मोदी के विकास के “गुजरात मॉडल” की असलियत
लीना मेंहदौले
विकास के “गुजरात मॉडल” का ढोल संघी बैण्ड वाले ख़ूब बजाते हैं और मीडिया भी इसका बखान करने में पीछे नहीं रहता। पर तथ्य कुछ और ही कहानी बयान करते हैं।
यह सही है कि गुजरात में राजमार्गों, शॉपिंग मॉल्स, होटलों, औद्योगिक क्षेत्रों और वाणिज्यिक गतिविधियों का विस्तार हुआ है। प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद के मामले में गुजरात और महाराष्ट्र देश में सबसे ऊपर हैं (वैसे भाजपा शासन के पहले भी गुजरात सापेक्षतः विकसित राज्य था)।
पर इस समूचे विकास का दूसरा पहलू यह है कि यह सब मुट्ठीभर उद्योगपतियों, व्यापारियों, धनी किसानों और उच्च मध्यवर्गीय आबादी तक सिमटा हुआ है। गुजरात देश में धनी-ग़रीब के बीच सबसे अधिक अन्तर वाले क्षेत्रों में से एक है। प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद में अग्रणी इस राज्य में बाल कुपोषण 48 प्रतिशत है जो राष्ट्रीय औसत से ऊपर है और इथियोपिया और सोमालिया जैसे दुनिया के अति पिछड़े देशों से भी (वहाँ 33 प्रतिशत है) अधिक है। ‘ग्लोबल हंगर इण्डेक्स’ के अनुसार, गुजरात भारत के पाँच सबसे पिछड़े राज्यों में आता है। इसकी स्थिति बेहद ग़रीब देश हाइती से भी बदतर है। बाल मृत्यु दर भी गुजरात में 48 प्रतिशत है। भारत में इस मामले में सबसे बदतर राज्यों में इसका दसवाँ स्थान है। गुजरात के एक तिहाई वयस्कों का ‘बॉडी मास इण्डेक्स’ 18.5 है। इस मामले में यह भारत का सातवाँ सबसे बदतर राज्य है। प्रसव के समय स्त्रियों की मृत्यु की दर भी गुजरात में सबसे ऊपर है।
शिक्षा, स्वास्थ्य और प्रति व्यक्ति आय के मामले में यह देश के आठ राज्यों से पीछे है।
सरकारी मानकों के हिसाब से भी गुजरात में ग्रामीण ग़रीबी की तस्वीर भयावह है। ग्रामीण ग़रीबी वहाँ 51 प्रतिशत है। अनुसूचित जनजातियों में यह 51 प्रतिशत, अनुसूचित जातियों में 49 प्रतिशत और पिछड़ी जातियों में 42 प्रतिशत है।
अभी गुजरात सरकार द्वारा जारी आँकड़ों के अनुसार जो व्यक्ति शहर में 17 रुपये रोज़ और गाँव में 11 रुपये रोज़ कमा लेता है वह ग़रीब नहीं है! इस पर चारों ओर निन्दा होने के बाद सरकार के एक मंत्री ने फ़रमाया कि गुजरात में दूसरे राज्यों से आये लोगों के कारण ग़रीबी आ गयी है।
औने-पौने दामों में किसानों से ज़मीन लेकर कारपोरेट घरानों को देने के मामले में गुजरात सबसे आगे है। साथ ही उद्योगों को कारपोरेट करों में भारी छूट और सस्ती दरों पर बिजली भी दी जाती है। इन्फ्रास्ट्रक्चर का सारा विकास वहाँ इन्हीं उद्योगपतियों को ध्यान में रखकर किया गया है। इसीलिए गुजरात उद्योगपतियों के लिए पूँजी लगाने की सबसे पसन्दीदा जगह बन गया है।
सरदार सरोवर बाँध के विस्थापित आज तक पुनर्वास की लड़ाई लड़ रहे हैं। उनसे बहुत बड़ी आबादी उन विस्थापित किसानों और आदिवासियों की है जिनकी ज़मीनें सड़कों, उद्योगों, शहरी आवासीय योजनाओं और रिसॉर्ट-होटलों आदि के व्यापक विस्तार ने लील लीं। सरकार ने कौड़ियों के मोल ज़मीन लेकर उद्योगपतियों और बिल्डरों के हवाले कर दी है।
गुजरात में सबसे बदतर स्थिति कारख़ाना मज़दूरों की है। वे एक फासिस्ट आतंकराज में जीते हैं, जहाँ संगठित होने या आवाज़ उठाने की हर कोशिश को बेरहमी से कुचल दिया जाता है। ज़्यादातर मज़दूर असंगठित हैं जिनके लिए श्रम क़ानूनों का कोई भी मतलब नहीं है। आप्रवासी मज़दूरों की बहुतायत है जो नारकीय स्थितियों में ज़िन्दगी बसर करते हैं। उनकी झुग्गी-बस्तियों में कहीं भी उस ‘वाइब्रेंट गुजरात’ का साया तक नहीं दिखता, जिसका विज्ञापन मोदी अमिताभ बच्चन से करवाते हैं और पैसे वालों को गुजरात घूमने आने के लिए न्यौतते हैं। मज़दूरों पर क़ायम यह आतंक राज ही आज भारतीय उद्योगपतियों को यह सोचने को प्रेरित कर रहा है कि मोदी यदि देश के प्रधानमंत्री बन गये तो बिना किसी श्रमिक अशान्ति का सामना किये वे देशभर के मज़दूरों की हड्डियाँ निचोड़ सकेंगे। भारतीय पूँजीवाद के संकट का समाधान इसीलिए उन्हें मोदी के नेतृत्व वाले भाजपा के फासिस्टी आतंकराज में दीख रहा है।
मोदी के भोंपू और चम्पू दावा करते हैं कि 2002 के नरसंहार (जिसको वे “क्रिया की स्वाभाविक प्रतिक्रिया” मानते हैं) के बाद गुजरात में कोई दंगे नहीं हुए। ज़मीनी सच्चाई यह है कि गुजरात की आम मुस्लिम आबादी भीषण आतंक, असुरक्षा और सामाजिक अलगाव के माहौल में जी रही है। शहरों (और कुछ ग्रामीण इलाक़ों तक में) में जो हिन्दू बहुल इलाक़े हैं, वहाँ से अपने मकान-दुकान बेचकर मुस्लिम लोग उन इलाक़ों में चले गये हैं जो मुस्लिम बहुत हैं। मध्यवर्गीय मुस्लिमों को भी अपार्टमेण्ट्स में मालिकाने या किराये की जगह नहीं मिलती। नयी ज़मीनें, प्लॉट या मकान भी उन्हें ख़रीदने में काफ़ी परेशानी आती है। जो ग़रीब मुस्लिम आबादी है, वह गुजरात के शहरों में कहीं एक ओर सघन बसाहटों में पनाह ले रही है। आर्थिक सीमा और सामाजिक पार्थक्य के अतिरिक्त गहरा असुरक्षा-बोध भी इसका कारण है। इस तरह गुजरात में हिन्दू-मुसलमान आबादी का अलगाव अभूतपूर्व ढंग से बढ़ गया है। मुस्लिम आबादी का ‘घेटोकरण’ हो रहा है।
मोदी वास्तव में देश में “गुजरात मॉडल” लागू करना चाहते हैं। पर वह मॉडल, जैसा वह बताते हैं वैसा नहीं होगा, बल्कि जैसा वास्तव में आज का गुजरात है वैसा होगा। बल्कि उससे भी कहीं अधिक बदतर होगा।
मज़दूर बिगुल, जनवरी-फरवरी 2014
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन