मन्दी के विरोध में दुनियाभर में फैलता जनआक्रोश
इतिहास फिर करवट बदल रहा है
अजयपाल
अक्टूबर 2008 के पहले हफ्ते से विश्व पूँजीवाद के बुरे दिनों की नई शुरुआत हुई। तभी से पूँजीवाद के भाग्य पर राहू-केतू मँडराने लगे। अब शनि देव भी रूठ गये लगते हैं। बहुत यज्ञ हो लिये। सारे मंत्र पढ़े जा चुके हैं। लेकिन बुरे ग्रहों से इसका पीछा छूट ही नहीं रहा है। भविष्य में क्या होने वाला है? सही-सही कोई नहीं बता सकता। लेकिन जो हो रहा है वो पूँजीवाद के लिये अशुभ है।
पूँजीवाद के कलमघसीटों ने ‘इतिहास के अन्त’ का ऐलान किया था। फुकोयामा जैसे पूंजीवादी बौद्धिक पहलवानों ने ठोंक-बजाकर कहा था कि पूँजीवादी अर्थव्यवस्था और पूँजीवादी लोकतांत्रिक संसदीय प्रणाली सबसे बेहतर है। कहा गया था कि इनका कोई विकल्प नहीं है। लेकिन अब वे थूककर चाट रहे हैं। इतिहास के अन्त की बातें करने वाले फुकोयामा अब मान रहे हैं कि पूँजीवादी व्यवस्था के अन्तरविरोध गंभीर हैं। ‘इतिहास के अन्त’ का अन्त हो चुका है। इतिहास फिर से करवट बदल रहा है। इसके साथ ही अति-साम्राज्यवाद, उत्तर संरचनावाद, नव-उदारीकरण जैसे राग अलापने वालों के गले खराब हैं। विश्वव्यापी आर्थिक संकट के विस्फोट ने ही ऐसे सभी सिद्धान्तों को धज्जियाँ उड़ा दीं।
अमेरिकी वित्तीय बाजार से शुरू हुई मन्दी की आग पूरे विश्व में फैल चुकी है। अरबों डालरों के बेलआउट पैकेजों की बरसात भी इस आग पर काबू पाने में नाकाम रही है। सम्पत्ति रिस-रिसकर नीचे आती है, यह दावा करने वाले पूँजीवादी ‘ट्रिकल-डाउन’ सिद्धान्त से अब कुछ भी छनकर नीचे नहीं आ रहा है सिवाय तालाबन्दियों, छँटनियों के। हाँ, लेकिन बेलआउट पैकेजों की लगातार जारी बरसात से कम्पनियों और बैंकरों की तिजोरियाँ जरूर लबालब भर रही हैं।
इस सारी प्रक्रिया में एक नया अध्याय अब जुड़ रहा है। वह है जन-आक्रोश का दुनिया के बहुत सारे देशों में फैलना जो साधारण हड़तालों से लेकर पुलिस के साथ खूनी झड़पों के रूप में सामने आ रहा है। इतिहास खरगोश की चाल चलता है, कभी बहुत तेज, फिर छलाँगों के रूप में और कभी एकदम सोया लगता है। पिछले 30-32 वर्षा से विश्व स्तर पर ही सब कुछ ठहरा-ठहरा सा लगता था। लेकिन अब हालत बदल रही है। एक बार फिर जनसंघर्षों की हवा गर्म हो रही है।
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के मैनेजिंग डायरेक्टर डोमिनिक स्त्रॅस काहन के अनुसार इस वर्ष विश्व अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर शून्य से भी नीचे रहेगी। अफ्रीका के बारे में उन्होंने कहा कि दसियों लाख लोग गरीबी में धकेल दिये जायेंगे और वहां की नाजुक राजनीतिक व्यवस्था की कड़ी परीक्षा ली जायेगी। विश्व बैंक की अभी जारी एक रिपोर्ट में कहा गया है कि अमरीका के हाउसिंग बूम के बाद आयी मन्दी ने गरीब देशों को बर्बादी की तरफ धकेल दिया है जिनका असल समस्या से कुछ भी लेना-देना नहीं है। विश्व बैंक के अध्यक्ष राबर्ट ज़ोयलिक भी आने वाले जन-तूफान से डरते दिखाई देते हैं। उनका कहना है कि इस आर्थिक तूफान को विकासशील देशों में घुसने से हर हाल में बचाया जाना चाहिये और पूँजी निवेश के ज़रिये और नौकरियाँ पैदी करनी होंगी ताकि खासकर इन देशों में सामाजिक और राजनीतिक अशान्ति से बचा जा सके।
अफ्रीका और लातिनी अमरीका के कई तेल निर्यातक देशों के लिये कठोर समय है। वहाँ तेल की कीमतें 69 प्रतिशत तक गिर चुकी हैं और यह आँकड़ा सिर्फ दिसम्बर तक का है। ब्राजील जैसे विकासशील देश ने आठ वर्षों में अपना पहला व्यपार घाटा पेश किया जबकि उसके निर्यात 28 प्रतिशत तक गिर चुके हैं।
और इस सबके विरोध में जहाँ पहले-पहल मध्यवर्ग ने आवाज उठाई भी अब वहीं इन देशों के मजदूरों ने भी विरोध की इस आवाज में अपनी आवाज मिला दी है और नतीजा जबर्दस्त बड़ी-बड़ी हड़तालों और सत्ता के साथ उग्र एवं हिंसक झड़पों के रूप में सामने आ रहा है। अमेरिका, लातिन अमरीका, इंग्लैंड, यूरोप और एशिया तक सभी जगह विरोध की ज्वाला दहक रही है। यूरोप तो विरोध का केन्द्र बना हुआ है। ज़रा दुनियाभर में चल रहे संघर्षों पर एक नज़र डालते हैं:
आइसलैंड जो दुनिया के सबसे विकसित एवं सबसे अधिक उत्पादक देशों में गिना जाता है पिछले दिनों दिवालिया होने के कगार पर पहुँच गया। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष 110 अरब डालर की राहत लेकर भी पहुँचा पर कोई लाभ नहीं हुआ। आइसलैंड की राजधानी रेकजाविक हड़तालियों और पुलिस का अखाड़ा बना हुआ है। हड़तालियों को संसद तक पहुँचने से रोकने के लिये पुलिस ने उसके चारों तरफ बड़े स्तर पर आग जलाने का प्रबंध किया है। आइसलैंड की पूरी सरकार ने विरोध प्रदर्शनों के दबाव में इस्तीफा दे दिया है जिसे इस मन्दी की पहली अहम राजनीतिक क्षति कहा जा रहा है।
कुछ ही वर्ष पहले पूरा पूँजीवादी मीडिया पूर्वी यूरोप के देशों में खुले पूँजीवाद की स्थापना का जश्न मना रहा था। भूमण्डलीकरण के दौर में विकसित पूँजीवादी देशों को इन देशों में निवेश के लिए तैयार बाज़ार मिला और सारी कम्पनियाँ वहाँ निवेश के लिए दौड़ पड़ीं। आज मन्दी की मार से इन देशों की हालत लगातार बिगड़ती जा रही है और वहाँ के मेहनतकश सड़कों पर उतरने लगे हैं।
लातविया
बालटिक सागर के किनारे बसे इस शहर में 10000 से भी अधिक लोगों ने विरोध मार्च किया जो कि देर रात दंगे का रूप धारण कर गया जब प्रदर्शनकारियों का एक हिस्सा संसद की तरफ मुड़ गया और दंगा निरोधक पुलिस के साथ भिड़ गया। इसी दिन ऐसी ही घटनाएँ लिथुअनिया की राजधानी विलनियस में भी देखने को मिलीं। बाल्टिक क्षेत्र के सबसे बड़े बैंक ‘स्वीड बैंक ऑफ स्वीडन’ के मुताबिक लातविया की अर्थव्यवस्था में 10 प्रतिशत तक की मन्दी आयेगी जो पहले के अनुमान के दुगने से भी अधिक है। स्वीड बैंक ने एस्तोनिया और लिथुआनिया के बारे में कहा है कि इस देशों की अर्थव्यवस्थाएँ क्रमशः 7 और 4.5 फीसदी तक सिकुड़ सकती हैं।
फ्रांस
