बंगाल के अकाल पर नयी पुस्तक : ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के बर्बर युद्ध-अपराध पर नयी रोशनी

 

जब दूसरे विश्वयुद्ध की बात होती है तो साम्राज्यवादियों की बहुत सारी बर्बरताएँ एकबारगी दिमाग़ में कौंध जाती हैं। नात्सी यन्त्रणा शिविरों में 60 लाख यहूदियों का मारा जाना, 50 लाख रोमाओं (जिप्सियों) का सफाया, दो करोड़ सोवियत नागरिकों और 80 लाख चीनी नागरिकों का मारा जाना, हिरोशिमा-नागासाकी पर अमेरिकी परमाणु बम गिराये जाने से 2 लाख लोगों की तत्काल मौत और 1 लाख 30 हज़ार लोगों की बाद में कैंसर व अन्य विकिरण जनित रोगों से मौत… साम्राज्यवाद का यह ख़ूनी बैलेंसशीट भला कौन भूल सकता है?

zainulabedin famineउसी दौरान एक और भयावह घटना घटी जो नरसंहार के ही समकक्ष थी, लेकिन जिसकी चर्चा साम्राज्यवादी कुकृत्य के रूप में बहुत कम ही होती है। यह घटना थी, 1943 का कुख्यात बंगाल का अकाल। इस विषय पर अभी हाल ही में मधुश्री मुखर्जी की एक पुस्तक ‘चर्चिल्स सीक्रेट वार : द ब्रिटिश एम्पायर एण्ड द रैवेजिंग ऑफ इण्डिया डयूरिंग वर्ल्ड वार-II’ (बेसिक बुक्स, न्यूयार्क, 2010) प्रकाशित हुई है। मुखर्जी ने अपने शोधकार्य में इस सच्चाई को पुष्ट करने वाले ऐतिहासिक साक्ष्य दिये हैं कि एक वर्ष तक जारी यह भीषण अकाल प्राकृतिक आपदा नहीं था बल्कि ”मानव-निर्मित” था। इस मानवीय महाविपदा के लिए पूरी तरह से तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमन्त्री चर्चिल की साम्राज्यवादी नीतियाँ ज़िम्मेदार थीं। मुखर्जी का यह भी दावा है कि इस अकाल में मरने वालों की संख्या 30 लाख नहीं थी (जैसा कि अब तक माना जाता रहा है), बल्कि इससे काफी ऊपर, 50 लाख के आसपास थी।

वैसे, ज़मीन्दारों के माध्यम से किसानों की बेशुमार लूट ने औपनिवेशिक शासन के दौरान कई बार ऐसी स्थितियाँ पैदा कीं जब लगान के बोझ से निचुड़े हुए किसान खेती कर पाने की ही स्थिति में नहीं होते थे। इसका नतीजा अलग-अलग क्षेत्रों में अकाल के रूप में सामने आता था। 1943 के बंगाल के अकाल की स्थिति पहले के अकालों से भिन्न थी। युद्ध के दक्षिण एशियाई मोर्चे पर ब्रिटिश साम्राज्यवाद को जापानी फासिस्ट लगातार पीछे धकेल रहे थे। 1942 में जापानियों ने सिंगापुर और फिर बर्मा पर कब्ज़ा कर लिया। तब बर्मा अन्य ब्रिटिश उपनिवेशों, और स्वयं ब्रिटेन के लिए सबसे बड़ा चावल निर्यातक उपनिवेश था। भारत की कुल चावल-खपत का 15-20 प्रतिशत उस समय बर्मा से आता था। बर्मा को जीतकर जापान भारत की दहलीज़ पर खड़ा था। जापानी हमला आसन्न था। ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने जवाबी तैयारी में ”वंचन नीति” (”डिनायल पॉलिसी”) का सहारा लिया जिसका अर्थ था हमलावरों को हर उपयोगी सामग्री पर कब्ज़े से वंचित कर देना। समूचे तटवर्ती बंगाल में हर तरह के वाहन (ट्रकें, कारें, नावें, बैलगाड़ियाँ, हज़ारों साइकिलें आदि) सेना ने ज़ब्त कर लिये। धान और चावल के भण्डार या तो नष्ट कर दिये गये या हटा दिये गये। सेना की बैरकों और हवाई पट्टियों के लिए 35,000 परिवारों को अपने घरों और आजीविका से हाथ धोना पड़ा। उस समय बंगाल के बड़े भूभाग में नाव ही आवागमन की मुख्य साधन थीं। नावों से ही किसान खेतों तक जाते थे, कुम्हार मिट्टी लेने जाते थे, लोग बाज़ार जाते थे। नावों के बिना खेती, कुटीर उद्योग सब ठप्प हो गये। जनजीवन अस्त-व्यस्त हो गया। यह भी स्मरणीय है कि कुछ ही महीनों पहले 1942 में आये भीषण तूफान ने समुद्र तटवर्ती बंगाल में काफी तबाही मचायी थी। खेत नमकीन पानी के दलदल बन गये थे। इस आपदा से उबरने में ब्रिटिश शासकों ने जनता की कोई मदद नहीं की थी, क्योंकि उस समय ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ उबाल पर था और संघर्षरत जनता का मनोबल तोड़ने के लिए ब्रिटिश शासक कुछ भी कर गुज़रने पर आमादा थे।

1943 के प्रारम्भ में जब अकाल का ख़तरा सिर पर था तो सम्भावित जन असन्तोष के विस्‍फोट से घबराकर वायसराय वावेल और भारत सचिव एमरी ने ब्रिटिश प्रधानमन्त्री चर्चिल, युद्ध मन्त्रालय और जहाज़रानी मन्त्रालय को कई पत्र लिखकर खाद्य संकट के ख़तरे के बारे में बताया। पर चर्चिल की सोच कुछ और थी। साम्राज्यवादी हितों पर उसकी पकड़ एक ख़ूँख़ार बुलडॉग जैसी थी। वह स्वाधीनता संघर्ष में जनता के मनोबल को तोड़ देना चाहता था। भारतीय ज़मीन पर जापानियों का मुक़ाबला वह आधी-अधूरी ट्रेनिंग से लैस भारतीय सैनिकों को (पूरी ट्रेनिंग देने को वह ख़तरनाक मानता था) तोप का चारा बनाकर करना चाहता था, पर व्यापक जनता के सहयोग पर उसे कतई भरोसा नहीं था। उसे अमेरिका जैसे मित्रराष्ट्रों की मदद का भी भरोसा था और वह यह भी जानता था कि चीन और सोवियत संघ की जनता जापान सहित पूरी फासिस्ट धुरी की कमर तोड़ रही है। अत: चर्चिल भारतीय जनता का सहयोग लेने के बजाय, उसके मनोबल को तोड़-कुचलकर ही दक्षिण एशियाई रंगमंच पर युद्ध जीतना चाह रहा था। युद्ध की परिस्थितियों का लाभ उठाकर भारतीय जनता अपनी आज़ादी के लिए दबाव बनाये, ऐसा वह कतई नहीं चाहता था। इसीलिए एमरी के एक पत्र का उत्तर देते हुए उसने लिखा था, ”यदि खाने की इतनी ही कमी है तो गाँधी अब तक मरा क्यों नहीं” (गाँधी उस समय जेल में भूख हड़ताल पर थे)। सम्भावित खाद्यान्न संकट को भाँपकर कलकत्ता और बंगाल के अन्य शहरों में जमाख़ोरों ने अनाज जमा करके कालाबाज़ारी शुरू कर दी। संकट समय से पहले ही आ गया और भीषण रूप में आया। उस समय आस्ट्रेलिया में बड़ी तादाद में गेहूँ का भारी अतिरिक्त भण्डार मौजूद था जिसे यदि जहाज़ों में लादकर बंगाल पहुँचा दिया जाता तो जमाख़ोरी मुनाफे का सौदा नहीं रह जाता और भारी ग्रामीण आबादी को दो जून का खाना नसीब हो जाता, लेकिन चर्चिल ने ऐसा नहीं किया। यही नहीं, खाद्यान्न की मदद भेजने का अमेरिका और कनाडा का प्रस्ताव भी उसने ठुकरा दिया। उसका तर्क था कि अनाज लाने के लिए पर्याप्त संख्या में जहाज़ उपलब्ध नहीं थे। मुखर्जी ने प्रमाणित किया है कि तथ्य इसके उलट थे। जहाज़ इतने थे कि उनमें लदान के लिए पर्याप्त सामान नहीं थे। एक समय था जब जर्मन यू-2 पनडुब्बियों ने भारी संख्या में ब्रिटिश व्यापारी जहाजों को डुबोकर संकट पैदा कर दिया था, पर 1942 के अन्त तक स्थिति बदल चुकी थी। अमेरिका ने बड़े पैमाने पर ब्रिटेन को जहाज़ बनाकर दिये और उसके व्यापारिक जहाज़ी बेड़ों की जर्मन पनडुब्बियों से सागर में हिफाज़त के लिए अपने युद्धक विमान तैनात किये। लेकिन चर्चिल वस्तुत: अनाज मँगवाना ही नहीं चाहता था। वह बस इतना चाहता था कि मध्यपूर्व से लेकर दक्षिण-पूर्व तक में लड़ने वाले भारतीय सैनिकों को और कारख़ानों में सेना के लिए उत्पादन करने वाली आबादी को युद्ध के दौरान भोजन और ज़रूरी सामान मिलते रहें। शेष आबादी, विशेषकर ग्रामीण आबादी को वह राष्ट्रीय आन्दोलन में भागीदारी का दण्ड देना चाहता था और खाद्यान्न को दमन के हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रहा था।

चर्चिल की इन्हीं नीतियों ने बंगाल के अकाल को जन्म दिया। गाँव के गाँव वीरान हो गये। कलकत्ता की सड़कें लाशों से पटने लगीं। शोरबे और दलिया के लिए जगह-जगह सैकड़ों चलते-फिरते अस्थिपंजर लाइन लगाकर खड़े रहते थे और कई वहीं मर जाते थे। लाखों बेसहारा बच्चे सड़कों पर भटक रहे थे। भूखी माँओं ने अपने बच्चों को ज़िन्दा रखने के लिए शरीर बेचना शुरू किया। वेश्यालयों में भीड़ लग गयी। स्थिति ऐसी हो गयी कि कुलीन मध्य वर्ग के लोग भी इस हालात से निबटने के उपायों पर बात करने लगे। सड़कों पर  सड़ती लाशों, अधमरे लोगों और दावतें उड़ाते कुत्तों को देख-देखकर उन्हें भी परेशानी होने लगी। हालाँकि उस समय भी कलकत्ता के ऊँचे दर्ज़े के होटलों में पाँच कोर्स वाले भव्य लंच-डिनर परोसे जा रहे थे।

मधुश्री मुखर्जी की पुस्तक इस मामले में महत्वपूर्ण है कि पहली बार इसमें उस ऐतिहासिक स्रोत-सामग्री (चर्चिल, एमरी, लार्ड वॉवेल, लार्ड लिनलिथगो आदि के पत्र, उस दौर के अन्य दस्तावेज़, संस्मरण आदि) का इस्तेमाल किया गया है जो इस शताब्दी के पहले दशक के मध्य में पहली बार इतिहासकारों के शोध-अध्ययन के लिए ब्रिटिश अभिलेखागार द्वारा खुला किया गया था। यह पुस्तक एक बार फिर साम्राज्यवाद के बर्बर मानवद्रोही चरित्र को उजागर करने का काम करती है।

पूँजीवाद के रूप में मूर्त आर्थिक-सामाजिक सम्बन्धों के लिए अतिलाभ निचोड़ने के साथ ही जनता का बर्बर दमन-उत्पीड़न एक अनिवार्य ज़रूरत है। उपनिवेशवाद के दौर में और पिछली सदी के दौरान दो महायुद्धों और कई क्षेत्रीय युद्धों के दौरान जनता साम्राज्यवादी अपराधों की साक्षी बनी थी। ब्रिटेन ने जो बंगाल में किया, अमेरिकी साम्राज्यवाद आज सोमालिया और सूडान से लेकर अफगानिस्तान तक वही कर रहा है। यह साम्राज्यवाद और पूँजीवाद की ही नीतियाँ हैं कि 9 प्रतिशत विकास दर और कुछेक करोड़ अति समृद्ध लोगों के देश भारत में आज भी तक़रीबन 40 करोड़ आबादी कुपोषण की शिकार है और दूसरी ओर गोदामों में सालाना लाखों टन खाद्यान्न सड़कर मिट्टी हो रहा है।

बंगाल का अकाल भारत की जनता के विरुद्ध ब्रिटिश साम्राज्यवादियों द्वारा छेड़ा गया एक परोक्ष युद्ध था। साम्राज्यवादी दुनिया भर के शोषित-उत्पीड़ित जनों के विरुद्ध प्रत्यक्ष युद्ध के अतिरिक्त ऐसे परोक्ष युद्ध आज भी चलाते रहते हैं। ”मानव निर्मित” खाद्यान्न संकट और अकाल आज भी आम बात हैं। नयी बात यह है कि भारत जैसे देशों का पूँजीपति वर्ग भी अब इस परोक्ष युद्ध में साम्राज्यवादियों का कनिष्ठ साझीदार बन चुका है। नवउदारवादी नीतियों की आचार-संहिता के प्रति वह पूरी तरह से वफादार बन चुका है।

 

मज़दूर बिगुल, जूलाई 2011

 


 

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