पीरागढ़ी अग्निकाण्ड : एक और हादसा या एक और हत्याकाण्ड?
बिगुल जाँच टीम
दिल्ली के पीरागढ़ी इलाक़े के उद्योग नगर की एक जूता फैक्टरी पिंकी पोर्च लिमिटेड में 27 अप्रैल को लगी भयानक आग की लपटें कब की बुझ चुकी हैं, मगर इस आग में जलकर राख हुए मज़दूरों की चीख़ें आज भी हवा में गूँज रही हैं। अगर इस हृदयहीन समाज में रहते-रहते किसी का दिल पत्थर का न हो गया हो तो वह उन चीख़ों को सुन सकता है। वे हमसे पूछ रही हैं, ”कब तक, आख़िर कब तक कुछ लोगों के लालच की हवस में मज़दूर की ज़िन्दगी इस तरह राख होती रहेगी?”
दो महीने का समय बीत चुका है लेकिन आज भी किसी को यह तक नहीं मालूम कि बुधवार की उस शाम को लगी आग ने कितनी ज़िन्दगियों को लील लिया। पुलिस ने आनन-फानन में जाँच करके घोषणा कर दी कि कुल 10 मज़दूर जलकर मरे हैं, न एक कम, न एक ज़्यादा। बने-अधबने जूतों, पीवीसी, प्लास्टिक और गत्तो के डिब्बों से ठसाठस भरी तीन मंज़िला इमारत के जले हुए मलबे और केमिकल जलने से काली लिसलिसी राख को ठीक से जाँचने की भी ज़रूरत नहीं समझी गयी। मंगोलपुरी के संजय गाँधी अस्पताल के पोस्टमार्टम गृह के कर्मचारी कहते हैं कि उस रात कम से कम 12 बुरी तरह जली लाशें उनके पास आयी थीं। आसपास के लोग, मज़दूरों के रिश्तेदार, इलाक़े की फैक्ट्रियों के सिक्योरिटी गार्ड आदि कहते हैं कि मरने वालों की तादाद 60 से लेकर 75 के बीच कुछ भी हो सकती है। पास का चायवाला जो रोज़ फैक्टरी में चाय पहुँचाता था, बताता है कि आग लगने से कुछ देर पहले वह बिल्डिंग में 80 चाय देकर आया था। सभी बताते हैं कि आग लगने के बाद कोई भी वहाँ से ज़िन्दा बाहर नहीं निकला। कुछ लोगों ने एक लड़के को छत से कूदते देखा था लेकिन उसका भी कुछ पता नहीं चला। फिर बाकी लोग कहाँ गये? क्या सारे के सारे लोग झूठ बोल रहे हैं? या दिल्ली पुलिस हमेशा की तरह मौत के व्यापारियों को बचाने के लिए आँखें बन्द किये हुए है?
आख़िर वे थे तो ग़रीब मज़दूर ही न? गिनती थोड़ी कम-बेशी हो जाये तो किसे फर्क पड़ता है? एक मज़दूर की जान की क़ीमत ही क्या होती है! संसद में सरकार और विपक्ष के बीच खींचातानी चल रही है, मध्यवर्ग के लोग भ्रष्टाचार को लेकर चिन्तित और नाराज़ हो रहे हैं, तरह-तरह की नौटंकियाँ और ड्रामे जारी हैं, इसमें किसे फुरसत है कि कुछ बेचारे मज़दूरों की मौत की सच्चाई का पता लगाये! इतना बड़ा देश है, इतने सारे ग़रीब लोग हैं, और आ जायेंगे उनकी जगह लेने के लिए। प्रोडक्शन चलता रहेगा। आख़िर देश का विकास रुकना तो नहीं चाहिए न?
हमारी जाँच टीम को लोगों ने बताया कि प्लास्टिक के जूते-चप्पल बनाने वाली इस फैक्टरी में क़रीब 150 मज़दूर काम करते थे। 27 अप्रैल को शाम 5.30 बजे छुट्टी होने पर आधे मज़दूर चले गये थे और बाकी ओवरटाइम के लिए रोक लिये गये थे। आग कैसे लगी, किसी को नहीं मालूम। आसपास के कई लोग कहते हैं कि पहले नीचे लगी फिर ऊपर फैली। दमकल और पुलिस के अफसर कहते हैं कि आग तीसरी मंज़िल से शुरू हुई। जो भी हो, चारों ओर फैले प्लास्टिक के कारण मिनटों में पूरी बिल्डिंग लपटों में घिर गयी। कुछ लोगों का कहना है कि मालिक नरेन्द्र सिंगला शाम को जाते समय बाहर से ताला लगा जाता था। वैसे भी बाहर निकलने का हर रास्ता जूते के डिब्बों और कच्चे माल के ढेरों के कारण बन्द था। खिड़कियों पर लोहे की मोटी जाली लगी थी। आग की भयावह लपटों में घिरे मज़दूर जान बचाने के लिए इधर-उधर भागे होंगे पर चारों ओर लपटों ने रास्ता बन्द कर दिया होगा। कइयों ने रिश्तेदारों-दोस्तों को फोन किया, जल्दी आओ, किसी तरह यहाँ से निकालो। मगर दमकल की गाड़ियाँ दो घण्टे बाद पहुँचीं। तब तक पूरी बिल्डिंग धू-धू करके जल रही थी। अन्दर से चिल्लाने की घुटी-घुटी आवाज़ें आ रही थीं। उस समय वहाँ मौजूद रहे लोगों ने कहा कि अन्दर फँसे मज़दूरों को निकालने की कोशिश में जब कुछ रिश्तेदारों ने फैक्टरी की दीवार तोड़नी शुरू की तो मालिक के कहने पर पुलिस ने उन्हें रोक दिया। आग इतनी भयानक थी कि 25 गाड़ियाँ 12 घण्टे तक बुझाती रहीं। सुबह 7.30 बजे जब आग बुझ गयी तब भी लाशों को ढूँढ़ने का काम शुरू नहीं हो सका क्योंकि पीवीसी की राख तब तक बहुत गर्म थी।
हम लोगों ने उस फैक्टरी में काम करने वाले कुछ मज़दूरों का पता लगाने की काफी कोशिश की लेकिन कुछ लोगों से सिर्फ फोन पर बात हो पायी। यहाँ के ज़्यादातर मज़दूर बिहार और उत्तर प्रदेश से आकर काम कर रहे थे। वे दूर-दूर से काम करने आते थे। हमने नाहरपुर जाकर भी बहुत ढूँढ़ने की कोशिश की लेकिन उस विशाल बस्ती में बिना नाम-पते के कुछ भी पता लगाना मुश्किल था। फैक्टरी के आसपास पूछने से पता चला कि सिर्फ 22 मज़दूरों के नाम रजिस्टर में थे। बाकी ठेकेदार के वर्कर थे जिनका ब्योरा सिर्फ कच्चे रजिस्टर में या ठेकेदार के पास होता है। ठेकेदार भी एक नहीं बल्कि कई। पुलिस चाहती तो मालिक, ठेकेदारों और अन्य मज़दूरों से बात करके पता लगा सकती थी, राख और मलबे की जाँच करायी जा सकती थी, लेकिन पुलिस की दिलचस्पी मामले को रफा-दफा करने में ही थी। जाँच होती तो फँसती तो वह भी। कुछ ही महीने पहले इसी फैक्टरी में आग लगी थी। उसके बाद भी दमकल विभाग से नो ऑब्जेक्शन सर्टिफिकेट लिये बिना फैक्टरी धड़ल्ले से चल रही थी। इतने इंसानों की जान लेने के बाद भी पुलिस ने मालिक के ख़िलाफ महज़ लापरवाही का मुकदमा दर्ज करके अपनी वफादारी साफ़ कर दी।
इस इलाक़े में पिछले तीन महीने में आगज़नी की यह चौथी घटना थी। इससे पहले 15 फरवरी को पोलीविनिल क्लोराइड कारख़ाने में आग लगी थी, इसके दस दिन बाद 26 फरवरी को एक और जूता फैक्टरी में आग लगी जिसमें एक बच्चे सहित चार लोग मारे गये। फिर 13 मार्च को भी एक जूता फैक्टरी में आग लगी थी। पिंकी पोर्च की घटना भी आख़िरी नहीं है। आगे भी ऐसे हादसे या हत्याकाण्ड होते रहेंगे। पुलिस लीपापोती करती रहेगी, मुख्यमन्त्री और नेता बेशर्मी से जाँच आदि कराने के बयान देते रहेंगे, और दिल्ली की कोठियों और अपार्टमेण्टों में लोग डिनर करते समय टीवी पर इनकी ख़बरों को देखकर कुछ देर तक आह-ऊह करेंगे और फिर चैनल बदल देंगे। यह सब कुछ ऐसे ही चलता रहेगा जब तक ख़ुद मज़दूर भी अपनी जान की क़ीमत पहचानना नहीं शुरू करेंगे।
मज़दूर बिगुल, मई-जून 2011
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन