घुट-घुटकर बस जीते रहना इन्सान का जीवन नहीं है
कृपाशंकर, राजा विहार, बादली औद्योगिक क्षेत्र, दिल्ली-42
मैं वैसे तो उत्तर प्रदेश में मैनफरी के गाँव भुगाँव के रहने वाला हूँ लेकिन आर्थिक तंगी के कारण परिवार सहित दिल्ली की राजा विहार बस्ती में आकर बस गया। गाँव में मैं आटा मिल में काम करता था और परिवार का भरण-पोषण करता था। मिल मालिक ने काम से निकाल दिया तो यह सोचकर यहाँ चला आया कि देश की राजधानी है तो काम मिल ही जायेगा और परिवार भूखों नहीं मरेगा।
राजा विहार में एक छोटे से कमरे में सात लोगों का हमारा परिवार रहता है। दो साल पहले बीमार पड़ गया। अम्बेडकर अस्पताल में इलाज कराने पर कोई फ़ायदा नहीं हुआ तो उसके बाद मेडिकल कैम्प में अपना इलाज करा रहा हूँ। मेरे परिवार में पत्नी और पाँच बच्चे हैं। दो साल से भी अधिक समय से काम नहीं कर रहा हूँ। मेरी पत्नी और बड़ी बेटी बादली औद्योगिक क्षेत्र में काम करती हैं। वहाँ पंखे का पैकिंग मैटीरियल बनता है। पत्नी पैकिंग का काम करती हैं, 8 घंटे के 2000 रुपये मिलते हैं। बड़ी बेटी की उम्र करीब 16 वर्ष है। वह पॉवर प्रेस चलाती है, उसे 2500 रुपये मिलते हैं। 14 वर्ष का बड़ा बेटा थर्मस कम्पनी में काम करता है जिसे 8 घंटे के 1500 रुपये मिलते हैं। उससे छोटा वाला बेटा नेल पॉलिश की कम्पनी में काम करता है जिसे 1200 रुपये मिलते हैं। मेरी दवा का ख़र्च लगभग 4000 रुपये प्रति माह पड़ता है। बहुत ही मुश्किल से गुज़ारा होता है, सोचा था कि छोटे वाले दो बच्चों को स्कूल में डाल देंगे तो कुछ पढ़-लिख लेंगे। लेकिन स्कूल मास्टर ने कहा कि पहले जन्मपत्री लेकर आओ तब नाम लिखा जायेगा, तो नाम भी नहीं लिख पाया। अब बच्चे घर पर ही रहते हैं। हम तो काम पर चले जाते हैं और ये इधर-उधर घूमते रहते हैं।
पत्नी और बच्चों को कम्पनी में काम के लिए सुबह नौ बजे पहुँचना होता है, यदि चार मिनट भी देरी हो जाये तो गार्ड वापस भेज देता है या फिर एक घण्टे के पैसे काट लेता है। शाम को रोज़ ही 5 से 10 मिनट देरी से ही छोड़ता है और लड़कों को तो बात-बात पर गाली देने लगता है। कम्पनी में कोई श्रम क़ानून लागू नहीं होता और सुरक्षा के उपाय भी नहीं हैं। यहाँ लोहा ढालने का काम होता है लेकिन मज़दूरों को दस्ताना तक नहीं दिया जाता और ना ही पीने का साफ़ पानी है। सुरक्षा का इन्तज़ाम ना होने के कारण हाथ-पैर कटना आम बात है।
गाँव से आते समय अपना एक बीघा खेत बेचकर दिल्ली आया था। सोचा था कि दिल्ली आकर बच्चे काम करके अपना गुजारा तो कर ही सकते हैं जबकि गाँव में खेत पर काम करने से ना तो घर का ख़र्चा चल सकता है और ना ही हमारा इलाज हो सकता है। अब गाँव में सिर्फ़ घर ही है, वह भी झोंपड़ी है और जो भी था साथ ले आये थे घर पर कुछ नहीं है। जैसे-तैसे पूरा परिवार काम करके गुजारा कर लेता है। मगर ऐसे ही किसी-न-किसी तरह जीते चले जाने को तो इंसान का जीवन नहीं कहा जा सकता।
मज़दूर बिगुल, मार्च 2011
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