मन्दी की मार झेल रहे फ्रांस की सरकार ने कहा है कि इस वर्ष अर्थव्यवस्था एक 1.5 प्रतिशत तक सिमट जायेगी। लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि यह आँकड़ा 3 प्रतिशत को भी पार कर जायेगा। हमेशा की तरह सरकार संकट का पूरा बेाझ मज़दूरों के सिर पर पटक देना चाहती है और उन्हें मिलने वाली सुविधाओं में लगातार कटौती की जा रही है। इसके विरोध में 19 मार्च को फ्रांस ने इस मन्दी के दौर की सबसे बड़ी हड़ताल देखी जिसमें 30 लाख लोगों ने प्रत्यक्ष भागीदारी की। इस हड़ताल को देश की 80 फीसदी आबादी का समर्थन प्राप्त था। मार्सेई और पेरिस इस हड़ताल का केन्द्र बने हुए थे। यह हड़ताल राष्ट्रपति निकोलस सारकोजी की आर्थिक नीतियों के विरोध में हुई थी। हड़तालियों की माँग थी कि उनके वेतन में वृद्धि की जाये। स्कूल, न्यायालय, डाकघर, विश्वविद्यालय, यहाँ तक तक कि अस्पताल भी बन्द रहे। पूरे देश में 200 से अधिक मार्च आयोजित किये गये। पेरिस की पुलिस के मुताबिक केवल पेरिस में 85,000 लोगों ने प्रदर्शन किया (असल गिनती इससे कहीं अधिक है)। पेरिस में यह मार्च पाँच घण्टों तक पैलेस डे ला रिपब्लिक से पैलेस डे ला नेशन तक चला। यह एक बेहद उग्र प्रदर्शन था। अँधेरा होते ही पूरे क्षेत्र में सैकड़ों की तादाद में पुलिसकर्मी तैनात किये गये लेकिन इससे कुछ न बना। उग्र भीड़ ने जमकर हंगामा किया और जगह-जगह पुलिस से टक्कर ली।
यही नहीं संकट से फैले आक्रोश की लपटें फ्रांस के शहर स्त्रसबर्ग में हो रहे नाटो की शिखर बैठक तक भी पहुँच गयीं। सरकोज़ी की सरकार ने प्रदर्शनकारियों को रोकने के लिए ज़बर्दस्त इन्तज़ाम किया था। लेकिन पुलिस दमन का सामना युवाओं ने पेट्रोल बमों से किया। भड़की जनता ने कई सरकारी दफ्तरों को आग लगा दी। फ्रांसीसी और जर्मन पुलिस दवारा चलाये इस दमन आपरेशन पर 15 करोड़ यूरो का खर्चा आया।
इस बीच पिथीवियर्स नामक शहर में एक अमेरिकी फर्म 3 एम द्वारा संचालित फैक्टरी के मज़दूरों को जब फैक्टरी में की जा रही छँटनी की खबर मिली तो उन्होंने अपने अफसर को पूरी रात तक बंदी बनाये रखा। ऐसी कई घटनाओं की खबरें पूरे फ्रांस से मिल रही हैं। पूरे फ्रांस में चल रहे प्रदर्शनों में चल रहे संघर्षों में अहम बात यह है कि अब इन संघर्षों में औद्योगिक मजदूरों भी बड़ी गिनती में शामिल हो चुके हैं जो कि एक अच्छा संकेत है।
आयरलैंड
1967 से जब से आयरिश सरकार ने रिकार्ड रखना शुरू किया है तब से अब तक आयरलैंड में सबसे अधिक बेरोजगारों की संख्या इस समय है। 28 मार्च को राजधानी डबलिन की सड़कें लगभग दस लाख प्रदर्शनकारियों से भर गयीं।
आयरिश कांग्रेस ऑफ ट्रेड यूनियन्स की ओर से आयोजित इस मार्च ने सरकार को चेतावनी दी कि पब्लिक सेक्टर के कर्मचारियों के वेतन में और कटौती न करे। बैंकरों के पेटों में जनता के कई बिलियन यूरो पहले ही ठूँस चुकी सरकार पूरी बेहयाई के साथ बयान दे रही है कि वेतन कटौतियाँ जरूरी हैं क्योंकि घाटे के फूलते गुब्बारे को नियंत्रित का करने और कोई रास्ता नहीं है। सरकार ने 350,000 आयरिश मज़दूरों के वेतन में 7 प्रतिशत की कटौती की योजना भी पेश की है।
ब्रिटेन इस वर्ष क्रोध की गर्मी झेलेगा
यह कथन हमारा नहीं बल्कि ब्रिटेन की पुलिस का है। ब्रिटेन की पुलिस ‘क्रोध की गर्मी’ के लिये तैयारियाँ भी कर रही है क्योंकि मन्दी के शिकार लोग वित्तीय संस्थाओं के विरोध में सड़को पर उतर रहे हैं। एक सीनियर पुलिस अधिकारी का कहना है कि इस वर्ष गर्मियों में अस्सी के दशक जैसे या उससे भी बदतर ‘दंगे’ होने की सम्भावना है। पिछले दिनों ब्रिटेन में सैकड़ों तेल रिफाइनरी मज़दूरों नें प्रवासी मजदूरों के प्रयोग के विरोध में हड़तालें की। अधिकारियों के अनुसार अब बड़े विरोध प्रदर्शनों की संख्या और बढ़ सकती है। इस सब में एक कड़ी यह भी है कि काम्बेट-18 नामक नवफासीवादी संगठन बेरोज़गारी के ख़िलाफ़ मज़दूरों के गुस्से को प्रवासी मज़दूरों के ख़िलाफ़ मोड़ने की चाल चल रहा है।
जी-20 की मीटिंग को झेलना पड़ा जन प्रतिरोध
अप्रैल में जी-20 देशों की शिखर बैठक लंदन में हुई। पर लंदन का माहौल उनके लिये खुशगवार नहीं रहा। जब जी-20 की मीटिंग चल ही रही थी तो उसी समय बाहर जंग का माहौल बना हुआ था और तीन दिन तक वहाँ हजारों लोग पुलिस से झड़पें लेते रहे। यह लोग दुनिया के पूँजीवादी गिद्धों के विरोध में एकत्रित हुए थे। तीन दिन तक चले ये प्रदर्शन गरीबी, भुखमरी, ग्लोबल वार्मिंग, फिलिस्तीनी जनता के दमन और अफगानिस्तान युद्ध पर केन्द्रित थे लेकिन इन प्रदर्शनों में बार-बार जो बात उभरकर आ रही थी वह थी विश्वव्यापी आर्थिक संकट। प्रदर्शनकारी सरकार-विरोधी, पूँजीवाद विरोधी और धन विरोधी नारों की तख्तियाँ पकड़े हुए चल रहे थे। प्रदर्शन इतना उग्र था कि एक पत्रकार ने इसकी तुलना 1990 के ‘पोल टैक्स दंगों’ से की। कानून व्यवस्था कायम करने के नाम पर पुलिस पूरे आतंकी रूप में सामने आई। एक जगह तो प्रदर्शनकारियों को आठ घण्टे बैरीकेडों से घेरकर रखा गया। किसी को पानी पीने तक की अनुमति तक नहीं दी गयी। तथाकथित पूँजीवादी जनवाद अपने असली निर्मम रूप में सामने आया। प्रदर्शनकारी बड़ी गिनती में जख्मी तथा बेहोश भी हुए। एक व्यक्ति को अपनी जान गँवानी पड़ी।
विरोध को हासिल हुआ मन्दी का ईंधन
अमेरिका में बेरोजगारी दर 7.6 तक पहुँच चुकी है और लगातार बढ़ रही है। एक मीडिया कम्पनी के सर्वेक्षण के अनुसार नौकरियों की असुरक्षा और आर्थिक संकट के कारण 32 प्रतिशत अमेरिकी लोग मानसिक रोगों के शिकार हैं। अर्थशास्यिों ने चेतावनी दी है कि बेरोजगारी की दर साल के आखिर तक दो अंकों में पहुँच जायेगी। स्पेन में केवल जनवरी महीने में ही 2 लाख मजदूर अपने काम से हाथ धो बैठे। बेरोजगारी दर वहाँ 14 प्रतिशत पहुँच गई है। फ्रांस जैसी भारी हड़ताल और हिंसक प्रदर्शनों का सामना इटली की सत्ता को अक्टूबर में करना पड़ा जब प्रधानमंत्री बेरलुस्कोनी ने शिक्षा बजट पर कैंची चलाने की केशिश की। दिसम्बर में हजारों लोगों ने मैक्सिको शहर की गलियों को भर दिया। वे राष्ट्रपति फिलिप की नव-उदारवादी आथिक नीतियों के ख़िलाफ़ थे।
