माँगपत्रक शिक्षणमाला – 12
बाल मज़दूरी और जबरिया मज़दूरी के हर रूप का ख़ात्मा मज़दूर आन्दोलन की एक अहम माँग है

मज़दूर माँगपत्रक 2011 क़ी अन्य माँगों — न्यूनतम मज़दूरी, काम के घण्टे कम करने, ठेका के ख़ात्मे, काम की बेहतर तथा उचित स्थितियों की माँग, कार्यस्थल पर सुरक्षा और दुर्घटना की स्थिति में उचित मुआवज़ा, प्रवासी मज़दूरों के हितों की सुरक्षा, स्त्री मज़दूरों की विशेष माँगों, ग्रामीण व खेतिहर मज़दूरों, घरेलू मज़दूरों, स्वतन्त्र दिहाड़ी मज़दूरों की माँगों के बारे में विस्तार से जानने के लिए क्लिक करें। — सम्पादक

12495222_10207407857330002_4129716330256218167_nअन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आई.एल.ओ.) की हाल की रिपोर्ट के अनुसार, पूरी दुनिया में 5 से 17 वर्ष के बीच की उम्र के लगभग 25 करोड़ बाल मज़दूर हैं। पर वास्तविक तस्वीर इससे कहीं अधिक भयंकर है। स्वयं आई.एल.ओ. भी स्वीकार करता है कि दस वर्ष से कम उम्र के बाल श्रमिकों और घरों में नौकरानी के रूप में काम कर रही लड़कियों की सही संख्या के बारे में कोई जानकारी उपलब्धा नहीं है। अकेले दक्षिण एशिया में 20 करोड़ से अधिक बाल श्रमिक हैं। विश्व के कुल बाल मज़दूरों का करीब 40 प्रतिशत सिर्फ दक्षिण एशियाई देशों में हैं। भारत सरकार के आँकड़ों के अनुसार देश में 2 करोड़ बाल मज़दूर हैं। ग़ैर-सरकारी संगठनों का कहना है देश में 5 से 14 वर्ष की उम्र के 6 करोड़ से अधिक बाल मज़दूर अपना बचपन गला रहे हैं। लेकिन कुछ संगठनों के अनुसार अगर घर में रहकर काम करने वाले बच्चों और स्कूल जाने के साथ-साथ घरेलू उद्योगों में काम करने वाले बच्चों को भी जोड़ लिया जाये तो यह संख्या 10 करोड़ तक हो सकती है। कुछ बच्चों को 18 घण्टे रोज़ तक काम करने के लिए मज़बूर किया जाता है, और अक्सर तो उन्हें फैक्ट्री या काम की जगह से बाहर ही नहीं निकलने दिया जाता।

गाँवों या दूर-दराज के इलाक़ों से मज़दूरी कराने लाये गये बच्चों को अक्सर बँधुआ बनाकर बेच दिया जाता है। नेपाल के ग्रामीण इलाक़ों से छोटी लड़कियों को कालीन उद्योग में काम दिलाने के बहाने भारत लाया जाता है और यहाँ उन्हें वेश्यावृत्ति कराने वाले गिरोहों के हाथों बेच दिया जाता है। ‘तहलका’ पत्रिका के जुलाई 2012 के अंक में छपी एक रिपोर्ट बताती है कि बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश से अगवा किये गये सैकड़ों बच्चों से पश्चिम उत्तर प्रदेश के धनी किसानों के खेतों में काम कराया जा रहा है।

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आई.एल.ओ. की रिपोर्ट के अनुसार, भारत, पाकिस्तान और बंगलादेश सहित दक्षिण एशियाई देशों में 10 से 14 वर्ष के बीच की उम्र के बाल मज़दूरों की संख्या का प्रतिशत सबसे ज्यादा है। विश्व में कम से कम पन्द्रह करोड़ बच्चे खदानों में, कालीन और माचिस उद्योग आदि में ग़ुलामों की ज़िन्दगी बसर करते हैं। करोड़ों दूसरे बच्चे बूट पालिश, घरेलू नौकर और कूड़ा बीनने का काम करते हैं या ढाबों-होटलों में बारह से लेकर सोलह घण्टे तक काम करते हैं। लड़क़े-लड़कियों  दोनों में ही बाल वेश्याओं की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है।

कम्प्यूटर, संचार क्रान्ति, सूचना क्रान्ति, जेनेटिक इंजीनियरिंग आदि के जिस युग में खुली बाज़ार व्यवस्था को पूरी दुनिया में स्थापित करके विकास की नयी ऊँचाइयाँ छूने के दावे किये जा रहे हैं, उसी युग में बच्चों को नर्क के अन्धेरे रसातल में जीने के लिए कौन बाध्य कर रहा है?

बाल मज़दूरी की समस्या कोई नयी नहीं है जो आज के दौर में  पैदा हुई हो। पूँजीवादी वैभव का पूरा अम्बार बच्चों और स्त्रियों के ख़ून और पसीने में लिथड़ा हुआ है। उसका एक बड़ा हिस्सा उनके सस्ते श्रम को निचोड़कर तैयार किया गया है। ‘सस्ता से सस्ता ख़रीदना और मँहगा से मँहगा बेचना’  यह पूँजीवाद का मूल मन्त्र है। कच्चा माल और मानव-श्रम पूँजीपति सस्ता से सस्ता ख़रीदता है और अपना माल बाज़ार में महँगा से महँगा बेचता है और इस प्रक्रिया में मज़दूरों के श्रम का बड़ा से बड़ा हिस्सा निचोड़कर पूँजी का अम्बार खड़ा करता है। कम से कम समय में ज्यादा से ज्यादा उत्पादन करके मज़दूर के ज्यादा से ज्यादा अतिरिक्त श्रम को निचोड़ने के लिए वह नयी से नयी मशीनों का इस्तेमाल करता है, जिन पर काम करने वाला मज़दूर बहुत कम समय में ही अपने गुज़ारे के लिए मिलने वाली पगार के बराबर मूल्य का उत्पादन कर लेता है और बाकी समय में वह जो पैदा करता है, उसकी बिक्री से मिलने वाली रकम अतिरिक्त मूल्य होती है। इस तरह मुनाफा बढ़ाने के लिए पूँजीपति उन्नत और आधुनिक मशीनें लाता है, जिस पर मज़दूरों की एक छोटी तादाद ही बहुत अधिक उत्पादन कर लेती है। मज़दूरों की शेष आबादी काम से बाहर कर दी जाती है। ‘औद्योगिक बेरोज़गारों की इस रिज़र्व सेना’ की बढ़ती आबादी मज़दूरों की मोल-तोल की क्षमता कम करती जाती है और नतीजतन मज़दूरी की दर नीचे हो जाती है।

बड़े पैमाने पर बेरोजगार और छँटनीशुदा मेहनतकश अपना श्रम सस्ती से सस्ती दरों पर बेचने के लिए मजबूर हो जाते हैं। उन्हें जब कोई काम नहीं मिलता तो मजबूर होकर वे अपनी स्त्रियों और बच्चों को भी किसी तरह के काम की तलाश में भेजते हैं जिनका श्रम ठेकेदारों, कारख़ानेदारों, व्यापारियों और तरह-तरह के घरेलू कामों के लिए अमीर लोगों को मिट्टी के मोल हासिल हो जाता है। बड़े उद्योगों में संगठित मज़दूरों को जो सुविधाएँ देने और जिन सेवा शर्तों को मानने के लिए पूँजीपतियों को बाधय होना पड़ता है, उन सुविधाओं और उन सेवा शर्तों के बिना ही छोटे-छोटे वर्कशापों में, असंगठित क्षेत्र में मज़दूरों, ख़ासकर स्त्रियों और बच्चों के सस्ते श्रम को निचोड़ने का काम सम्पन्न हो जाता है। उदारीकरण के दौर में पूरी दुनिया में जो नीतियाँ लागू की जा रही हैं, उनके तहत अब छोटे-बड़े सभी कारख़ानों में 90 प्रतिशत से ज्यादा काम ऐसे मज़दूरों से कराये जा रहे हैं जिन्हें किसी तरह की कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं मिलती, जिनके लिए सारे श्रम क़ानून बेमानी हैं। ऐसे में, बच्चों के श्रम की लूट और भी आसान और बेरोकटोक हो गयी है।

आज स्थिति यह है कि मज़दूरों के संगठित दबाव से बचने के लिए और उनके श्रम को अत्यन्त सस्ती दरों पर ख़रीदने के लिए बड़ी-बड़ी देशी-विदेशी कम्पनियाँ भी कम्प्यूटर चिप्स और इलेक्ट्रॉनिक सामानों जैसे अत्याधुनिक चीज़ों के उत्पादन की प्रक्रिया को भी कई हिस्सों में तोड़कर छोटी-छोटी कुटीर उद्योग या घरेलू उद्योगनुमा इकाइयों में बिखरा दे रही है जहाँ ज्यादा काम ठेके पर कराया जाता है और जिनमें स्त्रियाँ और बच्चे बेहद कम मज़दूरी पर दस-दस, बारह-बारह घण्टे काम करते हैं।

बड़ी संख्या में बेरोज़गार मज़दूरों और अपनी जगह-जमीन से उजड़कर सर्वहारा की कतारों में शामिल होते जा रहे ग़रीब व मध्यम किसानों के परिवार जब अपने बच्चों का पेट नहीं पाल पाते, तो बूट पालिश करने, कूड़ा बीनने तथा वर्कशापों और ढाबों-चायखानों-होटलों में काम करने के लिए अपने बच्चों को भेजने के अलावा उनके पास कोई रास्ता नहीं रहता, क्योंकि दूसरा रास्ता उनके पास सिर्फ भुखमरी का ही होता है। इस स्थिति का भी लाभ पूँजीपति एक और ढंग से उठाते हैं। वे बालिग मज़दूरों को तो काम नहीं देते, पर औरतों और बच्चों को काम दे देते हैं, क्योंकि उनसे बहुत कम पैसे देकर अधिक काम लिया जा सकता है।

स्वयंसेवी संस्थाएँ, अंतरराष्ट्रीय संगठन और कैलाश सत्यार्थी के ‘बचपन बचाओ आन्दोलन’ जैसे मुहिम के कर्ताधर्ता प्राय: जब बाल मज़दूरी के ख़िलाफ आवाज़ उठाते हैं तो वे ग़रीबों को ही यह उपदेश पिलाते हैं कि वे अपने बच्चों को काम पर भेजकर उनका बचपन तबाह करने की जगह उन्हें पाठशालाओं में पढ़ने के लिए भेजें। दूरदर्शन पर सरकार भी यही प्रचार दिखाती है कि बच्चों के हाथ में काम के औज़ार नहीं खिलौने और किताबें होनी चाहिए। ‘सेव द चिल्ड्रेन’ और ‘क्राई’ जैसी स्वयंसेवी संस्थाएँ और यूनीसेफ एवं यूनेस्को जैसी संयुक्त राष्ट्रसंघ की एजेंसियाँ भी ग़रीब माता-पिता को ही झाड़ पिलाती नजर आती हैं कि वे शिक्षा का महत्व नहीं समझते और अपने बच्चों को काम पर लगा देते हैं।

इन सारी नसीहतों का निचोड़ यह होता है कि बाल-मज़दूरी के अभिशाप की ज़िम्मेदारी ग़रीब माँ-बाप के स्वार्थ, अमानवीयता और पिछड़ेपन की है। पूरे समाज के पूँजीवादी ढाँचे को कहीं भी कठघरे में नहीं खड़ा किया जाता और किसिम-किसिम के समाधानों और चमकदार योजनाओं से समस्या को ढँक दिया जाता है। इससे ज्यादा घृणास्पद और ग़रीब मेहनतकशों के लिए अपमानजनक बात कुछ और हो ही नहीं सकती।

एक ग़रीब माँ-बाप अपने बच्चे से मज़दूरी इसलिए नहीं करवाते कि वे उन्हें प्यार नहीं करते या कि वे कामचोर होते हैं। वे उन्हें इसलिए ग़ुलामी के उस भयंकर नर्क में भेजते हैं कि वे ख़ुद उनका पेट नहीं भर सकते और भूख की जलती आग में झुलसकर मरने देने के बजाय वे अपने बच्चों के ज़िन्दा रहने के एकमात्र विकल्प को चुनना पसन्द करते हैं। कई ग़रीब माँ-बाप अगर ख़ुद काम नहीं करते और अपने बच्चों की कमाई खाते हैं तो यह उनकी मज़बूरी है न कि स्वार्थ या शौक। अगर कुछेक ग़रीब माँ-बाप ऐसे हैं भी, तो इसके दोषी वे ख़ुद नहीं, यह सामाजिक व्यवस्था है जिसने उनका इस कदर अमानवीकरण कर डाला है।  ”बचपन बचाने” का दावा करने तरह-तरह के लोगों से पूछा जाना चाहिए कि उनके अभियानों से क्या इस देश के करोड़ों मज़दूर और बँधुआ बच्चों की ज़िन्दगी मुक्त हो सकती है? अगर ऐसे अभियानों से सभी मज़दूर बच्चों को एकबारगी मुक्ति मिल भी जाये तो लुटेरी पूँजीवादी नीतियाँ क्या उनकी जगह भरने के लिए बेघर-बेबस लोगों के उतने ही बच्चों को नहीं ला खड़ा करेंगी? क्या महज़ कुछ कारखानों-खदानों से बाल मज़दूरों को मुक्त कराते रहने से बाल मज़दूरी के काले कलंक से मानवता मुक्त हो सकेगी? क्या इन नये मसीहाओं ने सोचा है कि लाखों बाल मज़दूर भी यदि मुक्त हो जायें तो वे क्या खायेंगे, क्या पहनेंगे और किस स्कूल में पढ़ेंगे? देर-सबेर वे उसी दुश्चक्र में जा फँसेंगे, क्योंकि तमाम स्वयंसेवी संस्थाओं के ख़ैरात से उन सबकी परवरिश नहीं सम्भव होगी। उनके माँ-बाप की यदि इतनी क्षमता होती तो वे बाल मज़दूरी करने को मज़बूर ही नहीं होते। आख़िर ये तमाम ‘सान्ता क्लाज़’ बच्चों को बँधुआ बनाने वाली असली ताक़तों की तरफ उँगली क्यों नहीं उठाते? बाल मज़दूरों की मुक्ति के लिए करोड़ों रुपये खर्च करके प्रचार अभियान चलाने और यहाँ-वहाँ से कुछ दर्जन बच्चों को मुक्त कराकर मीडिया में फोटो चमकाने के अतिरिक्त अपनी ताक़त का एक छोटा-सा हिस्सा भी ये लोग साम्राज्यवाद और पूँजीवाद के विरुद्ध जनता को संगठित करने पर क्यों नहीं खर्च करते?

दरअसल, हर पूँजीवादी व्यवस्था को भ्रम पैदा करने के लिए, अपनी असलियत पर पर्दा डालने के लिए और जन असन्ताषे के दबाव को कम करते रहने वाले सेफ्टी-वॉल्व के रूप में कुछ सुधारवादियों की ज़रूरत पड़ती ही रहती है। साम्राज्यवादियों के पैसे से चलने वाली स्वयंसेवी संस्थाएँ और सुधारवादी संगठन तथा सरकार के सुधार कार्यक्रम यही करते हैं। यूनिसेफ, यूनेस्को, आई.एल.ओ. आदि भी यह काम करते हैं। बाल-मज़दूरी विरोधी सुधारवादी चिल्ल-पों के पीछे भी यही दूरदृष्टि काम कर रही है। ”बचपन बचाओ” का डिटर्जेण्ट वास्तव में इस पूँजीवादी व्यवस्था के दामन पर लगे बच्चों के ख़ून के धब्बों को रगड़-रगड़कर धोने का काम कर रहा है। उसका मक़सद इस व्यवस्था को नष्ट करने के उद्यम में लगकर वास्तव में बाल-मज़दूरी का समूल नाश करना नहीं है, बल्कि इसका दिखावा करके इस व्यवस्था के बारे में भ्रम पैदा करना है, जनता की चेतना का क्रान्तिकारीकरण करने के बजाय उसे भोथरा बनाना है।

