एम.आर. डाइंग (ताजपुर रोड, लुधियाना) हादसा
लुधियाना के कारख़ाना मालिकों का खूँखार चेहरा फिर उजागर
लखविन्दर
16 नवम्बर को लुधियाना के ताजपुर रोड पर स्थित गीता नगर की गली नम्बर 5 में एम.आर. डाइंग में रंगाई मशीन के फटने के हादसे ने एक बार फिर लुधियाना के कारख़ाना मालिकों का खूँखार चेहरा सामने ला दिया है। इस हादसे ने एक बार फिर मज़दूरों के सामने मालिक-पुलिस-प्रशासन-श्रम विभाग की मिलीभगत का पर्दाफाश किया। कारख़ाना मालिक और पुलिस के बयानों के अनुसार इस हादसे में दो मज़दूर मारे गये और 4 घायल हुए।
लुधियाना के कारख़ाना मालिकों द्वारा मज़दूरों की जान की ज़रा भी परवाह न करते हुए सुरक्षा इन्तज़ामों को पूरी तरह नज़रअन्दाज़ किया जा रहा है। मुनाफे की हवस में मालिक मज़दूरों को सिर्फ मशीन के पुर्जे समझते हैं या फिर जानवर! वे लाखों रुपये अपनी अय्याशी पर तो उड़ा देंगे, लेकिन ख़तरनाक मशीनों पर काम करने वाले मज़दूरों की सुरक्षा के लिए एक पैसा भी ख़र्च करने को तैयार नहीं होते। वे अधिक से अधिक उत्पादन लेने के लिए मशीनों की ओवरलोडिंग करते हैं। ख़राब मशीनों पर भी मज़दूरों से काम कराते रहते हैं। ज्यादा-और-ज्यादा उत्पादन के लिए मज़दूरों पर हद से ज्यादा दबाव डालते हैं। यही कारण है कि लुधियाना में मज़दूर कभी ब्यॉलर फटने, कभी रंगाई की मशीनों के फटने, कभी मशीनों में लिपटने, कभी गैस सिलैण्डर फटने आदि के शिकार होते रहते हैं, मरते रहते हैं, अपाहिज होते रहते हैं।
असल में लुधियाना के कारख़ानों में मालिकों का जंगलराज खुलेआम चल रहा है। कारख़ाना मालिकों द्वारा श्रम कानूनों की खुलकर धज्जियाँ उड़ायी जा रही हैं। लुधियाना के लगभग सभी कारख़ानों के मज़दूरों के हक-अधिकारों पर कारख़ाना मालिकों द्वारा डाका डाला जा रहा है। न कहीं आठ घण्टे की दिहाड़ी का कानून लागू होता है, न न्यूनतम वेतन दिया जाता है, ज़बरदस्ती ओवरटाइम लगवाया जाता है। कारख़ानों में वहाँ काम कर रहे अधिकतर मज़दूरों का कोई रिकॉर्ड नहीं रखा जाता। कारख़ाने में काम करते हुए अगर किसी मज़दूर के साथ कोई हादसा हो जाये या उसकी जान ही चली जाये तो वह या उसका परिवार कोई मुआवज़ा माँगने के कानूनी तौर पर हकदार नहीं रह जाते।
कारख़ानों में होने वाले हादसों के बाद अकसर मज़दूरों की लाशें ग़ायब कर दी जाती हैं और पुलिस-प्रशासन को खिला-पिलाकर मामले को रफा-दफा कर दिया जाता है। लुधियाना के एम.आर. डाइंग कारख़ाने में रंगाई की मशीन फटने की दुर्घटना भी यही दर्दनाक कहानी बयाँ करती है।
एम.आर. डाइंग का मालिक हादसे के बाद एक भी ऐसा दस्तावेज़ पेश नहीं कर पाया, जिससे पता चलता हो कि कारख़ाने में कितने मज़दूर काम करते थे, कितनों का ई.एस.आई. कटता था, कितनों के पहचानपत्र बने थे, जो मज़दूर वहाँ काम करते थे, उनका स्थाई पता क्या था, मज़दूरों को वे कितना वेतन देता था। हादसे के बाद लोग इस कारख़ाने में काम करने वाले अपने सगे-सम्बन्धियों को ढूँढ़ने वहाँ आये, लेकिन अधिकतर का कुछ पता नहीं चल रहा था। मालिक ग़लतबयानी कर रहा है कि कारख़ाने में सिर्फ 25 मज़दूर ही काम करते थे, जबकि एक मज़दूर के मुताबिक इसमें कम से कम पौने दो सौ मज़दूर काम करते थे।
पुलिस और मालिक की मिलीभगत के बिना यह सारी धाँधली सम्भव ही नहीं। इस मामले में पुलिस की मिलीभगत दिन के उजाले की तरह साफ थी। मालिक द्वारा जिन मज़दूरों के मारे जाने की बात मानी भी गयी, उनकी लाशें भी पुलिस ने जाली रिश्तेदारों को सौंप दी। कारख़ाने में कुल कितने मज़दूर काम करते थे, इसकी जाँच करने की पुलिस ने कोई कोशिश नहीं की। बल्कि इस मसले को तो पूरी तरह रफा-दफा करने की कोशिश की गयी।
हादसा सुबह 9 बजे हुआ। लेकिन मालिक ने गेट नहीं खोला। ज़ोरदार धमाके की आवाज़ सुनकर इलाके के मज़दूर बड़ी संख्या में गेट पर जमा हो चुके थे। जब काफी देर तक गेट नहीं खोला गया, तो मज़दूरों ने गेट तोड़ना शुरू कर दिया। मज़दूरों ने काफी मशक्कत के बाद गेट खुलवाया। क्या होता रहा इतनी देर कारख़ाने के अन्दर? ऐसी कौन सी बात थी, जो आम जनता से छिपाने की कोशिश की जा रही थी? पुलिस ने इस बारे में जाँच क्यों नहीं की? ये चीज़ें मालिकों और पुलिस की मिलीभगत, पुलिस की सन्दिग्ध भूमिका के बारे में काफी कुछ ख़ुद-ब-ख़ुद बयान कर रही हैं।
सरकार का श्रम विभाग इतने खुले रूप में मालिकों की सेवा कर रहा है कि इस हादसे के बाद लेबर दफ्तर का कोई भी अधिकारी नहीं पहुँचा। इंस्पेक्टर कारख़ानों में आकर कभी सुरक्षा इन्तज़ामों की जाँच-पड़ताल नहीं करते। वे कभी मज़दूरों को उनके हक-अधिकारों के बारे में नहीं बताते, न ही उनसे पूछते हैं कि उन्हें कारख़ाने में क्या-क्या वेतन-भत्ते आदि प्राप्त हो रहे हैं। वे तो सीधे जाते हैं बाबू के दफ्तर और अपनी जेब गर्म करके लौट जाते हैं।
मालिकों के डाकू-गिरोह, जिन्हें वे तरह-तरह की एसोसिएशनों के नाम पर चला रहे हैं, मज़दूरों को लूटने, उनसे अधिक से अधिक मुनाफा निचोड़ने, मज़दूरों द्वारा अपने हक की आवाज़ बुलन्द करने पर उनके दमन की साज़िशें रचने के सिवा और कुछ नहीं हैं। कारख़ानों के मालिकों के गिरोह मज़दूरों पर संगठित हमला बोल रहे हैं। लेकिन उनके मुकाबले मज़दूर कहाँ हैं? मज़दूरों में अपने अधिकारों के बारे में जागरूकता न होना, अपने हक लेने के लिए एकताबद्ध और संगठित न होने के चलते ही आज मज़दूरों की यह स्थिति हो गयी है कि वे खुलेआम कारख़ाना मालिकों की मुनाफे की हवस का शिकार हो रहे हैं।
कारख़ाने में मज़दूरों की सुरक्षा के पुख्ता इन्तज़ामों सहित सभी श्रम कानूनों के लिए मज़दूरों को एकताबद्ध होना होगा। जब तक मज़दूर एकजुट नहीं होंगे, ये मुनाफाखोर मज़दूरों को ऐसे ही अपने मुनाफे की हवस का शिकार बनाते रहेंगे। व्यापक मज़दूर जनता की फौलादी एकता ही मज़दूरों की ज़िन्दगियों के साथ खिलवाड़ करने वाले इन मुनाफाखोर लुटेरों से उसकी रक्षा कर सकती है। मज़दूरों की संगठित ताकत ही कारख़ाना मालिकों-पुलिस-प्रशासन और सरकार के मज़दूर विरोधी गठबन्धन का मुँहतोड़ जवाब दे सकती है।
बिगुल, दिसम्बर 2009
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