जब जनरल मोटर्स ने पूरे विश्व में अपनी कम्पनियों में छँटनी की बात कही तो कंपनी के जर्मनी स्थित मुख्य दफ्तरों पर 15000 वर्करों ने विरोध प्रदर्शन किया।
चीन
पूँजीवादी पुर्नस्थापना से लेकर आज तक चीन की जुझारू जनता ने नए पूँजीवादी सत्ताधारियों (नकली कम्युनिस्टों) को कभी भी चैन की नींद नहीं सोने दिया है। आज जब चीन भी विश्वव्यापी आर्थिक संकट से अछूता नहीं है उस समय भी चीनी जनता चुपचाप नहीं बैठी है। मन्दी के चलते दो करोड़ चीनी मजदूरों को काम से हाथ धोना पड़ा। बेरोजगारी दर 30 प्रतिशत तक पहुँच चुकी है। वर्ष 2008 के अंत तक साढे़ सात करोड़ स्नातक काम की तलाश में भटक रहे थे। 2006 में चीन में 90 हजार हड़तालें हुईं जिनकी संख्या 2008 में चार गुना हो गयी। चीनी अधिकारी पुलिस बलों को मजदूरों से निपटने की ट्रेनिंग दे रहे हैं। राष्ट्रपति हू जिनताओ को अन्देशा है कि मजदूरों में सुलगता यह आक्रोश सुनामी की तरह फट पड़ सकता है। इसलिए उन्होंने किसी भी हालत में फौज को पार्टी के प्रति वफ़ादार रहने का हुक्म दिया है।
आज पूरे विश्व में पूँजीवाद के विरोध में एक ज़बरदस्त उभार है और यह लहर पूँजीवाद के आर्थिक संकटों को गहरा बना सकती है, कुछ देशों के राजनीतिक समीकरण बदल भी सकते हैं। लेकिन इसे यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि विरोध की यह लहर पूँजीवाद को खत्म कर सकती है। कारण स्पष्ट है कि स्थिति का लाभ उठाकर संकट को क्रान्ति में बदल देने वाली शक्तियाँ, यानी सर्वहारा का हरावल संगठन बिखरा हुआ और रास्ते की तलाश में है। मज़दूरों का क्रान्तिकारी ट्रेड यूनियन आन्दोलन तथा अन्य मेहनतकश जनता के जुझारू संगठन मौजूद नहीं हैं। इन सभी जगहों पर चल रहे ये संघर्ष अभी संगठित नहीं हैं। इनमें स्वयंस्फूर्तता अधिक है। अगर कहीं संगठित हैं भी वहाँ भी संघर्षों की बागडोर आमतौर पर बुर्जुआ ट्रेडयूनियनवादियों, रैडिकल निम्न- पूँजीवादियों, अराजकतावादियों तथा कई जगहों पर संशोधनवादियों के हाथों में है।
लेकिन इन प्रदर्शनों और हड़तालों का इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है। इन हड़तालों में एक अहम बात यह रही है कि मध्यवर्ग के विरोध से शुरू हुई इन हड़तालों में अब सर्वहारा वर्ग बढ़चढ़कर भागीदारी कर रहा है। ये हड़तालें और प्रदर्शन गतिरोध के उस दौर को तोड़ती हैं जिसमें रोशनी की एक किरण भी आती हुई महसूस नहीं होती थी। इसने पूँजीवाद के अमर होने के झूठे दावों को सरेयाम बेपर्दा कर दिया है। भले ही क़ुछ वर्षों में विश्व आर्थिक संकट की सुनामी शाँत हो जाये लेकिन इस पर इस वित्तीय महाध्वंस से विश्व स्तर पर कई नये आर्थिक, राजनीतिक एवं सामाजिक समीकरण उभरेंगे और ये समीकरण इक्कीसवी सदी की नयी समाजवादी क्रान्तियों को एक नया वेग और बल देंगे।
बिगुल, अप्रैल 2009
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