दुनिया के मज़दूरों के क्रान्तिकारी नेता और शिक्षक जोसेफ़ स्तालिन की 55वीं पुण्यतिथि (6 मार्च) के अवसर पर
द्वितीय विश्व युद्ध में हिटलर को दरअसल किसने हराया?
स्तालिनग्राद की गलियों में लड़ने वाले लाल योद्धाओं ने!

 

Hitler and Stalinदुनिया का पूँजीवादी मीडिया एक ओर नये-नये मनगढ़न्त किस्सों का प्रचार कर मज़दूर वर्ग के महान नेताओं के चरित्र हनन में जुटा रहता है वहीं दूसरी ओर नये-नये झूठ गढ़कर उसके महान संघर्षों के इतिहास की सच्चाइयों को भी उसके नीचे दबा देने की कवायदें भी जारी रहती हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध के बारे में भी तरह-तरह के झूठ का प्रचार लगातार जारी रहता है। इतिहास की किताबों में भी यह सच्चाई नहीं उभर पाती कि मानवता के दुश्मन, नाजीवादी जल्लाद हिटलर को दरअसल किसने हराया?

अमेरिकी और ब्रिटिश मीडिया ख़ास तौर पर इस झूठ का बार-बार प्रचार करता है कि उनकी फ़ौजों ने हिटलर को मात दी। इस झूठ को सच साबित करने के लिए वे उस तथाकथित ‘कयामत के दिन’ (डी-डे) 6 जून 1944 का बार-बार प्रचार करते हैं जब एक लाख पचास हज़ार की तादाद में ब्रिटिश-अमेरिकी सेनाएँ हिटलर की सेनाओं से लड़ने के लिए नारमैंडी (फ्रांस) में उतरी थीं। जोर-शोर से प्रचार यह किया जाता है कि इसी आक्रमण से यूरोप में द्वितीय विश्व युद्ध का पासा पलट गया था। जबकि सच्चाई यह है कि उस युद्ध का मुख्य मोड़बिन्दु तो वोल्गा नदी के किनारे बसे हुए एक रूसी शहर से आया था। 1942 में स्तालिनग्राद शहर की गलियों में 80 दिन और 80 रात जो लड़ाई चली, तत्कालीन सोवियत संघ के लाल सैनिकों और मज़दूरों ने परम्परागत देशी हथियारों से आधुनिकतम मानी जाने वाली जर्मन नाजी सेना का जिस तरह मुकाब़ला किया, वह विश्वयुद्ध का ऐतिहासिक मोड़बिन्दु था। यह कहानी विश्व इतिहास की एक महाकाव्यात्मक संघर्ष गाथा है जिसे दुनिया की मेहनतकश जनता की यादों से मिटा देने की कोशिशें दिन-रात चलती रहती हैं।

आज विश्व सर्वहारा क्रान्ति के इस नये चक्र में, जबकि नयी क्रान्तियों की तैयारियों का काल लम्बा खिंचता जा रहा है, यह बेहद ज़रूरी है कि नयी पीढ़ी के मेहनतकशों को अतीत के महान संघर्षों की विरासत और उपलब्धियों से लगातार परिचित कराते रहा जाये। यह नये सर्वहरा पुनर्जागरण और प्रबोधन का एक ज़रूरी कार्यभार है। अन्तरराष्ट्रीय मज़दूर वर्ग के महान शिक्षक और नेता स्तालिन की पचपनवीं पुण्यतिथि के अवसर पर हम बिगुल के पाठकों के लिए दो अंकों में समाप्त होने वाली यह विशेष सामग्री दे रहे हैं जिससे पाठक यह सच्चाई जान सकें कि हिटलर को दरअसल किसने हराया!-सम्पादक

पहाड़ की चोटी पर बैठकर शेरों की लड़ाई देखना

 

22 जून, 1941 को एडोल्फ़ हिटलर की नाजी जर्मनी ने ऐतिहासिक रूप से एक सबसे बड़ी सेना के साथ सोवियत संघ पर आक्रमण कर दिया। हिटलर को विश्वास था कि वह सोवियत संघ को तीन महीनों में परास्त कर देगा। दुनिया के अधिकतर सैन्य और राजनीतिक विशेषज्ञों की भी यही राय थी।

सोवियत संघ पर हमला करने वाली जर्मन सेनाएं दुनिया की सबसे आधुनिक सैनिक शक्ति थीं। नाजियों की आक्रमणकारी शक्ति तीस लाख फ़ौजियों, 3,300 टैंकों और 7,000 बड़ी तोपों की थी, जिनकी मदद में 2000 विमान थे। जर्मन साम्राज्यवादी सेनाओं ने मात्र दो ही वर्षों में एक-एक करके यूरोप के कई देश-चेकोस्लोवाकिया, पोलैण्ड, फ्रांस, बेल्जियम, हालैण्ड, डेनमार्क और नार्वे-दनादन जीत लिए थे।

Stalin beats up Hitler1941 तक, सोवियत संघ को, साम्राज्यवादियों द्वारा किये गये पिछले आक्रमण के बाद से, शान्ति के मात्र बीस वर्ष ही मिल पाये थे। कम्युनिस्ट पार्टी और जोसेफ़ स्तालिन के नेतृत्व के अन्तर्गत ये दो दशक भी वर्ग-संघर्ष और समाजवादी निर्माण के कठिन वर्ष रहे थे। लेकिन, 1941 तक, तत्कालीन सोवियत संघ महत्वपूर्ण समस्याओं के बावजूद एक सच्चा क्रान्तिकारी और समाजवादी देश बन चुका था। सोवियत क्रान्ति ने मजदूर वर्ग की सत्ता स्थापित कर दी थी, सम्पत्तिवान वर्गों के वर्ग-विशेषाधिकारों और ऐश्वर्य को समाप्त कर दिया था, तथा एक तरफ़ जहां उद्योग के सम्पूर्ण ढाचे और स्वामित्व को रूपान्तरित कर दिया था, वहीं दूसरी तरफ़, विश्व की प्रथम योजनाबद्ध समाजवादी अर्थव्यवस्था और सामूहिक खेती को भी अंजाम दे दिया था। इस दौरान वर्ग-संघर्ष अत्यधिक कठोर था, जो कभी-कभी स्वयं सोवियत संघ के भीतर ही गृहयुद्ध जैसा उग्र हो उठता था।

यद्यपि सोवियत सेना विशाल थी, फ़िर भी उतनी सुसज्जित नहीं थी जितनी कि जर्मन सेना। सोवियत सेना के ऊँचे अधिकरियों की एक भारी संख्या, 1930 के दशक के अन्त के तीखे राजनीतिक विवादों के चलते, निकाल बाहर कर दी गयी थी और उनके स्थान पर अधिकारियों की एक ऐसी पीढ़ी नियुक्त की गयी थी जो अभी नयी थी, बिना जाँची-परखी थी।

संक्षेप में कहें तो, पश्चिमी विशेषज्ञों को यह विश्वास था कि स्तालिन का सोवियत संघ एक गम्भीर रूप से विभाजित देश था जिसकी सेना बुरी तरह से कमजोर हो चुकी थी। उन्हें यह आशा ही नहीं थी कि सोवियत संघ जर्मनी को हरा सकेगा!

वस्तुतः अमेरिकी और ब्रिटिश साम्राज्यवादी तो यह उम्मीद लगाये बैठे थे कि सोवियत संघ पूर्वी मोर्चे पर जर्मन सेना से टक्कर होते ही खत्म हो जायेगा। और जब हिटलर की सेना ने सोवियत संघ पर धावा बोला तो उन्होंने यूरोप में एक दूसरा मोर्चा खोलने में देरी कर दी। अमेरिका और ब्रिटेन की इस योजना को माओ ने कहा कि यह ‘‘पहाड़ की चोटी पर बैठकर नीचे शेरों की लड़ाई देखना’’ था।

हिटलर और पश्चिमी शक्तियों-दोनों ने ही सोवियत समाजवाद की सामर्थ्य को बेहद कम करके आंका था। अकूत आत्म-बलिदान के साथ, सोवियत जनता ने नाजी हमलावरों का मुकाबला करने के लिए एक महान न्यायोचित युद्ध संगठित किया। नदी के किनारे बसे स्तालिनग्राद नामक एक औद्योगिक नगर में एडोल्फ़ हिटलर की तथाकथित ‘‘अपराजेय’’ सेनाएं दृढ़निश्चयी लाल योद्धाओं से सीधी जा भिड़ी थीं।

आज, जब दुनिया के शासक यह दावा करते हैं कि ‘‘कम्युनिज़्म मर चुका है’’, और कि ‘‘समाजवाद के सारे प्रयास किल हो चुके है’’-तब यह बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है कि स्तालिनग्राद के 1942 के सबकों को याद किया जाये-जहाँ 80 दिन और 80 रात घर-घर में चली लड़ाई ने समाजवाद की श्रेष्ठता और एक सशस्त्र क्रान्तिकारी जनता की शक्ति को प्रमाणित कर दिया था।

तड़ित युद्ध का साम्राज्यवादी तर्क

सोवियत संघ पर जर्मनी का हमला ब्लिट्ज़क्रीग की रणनीति पर आधारित था, जिसका अर्थ है ‘‘तड़ित युद्ध-बिजली की कड़क के समान तेज़ रफ्तार से धावा बोलना’’। ब्लिट्ज़क्रीग का उद्देश्य त्वरित विजय प्राप्त कर लेना था जिससे कि जर्मन जनता के बीच अन्तर्द्वन्द्व तीखे न हो पायें। आक्रमण का उद्देश्य था मज़दूर वर्ग के समाजवादी शासन को उखाड़ फ़ेंकना, सोवियत जनता को गुलाम बनाना, तथा विश्व क्रान्ति के इस सबसे महत्वपूर्ण आधार-क्षेत्र को नष्ट कर देना। इन्हीं प्रतिक्रियावादी उद्देश्यों और रणनीतियों ने नाजी सेनाओं को युद्ध में अपनी विजय के लिए अत्यधिक बर्बर तौर तरीके अख्तियार करने के लिए प्रेरित किया।

आक्रमण के ठीक पहले, हिटलर ने जर्मनी के शीर्षस्थ जनरलों से कहा: ‘‘रूस के विरुद्ध लड़ाई ऐसी होगी जो एक वीरोचित शैली में संचालित नहीं की जा सकेगी। यह विचारधाराओं और जातीय भिन्नताओं का संघर्ष होगा और इसे अभूतपूर्व निर्दयता और बेहिचक बर्बरता के साथ संचालित करना होगा…। कमिसार (सोवियत लाल सेना के सक्रिय कम्युनिस्ट कार्यकर्ता-सं-) ऐसी विचारधाराओं के वाहक हैं जो (नाजीवाद के) सीधे विराधी हैं। अतः कमिसारों का सफ़ाया कर देना होगा। अन्तरराष्ट्रीय कानून तोड़ने के दोषी जर्मन सैनिकों को …माफ़ कर दिया जायेगा।’’

नाजियों ने पूरे सोवियत संघ के सभी शहरों को जला डाला और कत्ल कर डाले गये निवासियों की लाशों को बिना दफ़नाये ही छोड़ दिया। बन्दी बनाये गये सत्तावन लाख सोवियत सैनिकों में से तैंतीस लाख तो भूख, ठंड और प्राणदण्ड के कारण जर्मन जेल शिविरों में ही मर गये। और लगभग तीस लाख सोवियत सैनिकों और असैनिक नागरिकों को जहाजों पर लादकर गुलाम-मज़दूरों के रूप में जर्मनी ले जाया गया।

जनयोद्धाओं ने नाजी रणनीति का प्रतिरोध करना सीखा

आरम्भ में, स्तालिन की लाल सेनाएँ सोवियत संघ के अधिकांश भागों में शिकस्त खाती हुई पीछे हटती रहीं। वे अपने पीछे उदास भाव से अपनी समाजवादी अर्थव्यवस्था के खेतों और रेलमार्गों को नष्ट करती जातीं ताकि हमलावर सेना को कुछ भी मयस्सर न हो सके।

पीछे हटती हुई लाल सेना ने ‘‘अपने ढंग़’ की लड़ाई अर्थात जर्मन सेना की गतिशीलता और सामर्थ्य का प्रतिरोध करने की लड़ाई के तौर-तरीके  विकसित किये। कम्युनिस्ट पार्टी ने जन समुदायों को एक जीवन-मरण के संघर्ष में, ‘‘सिर्फ़ सोवियत जनता के लिए ही नहीं, बल्कि फ़ासीवादी उत्पीड़न के तले कराह रहे सभी लोगों की मुक्ति के लिए लामबन्द किया।

कम्युनिस्टों ने सुदूर जंगलों में ऐसी छापामार सेनाएं गठित कर लीं, जो हमलावरों को हर जगह परेशान करतीं। सोवियत सैनिकों ने टैंकों के मुकाबले ग्रेनेडों और मोलोतोव कॉकटेलों जैसे ‘‘जनता के हथियार’’ इस्तेमाल करना सीखा। सारी फ़ैक्टरियों को हटाकर सुदूर साइबेरिया में स्थानान्तरित कर दिया गया, ताकि दुश्मन की पहुँच से बाहर रहकर वे उत्पादन जारी रख सकें। लेनिनग्राद और मास्को जैसे शहर सैन्य दुर्गों में तब्दील कर दिये गये।

हिटलर का भाग्य-निर्णायक हमला

1941 का जाड़ा घिर आने तक, जर्मन आक्रमण अपनी प्रत्याशित त्वरित विजय हासिल नहीं कर सका था। जर्मन सेनाओं ने पूर्वी सोवियत संघ के भारी हिस्सों को जीत भले लिया था, लेकिन वे रूसी क्षेत्र में काफी दूर आ फंसी थीं। और जर्मनों को अपनी हजारों मील लम्बी खिच चुकी सप्लाई लाइनों को उफनते छापामार युद्ध से बचाना पड़ रहा था। विकट युद्ध और निष्ठुर जाड़े ने कम से कम पन्द्रह लाख नाजियों की जानें ले लीं।

1942 के मध्य तक, जर्मन सेना, जो हालाँकि अभी भी शक्तिशाली थी, पूरे मोर्चे पर अब और कोई सामान्य आक्रमण कर सकने की स्थिति में नहीं रह गयी थी। हिटलर को अपने ग्रीष्मकालीन आक्रमण हेतु सिर्फ एक ठिकाना चुनना था। उसने 15,00,000 सैनिकों की फौज को दक्षिण-पश्चिम मार्च करने का हुक्म दिया ताकि काकेशस पहाड़ियों में स्थिति रूसी तेल-क्षेत्रों पर कब्जा किया जा सके। उसकी मंशा यह थी कि सावियत तेल सप्लाई को काटकर उसे स्वयं अपनी टैंक-सेना को सप्लाई किया जाये।

battle-stalingrad-ww2-second-world-war-two-russian-eastern-front-unseen-pictures-photos-images.jpeg-soldiers-fightingहिटलर ने अधिकतम सम्भव सेनाएँ जमा कर दी, अपने कई सर्वश्रेष्ठ जनरलों को नियत किया और यहाँ तक कि उत्तरी अफ्रीका के युद्ध मोर्चे पर लगे विमानों और टैंको को भी मँगा लिया। उसने अपनी सेनाओं को आदेश दिया कि पहले वे स्तालिनग्राद पर कब्जा करें, ताकि जर्मनी के उत्तरी बाजू के मोर्चे को सुस्थिर किया जा सके। उसके बाद नाजी योजना यह थी कि दक्षिण में और अधिक महत्व के ठिकानों की ओर बढ़ा जाये।

