सिख दंगों के दोषियों को सज़ा नहीं दिला सकेगी कोई भी सरकार
जाँच के ढोंग पर ढोंग होते रहेंगे
नीरज
13 दिसम्बर को संसद में फिर से नवम्बर 1984 के सिख विरोधी दंगों को लेकर बहस हुई। टी.वी. चैनलों की ख़बरों के मुताबिक विपक्ष ने सरकार को घेरने की पूरी कोशिश की। विरोधी पक्ष इससे अधिक न तो कुछ कर सकता है और न ही वह करना चाहता है और सरकार से भी इस मामले में संसदीय उछलकूद से अधिक उम्मीद नहीं की जा सकती। दोनों पक्ष संसद में सिर्फ़ एक काम ही कर सकते हैं और वे इस काम को बख़ूबी अंजाम दे रहे हैं – यानी फालतू बहसबाज़ी। वैसे भी, संसद सिर्फ़ बहस का अड्डा ही तो है।
अक्टूबर 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद पगलाये कांग्रेसी गुण्डा गिरोहों ने दिल्ली और देश के अन्य शहरों में हज़ारों सिखों को मौत के घाट उतार दिया था। सिखों का क़त्लेआम कर रहे इन गुण्डा गिरोहों के सरगना थे, सज्जन कुमार, भनलाल, जगदीश टाइटलर, हरकिशन लाल भगत आदि। सिखों के इस क़त्लेआम के बारे में इंदिरा गांधी के बेटे राजीव गांधी का ब्यान था, “जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है, तो धरती तो काँपती ही है।” उसने बेशर्मी से बेगुनाह सिखों के क़त्लेआम को वाजिब ठहराया। बाद में यह शख़्स देश के प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठा।
नवम्बर 1984 के दंगा पीड़ित 25 वर्ष तक भटकते रहे, लेकिन किसी को कहीं इंसाफ़ न मिला। समय गुज़रने के साथ उनकी संख्या लगातार कम होती चली गई है। उनमें से कई मर गये हैं। इंसाफ़ की माँग करने वालों में से कइयों को डरा-धमका कर चुप करा दिया गया है। कई लापता हैं। इस क़त्लेआम के दोषियों को सजाएँ भी मिलीं। लेकिन राजीव गांधी से लेकर भजन लाल, सज्जन कुमार, जगदीश टाइटलर आदि इस क़त्लेआम के रिंग लीडरों का कुछ भी नहीं बिगड़ा। उनमें से कई कांग्रेस पार्टी के उच्च पदों पर विराजमान हैं। वे प्रधानमन्त्री, मुख्यमन्त्री, मन्त्रियों की कुर्सियों पर सुशोभित रहे हैं।
जबकि 84 के सिक्ख क़त्लेआम के दोषी पुलिस अधिकारियों में से कई मर चुके हैं। कई रिटायर हो चुके हैं। कई “सबूतों की कमी” के चलते अदालतों में से बरी हो चुके हैं। देश का गृह मन्त्री मज़बूर है। उसका कहना है कि अब रिटायर हो चुके पुलिस अधिकारियों पर मुक़दमा नहीं चलाया जा सकता क्योंकि देश का क़ानून अदालतों से बरी हो चुके अफ़सरों पर दुबारा मुक़दमा चलाने की इजाज़त नहीं देता। देश के गृह मन्त्री के हाथ बँधे हैं। वह पच्चीस वर्षों से इंसाफ़ की उम्मीद लगाये बैठे लोगों को कह रहा है कि कुछ नहीं हो सकता।
सी.बी.आई. ने सज्जन कुमार, जगदीश टाइटलर और धर्मदास शाड्डी पर पच्चीस वर्ष बाद फिर मुक़दमा चलाने के लिए सरकार से इजाज़त माँगी है। लेकिन अभी तक सरकार की इजाज़त मिली नहीं है। इन तीनों में से धर्मदास शाड्डी मर चुका है। समझ नहीं आती कि सी.बी.आई. मर चुके व्यक्ति पर कैसे मुक़दमा चलायेगी। उल्लेखनीय है कि, इस व्यक्ति को इसी सी.बी.आई. ने पिछले वर्ष निर्दोष करार दिया था। लेकिन जनविरोध के कारण इसने फिर “जाँच” की है। इस पुनः जाँच के आधार पर ही सी.बी.आई. इन तीनों पर फिर से केस चलाने के लिए सरकार की इजाज़त चाहती है।
दरअसल, 84 के दंगों के ज़िम्मेदार व्यक्ति मौजूदा लुटेरी व्यवस्था में इतनी प्रभावशाली जगहों पर हैं कि कोई अदालत, कोई जाँच एजेंसी इनका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती और न ही इनका ऐसा कोई इरादा है। यह “गुण्डों की सल्तनत” है। जिस हमाम में सभी नंगे हों वहाँ कौन किसे सज़ा देगा। जाँच एजेंसियाँ, अदालतें, राजनीतिज्ञ सभी एक हैं।
हो सकता है अब फिर से नवम्बर 84 के सिख क़त्लेआम के इन मुख्य दोषियों पर मुक़दमा-मुक़दमा का खेल खेला जाये। लेकिन इससे इनका कुछ भी बिगड़ने वाला नहीं है। चाहे गुजरात हो, चाहे बाबरी मस्जिद गिराया जाना और बाद में मुसलमानों का क़त्लेआम हो और चाहे नवम्बर ’84, सब जगह एक ही हाल है। कहीं भी लोगों को न तो इंसाफ़ मिला है और न ही मिलने की कोई उम्मीद है। बात सिर्फ़ दंगों या किसी एक सम्प्रदाय के संगठित क़त्लेआम की नहीं है। देश के करोड़ों मेहनतकश लोगों के लिए कहीं भी किसी भी मामले में कोई इंसाफ़ नहीं है। दरअसल ये अदालतें, जेल, थाने, संसद, विधानसभाएँ, लोगों के इंसाफ़ के लिए नहीं बल्कि उनके दमन के साधन हैं। ये करोड़ों मेहनतकशों के ख़ून-पसीने की कमाई को बड़े पूँजीपतियों, भूमिपतियों, साम्राज्यवादियों द्वारा खुलेआम हड़प लिये जाने को सुनिश्चित करने के साधन हैं।
आम जनता को इंसाफ़ और लूट-दमन से मुक्ति इस लुटेरी व्यवस्था को जड़ से उखाड़ कर ही मिल सकती है। मेहनतकश लोगों को जाति, मज़हब, क्षेत्रीय, भाषाई झगड़ों से ऊपर उठकर अपनी एकता क़ायम करनी होगी। सिर्फ़ तभी लूट-दमन की बुनियाद पर टिके इस निज़ाम को जड़ से उखाड़ा जा सकेगा।
बिगुल, जनवरी-फरवरी 2010
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