हरसूर्या हेल्थकेयर, गुड़गाँव के मज़दूरों का संघर्ष और हिन्द मज़दूर सभा की समझौतापरस्ती

राजकुमार 

गुड़गाँव। हरसूर्या हेल्थकेयर (फेज़ 4, उद्योग विहार) के 640 मज़दूरों ने पिछले दिनों एक जुझारू लड़ाई लड़ी।

यह कम्पनी डिस्पोज़ेबल सीरिंज बनाने वाली एक बड़ी ब्राण्ड है जिसका वार्षिक कारोबार क़रीब 1300 करोड़ रुपये का है और 40 देशों में वितरण नेटवर्क है। वैसे तो यह कम्पनी दावा करती है कि उसे ”अपने कामगारों की गुणवत्ता पर गर्व है” लेकिन इसके कामगारों की हालत क़तई गर्व करने लायक़ नहीं है। गुड़गाँव में दवा और चिकित्सा उपकरण बनाने वाली रैनबैक्सी, मेडिकिट जैसी कई बड़ी कम्पनियाँ हैं जो वैश्विक बाज़ार के लिए उत्पादन करती हैं। इन सभी में मज़दूरों की हालत लगभग एक जैसी ही है।

बुरी तरह शोषण और काम की बेहद ख़राब परिस्थितियों के विरुद्ध हरसूर्या के मज़दूरों ने फरवरी में यूनियन बनाकर अपनी माँगें उठायी थीं जिनमें ठेका और कैज़ुअल मज़दूरों को स्थायी करना, मज़दूरी बढ़ाना, ईएसआई-पीएफ की सुविधा देना, काम की अमानवीय परिस्थितियों में सुधार करना और फैक्टरी में क़दम-क़दम पर होने वाली निगरानी और जासूसी का विरोध करना शामिल था। कम्पनी ने ज़बरदस्ती मैक्स नामक एक बीमा कम्पनी से मज़दूरों का बीमा भी करवाया था जिसके लिए उनसे हर महीने कटौती की जाती थी। यह कम्पनी मज़दूरों की गाढ़ी कमाई के रुपये लेकर भाग गयी थी। 12-12 घण्टे काम करके ये मज़दूर मुश्किल से 4000-4500 रुपये महीना कमा पाते हैं। काम की तेज़ रफ़्तार के कारण आये दिन दुर्घटनाएँ होती रहती हैं।

इन्हीं हालात के ख़िलाफ मज़दूरों ने आवाज़ उठायी तो मैनेजमेण्ट ने यूनियन के 7 पदाधिकारियों को निलम्बित कर दिया। इसके विरोध में मज़दूरों ने 11 अप्रैल से काम बन्द कर दिया और फैक्टरी के अन्दर ही बैठ गये। 5 दिन तक वे अन्दर ही रहे। मैनेजमेण्ट ने पानी, बिजली बन्द कर दिया और भीतर खाना पहुँचाने पर भी रोक लगाने लगा। इसके बाद 9 और मज़दूरों को निलम्बित कर दिया गया।

17 दिन तक 300-300 मज़दूर पारी बाँधकर दिनो-रात धरने पर बैठे रहे। इस बीच कम्पनी के भाड़े के गुण्डों ने उन पर हमला करके कई मज़दूरों को मारा-पीटा भी लेकिन मज़दूर डटे रहे। 25 अप्रैल को मालिक ने ट्रेडयूनियन के नेताओं को वार्ता के लिए अन्दर बुलाया और उसी बीच भारी संख्या में पुलिस ने एकाएक धावा बोलकर ज़बरदस्त लाठीचार्ज किया जिसमें 6 मज़दूर बुरी तरह घायल हो गये और कई अन्य को चोटें आयीं। यह सब इसीलिए किया गया था ताकि मालिक को फैक्टरी के अन्दर तैयार माल ट्रकों में भरकर निकाल ले जाने का मौक़ा मिल जाये।

संघर्ष की शुरुआत फैक्टरी के एक सुपरवाइज़र और मज़दूर नेताओं के बीच हुई बहस के बाद मालिक द्वारा चार यूनियन नेताओं को निलम्बित करने से हुई थी। एक मज़दूर के अनुसार बहस का मुद्दा यह था कि मालिक की तरफ से ट्रेडयूनियन के नेताओं पर यह आरोप लगाया जा रहा था कि मज़दूरों को स्थायी करने की माँग को दबाने के लिए उन्होंने मालिक से पैसे की माँग की थी। इस मज़दूर ने बताया कि फैक्टरी में मज़दूरों के संगठित होने से उनकी ताक़त बढ़ गयी थी और इस एकता को तोड़ने के लिए मालिक ने यह अफवाह फैलायी थी।

इस घटना के बाद होना तो यह चाहिए था कि संघर्ष को और व्यापक और तेज़ बनाया जाता लेकिन वार्ता के लिए गये हिन्द मज़दूर सभा (एचएमएस) के नेताओं ने मालिक के साथ एक शर्मनाक समझौता करके आन्दोलन वापस ले लिया। बातचीत में एक मज़दूर देवेन्द्र ने बताया कि मज़दूर तो लड़ने को तैयार थे लेकिन यूनियन के नेता समझौता करने पर तुले हुए थे। समझौते के बाद सात मज़दूरों को छोड़कर बाकी सबको काम पर वापस रख लिया गया, और बचे हुए सात लोगों को अभी भी मालिक ने अपने ”आचरण सुधरने” की चेतावनी देकर दो महीने के लिए निलम्बित कर रखा है। मालिक ने इस शर्त पर कम्पनी में काम शुरू करवाया है कि आगे से कोई भी मज़दूर कम्पनी के प्रबन्‍धन के साथ कोई बहस या कोई आन्दोलन नहीं करेगा, और मज़दूर मालिक के प्रति ‘अच्छा आचरण’ करेंगे।

इन शर्तों को मान लेने के बाद पूरा संघर्ष ही समाप्त हो गया। पहले चार मज़दूर बाहर थे तो हड़ताल की गयी थी लेकिन फिर सात लोगों को बाहर रखने के मालिक के निर्णय के बाद भी समझौता कर लिया गया! यहाँ तक कि समझौते के बाद एचएमएस के नेताओं ने मज़दूरों से कहा कि आगे क्या करना है उसे वे ख़ुद देख लेंगे और अब मज़दूरों को कुछ करने की ज़रूरत नहीं है। इस पूरे संघर्ष के निचोड़ के तौर पर देखा जाये तो मज़दूरों के हित में एक भी निर्णय नहीं हुआ, उनकी कोई भी माँग पूरी नहीं हुई, और एचएमएस ने मज़दूरों को मालिक का आज्ञाकारी बने रहने की शर्त पर समझौता कर लिया। वह भी तब जबकि मज़दूर जुझारू संघर्ष करने के लिए तैयार थे। आन्दोलन का नेतृत्व कर रही एचएमएस दूसरी फैक्टरियों की अपनी यूनियनों के समर्थन से मज़दूरों के साथ मिलकर संघर्ष को व्यापक बना सकती थी। लेकिन किसी न किसी चुनावी पार्टी से जुड़ी ये सारी बड़ी यूनियनें अब कोई भी जुझारू संघर्ष करने की क्षमता और नीयत दोनों ही खो चुकी हैं।

अगर इस आन्दोलन को व्यापक बनाया जाता और मैनेजमेण्ट पर दबाव बनाये रखा जाता तो मज़दूरों की कुछ या अधिकांश माँगें मनवायी जा सकती थीं। अगर इसमें पूरी सफलता नहीं भी मिलती तो भी मालिकों सहित पूरी प्रशासन-व्यवस्था का राजनीतिक भण्डाफोड़ करके पूँजीवादी शोषण के असली नंगे चेहरे को मज़दूरों के सामने लाया जा सकता था, और उन्हें राजनीतिक रूप से शिक्षित किया जा सकता था जो कि वर्तमान दौर के मज़दूर संघर्षों का एक अहम कार्य है। लेकिन सिर्फ आर्थिक संघर्षों में फँसी इस तरह की ट्रेडयूनियनें मज़दूरों की राजनीतिक चेतना को उन्नत करने के बजाय समझौता करके संघर्ष को अधूरा छोड़ देती हैं, क्योंकि इनका नेतृत्व मज़दूरों को शिक्षित करने, उन्हें उनके ऐतिहासिक कर्तव्य की याद दिलाने की कोई आवश्यकता नहीं समझता। उन्हें मज़दूरों के आर्थिक संघर्षों से आगे कोई लेना-देना नहीं है। उन्हें पूँजीवाद में होने वाले मज़दूरों के शोषण से ज़्यादा फर्क नहीं पड़ता, वे मज़दूरों को पूँजीवाद के भीतर ही कुछ बेहतर वेतन और भत्ते दिलवाकर शान्त रखना चाहती हैं, और अब तो इतना भी नहीं कर पा रही हैं। इस प्रकार की ट्रेडयूनियनें मज़दूरों को उनके अन्तिम लक्ष्य, पूँजीवाद को ध्वस्त करके एक शोषणविहीन समाज की स्थापना, के ज्ञान से लैस करने के बजाय उन्हें अठन्नी-चवन्नी की लड़ाइयों में उलझाकर रखना चाहती हैं। इस तरह देखें तो वे पूँजीपतियों और पूँजीवादी व्यवस्था की एक रक्षापंक्ति का ही काम करती हैं।

आज मज़दूरों को समझना होगा कि जब तक वे ट्रेडयूनियन आन्दोलन को क्रान्तिकारी धार नहीं देंगे और व्यापक इलाक़ाई तथा पेशागत एकजुटता बनाने की पहल नहीं करेंगे, तब तक एक-एक फैक्टरी के अलग-अलग मालिक के ख़िलाफ चलने वाले संघर्षों में उन्हें अगर कोई जीत हासिल हुई भी तो वह आंशिक ही हो सकती है। इसीलिए आज मज़दूरों को उनके दूरगामी लम्बे संघर्ष को ध्यान में रखते हुए राजनीतिक रूप से शिक्षित करने और उनकी वर्गीय माँगों को लेकर एकजुट करने का समय है।

 

मज़दूर बिगुल, मई-जून 2011

 


 

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