पूँजीपतियों और खाते-पीते मध्यवर्ग को ख़ुश करने वाला एक और ग़रीब-विरोधी बजट
सरकारी घाटे का सारा बोझ ग़रीबों पर, अमीरों पर फिर से तोहफ़ों की बौछार

सम्पादकीय अग्रलेख

मनमोहन सिंह और सोनिया गाँधी की जोड़ी बड़ी चालाकी से दोहरी चाल चलते हुए लुटेरे पूँजीपतियों और आम ग़रीब जनता – दोनों को ख़ुश करने की कोशिश में लगी है। एक और यूपीए की अध्यक्ष सोनिया गाँधी और उनके स्वयंभू “युवराज” राहुल गाँधी ग़रीबों के हितैषी होने का दिखावा करते हुए तरह-तरह की हवाई घोषणाएँ करते रहते हैं, दूसरी ओर प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह की सरकार तन-मन-धन से पूँजीपतियों और खाते-पीते मध्यवर्ग की सेवा में लगी हुई है। वित्तीय वर्ष 2011-12 का बजट भी इसी दोहरी चाल का एक नमूना है।

पिछली 28 फ़रवरी को वित्त मन्त्री प्रणव मुखर्जी द्वारा प्रस्तुत बजट में “सामाजिक क्षेत्र”, “समावेशन”, ग़रीबों, आम आदमी आदि की बातें तो ख़ूब की गयी हैं लेकिन वास्तव में उन्हें कुछ भी नहीं मिला है, उल्टे ग़रीबों- मेहनतकशों पर बोझ और बढ़ाने के इन्तज़ाम कर दिये गये हैं। दूसरी ओर, पूँजीपतियों को ढेर सारी छूटों और रियायतों की सौगात दी गयी है। बजट में महँगाई कम करने और घोर बदहाली में जी रही व्यापक आबादी की मदद के लिए कुछ भी नहीं किया गया। उल्टे, धनाढ्य वर्गों, ख़ासकर कारपोरेट सेक्टर को टैक्सों में तमाम छूटें दी गयी हैं। इससे राजस्व में जो कमी आयेगी उसकी भरपाई करने के लिए अप्रत्यक्ष कर बढ़ा दिये गये हैं जिनका बोझ आम जनता पर ही पड़ेगा और जिनके कारण मुद्रास्फीति तथा महँगाई की स्थिति और गम्भीर हो जायेगी। वित्तीय घाटे को कम करने के लिए इसमें भोजन, खाद और ईंधन पर सब्सिडी कम करने की बात की गयी है जिसका असर भी सीधा ग़रीबों पर ही पड़ना है।

इस बजट में सरकार ने अप्रत्यक्ष करों में वृद्धि कर दी है। बजट से पहले ही पेट्रोलियम पदार्थों की क़ीमतें कई बार बढ़ायी जा चुकी हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि खाने, ईंधन, परिवहन, रोज़मर्रा की ज़रूरत की सभी वस्तुएँ, चिकित्सा, दवा, शिक्षा, कपड़े आदि सब कुछ और अधिक महँगे हो जायेंगे। भारत की 90 फ़ीसदी जनता को अपनी कुल आय का लगभग 60 फ़ीसदी हिस्सा खाने पर ख़र्च करना पड़ता है। पहले ही जानलेवा महँगाई से जूझ रही जनता को अन्य बुनियादी आवश्यकताओं की बढ़ी क़ीमतों का भी बोझ उठाना पड़ेगा। इसमें भी सबसे भयंकर मार इस देश की करीब 65 करोड़ खेतिहर और औद्योगिक मज़दूर आबादी पर पड़ेगी। इसके बाद करीब 25 करोड़ निम्न मध्यमवर्गीय आबादी इसकी चपेट में आयेगी। कुल मिलाकर, 90 करोड़ से भी अधिक लोगों के जीवन स्तर में भारी गिरावट आयेगी।