माओ त्से-तुङ ने इस आक्रमण के बारे में कहा कि यह ‘‘एक ऐसा अन्तिम आक्रमण था जिसपर फासीवाद का भाग्य टँगा हुआ था।’’

23 अगस्त को, जनरल फेडरिख फॉन पाउलस की कमान वाली छठवीं जनरल सेना वोल्गा नदी पार करके स्तालिनग्राद के उत्तर में आ गयी। विमानों द्वारा हज़ारों की संख्या में बम शहर पर गिराये जाने लगे और शहर आग की लपटों में धू-धू करके जलने लगा। एक इतिहासकार ने लिखा ‘‘स्तालिनग्राद ऐसा दिखायी देता था जैसे किसी भयंकर आँधी ने इसे हवा में उठाकर लाखों टुकड़ों में विदीर्ण कर डाला हो। शहर का मुख्य भाग लगभग पूरी तरह ध्वस्त हो चुका था, और लगभग एक सौ भवनखण्ड अभी भी प्रचण्ड आग की ज्वाला में घिरे हुए थे।’’ पानी के मेन लाइनों के टूट जाने के कारण आग बुझाना असम्भव हो गया था। इस आक्रमण में दसियों हज़ार लोग मारे गये। कम्युनिस्ट युवा संगठन के किशोरों ने आग और मलबे में जीवित बचे लोगों की सामूहिक खोजबीन करने के लिए जगह-जगह लोगों को संगठित किया।

इसी बीच नाजी सेना की मोटर-चालित टैंकें और पैदल-सेना ने स्तालिनग्राद पर, जो कि वोल्गा नदी के पश्चिमी क़ि‍नारे की पहाड़ी ऊँचाइयों तक फैला हुआ था, धावा बोल दिया। जर्मनों की योजना यह थी कि सोवियत हथियारबन्द सेनाओं को वोल्गा नदी की ओर ऊँचाइयों तक धकेल कर परास्त कर दिया जाये। उनकी योजना 24 घण्टों में ही विजय प्राप्त कर लेने की थी।

स्तालिन के नाम के शहर में मोर्चा लेना सोवियत नेता जोसेफ स्तालिन और सोवियत हाई कमान की एक भिन्न सोच थी: सोवियत सेनाओं के सुदूर दोन नदी तक पीछे हट जाने के बाद अब उन्होंने तय किया था कि वे स्तालिनग्राद में टिक कर मोर्चा लेंगे। एस. जे. लेनार्ड अपनी पुस्तक ‘न्यायपूर्ण युद्ध, अन्यायपूर्ण  युद्ध: एक ऐतिहासिक सर्वेक्षण’ में लिखते हैं:

‘‘बहुतों को ऐसा लगता था मानो सोवियत संघ ध्वस्त हो जाने के कगार पर था, लेकिन सुदूर दोन नदी तक पीछे हटने का वस्तुतः ऐसा कुछ भी मतलब नहीं था। इससे तो समय ही मिल गया था कि केन्द्र से सोवियत डिवीजनें दक्षिणी मोर्चे के लिए कूच कर सकें, तथा पूर्वी उराल से भी फौज और साजो-समान की मदद पहुँचायी जा सके। इस पीछे हटने का महत्व इस बात में निहित था कि, आखिरकार, सोवियतें ब्लिट्ज़क्रीग के विरुद्ध लचीले रणकौशल अपनाना सीख रही थीं, बजाय टिक कर मोर्चा लेने की परम्परागत पद्धति अपनाने के, जिसके चलते उन्हें बार-बार घेरेबन्दी में फँस जाना पड़ता था।

Stalingrad victory‘‘अतः कमजोरी के इसी महानतम क्षण में भावी विजय के बीज निहित थे, और इसका महत्व तब समझ में आया जब कम्युनिस्ट पार्टी ने अपने हजारों सर्वश्रेष्ठ कैडरों को स्तालिनग्राद लाने का अभियान शुरू किया, ताकि उस शहर को, वेरमाख्त (जर्मन सेना) के लिए कठिनतम सम्भव राजनीतिक और सैनिक चुनौती के रूप में तब्दील किया जा सके। ‘‘नेतृत्व की योजना थी कि स्तालिनग्राद को एक ऐसे स्पंज के रूप में तब्दील कर दिया जाये जो अधिक से अधिक जर्मन शहर में फँसे रहते, तब तक सोवियत सैनिक कमान गुप्तरीति से भारी संख्या में सेना को शहर में उत्तर और दक्षिण में जमा कर लेती, वे घेरेबन्दी का एक फन्दा तैयार कर रहे थे-ताकि जर्मनी की समूची छठवीं सेना को घेरकर नेस्तानाबूद कर दिया जाये।

उग्र शहरी लड़ाई इस कम्युनिस्ट योजना की कुंजी थी। कम्युनिस्ट पार्टी ने अपने हज़ारों सर्वश्रेष्ठ सक्रिय कार्यकर्ताओं को स्तालिनग्राद में भेजना शुरू कर दिया।

आप उन जबर्दस्त तैयारियों और प्रचण्ड राजनीतिक बहसों का अनुमान करें जो तभी से शुरू हो गयी थीं जब शक्तिशाली नाजी सेना सोवियत-सीमा की मोर्चाबन्दियों को तोड़कर घुस पड़ी थी और इस समाजवादी शहर की ओर बढ़ने लगी थी। कम्युनिस्ट संगठनों के नेतृत्व में,मशहूर ‘बैरिकेड’ और ‘लाल अक्टूबर’ ट्रैक्टर फैक्टिरयों एवं शहर के पावर स्टेशन को सैन्य तैयारियों के केन्द्रों में तब्दील कर दिया गया। हजारों मज़दूर बाँहपट्टियों एवं राइफलों से लैस हो युद्ध इकाइयों में संगठित हो गये। प्रथम गृहयुद्ध के पके बालों वाले पुराने अनुभवी सिपाही, ढलाई-मज़दूर, ट्रैक्टर इन्जीनियर, वोल्गा के नाविक, रेलवे मज़दूर, जहाज निर्माता, दफ्तरी कर्मचारी-स्त्री और पुरुष-सभी के सभी नियमित सेना के जवानों के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर लड़ने के लिए तैयार हो गये। फैक्टरी की दीवारों से चारों ओर मज़दूरों के दूसरे दस्ते मोर्चाबन्दी के लिए खाइयाँ खोदने में लग गये।

जैसे ही जर्मन सेनाएँ आगे बढ़ीं, स्तालिनग्राद की जनता फसल काटने और टैंक-रोधी मोर्चे की खाइयाँ खोदने दौड़ पड़ी, और शहर के 5,00,000 निवासियों में से अधिकांश को हटाकर वोल्गा के सुरक्षित पूर्वी किनारे पर पहुँचा दिया गया। जर्मनी के बमवर्षकों ने लोगों को लेकर नदी पार कर रही कई नावों पर हमले किये तथा नदी के तटों पर बड़ी तादाद में बसे असैनिक नागरिकों पर भी भारी बमबारी की।

एक बुर्जुआ इतिहासकार ने स्तालिनग्राद की खाइयों के बाह्यांचलों में लड़ी गयी पहली लड़ाई के बारे में लिखा: ‘‘यह एक चमत्कार ही था कि रातो-रात संगठन बनाकर रूसी नागरिक सेना ने एक दूसरे से जोड़ती हुई खन्दकें खोद डाली थीं तथा आधुनिक युद्ध कला की मूलभूत बातों को आत्मसात कर लिया था। वे कामगारी वर्दियों या रविवारीय पोशाकें पहनकर मॉर्टर तोपों और मशीनगनों के पीछे घुटने मोड़कर बैठ जाते और दुनिया की सबसे बेहतरीन टैंक-सेना को चुनौती देते। जब (जर्मन सेना का) लड़ाकू ग्रुप क्रुपेन उनकी भयंकर गोलाबारी से लड़खड़ा जाता, तब तो रूसी प्रत्याक्रमण भी चालू कर देते। इसके लिए वे फैक्टरी असेम्बली लाइन्स से तुरन्त निकले बिना रंगे टी.34 टैंक लेकर सीधे जर्मनों पर हल्ला बोल देते।’’

इसी बीच तीखा नीतिगत संघर्ष भी स्थानीय पार्टी के पराजयवादियों और सैनिक नेतृत्व के साथ शुरू हो गया था, जिनका मानना था कि स्तालिनग्राद को बचा पाना असम्भव था और इसीलिए वे चाहते थे कि वोल्गा के उस पार भाग चला जाये। लेकिन स्तालिन ने शहर को छोड़ भागने की किसी भी योजना को इंकार कर दिया और कहा: ‘‘सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि भगदड़ न पैदा होने दी जाये, दुश्मन की धमकियों से मत डरो और कि अन्तिम विजय हमारी होगी-इस बात में आस्था रखो।’’ यह नीतिगत संघर्ष पूरे युद्ध-काल तक विभिन्न स्तरों पर जारी रहा। महत्वपूर्ण बात यह थी कि युद्ध का फौरी नेतृत्व करने वाले जनरल चुइकोव को स्तालिन के दृढ़ विजय-संकल्प पर पूरा विश्वास था।

बेशक सैनिकों और मज़दूरों के समुदायों को यह नहीं बताया जा सका था कि नेतृत्व ने जर्मनों को घेर लेने की मुकम्मिल गुप्त योजना तैयार कर रखी थी। लेकिन जब जान की बाजी लगाकर स्तालिनग्राद को बचाये रखने के लिए लड़ाई करने के आदेश आये, तब तो जनसमुदायों को तेजी से समझ में आने लगा कि उनके कन्धों पर एक ऐतिहासिक दायित्व आ पड़ा था। लोगों के दिलों में एक अटूट एकता और दृढ़निश्चय की भावना भर उठी। उनका गर्वीला नारा गूँज उठा: ‘‘स्तालिनग्राद हिटलर की कब्र बनेगा!’’

अब एक ऐतिहासिक नाटक की प्रस्तुति के लिए रंगमंच तैयार हो चुका था।

गली-गली में लड़ाई

जर्मनों ने सैनिकों, टैंकों और वायुयानों की एक विशाल बेहतरीन शक्ति शहर के ऊपर झोंक दी थी। शुरू हुए विकट संघर्ष का अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता था कि जर्मन एक दिन में केवल कुछ सौ गज ही आगे बढ़ पाते थे। जब नाजी 10 सितम्बर को दक्षिण में वोल्गा के पास पहुँचे, तो वे बासठवीं सेना को स्तालिनग्राद के भीतर अपना निशाना बना चुके थे, जो कि वोल्गा नदी की ओर पीठ किये थी। गली-गली में विकट युद्ध शुरू हो गया।

13 सितम्बर को जर्मनों ने शहर के मध्य भाग पर अपना सघन आक्रमण चालू किया। वे पामायेव कुरगान नामक एक बड़ी पहाड़ी पर कब्जा कर लेना चाहते थे। इस ऊँचे स्थल से उनकी गोलन्दाज फौज न सिर्फ मज़दूरों की बस्तियों समेत पूरे शहर पर, बल्कि वोल्गा नदी की उन फेरी-नौकाओं पर भी निशाना साधने में समर्थ हो जाती जो बासठवीं सेना के लिए कुमुक और रसद-सामग्री लाने का काम करती थीं। लड़ाई भीषण थी। दो दिनों के भीतर, जर्मनों को 8,000 से 10,000 तक की संख्या में अपने सैनिकों से और 54 टैंकों से हाथ धोने पड़े। इस खूनी संघर्ष में एक प्रमुख ठिकाने पर पाँच दिनों के भीतर पन्द्रह बार कब्जा कर पाने में जर्मन नाकामयाब ही रहे।

जर्मनी में नाजी अखबार अपने विशेष संस्करण निकालकर उनमें पहले ही से यह शीर्षक छाप चुके थे: ‘‘स्तालिनग्राद का पतन हो गया!’’-लेकिन उनका वितरण रोक देना पड़ा। जर्मनों का बढ़ना रोकने के लिए हजारों लाल योद्धाओं ने अपनी जानें गँवा दीं। उनके बलिदान ने ही पूरे शहर में उनके कामरेडों को कई दिनों का बहुमूल्य समय प्रदान किया ताकि वे बार-बार समूहबद्ध हो सकें, और खाइयाँ खोद सकें।

24 सितम्बर तक स्तालिनग्राद का अधिकांश भाग दुश्मनों के हाथ में जा चका था और कई-कई मील तक आग की लपटों में स्वाहा हो चुका था। जर्मनों की छठवीं सेना का भी दस प्रतिशत हिस्सा नष्ट हो चुका था, और अभी भी शहर के उत्तरी फैक्टरी-क्षेत्रों के इर्दगिर्द प्रतिरोध का अटूट सिलसिला जारी था। वोल्गा पार करके आने वाली ज्यादातर सोवियत कुमुकों में सोवियत एशिया के सीमावर्ती क्षेत्र के किशोर शामिल थे।

14 अक्टूबर को जर्मनों ने एक अन्तिम विनाशकारी आक्रमण किया-जिसमें सोवियत ठिकानों पर बमबारी करने के लिए 3,000 बमबारी विमान भेजे गये, और उसी के साथ ही जर्मन पैदल सेना की तीन और टैंक सेना की दो डिविजनों ने भी हमला कर दिया। 30 अक्टूबर तक, बासठवीं सेना के कब्जे में वोल्गा के किनारे के मात्र तीन छोटे-छोटे क्षेत्र ही बच रह गये, फिर भी जर्मन उसे शिकस्त नहीं दे सके।

जर्मन टैंक सेना के एक अधिकारी ने लिखा: ‘‘हम लोगों को मात्र एक घर के लिए पन्द्रह दिनों से मॉर्टर तोपों, ग्रेनेडों, मशीनगनों और संगीनों के साथ लड़ना पड़ रहा है। और तीसरे ही दिन तक स्थिति यह हो चुकी थी कि चौवन जर्मन लाशें तहखानों में, चौकियों पर और सीढ़ियों पर बिखर चुकी थीं। मोर्चा जले हुए कमरों के बीच का एक गलियारा बना हुआ है, यह दो मंजिलों के बीच की एक पतली छत पर है। मदद सिर्फ पड़ोसी घरों के धुंवाकशों और चिमनियों के जरिये ही मिल पा रही है। दोपहर से लेकर रात तक लगातार लड़ाई जारी रह रही है। हम पसीने से धुंधलाये चेहरे लिये, एक मंजिल से दूसरी मंजिल पर, हथगोलों से एक-दूसरे पर वार कर रहे हैं और उनके फूटने से धूल और धुएँ के बादल उठ रहे हैं…। कोई भी सैनिक बता सकता है कि एक ऐसी लड़ाई में जो आमने-सामने का संघर्ष होता है उसका क्या मतलब है। और जरा स्तालिनग्राद के बारे में सोचिए: 80 दिन और 80 रात आमने-सामने लड़ाई…। अब स्तालिनग्राद एक शहर नहीं रह गया है। यह धधकती ज्वाला और अंधकारी धुएँ का विराट बादल बन चुका है, यह एक ऐसी विराट भट्टी बन चुका है जिससे लपटें उठ रही हैं। और जब रात आती है-जो कि झुलसा देने वाली, चीख-पुकार भरी और खून से नहायी हुई ही होती है-तब कुत्ते वोल्गा नदी में कूद पड़ते हैं और दूसरे किनारे पर पहुँचने की हड़बडी में तैरने लगते हैं। स्तालिनग्राद की रातें तो उनके लिए आतंक ही हैं; जानवर इस नर्क से भाग रहे हैं: कठिन से कठिन तूफान भी उसे लम्बे समय तक नहीं झेल सकता केवल मनुष्य ही झेलते हैं।’’

एक और जर्मन आक्रमण 11 नवम्बर को शुरू किया गया जिसमें एक-एक गज़ भूमि के लिए, एक-एक ईंट और एक-एक पत्थर के लिए लड़ाई चलती रही। एक दिन इसी आक्रमण के दौरान, यानी 12 नवम्बर को ही, जर्मन सेना को यह महसूस हो गया कि महीनों विकट संघर्ष करते-करते उनकी पूरी शक्ति निचुड़ चुकी थी।

Stalingrad 1आमने-सामने लड़ाई की शैली

नाजियों के पास भारी संख्या में टैंक, तोपें और विमान थे। सोवियत कम्युनिस्ट फौजों के पास भी कुछ भारी हथियार थे-जिनमें विमानभेदी तोपें भी थीं-लेकिन उन्हें ज़्यादातर हल्के हथियारों-जैसे ग्रेनेडों, मोलोतोव कॉकटेलों और आज की मामूली बन्दूकों जैसी टॉमीगनों-पर भरोसा करना पड़ता था।

जर्मन साम्राज्यवादी सेना का विशाल शस्त्रगार उसे उसकी पसन्द के मुताबिक ‘‘लड़ाई का तरीका’’ चुनने का सुभीता प्रदान कर देता था-ठीक वैसे ही, जैसे आज अमेरिकी सेना का शस्त्रगार ऐसा सुभीता प्रदान करता है।

जर्मन वायुसेना आमतौर पर तबतक इन्तजार करती रहती जबतक कि सोवियत और नाजी ठिकानों के बीच एक स्पष्ट ‘‘निर्जन क्षेत्र’’ न मिल जाये-और जब यह सुलभ हो जाता था तब तो वह सोवियत खाइयों और किलेबन्दियों पर भीषण बमबारी करतीं। जर्मन टैंक-चालक आमतौर पर तबतक खुलकर नहीं आते जबतक कि जर्मन वायुसेना सोवियत ठिकानों पर बमबारी नहीं कर लेती और जर्मन पैदल सैनिक भी तबतक पूरे तौर से लड़ाई में शामिल नहीं होते, जबतक कि टैंक मोर्चाबन्दियों पर गोले नहीं बरसा लेते। लेकिन जब सोवियत सेना जर्मनों का इस ढंग से लड़ना असम्भव कर देती, तब जर्मन फौजें प्रायः लड़ाई बन्द कर देतीं और पीछे लौट जातीं।

सोवियत कामरेडों ने यह जान लिया था कि एकदम निकट होकर, आमने-सामने की लड़ाई की शैली जर्मनों के लिए ‘‘अपने ढंग से लड़ना’’ मुश्किल कर देती थी। स्तालिनग्राद स्थित बासठवीं सोवियत सेना के कमाण्डर, वासिली चुइकोव लिखते हैं:

‘‘इसलिए हमारी समझ में आ गया कि जहां तक सम्भव हो सके, हमें चाहिए कि हम ‘‘निर्जन क्षेत्र’’ को संकुचित करते हुए एक हथगोले की मार-सीमा तक कम कर दें।’’ सोवियत योद्धा दुश्मन के यथासम्भव निकट पहुंच जाने की कोशिश करते, ताकि जर्मन वायुसेना जर्मन सैनिकों के मारे जाने का जोखिम उठाये बिना सामने की सोवियत यूनिटों और खाइयों पर बमबारी न कर सकें।

चुइकोव यह भी लिखते हैं कि जर्मन आमने-सामने होकर लड़ने से कतराते थे, क्योंकि ‘‘उनमें यह नैतिक साहस नहीं था कि वे एक हथियारबन्द सोवियत सैनिक से आँख मिला सकें। दुश्मन सैनिक, खासतौर से रात में, काफी दूर अगली चौकी पर ही दिखायी पड़ता; वह अपना हौसला बढ़ाने के लिए, हर पाँच-दस मिनट पर, अपने टॉमीगन से लगातार एक धमाका कर दिया करता। हमारे सैनिक ऐसे ‘योद्धाओं’ को पाकर रेंगते हुए उन तक पहुँच जाते और गोली या संगीन से उनका काम तमाम कर देते।’’

battle-stalingrad-ww2-second-world-war-two-russian-eastern-front-unseen-pictures-photos-images.jpeg-soldiers-fightingरक्षात्मक लड़ाई के भीतर आक्रमण लड़ाई

स्तालिनग्राद में सोवियत संघ की बासठवीं सेना मुख्यतः एक रक्षात्मक लड़ाई लड़ रही थी-डटे रहने और जर्मन सेना को विलम्बित करते रहने की लड़ाई, ताकि दूसरी सोवियत सेनाएं जर्मनों को घेर सकें। लेकिन इस पूरी रक्षात्मक लड़ाई में भी निरन्तर आक्रमण करते रहना अत्यन्त आवश्यक था। आक्रामक कार्रवाइयाँ जर्मन सेना की पहलकदमी को-उनकी इस निर्णय कर पाने की क्षमता को सीमित कर देतीं कि लड़ाई कहाँ पर और कब होगी।

चुइकोव सोवियत सेना की सचेष्ट रक्षात्मक लड़ाई का वर्णन करते हुए कहते हैं: ‘‘जब कभी भी दुश्मन हमारी रक्षा-पंक्ति के भीतर घुसपैठ करता, उसका सफाया या तो गोलियों से भूनकर या ऐसे प्रत्याक्रमणों द्वारा कर दिया जाता जो, आकस्मिक आक्रमणों के रूप में, या तो दुश्मन के पार्श्व भागों पर किये जाते, या पिछले भाग पर।’’

लाल योद्धा जर्मन टैंकों पर घात लगाकर आक्रमण कर देते, क्योंकि वे ऐसे ही रास्तों पर चलते थे जिनका पूर्वानुमान किया जा सकता था। लाल योद्धा तबतक प्रतीक्षा करते रहते जबतक कि टैंक उनके बिलकुल करीब नहीं आ जाते-और तब उन्हें एक निकट मार-सीमा के भीतर पाकर टैंक-भेदी राइफलों और अधिक भारी टैंकभेदी अस्त्रें से बेकार कर देते। इससे जर्मन पैदल सेना ठिठककर रुक जाती, और आमतौर पर उन जलते हुए टैंकों के पीछे भीड़ लगा देती। तब सोवियत फौजों के लिए यह सम्भव हो जाता कि वे जर्मन पैदल सेना के निकट जा पहुँचे, जबकि जर्मन स्तूका आरै जे-88 लड़ाकू विमानों के लिए यह असम्भव होता कि वे सोवियत योद्धाओं पर हवाई हमले कर सकें।

चुइकोव लिखते हैं: ‘‘पैदल सेना और टैंकों के घुसपैठ करने पर उन्हें अलग-अलग नष्ट कर दिया जाताः टैंक तो पैदल सेना के बिना ज्यादा कुछ कर नहीं सकते थे और बिना कुछ हासिल किये, भारी नुकसान उठाकर पीछे लौट जाते थे…। प्रत्याक्रमणों से दुश्मन को हमेशा ही भारी नुकसान होता, और अक्सर ऐसा होता कि उसे एक दिये गये क्षेत्र में आक्रमण करने का इरादा छोड़, मोर्चे के इधर-उधर इस फिराक में दौड़ लगाने के लिये मजबूर हो जाना पड़ता कि कहीं उसे हमारी रक्षात्मक मोर्चाबन्दियों में कोई कमजोर बिन्दु मिल जाये। इससे उसका वक्त बर्बाद होता और आगे बढ़ने की उसकी रफ्तार घट जाती…। हमारा उद्देश्य प्रायः इतना ही नहीं होता कि दुश्मन का नुकसान करें, बल्कि यह भी कि हम अपनी पैदल सेना और टैंकों के आकस्मिक हमले द्वारा तथा गोलन्दाज फौज और वायुसेना की मदद से, दुश्मन के कूच करने के ठिकानों में घुसपैठ कर जायें, उसकी कतारबन्दियों को अस्तव्यस्त कर दें, और उसके आक्रमण की योजना को विफल करके मोहलत हासिल कर लें।’’

शहरी लड़ाई दोनों ही पक्षों के लिए फौजों की बड़ी-बड़ी कतारबन्दियों को कमान में रखना और संचालित करना कठिन बना देती थी। चुइकोव वर्णन करते हैं कि कैसे लाल योद्धाओं ने इस स्थिति का अपने हक़ में फायदा उठायाः ‘‘शहरी लड़ाई एक खास तरह की लड़ाई होती है। यहाँ चीजें ताक़त से नहीं, बल्कि कौशल, साधनसम्पन्नता और मुस्तैदी के द्वारा व्यवस्थित की जाती हैं… और इसीलिए यहाँ पैदल सैनिकों के छोटे-छोटे समूह, एकाकी बन्दूकची और टैंक ही युद्ध-मंच के केन्द्र पर कब्जा कर सकते थे।’’

सोवियत कमाण्डरों ने अपनी फौजों के कुछ भागों को ‘‘तूफानी टोलियों’’ नामक छोटी-छोटी सचल इकाइयों में संगठित करना सीख लिया था। चुइकाव लिखते हैं: ‘‘ये छोटे लेकिन शक्तिशाली ग्रुप थे, जो सांपों की भांति चपल-चालाक और कार्रवाई में अदम्य थे।’’ समयबद्धता, आकस्मिकता, रफ्तार और हिम्मत तूफानीटोलियों की कार्रवाइयों की सफलता की कुंजी थी।

इन तूफानी टोलियों पर हवाई वार कर पाना कठिन था। वे दुश्मन के ठिकानों पर वार करने के लिए उनकी किलेबन्दियों में पांव के सहारे रेंगते हुए गह्नरों और खण्डहरों में जा छिपते। रात में वे सुरंगें और दर्रे खोदते, और दिन में उन्हें ढँककर छिपा देते। तूफानी टोलियां अचानक जर्मन सेनाओं के मध्य से प्रकट हो जातीं-जहाँ जर्मन तोपें, हथियारबन्द गाड़ियाँ और हवाई शक्ति कोई काम न आती। लाल सैनिक अधिकतम फायदा उठाने की स्थिति में हमला करते-जब दुश्मन सो या खाना खा रहा होता, या पाली बदलने को होता। गोलियों, हथगोलों, छुरों और धारदार बनाये हुए बेलचों से आमने-सामने लड़ाई करते हुए लाल योद्धा नाजियों को उनके प्रमुख ठिकानों से खदेड़ देते-जो कि किसी तहखाने, किसी कमरे, या किसी गलियारे के लिए लड़ रहे होते हैं।

चुइकोव लिखते हैं: ‘‘रात और रात की लड़ाई हमारे लिए स्वाभाविक बात थी। दुश्मन रात में नहीं लड़ सकता था, लेकिन हम लोगों ने ज़रूरतवश इसका अभ्यास कर लिया था: दिनभर दुश्मन के विमान हमारी फौजों के ऊपर मंड़राते रहते, उन्हें अपने सिर तक उठाने की स्थिति नहीं बनती। लेकिन रात में हमें ‘लुफ्तवैफे’ (जर्मन वायुसेना) का कोई भय नहीं रहता।’’

कम्युनिस्ट पार्टी ने बासठवीं सेना के सैनिकों के बीच एक ‘‘स्नाइपर अभियान’’ चलाया। सैनिक प्रत्येक गोली को सार्थक करने की कोशिश करते-निशानेबाजी की ट्रेनिंग दी जाती और छिपकर सफलतापूर्वक गोली चलाने के बारे में लाल फौजों के बीच व्यापक विचार-विमर्श किया जाता। स्नाइपरों के छोटे-छोटे दस्ते कंकड़-पत्थरों की अन्तहीन ढेरियों में छिपकर आगे की ओर बढ़े चले आ रहे दुश्मन के काफी बड़े-बड़े समूहों को छिन्न-भिन्न करके टुकड़े-टुकड़े कर डालते। चुइकोव इसका सार प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि ‘‘हर जर्मन सैनिक को निश्चित रूप से यह अनुभव करा देना था कि वह रूसी बन्दूक की नली के नीचे जी रहा है, जो उसे गोली मारकर मौत की नींद सुला देने के लिए हमेशा तैयार है।’’

लाल सेना को उन जनसमुदायों पर भरोसा था जो दुश्मन द्वारा बनायी जाने वाली योजनाओं की महत्त्वपूर्ण सूचना एकत्र करने के लिए स्तालिनग्राद के पीछे जमे हुए थे। उदाहरण के तौर पर, एक साहसी महिला जर्मन कतारों के पीछे से, धुआँ और कंकड़-पत्थरों के ढेर के बीच से प्रकट हुई और एक आसन्न जर्मन आक्रमण के बारे में महत्त्वपूर्ण खुफियां सूचना दे गयी।

वोल्गा पार करने के लिए नावों का इन्तजार करते सोवियत सैनिकों को ऐसे पर्चे पढ़ने को मिलते जिनमें इस नज़दीकी लड़ाई की शैली का पूरा विवरण देते हुए लिखा होता था कि ‘‘शहरी लड़ाई में एक सैनिक को क्या-क्या बातें जाननी चाहिए और कैसे कार्रवाई करनी चाहिए।’’ इस तरह के जन-कार्रवाई के तरीकों से विजय में अधिकतकम योगदान देने के लिए साधारण सैनिकों और मेहनतकश जनता को भरपूर अवसर मिल जाता था। ‘‘अपने ढंग से लड़ते हुए’’ सोवियत सेनाएं दुश्मन की भारी मारक शक्ति को नाकाम कर देती थीं। लड़ाई की यह शैली उच्चस्तरीय चेतना और प्रचण्ड आत्म-बलिदान पर आधारित थी। बार-बार हासिल की जा रही विजयें, चाहे वे किसी तहखाने या बीहड़ को साफ करने से ही सम्बन्धित क्यों न रही हों, लाल फौजों के लड़ने के हौसले को नई बुलन्दी पर पहुँचा देती थीं।

इन सोवियत रणकौशलों के चलते जर्मन सैनिक बुरी तरह बौखला जाते। वे अक्सर अपने प्रमुख किलेबन्दी वाले ठिकानों को भी छोड़कर पीछे भाग खड़े होते।

नाजी-विरोधी किलेबन्दियों की व्यूहरचना

सोवियत कमाण्डर चुइकोव लिखते हैं कि ‘‘शहर की इमारतें तरंग-रोध की भांति होती हैं। वे दुश्मन की आगे बढ़ती कतारों को रोक देती हैं तथा उनके सैनिकों को गली के रास्ते चलने के लिए मजबूर कर देती हैं। अतः हमलोग मजबूत इमारतों के बीच दृढ़तापूर्वक जम गये थे, और उनमें हमने छोटी-छोटी रक्षक सेनाएं स्थापित कर ली थीं जो घिर जाने पर चौतरफा गोलीबारी कर सकती थीं। विशेष रूप से मजबूत इमारतें हमें मज़बूत रक्षात्मक अवस्थितियां अख्तियार करने में सहूलियत देती थीं, जहां से हमारे सैनिक मशीन-गनों और टॉमी-गनों के साथ आगे बढ़ते जर्मनों को मार गिरा सकते थे।’’

चुइकोव कहते हैं कि लाल योद्धा जली-झुलसी पत्थर की इमारतों को इस्तेमाल करना ज्यादा पसन्द करते, क्योंकि आक्रमण के दौरान नाजियों को रोशनी करने के लिए जलाने को कुछ भी नहीं मिल पाता। इनमें तरह-तरह के आकार की किलेबन्दियां की जातीं – जिनमें से कुछ की रक्षा जवानों का कोई एक छोटा दस्ता करता, तो कुछ की रक्षा एक पूरी बटालियन करती। किलेबन्दियों को इस प्रकार तैयार किया जाता कि उनसे चारों दिशाओं में गोलीबारी की जा सके और कई दिनों तक सम्पर्क-विच्छेद हो जाने के बाद भी लड़ाई जारी रखी जा सके।

लाल सैनिक खाइयां निर्मित करते तथा सीवरों का इस्तेमाल किलेबन्दियों को उनके इर्दगिर्द की इमारतों के साथ जोड़ने में करते। किलेबन्दियों के बीच से गुजरने की कोशिश करता हुआ दुश्मन चौतरफा गोलीबारी में फंस जाता। चुइकोव लिखते हैं: ‘‘किलेबन्दियों का एक ग्रुप, जिसका एक ही सामान्य फायरिंग नेटवर्क होता था, और चौतरफा रक्षण प्रदान करते हुए प्रतिरोध का एक केन्द्र भी होता था।’’

Stalingrad 2स्तालिनग्राद की युद्धरत महिलाएं

महिलाएं स्वेच्छा से सेना की मदद करतीं – वे प्रायः उन भारी नुकसानों की भरपाई कर देतीं जो युद्ध के आरम्भिक दौर में लाल सेना को उठाने पड़ रहे थे।

वासिली चुइकोव लिखते हैं: ‘‘यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं है कि युद्ध में महिलाएं हर जगह पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ीं…। मोर्चे पर दौरा करने वाला कोई भी यह देख सकता था कि महिलाएं तोपरोधी इकाइयों में बन्दूकचियों का काम कर रही थीं, जर्मन हवाबाजों के विरुद्ध लड़ाई में विमानचालकों का काम कर रही थीं, हथियारबन्द नावों के कैप्टन के रूप में, वोल्गा जहाजी बेड़ों में काम करती हुईं, उदाहरण के तौर पर, नदी के बायें तट से दायें तट पर सामान नावों में लादकर आने-जाने को काम बेहद कठिन दशाओं में कर रहीं थीं।

‘‘स्तालिनग्राद के विमानभेदी दल के विमानभेदी तोपखाने और सर्चलाइट-दोनों ही जगहों पर तैनात बन्दूकचियों में ज्यादातर महिलाएं ही थीं…। जब उनके चारों तरफ बम फटने लगते और स्थिति यह हो जाती कि सिर्फ सही-सही निशाना साधकर फायर करना ही नहीं, बल्कि बन्दूक लिए खड़े रह पाना भी असम्भव लगने लगता, तब भी वे अपनी बन्दूकों से चिपकी रहतीं और फायरिंग करती रहतीं। आग और धुआं और फूटते बमों के बीच वे अन्त तक अपने स्थान पर ऐसे डटी रहतीं, मानो उन्हें यह मालूम ही न पड़ा रहा हो कि उनके इर्द-गिर्द की सभी चीजें विस्फोटित होकर हवा में उड़ रही हैं। यही वजह थी कि शहर पर (जर्मन वायुसेना के) हमलों से अपनी विमान-भेदी टुकड़ी की भारी क्षति उठाकर भी, वे उनपर जबर्दस्त गोलीबारी करतीं, जिससे हमेशा ही हमलावर विमान को भारी क्षति उठानी पड़ती। हमारी महिला विमानभेदी बन्दूकचियों ने जलते शहर के ऊपर दुश्मन के दर्जनों विमानों को मार गिराया।’’

सोवियत संघ के रात्रिकालीन उड़ान भरने वाले बमवर्षक विमानों के ज्यादातर मशहूर पायलटों में से कुछ तो महिलाएं ही थीं।

नाजियों पर घेरेबन्दी का कसता फन्दा

‘‘जर्मन बड़े मज़ाकिया जीव हैं, जो चमकदार लेदर बूट पहनकर स्तालिनग्राद जीतने चले आये हैं। उन्होंने समझा होगा कि यहाँ सैर-सपाटा करने को मिलेगा!’’

              -एक लाल सैनिक

19 नवम्बर को स्तालिनग्राद में हर किसी ने कहीं दूर तोप दगने की आवाज़ सुनी – महान सोवियत प्रत्याक्रमण चालू हो गया था। स्तालिनग्राद के बहादुर लाल योद्धा काफी लम्बे समय तक अपने मोर्चे पर डटे रहे थे ताकि उनके कामरेड इस पूरी जर्मन नाजी सेना पर अपनी घेरेबन्दी कस डालें।

जर्मन कमाण्डरों को पता था कि एक विशाल सोवियत सेना गठित हो रही थी-लेकिन उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था कि सोवियत जनता इतने बड़े पैमाने पर प्रत्याक्रमण संगठित कर लेगी। दस लाख से अधिक की संख्या में सोवियत फौजें अविश्वसनीय रफ्तार से स्तालिनग्राद के उत्तर और दक्षिण से आगे बढ़ीं। सिर्फ साढ़े चार दिनों में ही लाल सेना ने जर्मन की छठवीं सेना के सभी 3,30,000 सैनिकों को एक लौह शिकंजे में कस लिया। भाग निकालने की दो जर्मन कोशिशें नाकाम कर दी गयीं। शहर के अन्दर 31 जनवरी तक लड़ाई चलती रही, और अन्त में जर्मन जनरल फॉन पाउलस और उसके मुख्यालय को गिरफ्त में ले लिया गया।

यह इतिहास में एक महानतम विजय थी। स्तालिनग्राद की गलियों में लड़ने वाले योद्धाओं ने दुनिया को भौंचक्का कर दिया। यहाँ तक कि अमेरिकी शासक वर्ग के कट्टर साम्राज्यवादी जनरल डगलस मैकार्थर तक को कहना पड़ाः ‘‘जितने बड़े पैमाने पर और जिस शौर्य के साथ यह युद्ध लड़ा गया उससे जो सैनिक उपलब्धियां हासिल हुई हैं वे समूचे इतिहास में अप्रतिम हैं।’’

स्तालिनग्राद हिटलरवादी जर्मनी के अन्त की शुरुआत साबित हुआ। उसके बाद तो लाल सेना ने नाजी आक्रमणकारियों को सोवियत भूमि से निष्कासित करके बर्लिन तक खदेड़ दिया, जहां हिटलर और उसके शासन को नेस्तनाबूद कर दिया गया।

स्तालिनग्राद – दुनिया के भविष्य के लिए लड़ाई

जब 1941 में नाजियों ने सोवियत संघ पर आक्रमण किया तो पूँजीवादी जगत ने घोषणा कर दी कि साम्यवाद मर गया। लेकिन उन्होंने सोवियत समाजवाद की ताकत और अपने समाज की रक्षा करने वाले सोवियत जनगण की अकूत इच्छाशक्ति को कम करके आँका। स्तालिनग्राद के कंकड़-पत्थरों में आप इस सच्चाई का दर्शन कर सकते हैं कि जनगण हथियारों के जखीरे से लैस और तकनीकी रूप से उन्नत पूँजीवादी शत्रु को कैसे परास्त कर सकते हैं।

इस विजय की कुंजी कम्युनिस्ट पार्टी का नेतृत्व और दशकों तक चले क्रान्तिकारी वर्ग-संघर्ष के बाद तैयार हुए जनता के संगठन में थी। स्तालिन के आह्वान पर, हजारों कम्युनिस्ट फौज में भर्ती होकर मोर्चे पर जा पहुंचते। लड़ाई के हर मोर्चे पर, कम्युनिस्ट सबसे निडर और आत्म बलिदानी योद्धा के रूप में आगे बढ़ते जाते। जब लाल सेना को जर्मन कतारों में घुसपैठ करने के लिए स्पेशल स्काउट यूनिटों की आवश्यकता पड़ती तो वह कम्युनिस्ट युवा संगठन से ही तमाम भर्तियां कर लेती। गली-गली की लड़ाई की अफरा-तफरी के बीच, कम्युनिस्ट हर जगह राजनीतिक काम भी करते-जैसे वे युद्धरत जन समुदायों को यह समझने में मदद करते कि इस मारने और मरने में क्या उद्देश्य निहित था।

जहां जर्मन सैनिक निराशा और भय में डूब जाते, वहीं इसके विपरीत, लाल योद्धा साहसपूर्वक मौत का सामना करते और निडर होकर लड़ते, यहाँ तक कि उस हालत में भी, जब वे एक-एक करके कटने-मरने लगते और घिर जाते।

दुनिया के लोगों पर स्तालिनग्राद के याद्धाओं का भारी ऋण है: हिटलर पर उनकी विजय के लिए भी, और उनसे हमें विरासत में मिले क्रान्तिकारी शहरी युद्ध के सबकों के लिए भी।

    (समाप्त)

‘‘क़यामत के दिन का मिथक’’

अमेरिकी सरकार हर वर्ष ‘डी डे’ (क़यामत के दिन) वर्षगाँठ यह मिथक प्रचारित करने के लिए करती है कि ‘‘अमेरिकी सेना और एक विश्वव्यापी गठबंधन का अमेरिकी नेतृत्व ही दुनिया को हिटलर को दृष्टता से मुक्ति दिलाने की कुंजी थे!’’ यह आज दुनिया में उनके अमेरिकी हस्तक्षेपों का समर्थन करने के लिए लोगों को तैयार करने का एक हथकण्डा है।

लेकिन सच्चाई कुछ और ही है:

1. द्वितीय विश्वयुद्ध में, सोवियत लाल सेना दुनिया के प्रथम समाजवादी समाज की रक्षा मे एक न्यायोचित, नाजी-विरोधी युद्ध लड़ रही थी, जबकि अमेरिकी सेनाएं यह सुरक्षित कर लेने के लिए लड़ रही थीं कि युद्धोत्तर विश्व में मचने वाली नोच-खसोट में अमेरिकी पूँजीवाद सबसे फ़ायदे की स्थिति में रहे। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद, अमेरिका तुरन्त ही यूनान, कोरिया, वियतनाम, फ़िलीपिन्स और कई दूसरे देशों में चल रहे क्रान्तिकारी आन्दोलनों के विरुद्ध युद्धों में कूद पड़ा-जबकि जर्मनी के अधिग्रहीत कर लिए गये अमेरिका-प्रशासित भागों में अमेरिकी सत्ताधारी पूर्व नाजी सत्ता को फ़िर से बहाल करने में लग गये। इसके विपरीत समाजवादी सोवियत संघ हमारी सदी की दूसरी महान क्रान्ति-माओ त्से तुङ के नेतृत्व वाली 1949 की चीनी क्रान्ति के लिए एक महत्वपूर्ण पृष्ठभूमि बना गया।

2. हिटलर की सेनाएँ मूलतः पूर्वी मोर्चे पर.सोवियत संघ के मैदानी भागों और घिरे शहरों में-ही पराजित कर दी गयी थी। डी-डे आक्रमण तो स्तालिनग्राद में नाजी आक्रमण के उच्च ज्वार के ध्वस्त कर दिये जाने के डेढ़ साल बाद ही शुरू किया गया। इस तथाकथित डी-डे की जर्मन कमान की 259 डिवीजनों और ब्रिगेडें तो पूर्वी मोर्चे पर लाल सेना का सामना कर रही थीं। हिटलर ने उन डिवीजनों में से मात्र 60 डिवीजनों को नये पश्चिमी मोर्चे पर एंग्लो-अमेरिकी सेनाओं से निपटने के लिए भेजा था। आइज़नहावर के डी-डे आक्रमण का मुकाबला करने वाली जर्मन फ़ौज में मुख्यतः अधेड़ वय के सैनिक, किशोर वय के लड़के एवं बलात पकड़कर भेज दिये गये पूर्वी यूरोपियन ही थे। यह तो लाल सेना ही थी जिसने जर्मन सेनाओं के बहुलांश को तहस-नहस किया, और बर्लिन पर कब्जा किया।

3.नॉरमैंडी में अमेरिका के उतरने का मुख्य कारण पूरे पूर्वी यूरोप में पूँजीवाद के विरुद्ध एक क्रान्ति की मुहिम छेड़ देने के लिए आगे बढ़ रही लाल सेना को रोकना था। जर्मनी और सोवियत संघ के बीच चले पूरे युद्ध के दौरान, अमेरिका और ब्रिटेन, पश्चिमी यूरोप में, एक दूसरा मोर्चा खोलने से इंकार ही करते रहे थे। जब उन्हें यह मालूम पड़ने लगा कि अब तो सोवियत संघ अकेले ही जर्मनी को हरा देगा, तब उन्होंने डी-डे आक्रमण के साथ दूसरा मोर्चा खोला। एक प्रतिक्रियावादी पत्रिका ने कुछ समय पहले लिखा था: ‘‘पश्चिमी मित्र राष्ट्रों के सफ़ल नॉरमैंडी आक्रमण के बिना तो सिर्फ़ बर्लिन और वियना ही नहीं बल्कि पेरिस पर भी लाल झण्डा कभी का लहरा चुका होता।’’

 

बिगुल, मार्च, अप्रैल व मई 2008 अंक में प्रकाशित लेख श्रृंखला

 


 

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