हैं (वैसे भी मुआवजे की रकम भी कुछ ही परिवारों को मिल पाती हैं) जैसे इंसानी जान की कीमत महज कुछ चंद रुपए हो।
वैसे तो हर साल इस बीमारी की रोकथाम के लिए अस्पतालों को बेहतर बनाने और जर्जर पड़ी स्वास्थ्य सुविधाओं को सुधारने के नाम पर करोड़ों रुपए की घोषणाएँ की जाती है, परन्तु जमीनी स्तर पर हालात में कोई फर्क नहीं पड़ता हैं। यह भी एक विडंबना है कि सरकार आतंकवाद को इस देश का सबसे बड़ा खतरा बताती है, जबकि असलियत में बम धमाकों से भी ज्यादा लोग डेंगू, मलेरिया, तथा जापानी इंसेफेलाइटिस जैसी बीमारियों के कारण मारे जाते हैं। अगर सरकार अपने कुल बजट में स्वास्थ्य पर होने वाले खर्च को थोड़ा सा भी बढ़ा दे तो भी जनता को निशुल्क स्वास्थ्य सुविधाएँ प्रदान की जा सकती हैं। परंतु वह ऐसा नही करेंगी, क्योंकि सरकार को ईलाज के अभाव में हर क्षण दम तोड़ रहे बच्चों से ज्यादा पूँजीपतियों के मुनाफे की ज्यादा चिंता हैं।
हर समय सोवियत संघ और चीन के महान समाजवादी प्रयोगों पर कीचड़ उछालने वाले तमाम बुर्जुआ अखबार और टी.वी. चैनल लोगों को यह नहीं बताते हैं कि कैसे इन देशों ने क्रांति संपन्न होने के कुछ ही सालों पश्चात न सिर्फ उस समय लाइलाज समझी जाने वाली बीमारियों पर काबू पा लिया था, बल्कि जनता को निशुल्क स्वास्थ्य सुविधाएँ प्रदान कर उनके जीवनस्तर मे कई गुना इजाफा कर डाला। ऐसे में सवाल यह उठता है कि जो सरकार फिर चाहे वह किसी भी पार्टी की हो, मेहनतकश जनता को स्वास्थय, शिक्षा जैसी बुनियादी सुविधाएँ देने में अक्षम हो, जिसके मंत्री अपने कानो में रूई ठूस अपने मखमली बिस्तरों पर सोते हों, ताकि दर्द से बिलखते इन बच्चो की चीखों से उनकी नींद खराब न हो जाये तो क्या इन तमाम चुनावी पार्टियों को सत्ता में बने रहने का कोई हक हैं? क्या हमें ऐसी आदमखोर व्यवस्था के खिलाफ आवाज बुलंद नही करनी चाहिए? इसलिए साथियो, अगर हम चाहते हैं कि हमारी आने वाली पीढियाँ इस तरह बेमौत न मारी जायें तो हमें अभी से बिना कोई वक्त गँवाए लूट-खसोट पर टिकी इस पूरी पूँजीवादी व्यवस्था को बदलने के लिए एक-एक कदम आगे बढ़ाना होगा।
मज़दूर बिगुल, अगस्त 2014
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