पिछले दिनों प्रधानमन्त्री महोदय कई बार कह चुके हैं कि खाने-पीने की चीज़ों के महँगे होने का कारण यह है कि लोगों की आमदनी बढ़ रही है। अब वित्त मन्त्री ने भी बेशर्मी से यही बात दोहराते हुए फ़रमाया है कि मनरेगा जैसी सरकारी योजनाओं से लोगों की आमदनी बढ़ने के कारण खाने-पीने की चीज़ों की माँग बढ़ गयी है और इसीलिए वे महँगी हो रही हैं। इसलिए महँगाई को कम करने के लिए कुछ भी करने के बजाय वित्त मन्त्री ने खेती की पैदावार बढ़ाने और फ़सल के भण्डारण, प्रसंस्करण तथा परिवहन की सुविधाओं को बेहतर बनाने पर ज़ोर दिया है। इसका सीधा मतलब है कि खेती के कारोबार में लगी देशी-विदेशी बड़ी कम्पनियों को कृषि क्षेत्र में पैठ बनाने के लिए ढेर सारी रियायतें दी जायेंगी और इसके लिए सरकार क़ानून में भी बदलाव लाने वाली है। इस बात को गोल कर दिया गया है कि खाने-पीने की चीज़ों की महँगाई के लिए यही ताक़तें सबसे बढ़कर ज़िम्मेदार हैं। इस महँगाई के दो सबसे बड़े कारण हैं जमाख़ोरी और वायदा कारोबार, यानी सट्टाबाज़ारी। सरकार इन दोनों पर रोक लगाकर बहुत जल्द क़ीमतों को नीचे ला सकती है, लेकिन देशी-विदेशी लुटेरों की सेवा में लगी सरकार भला ऐसा क्यों करेगी? कई बड़े अर्थशास्त्री और ख़ुद सरकारी रिपोर्टों से कई बार यह साफ़ हो चुका है कि देश की भारी ग़रीब आबादी के खाने-पीने में लगातार गिरावट आ रही है। गाँवों और छोटे शहरों में ही नहीं, दिल्ली जैसे शहरों में काम करने वाले मज़दूरों के लिए भी परिवार का पेट भरना मुश्किल होता जा रहा है। फिर भी सरकारी बेशर्मी से यह राग अलापने में लगी है कि ग़रीब ज़्यादा खा रहे हैं इसीलिए महँगाई बढ़ रही है।

वर्ष 2009 में नयी सरकार बनते समय राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक का वादा किया गया था। दो वर्ष बाद भी अभी यह वादा ही बना हुआ है। बजट को देखकर तो लगता है कि सरकार इसे चुपचाप ठण्डे बस्ते में डालने का मन बना चुकी है। हालाँकि वित्त मन्त्री ने इस बार भी दोहराया कि सरकार बहुत जल्दी यह विधेयक पेश कर देगी। पहले बताये गये सरकारी अनुमानों के मुताबिक़ इसके लिए खाद्य सब्सिडी को 10,000 करोड़ से लेकर 50,000 करोड़ रुपये तक बढ़ाने की ज़रूरत होगी जो इस पर निर्भर करेगा कि इसका दायरा कितना रखा जाये। लेकिन बढ़ना तो दूर, पिछले बजट की तुलना में इस बार खाद्य सब्सिडी रु. 60,600 करोड़ से घटकर रु. 60,573 करोड़ रह गयी है। तर्क दिया गया है कि राष्ट्रीय पैमाने पर ग़रीबों के लिए खाद्यान्न की गारण्टी करने के लिए सरकार के पास संसाधन नहीं हैं। लेकिन दूसरी ओर 2008-09 में पूँजीपतियों को मन्दी की मार से उबारने के नाम पर दिये गये ‘स्टिम्युलस पैकेज’ का अधिकांश हिस्सा इस बार भी बजट में बनाये रखा गया है। वर्ष 2009-10 में धनी वर्गों को कुल मिलाकर   4.83 लाख करोड़ रुपये की सहायता और छूटें दी गयी थीं जो वर्ष 2010-11 में बढ़कर    5.11 लाख करोड़ रुपये तक पहुँच गयी। इस बार का आँकड़ा भी लगभग इतना ही पहुँच जायेगा। इसके विपरीत, किसानों और ग़रीबों को राहत देने वाली सब्सिडी की राशि काफ़ी कम है। किसानों को मिलने वाली सब्सिडी का भी बड़ा हिस्सा तो धनी किसान और फ़ार्मर ही हड़प लेते हैं, ग़रीब किसानों को तो इससे कम ही राहत मिलती है। लेकिन सरकार, पूँजीवादी अर्थशास्त्री और उनका भोंपू मीडिया इसे इस रूप में पेश करते हैं कि अमीरों को टैक्स में मिलने वाली छूट “विकास को बढ़ावा देने वाला प्रोत्साहन” कहलाती है जबकि ग़रीबों को थोड़ी राहत देने वाली बची-खुची सब्सिडी भी सरकार पर बोझ बतायी जाती है।

सार्वजनिक वितरण प्रणाली को दुरुस्त करने और खाद्यान्न प्रबन्धन के लिए पिछले चालू वर्ष में सरकार ने सिर्फ़ 4.25 करोड़ रुपये ख़र्च किये। इस बार बड़ी दरियादिली दिखाते हुए इसमें रु. 85 लाख की बढ़ोत्तरी कर दी गयी है। यह देश के 90 करोड़ ग़रीबों के साथ एक घटिया मज़ाक नहीं तो और क्या है? प्रसिद्ध अर्थशास्त्री जयति घोष ने ठीक ही कहा है कि इतनी रक़म तो देश के कुछ अमीर घराने एक शादी में “खाद्य प्रबन्धन” पर ख़र्च कर देते होंगे।

अब ज़रा मनरेगा पर नज़र डालें। वित्त मन्त्री ने बड़े सन्तोष के साथ घोषणा की कि केन्द्र सरकार मनरेगा के तहत मिलने वाली मज़दूरी को महँगाई के साथ जोड़ने पर सहमत हो गयी है। लेकिन मनरेगा के लिए रु. 40,000 करोड़ के आवण्टन में सिर्फ़ रु. 100 करोड़ की बढ़ोत्तरी की गयी है। मुद्रास्फ़ीति को ध्यान में रखें तो वास्तव में कुल आवण्टन और भी कम हो गया है। फिर भला बढ़ी हुई मज़दूरी कैसे दी जायेगी? यानी सरकार मानकर चल रही है कि गाँव के ग़रीबों के लिए रोज़गार के दिन बढ़ने के बजाय और कम ही होंगे। वैसे भी साल में कम से कम 100 दिन के रोज़गार का वादा तो कहीं भी पूरा नहीं हो रहा है। दूसरे, सरकारी रक़म का बड़ा हिस्सा ग्रामीण क्षेत्र में नौकरशाहों, ठेकेदारों, सरपंचों और तहसीलदारों की जेब में ही जाता है। जनता को तो सिर्फ़ जूठन ही मिलती है। अब यह बची-खुची रक़म भी कम हो जायेगी।

सरकार ने बड़े ज़ोर-शोर से शिक्षा का अधिकार क़ानून पारित किया है। इसकी असलियत पर पहले ही काफ़ी कुछ लिखा जा चुका है। मगर ख़ुद सरकार की घोषणाओं को भी अगर लागू करना हो तो शिक्षा पर ख़र्च बढ़ाने की ज़रूरत होगी। लेकिन प्राथमिक शिक्षा पर सिर्फ़ रु. 2700 करोड़ और माध्यमिक शिक्षा पर रु. 1692 करोड़ बढ़ाये गये हैं। ज़ाहिर है कि इससे आम घरों के बच्चों के लिए शिक्षा की हालत में कोई बदलाव आने से रहा।

यही हाल शोर-शराबे के साथ शुरू किये गये राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन का भी है। इसके लिए महज़ रु. 2600 करोड़ बढ़ाये गये हैं जिसमें विशाल ग्रामीण क्षेत्र की स्वास्थ्य सुविधाओं में कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ने वाला है। अभी यह योजना सिर्फ़ 500 रुपये महीने पर काम करने वाली महिलाओं (जिन्हें ‘आशा’ – प्रमाणित सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता कहते हैं) के काम पर टिकी हुई है। सरकार का इरादा साफ़ है कि आगे भी ऐसा ही चलता रहेगा। सार्वजनिक स्वास्थ्य पर केन्द्र सरकार के ख़र्च – जो पहले ही बेहद कम, महज़ रु. 2767 करोड़ है – में भी रु. 607 करोड़ की और कटौती होने वाली है!

यूपीए की पहली सरकार के साझा न्यूनतम कार्यक्रम में शिक्षा पर ख़र्च को सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 6 प्रतिशत और स्वास्थ्य पर ख़र्च को जीडीपी के 2.5 प्रतिशत तक बढ़ाने का वादा किया गया था। यह वादा सभी सरकारें आज़ादी के बाद से ही करती रही हैं। लेकिन पिछले बजट तक यह ख़र्च शिक्षा पर 2.98 प्रतिशत और स्वास्थ्य पर महज़ 1.27 प्रतिशत था। वास्तव में अगर किसी क्षेत्र में ठीकठाक बढ़ोत्तरी की गयी है तो वह है रक्षा क्षेत्र, जिसके लिए बजट में 12833 करोड़ रुपये की बढ़ोत्तरी करते हुए 164415 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है जिसमें से लगभग 70 हज़ार करोड़ रुपये सिर्फ़ हथियारों की ख़रीद के लिए हैं। सरकार की प्राथमिकताओं का पता इसी बात से चलता है कि अकेले हथियारों की खरीद पर होने वाला ख़र्च शिक्षा और कृषि क्षेत्र के कुल बजट प्रावधान के बराबर है।

ऐसे में किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि अर्थव्यवस्था की तेज वृद्धि दर के दावों के बावजूद भारत मानव विकास के सूचकांक पर 169 देशों की सूची में अभी भी 119वें पायदान पर है और शिक्षा तथा स्वास्थ्य जैसे कई मामलों में पाकिस्तान, श्रीलंका और बंगलादेश जैसे देशों से भी पीछे है। भारत में स्वास्थ्य पर सार्वजनिक बजट इतना कम है कि यहां की स्वास्थ्य सेवा दुनिया की सबसे अधिक निजीकृत सेवा है। विश्व बैंक के मुताबिक़, भारत में स्वास्थ्य पर ख़र्च होने वाले हर सौ रुपये में से लगभग 90 रुपये लोगों को अपनी जेब से देने पड़ते हैं जबकि सार्वजनिक व्यय से सिर्फ़ 10 रुपये आते हैं।

पिछले बजट में सरकार ने सभी सार्वजनिक क्षेत्रों से विनिवेश करके 40,000 करोड़ रुपये जुटाये थे, यानी जनता की गाढ़ी कमाई से खड़े किये गये सरकारी उपक्रमों को पूँजीपतियों और कारपोरेट घरानों के हाथों औने-पौने दामों पर बेचकर यह रक़म जुटायी  गयी। इस बजट में विनिवेश से 48,000 करोड़ रुपये जुटाने का लक्ष्य रखा गया है। इस रक़म को वापस जनता की सेवा में लगाने की बजाय बड़े उद्योगों के लिए ज़रूरी आधारभूत ढाँचा बनाने पर ख़र्च किया जायेगा। यानी एक्सप्रेस वे और आठ लेन की सड़कें बनाने, पूँजीपतियों को सरकारी बैंकों से बेहद कम ब्याज़ दरों पर कर्ज़ देने, कारपोरेट घरानों की कर्ज़ माफ़ी के लिए रक़म जुटाने और नेताशाही-अफ़सरशाही की ऐय्याशियों पर यह पूरी रक़म ख़र्च की जायेगी, जो वास्तव में इस देश की ग़रीब जनता का पैसा है।

उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों के पिछले दो दशकों में बजट का कोई ख़ास मतलब नहीं रह गया है। सरकारें बजट के बाहर जाकर पूँजीपतियों को फ़ायदा पहुँचाने वाली ढेर सारी योजनाएँ और नीतियों में बदलाव लागू करती रहती हैं। कई महत्त्वपूर्ण नीतिगत बदलावों की घोषणा तो सीधे फ़िक्की, एसोचैम या सीआईआई जैसी पूँजीपतियों की संस्थाओं के मंचों से कर दी जाती है। इस मामले में संसदीय वामपंथियों सहित किसी चुनावी पार्टी को कोई परेशानी नहीं होती है। फिर भी बजट से सरकार की मंशा और नीयत तो पता चल ही जाती है। हर वर्ष की तरह इस वर्ष के बजट और उस पर संसद में हुई नौटंकीभरी चर्चा ने भी साफ़ कर दिया है कि पूँजीपतियों की चाकरी में जुटे देश के हुक़्मरान समझते हैं कि मेहनतकशों की हड्डी-हड्डी निचोड़कर देशी-विदेशी लुटेरों के आगे परोसने का उनका यह खेल बदस्तूर चलता रहेगा और लोग चुपचाप बर्दाश्त करते रहेंगे। मिस्र, ट्यूनीशिया और पूरे अरब जगत में लगी आग से लगता है उन्होंने कोई सबक़ नहीं सीखा है।

 

[stextbox id=”black” caption=”कौन उठाता है करों का बोझ”]

ज़्यादातर मध्यवर्गीय लोगों के दिमाग में यह भ्रम जड़ जमाये हुए है कि उनके और अमीर लोगों के चुकाये हुए करों की बदौलत ही सरकारों का कामकाज चलता है। प्रायः कल्याणकारी कार्यक्रमों या ग़रीबों को मिलने वाली थोड़ी-बहुत रियायतों पर वे इस अन्दाज़ में गुस्सा होते हैं कि सरकार उनसे कर वसूलकर लुटा रही है।

करों के बोझ के बारे में यह भ्रम सिर्फ़ आम लोगों को ही नहीं है। तमाम विश्वविद्यालयों के अर्थशास्त्र विभागों में भी प्रोफ़ेसरान इस किस्म के अमूर्त आर्थिक मॉडल पेश करते हैं जिनमें यह मानकर चला जाता है कि ग़रीब कोई कर नहीं चुकाते और सिर्फ़ सरकारी दान बटोरते रहते हैं जिसके लिए पैसा अमीरों पर टैक्स लगाकर जुटाया जाता है।

सच्चाई इसके ठीक विपरीत है। हक़ीक़त यह है कि आम मेहनतकश आबादी से बटोरे गये करों से पूँजीपतियों को मुनाफ़ा पहुँचाया जाता है और समाज के मुट्ठीभर उपभोक्ता वर्ग को सहूलियतें मुहैया करायी जाती हैं। टैक्स न केवल बुर्जुआ राज्य की आय का मुख्य स्रोत है बल्कि यह आम जनता के शोषण और पूँजीपतियों को मुनाफ़ा पहुँचाने का एक ज़रिया भी है। सरकार के ख़ज़ाने में पहुँचने वाले करों का तीन-चौथाई से ज़्यादा हिस्सा आम आबादी पर लगे करों से आता है जबकि एक चौथाई से भी कम निजी सम्पत्ति और उद्योगों पर लगे करों से।

भारत में कर राजस्व का भारी हिस्सा अप्रत्यक्ष करों से आता है। केन्द्र सरकार के कर राजस्व का लगभग 70 प्रतिशत से ज़्यादा अप्रत्यक्ष करों से आता है। राज्य सरकारों के कुल कर संग्रह का 95 प्रतिशत से भी ज़्यादा अप्रत्यक्ष करों से मिलता है। इस तरह केन्द्र और राज्य सरकारों, दोनों के करों को मिलाकर देखें तो कुल करों का लगभग 80 प्रतिशत अप्रत्यक्ष कर (बिक्री कर, उत्पाद कर, सीमा शुल्क आदि) हैं जबकि सिर्फ़ 18 प्रतिशत प्रत्यक्ष कर (आयकर, सम्पत्ति कर आदि)।

कुछ लोग तर्क देते हैं कि अमीर या उच्च मध्यवर्ग के लोग ही अप्रत्यक्ष करों का भी ज़्यादा बोझ उठाते हैं क्योंकि वे उपभोक्ता सामग्रियों पर ज़्यादा ख़र्च करते हैं। यह भी सच नहीं है। लगभग 85 प्रतिशत आम आबादी अपनी रोज़मर्रा की चीज़ों की ख़रीद पर जो टैक्स चुकाती है उसकी कुल मात्रा मुट्ठीभर ऊपरी तबके द्वारा चुकाये करों से कहीं ज़्यादा होती है। इससे भी बढ़कर यह कि आम मेहनतकश लोगों की आय का ख़ासा बड़ा हिस्सा करों के रूप में सरकार और पूँजीपतियों-व्यापारियों के बैंक खातों में वापस लौट जाता है।

उस पर तुर्रा यह है कि सरकार पूँजीपतियों को तमाम तरह के विशेषाधिकार और छूटें देती है। उन पूँजीपतियों को जो तमाम तरह की तिकड़मों, फ़र्ज़ी लेखे-जोखे आदि के ज़रिए अपनी कर-योग्य आय का भारी हिस्सा छुपा लेते हैं। इसके लिए वे मोटी तनख़्वाहों पर वकीलों और टैक्स विशेषज्ञों को रखते हैं। उसके बाद जितना टैक्स उन पर बनता है, उसका भुगतान भी वे प्रायः कई-कई साल तक लटकाये रखते हैं और अकसर उन्हें पूरा या अंशतः माफ़ कराने में भी कामयाब हो जाते हैं।

आम लोगों को शिक्षा, चिकित्सा, आदि के लिए दी जाने वाली सब्सिडियों को लेकर मचाये जाने वाले तमाम शोर-शराबे के बावजूद वास्तविकता यह है कि आज भी भारी पैमाने पर सब्सिडी उद्योगों को दी जाती है। इसके अलावा आम लोगों से उगाहे गये करों से पूँजीपतियों के लाभार्थ अनुसन्धान कार्य होते हैं, उनके प्रतिनिधिमण्डलों के विदेशी दौरे कराये जाते हैं, मुख्यतः उनकी सुविधा के लिए सड़कें और नयी रेलें बिछायी जाती हैं, रेलों में माल ढुलाई पर भारी छूट दी जाती है, आदि। मन्दी की मार से पूँजीपतियों को हुए नुकसान की भरपाई के लिए सरकार ने उन्हें हज़ारों करोड़ रुपये उठाकर दे दिये। उन्हें जो कर चुकाने पड़ते हैं उसकी वसूली भी वे चीज़ों के दाम बढ़कर आम जनता से कर लेते हैं।

पिछले दो दशकों में उदारीकरण की नीतियों के तहत एक ओर जनता पर करों का बोझ तमाम तिकड़मों से बढ़ाया जाता रहा है, दूसरी ओर मीडिया में आक्रामक और झूठ से भरे प्रचार से ऐसा माहौल बनाया गया है मानो देश की आर्थिक दुरवस्था का कारण शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि आदि में दी जाने वाली सब्सिडी ही हो। लेकिन इसकी क़ीमत पर हर बजट में देशी-विदेशी पूँजीपतियों को तरह-तरह की रियायतें और छूटें परोसी जा रही हैं। सरकारी विशेषज्ञ और बुर्जुआ कलमघसीट दलील दिये जा रहे हैं कि सरकार का काम सरकार चलाना है, स्कूल, रेल, बस और अस्पताल चलाना नहीं, इसलिए इन सबको निजी पूँजीपतियों के हाथों में सौंप देना चाहिए। दूसरी ओर सरकार दोनों हाथों से आम लोगों से टैक्स वसूलने में लगी हुई है।

 

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मज़दूर बिगुल, मार्च 2011

 


 

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