बाल मज़दूरी के मुद्दे को पूरी आबादी के रोज़गार और समान एवं सर्वसुलभ शिक्षा के मूलभूत अधिकार के लिए संघर्ष से अलग करके देखा ही नहीं जा सकता। जो व्यवस्था सभी हाथों को काम देने के बजाय करोड़ों बेरोज़गारों की विशाल फौज में हर रोज़ इज़ाफा कर रही है, जिस व्यवस्था में करोड़ों मेहनतकशों को दिनो-रात खटने के बावज़ूद न्यूनतम मज़दूरी तक नहीं मिलती, उस व्यवस्था के भीतर से लगातार बाल-मज़दूरों की अन्तहीन क़तारें निकलती रहेंगी। उस व्यवस्था पर ही सवाल उठाये बिना बच्चों को बचाना सम्भव नहीं, बाल मज़दूरों की मुक्ति सम्भव नहीं।

तो क्या जब तक पूँजीवाद ख़त्म नहीं होगा, तब तक बाल मज़दूरी ख़त्म करने की कोशिशें छोड़ देनी चाहिए? कतई नहीं, बल्कि इन्हें पुरज़ोर ढंग से चलाया जाना चाहिए। पर इसका परिप्रेक्ष्य यदि क्रान्तिकारी नहीं होगा, साम्राज्यवाद-पूँजीवाद विरोधी नहीं होगा, यदि साम्राज्यवाद-पूँजीवाद विरोधी जनता के विभिन्न वर्गों और हिस्सों के संघर्षों से यह आन्दोलन जुड़ा नहीं होगा और यदि यह एक समग्र क्रान्तिकारी कार्यक्रम का अंग नहीं होगा तो यह महज एक सुधारवादी आन्दोलन होगा जो दूरगामी तौर पर व्यवस्था की सेवा ही करेगा।

इसीलिए, मज़दूर माँगपत्रक आन्दोलन ने यह माँग उठायी है कि बाल मज़दूरी उन्मूलन क़ानून को प्रभावी ढंग से लागू कराया जाये। इसके अमल की निगरानी के लिए हर ज़िले में समितियाँ गठित की जायें जिनमें ज़िला प्रशासन के अधिकारियों के साथ श्रम मामलों के विशेषज्ञ, जनवादी अधिकार आन्दोलन के कार्यकर्ता और सामाजिक कार्यकर्ता शामिल हों। मज़दूर माँगपत्रक में साफ़ कहा गया है कि बाल मज़दूरी का कारण भयंकर ग़रीबी, बेरोज़गारी और सामाजिक सुरक्षा का अभाव है। इसलिए बाल मज़दूरी को प्रभावी तरीक़े से कम करने के लिए ज़रूरी है कि न्यूनतम मज़दूरी, ग़रीबों की सामाजिक सुरक्षा, खाद्य सुरक्षा, रोज़गार, शिक्षा, चिकित्सा आदि के अधिकारों को मुहैया कराने के लिए ज़रूरत मुताबिक़ प्रभावी क़ानून बनाये जायें और उन्हें प्रभावी ढंग से लागू कराया जाये।

इसके साथ ही मज़दूर माँगपत्रक की माँग है कि बँधुआ मज़दूरी सहित किसी भी रूप में जबरिया श्रम पर रोक लगाने के लिए सख्त क़ानूनी प्रावधान किये जायें, उन पर श्रम विभाग द्वारा अमल कराया जाये तथा इस अमल पर सार्वजनिक निगरानी के लिए लोकतान्त्रिक ढंग की समितियाँ बनायी जायें।

 

मज़दूर बिगुल, अगस्त-सितम्बर 2012

 


 

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