नारकीय जीवन जीने को मजबूर हैं निर्माण उद्योग में काम करने वाले मज़दूर
मनन
सन् 1991 में निजीकरण, उदारीकरण की नीतियाँ लागू होने के बाद से भारत के निर्माण क्षेत्र में तेज़ी से वृद्धि हुई है। विदेशी कम्पनियों को ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़ा कमाने के अवसर प्रदान करने के लिए जगह-जगह विश्व-स्तरीय एक्सप्रेसवे, फ्लाईओवर तथा बाँधों का जाल बिछाया जा रहा है। इसके अलावा खाते-पीते मध्यवर्ग को तमाम सुख-सुविधाएँ प्रदान करने के उद्देश्य से शॉपिंग मॉल, लक्ज़री अपार्टमेण्ट आदि का निर्माण किया जा रहा है। सरकारी आँकड़ों के अनुसार इस समय भारत में तकरीबन साढ़े चार करोड़ मज़दूर निर्माण उद्योग में कार्यरत हैं। इनमें से ज़्यादातर संख्या झारखण्ड, बिहार, राजस्थान, बंगाल, मध्य प्रदेश जैसे पिछड़े हुए राज्यों से अलग-अलग कारणों के कारण विस्थापित हुए मज़दूरों की है, जो रोजी-रोटी कमाने के लिए हर साल हज़ारों की तादाद में दिल्ली, मुम्बई जैसे महानगरों का रुख़ करते हैं। निर्माण मज़दूरों में लगभग आधी संख्या स्त्रियों की है।
इस क्षेत्र में काम करने वाली मज़दूर आबादी ठेके पर बेहद कम मज़दूरी पर तथा बिना किसी सामाजिक सुरक्षा के अमानवीय जीवन जीने को मजबूर है। कार्यस्थल पर सुरक्षा के पुख्ता इन्तज़ाम न होने के कारण हर दिन मज़दूरों के साथ कोई न कोई दुर्घटना होती रहती है, जिनमें कई बार उन्हें अपनी जान तक से हाथ धोना पड़ता है। इसके अलावा हर समय धूल-भरे वातावरण में काम करने के कारण, आवश्यक सुरक्षा उपकरणों के अभाव, और आस-पास फैली गन्दगी के कारण मज़दूरों को कई जानलेवा बीमारियाँ अपना शिकार बना लेती हैं। लेकिन चूँकि मज़दूरों को अलग-अलग ठेकेदारों के माध्यम से काम पर रखा जाता है, और उनके पास रोज़गार सम्बन्धी कोई भी रिकॉर्ड नहीं होता है। इसलिए अगर कोई दुर्घटना हो जाती है तो मालिक और ठेकेदार पुलिस के साथ मिल मज़दूर के परिवार को डरा-धमकाकर या थोड़ी सी रक़म देकर पूरे मामले को वहीं ख़त्म कर देते हैं। बिल्डिंग और अन्य निर्माण मज़दूर कल्याण एक्ट 1966” के अनुसार नियोक्ता को किसी मज़दूर को अपने यहाँ काम पर रखने से पहले उसका पंजीकरण करवाना आवश्यक होता है ताकि बीमारी आदि के समय उन्हें उचित स्वास्थ्य सम्बन्धी सुविधाएँ प्रदान की जा सकें तथा मृत्यु होने पर उनके परिवारों को उचित मुआवज़ा मिल सके। इसी एक्ट की अन्य धाराओं के अनुसार – 8 घण्टे कार्य दिवस, ओवरटाइम का दोगुनी दर से भुगतान, महिला मज़दूरों के बच्चों के लिए पालनघर तथा रहने की जगहों पर शौचालय और साफ़-सफ़ाई के उचित प्रबन्ध होने चाहिए।
यह तो हुई काग़ज़ों में लिखे हुए क़ानूनों की बात, पर असलियत तो यह है कि इस क्षेत्र में काम करने वाले मज़दूरों का कोई कार्यदिवस होता ही नहीं है और उनसे 15-16 घण्टे रोज़ाना जबरन काम करवाया जाता है, ओवरटाइम का पैसा तो दूर इन्हें न्यूनतम मज़दूरी भी नहीं दी जाती है। महिलाओं के हालात तो इससे भी बदतर हैं, उनके साथ शारीरिक शोषण की घटनाएँ आम बात हैं, जिनकी कहीं भी कोई सुनवाई नही होती, बहुत ज़्यादा काम और उचित मात्र में पौष्टिक आहार न मिलने के कारण ज़्यादातर महिलाएँ कुपोषण की शिकार हैं।
आज भारत की कुल मज़दूर आबादी में से 93 प्रतिशत आबादी असंगठित क्षेत्र में काम करती है। ख़ुद को मज़दूरों का हिरावल बताने वाली सी.पी.आई, सी.पी.आई.(एम), और सी.पी.आई. (माले) जैसी संशोधनवादी नक़ली लाल-झण्डे वाली संसदीय वामपन्थी पार्टियों ने इस विशाल आबादी को संगठित करने की न तो कोई कोशिश की है और न ही उनसे आगे कोई उम्मीद की जा सकती है। कुछ सुधारवादी, अर्थवादी संगठन उनके बीच जगह-जगह काम कर रहे हैं। इसलिए क्रान्तिकारी मज़दूर संगठन के सामने इस आबादी को संगठित करते हुए वर्गीय एकता क़ायम करना एक चुनौती है।
मज़दूर बिगुल, जून 2014
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन