नरेन्द्र मोदी का उभार और मज़दूर वर्ग के लिए उसके मायने
अरविन्द
पिछले कुछ वर्षों से जारी मुहिम के बाद आख़िरकार अब नरेन्द्र मोदी को भारतीय जनता पार्टी की ओर से अगले लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री के दावेदार के तौर पर पेश करने की कवायद औपचारिक रूप से शुरू हो गयी है। बड़े पूँजीपतियों से लेकर मध्यवर्ग के अलग-अलग हिस्सों तक में इस बात को लेकर काफ़ी उत्साह नज़र आ रहा है। मोदी को ऐसे नेता के रूप में उभार जा रहा है जो दृढ़ता से सख़्त निर्णय ले सकता है और ढुलमुल और भ्रष्ट नेताओं के कारण डगमगाती देश की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाकर भारत को चीन-जापान-अमेरिका की टक्कर में ला खड़ा करेगा।
मोदी ने ऐसी उम्मीदों को सही ठहराने के लिए अब तक किया क्या है? सबसे बड़ी “दृढ़ता” मोदी ने 2002 के गुजरात दंगों के समय दिखायी थी जब राज्य द्वारा प्रायोजित सुनियोजित हिंसा में हज़ारों बेगुनाह मुसलमानों को मौत के घाट उतार दिया गया था। तहलका के स्टिंग ऑपरेशन से लेकर अनेक जाँचों में यह सच्चाई सामने आ चुकी है कि किस तरह हिंसा और बलात्कार कर रही बर्बर भीड़ को सीधे ऊपर से पुलिस-प्रशासन की शह मिली हुई थी। मगर इससे भी बढ़कर टाटा-बिड़ला-अम्बानी से लेकर देश के तमाम बड़े उद्योगपतियों और सुज़ुकी जैसी विदेशी कम्पनियों का चहेता वह इसलिए बन गया है क्योंकि राज्य में जनता के हर विरोध को कुचलकर उनकी लूट की राह के रोड़ों को हटाने में उसने देश के दूसरे सभी शासकों को फिलहाल पीछे छोड़ दिया है। अनगिनत सरकारी और ग़ैर-सरकारी सर्वेक्षणों में गुजरात के “विकास” के दावों की हवा निकल चुकी है। वहाँ भूख और कुपोषण के आँकड़े भयावह हैं, ग़रीबों और मेहनतकशों का जीना मुहाल है और दंगों में उजड़े लाखों अल्पसंख्यक आज भी कैम्पों में रह रहे हैं। मगर पूँजीपतियों और खाते-पीते मध्यवर्ग के एक बड़े हिस्से को इनसे कोई मतलब नहीं। उन्हें इस बात से कोई लेना-देना नहीं कि गुजरात की समृद्धि की बुनियाद में मज़दूरों का बर्बर शोषण है।
आज पूरी दुनिया में पूँजीवादी अर्थव्यवस्था संकट से घिरी हुई है और उससे निकलने का कोई उपाय नज़र नहीं आ रहा है। भारत की अर्थव्यवस्था की गाड़ी भी संकट के दलदल में बुरी तरह फँस चुकी है। हमेशा की तरह शासक वर्ग संकट का बोझ जनता पर डालने में लगे हैं जिससे बेतहाशा महँगाई, बेरोज़गारी और कल्याणकारी मदों में कटौती लाज़िमी है। संकट बढ़ने के समय हमेशा ही भ्रष्टाचार भी सारी हदें पार करने लगता है, जैसा कि आज हो रहा है। ऐसे ही समय में, पूँजीपति वर्ग को हिटलर और मुसोलिनी जैसे “कठोर” नेताओं की ज़रूरत पड़ती है जो हर किस्म के विरोध को रौंदकर उसकी राह आसान बना दे। आज भारत का बुर्जुआ वर्ग भी नरेन्द्र मोदी पर इसीलिए दाँव लगाने को तैयार नज़र आ रहा है। हालाँकि यह भी सच है कि आज भी उसकी सबसे विश्वसनीय पार्टी कांग्रेस ही है। भारतीय बुर्जुआ वर्ग बड़ी चालाकी से फासीवाद को ज़ंजीर से बँधे शिकारी कुत्ते की तरह इस्तेमाल करता रहा है जिसका भय दिखाकर जनता के आक्रोश को काबू में रखा जा सके, लेकिन काम पूरा होने पर उसे वापस खींच लिया जा सके।
आज पूरा कारपोरेट मीडिया नरेन्द्र मोदी की छवि बनाने में जुटा हुआ है। दरअसल फ़ासीवादी और तमाम तरह की साम्प्रदायिक ताकतें झूठ के प्रचार पर ही अपना ढाँचा खड़ा करती हैं। ये ताक़तें आज हिन्दुत्व की बात करते हुए करोड़ों हिन्दुओं, या गुजरातियों या मराठियों की बात भले ही करती हैं लेकिन उनका असली काम होता है कि लोगों का ध्यान उनकी वास्तविक समस्याओं से हटाकर उन्हें आपस में लड़वा दिया जाये। हिटलर, मुसोलिनी से लेकर नरेन्द्र मोदी, राज ठाकरे, बाल ठाकरे और ओवैसी जैसे कट्टरपंथी मुस्लिम नेताओं तक का यही काम है। धर्म, जाति, क्षेत्र, भाषा आदि की पहचान की राजनीति के सहारे पिछड़ेपन और अवसरों की कमी का ज़िम्मेदार अल्पसंख्यकों और प्रवासियों को ठहरा दिया जाता है। जबकि इसका कारण है मुनाफा-केन्द्रित पूँजीवादी व्यवस्था। यही कारण है कि फासीवादियों की मुख्य भर्ती अधिकतर भय और आर्थिक असुरक्षा के शिकार निम्न मध्य वर्ग से ही होती है। मोदी हिन्दुत्व के तहत गुजरात में होने वाले विकास पर फूले नहीं समाते किन्तु गुजरात में 31 प्रतिशत लोग ग़रीबी रेखा से नीचे जी रहे हैं, लगभग 50 प्रतिशत बच्चे कुपोषण का शिकार हैं। अस्पतालों में 1 लाख आबादी पर महज़ 58 बिस्तर उपलब्ध हैं। इन सबका कारण यही है कि सरकार जनता के करों से जमा पैसे को पूँजीपतियों पर लुटा रही है। अभी हाल ही में महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट ने गुजरात की सरकार पर यह सवाल उठाया है कि वह ज़मीन, बिजली, पानी आदि पूँजीपतियों को जिस दर पर देती है, उससे सार्वजनिक खज़ाने का नुकसान होता है; ऊपर से मोदी सरकार करों आदि में पूँजीपतियों को छूट देने में सबसे आगे है। मज़दूरों पर पूरे गुजरात में जो आतंक राज कायम है, उससे पूँजीपतियों को सारे नियम-कानून ताक पर रखकर बेहिचक मुनाफ़ा कमाने का पूरा अवसर भी मिलता है। हाल ही में, हीरा कारीगरों के आन्दोलन को मोदी सरकार ने जिस “दृढ़ता” से कुचला, उसी के तो सारे पूँजीपति दीवाने हैं! आम मेहनतकश जनता के शोषण का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि पिछले कुछ सालों में सबसे अधिक मज़दूरों के आन्दोलन भी गुजरात में ही हुए हैं।
हिटलर के प्रचार मन्त्री गोयबल्स ने एक बार कहा था कि यदि किसी झूठ को सौ बार दोहराओ तो वह सच बन जाता है। यही सारी दुनिया के फासिस्टों के प्रचार का मूलमंत्र है। आज मोदी की इस बात के लिए बड़ी तारीफ़ की जाती है कि वह मीडिया का कुशल इस्तेमाल करने में बहुत माहिर है। लेकिन यह तो तमाम फ़ासिस्टों की ख़ूबी होती है। मोदी को “विकास पुरुष” के बतौर पेश करने में लगे मीडिया को कभी यह नहीं दिखायी पड़ता कि कच्छ की खाड़ी में नमक की दलदलों में काम करने वाले मज़दूरों की क्या हालत है जिनको मौत के बाद नमक में ही दफन कर दिया जाता है क्योंकि उनका शरीर जलाने लायक नहीं रह जाता। अलंग के जहाज़ तोड़ने वाले मज़दूरों से सूरत के कपड़ा मज़दूरों तक लोहे के बूटों तले जी रहे हैं। आज आर्थिक और राजनीतिक संकट से तंग आयी जनता के सामने कारपोरेट मीडिया देश की सभी समस्याओं के समाधान के तौर पर ‘सशक्त और निर्णायक’ नेता के रूप में मोदी को पेश कर रहा है। यह अलग बात है कि मोदी जिन आर्थिक नीतियों और श्रम नीतियों को गुजरात में लागू कर रहा है, इस देश में उसकी शुरुआत 1991 में वित्त मन्त्री के तौर पर मनमोहन सिंह ने ही की थी।
मेहनतकशों को ऐसे झूठे प्रचारों से भ्रम में नहीं पड़ना चाहिए। उन्हें यह समझ लेना होगा कि तेज़ विकास की राह पर देश को सरपट दौड़ाने के तमाम दावों का मतलब होता है मज़दूरों की लूट-खसोट में और बढ़ोत्तरी। ऐसे “विकास” के रथ के पहिए हमेशा ही मेहनतकशों और ग़रीबों के ख़ून से लथपथ होते हैं। लेकिन इतिहास इस बात का भी गवाह है कि हर फासिस्ट तानाशाह को धूल में मिलाने का काम भी मज़दूर वर्ग की लौह मुट्ठी ने ही किया है!
मज़दूर बिगुल, जून 2013
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन