भगाना काण्ड: हरियाणा के दलित उत्पीड़न के इतिहास की अगली कड़ी

अरविन्द

Bhagana protestsरोज़-रोज़ प्रचारित किया जाने वाला हरियाणा के मुख्यमन्त्री का ‘नम्बर वन हरियाणा’ का दावा कई मायनों में सच भी है। चाहे मज़दूरों के विभिन्न मामलों को कुचलना, दबाना हो, चाहे राज्य में महिलाओं के साथ आये दिन होने वाली बलात्कार जैसी घटनाओं का मामला हो या फिर दलित उत्पीड़न का मामला हो, इन सभी में हरियाणा सरकार अपने नम्बर वन के दावे पर खरी उतरती है। उत्पीड़न के सभी मामलों में सरकारी अमला जिस काहिली और अकर्मण्यता का परिचय देता है, वह भी अद्वितीय है। हरियाणा के हिसार ज़िले के भगाना गाँव के लगभग सवा सौ दलित परिवार वर्ष 2012 से दबंग जाति के समाज के ठेकेदारों के सामूहिक बहिष्कार के बाद निष्कासन झेल रहे हैं और ज़िला सचिवालय पर डेरा डाले हुए हैं। यह विवाद मुख्य रूप से शामलात भूमि पर दलितों द्वारा अपना हक़ जताने के बाद शुरू हुआ था। ग्राम पंचायत से लेकर पुलिस प्रशासन और राज्य सरकार तक का रवैया पूरी तरह से दलित विरोधी था और इन पीड़ितों को अब तक न्याय नहीं मिला है। गत 23 मार्च को इसी भगाना गाँव की दूसरी दलित जाति की चार लड़कियों (जिनमें नाबालिग भी हैं) के साथ गाँव के ही दबंग जाति के लड़कों द्वारा अपहरण और बलात्कार की घटना हुई। इस कारगुज़ारी के बाद सरपंच से लेकर पूरे सरकारी तन्त्र ने अपनी दलित विरोधी मानसिकता को समाज के सामने बेपर्द कर दिया। इस घटना के बाद करीब 80 दलित परिवार अपने घर-बार छोड़कर दर-दर की ठोकरें खाने के लिए मजबूर हैं। फ़िलहाल ये देश की राजधानी के जन्तर-मन्तर पर हैं किन्तु सरकार का रवैया एकदम उदासीन है। हरियाणा में दलित उत्पीड़न की यह पहली घटना नहीं है, बल्कि ऐसी घटनाओं की श्रृंखला में अगली कड़ी भर है। इससे पहले मिर्चपुर, गोहाना, दूलीना जैसी दलित विरोधी घटनाएँ घटती रही हैं। और ये तो ऐसे वाकये हैं जो अपनी भयंकरता के कारण सामने आ पाये हैं, वैसे आयेदिन ही दलितों को उत्पीड़न झेलना पड़ता है। पुलिस, प्रशासन से लेकर न्याय व्यवस्था तक में बैठे लोग अपने अन्दर पैठे जातिगत पूर्वाग्रहों के कारण आमतौर पर ग़रीब दलित आबादी के विरोध मे ही खड़े होते हैं।

Bhagana protest 3हमारे समाज में अब तक पड़ी मध्ययुगीन मूल्य-मान्यताएँ हरियाणवी समाज में बिल्कुल नंगे रूप मे देखी जा सकती हैं। चाहे वह दलित उत्पीड़न का मुद्दा हो या फिर अपनी शान के लिए अपनी मर्जी से अपना जीवन साथी चुनने वाले युवाओं की हत्या का मुद्दा हो या फिर औरत को पैर की जूती समझने की बात हो – हरियाणा में यह सब आसानी से देखा जा सकता है। खाप पंचायतें नामक मध्ययुगीन संस्थाएँ भी इन सड़ी मान्यताओं को ज़िन्दा रखने में अपनी भूमिका बख़ूबी निभाती हैं। विभिन्न चुनावी पार्टियाँ अपने वोट बैंक खिसकने के डर से आमतौर पर खापों से सीधे बैर नहीं लेती। कृषि में पूँजीवादी विकास और समाज की आम गति के कारण भी छुआछूत, अस्पृश्यता और महिलाओं को घरों में क़ैद करके रखने की मानसिकता में तो कमी आयी है, किन्तु लोगों की निम्न चेतना का फ़ायदा समाज के ठेकेदार आसानी से उठा लेते हैं। किसानों के विभेदीकरण के बाद सवर्ण और मध्य जातियों की बड़ी आबादी आज अपनी जगह-ज़मीन से या तो हाथ ही धो चूकी है या फिर इसकी खेती की जोत का आकार ही इतना छोटा हो चुका है कि उसे मेहनत-मज़दूरी करने के स्तर तक आना पड़ा है। किन्तु वर्गीय चेतना के न होने के कारण यह आबादी खाप पंचायतों मे बैठे धनी किसानों और चुनावी दलों की आसान शिकार हो जाती है। इसके साथ ही दलित आबादी का बेहद मामूली सा हिस्सा आरक्षण आदि के दम पर सामाज में ऊपर के पायदानों पर पहुँच चुका है, जिसका जीवन ऐशो-आराम में है और इसने ख़ुद को आम दलित आबादी (जिसका बड़ा हिस्सा आज भी मज़दूर के तौर पर ही खट रहा है) से ख़ुद को पूरी तरह से काट लिया है। तमाम चुनावी दलों में और दलितवादी सगठनों मे ऐसे स्वनामधन्य दलित मसीहा आसानी से दिख जायेंगे, जिन्हें वास्तव मे व्यापक दलित मज़दूर आबादी के लिए आरक्षण जैसे शिगूफ़े उछालकर और वर्ग चेतना को कुन्द करके सिर्फ़ अपनी गोटी लाल करनी होती है। आज हरियाणा ही नहीं बल्कि पूरे देश की मेहनतकश आबादी को यह समझ लेना होगा कि वह चाहे जिस भी जाति या धर्म की है, उसके हित एक जैसे हैं। तमाम जातिगत बँटवारे शासक जमात को तो फ़ायदा पहुँचा रहे हैं, जबकि हमारे वर्गीय भाईचारे को तोड़ रहे हैं। जातीय भेदभाव से ऊपर उठकर व वर्गीय आधार पर एकजुट होकर ही हम खाप पंचायतों जैसी मध्ययुगीन ताक़तों के सड़े मंसूबों को नाकाम कर सकते हैं। आज हमारा साझा हित आपस में बँटने में नहीं बल्कि संगठित होकर मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था के ख़िलाफ़ उठ खड़े होने में है।

Bhagana protest 1इसी मुद्दे से दूसरा सवाल जुड़ा है स्त्री उत्पीड़न का। आज एक तरफ़ जहाँ स्त्री उत्पीड़न के दोषियों का सामाजिक बहिष्कार करना चाहिए व उन्हें सख़्त सजाएँ दिलाने के लिए एकजुट आवाज़ उठानी चाहिए, वहीं स्त्री उत्पीड़न की जड़ों तक भी जाया जाना चाहिए। इन घटनाओं का मूल कारण मौजूदा पूँजीवादी सामाजिक- आर्थिक ढाँचे में है। पूँजीवाद ने स्त्री को एक माल यानी उपभोग की एक वस्तु में तब्दील कर दिया है जिसे कोई भी नोच-खसोट सकता है। मुनाफ़े पर टिकी पूँजीवादी व्यवस्था ने समाज में अपूर्व सांस्कृतिक-नैतिक पतनशीलता को जन्म दिया है और हर जगह इसी पतनशीलता का आलम है। समाज के पोर-पोर में पैठी पितृसत्ता ने स्त्री उत्पीड़न की मानसिकता को और भी खाद-पानी देने का काम किया है। आमतौर पर मानसिक रूप से बीमार लोगों को ग़रीब घरों की महिलाएँ आसान शिकार के तौर पर नज़र आती हैं। ख़ासकर 90 के दशक में उदारीकरण-निजीकरण की नीतियाँ लागू होने के बाद एक ऐसा नवधनाड्य वर्ग अस्तित्व में आया है जो सिर्फ़ ‘खाओ-पीओ और मौज करो’ की पूँजीवादी संस्कृति में लिप्त है। इसे लगता है कि यह पैसे के दम पर कुछ भी ख़रीद सकता है। पुलिस और प्रशासन को तो यह अपनी जेब में ही रखता है। यही कारण है कि 1990 के बाद स्त्री उत्पीड़न की घटनाओं में गुणात्मक तेज़ी आयी है। यह मुनाफ़ाकेन्द्रित पूँजीवादी व्यवस्था सिर्फ़ सांस्कृतिक और नैतिक पतनशीलता को ही जन्म दे सकती है, जिसके कारण रुग्ण और बीमार मानसिकता के लोग पैदा होते हैं। इसके अलावा, इन घटनाओं के पीछे हमारे समाज के पोर-पोर में समायी पितृसत्तात्मक मानसिकता ज़िम्मेदार है। तमाम स्त्री विरोधी अपराधों को जड़ से ख़त्म करने के लिए हमें इस पूरे सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक ढाँचे को ही उखाड़कर ऐसे समाज निर्माण के कार्यभार की तरफ़ बढ़ना होगा, जिसकी बुनियाद मुनाफ़ा नहीं बल्कि मानवीय मूल्य और मानवीय सरोकार हों।

2014-05-11-DLI-Bhagana protest-4भगाना के दलितों का संघर्ष यह ख़बर लिखे जाने तक जारी है और प्रशासन की तरफ़ से अभी तक केवल आश्वासन ही मिल रहे हैं। नयी सरकार बनने के बाद तो जन्तर मन्तर पर प्रदर्शन को ही बन्द करने की कोशिश की गयी। किन्तु व्यापक विरोध के कारण प्रशासन अपने मंसूबों में नाकामयाब रहा। फ़िलहाल आगे की रणनीति पर बातचीत हो रही है कि इस संघर्ष के साथ व्यापक इंसाफ़पसन्द आबादी को कैसे जोड़ा जाये।

 

मज़दूर बिगुल, जून 2014

 


 

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