हैरिंग इण्डिया में मजदूरों का शानदार संघर्ष और अर्थवादी सीटू का विश्वासघात
बिगुल संवाददाता
हैरिंग इण्डिया प्रा. लिमिटेड मोहन नगर, गाजियाबाद में स्थित एक कारख़ाना है। इस कारख़ाने में ट्रैक्टर और उसके पुर्जे एवं हाईड्रोलिक लिफ्ट बनाने का काम होता है। जिन दिनों साहिबाबाद के एलाइड निप्पोन के मजदूरों का आक्रोश अख़बारों में चर्चा का विषय था, उन्हीं दिनों इस कारख़ाने के मजदूर भी संघर्ष कर रहे थे। मालिक, प्रशासन व श्रम विभाग की तिकड़ी के मकड़जाल से कदम-कदम पर मजदूर आज भी दो-चार हो रहे हैं। 6 मजदूर जिन्हें हैरिंग के मालिकान ने बेवजह काम से बाहर कर दिया था, उन्हें दोबारा काम पर रखे जाने का सवाल अधर में है। पिछले एक साल में हैरिंग इण्डिया के मजदूरों की एकजुटता यूनियन के रूप में सामने आयी। प्रबन्धन ने अपनी तमाम तीन- तिकड़मों से मजदूरों की एकजुटता तोड़ने की कई कोशिशें की, लेकिन वे असफल रहे। यह रिपोर्ट उन्हीं संघर्षरत मजदूरों के बारे में है।
इस कारख़ाने में करीब 150 स्थायी मजदूर, 125 ठेका मजदूर के तहत और 72 लोगों का स्टाफ है। कॉण्ट्रेक्टर के रूप में यहाँ आईकॉन, जीएमडी और अंजू की कम्पनी (जो कि यहाँ पहले एच.आर. विभाग में थी) काम करती हैं। इन तीनों ठेका कम्पनियों को प्रबन्धन क्रमवार बदल- बदलके ठेका देता है। नतीजतन लम्बे समय से काम करते रहने के बावजूद ठेका का मजदूर हर बार नये ठेके के तहत ही होता है। प्रबन्धन मजदूरों पर दवाब बनाने के लिए यदा-कदा बाहरी तत्तवों का सहारा लेता रहा है। मजदूरों का बेवजह मानसिक व आर्थिक उत्पीड़न करते रहने में तमाम कारख़ानों की भाँति यहाँ का प्रबन्धन भी पीछे नहीं रहा है। बताते हैं कि इसी फैक्टरी में 1978 के दौर में प्रबन्धन के गुण्डों व मजदूरों के बीच जमकर मारपीट हुई थी। मालिकों की गुण्डावाहिनी का जवाब मजदूरों ने अपनी एकजुटता से दिया था। उस समय हुई गोलाबारी में कई मजदूर व मालिक वर्ग के लोग हताहत हुए। इस घटना के कई साल बाद सन् 1984 में मजदूरों ने एक बार फिर अपने हक-हुकूक को लेकर गोलबन्द होने की कोशिश की तो एक बार फिर प्रबन्धन ने मजदूरों की एकजुटता को तोड़ने का काम किया। और तब से तमाम कारख़ानों की तरह हैरिंग इण्डिया में भी मजदूरों को काम करने वाली मशीन बनाकर रख दिया गया।
मजदूरों के उत्पीड़न में लगा हैरिंग इण्डिया प्रबन्धन बुनियादी कानूनी हकों की भी अनदेखी करता रहा है। अब तक न तो वर्दी मिलती रही, न ही जूते व सुरक्षा उपकरण मिलते रहे हैं। मजदूरों से ओवरटाइम कराने के बावजूद उसका भुगतान दोगुना रेट पर करना तो छोड़ो, वे इस दौरान किये अतिरिक्त घण्टों के काम को जब कारख़ाना में काम नहीं रहता था उन घण्टों में एडजस्ट कर देते रहे हैं। जब मजदूरों ने आगे चलकर इसका प्रतिकार किया, तब एक निर्णय के तहत वे ग्रेड के अनुरूप 13 व 15 रुपये प्रतिघण्टा की दर से ओवरटाइम का भुगतान करने लगे। इससे सहज अन्दाजा लगाया जा सकता है कि ये कितनी मजदूरी देते रहे हैं। जब दुनियाभर में मन्दी की छाया मँडरा रही थी, वर्ष 2008 के समय बहुत सारे मजदूरों ने महज मट्ठी व चाय पर ओवरटाइम किया। मालिक के मुनाफे की ख़ातिर अपने बच्चों को दिये जाने वाले समय में मालिक का मुनाफा बढ़ाने का काम किया। करीब 6 सालों से वेतन बढ़ोत्तरी न दिये जाने को लेकर मजदूरों ने प्रबन्धन को माँगपत्रक सौंपा और श्रम विभाग में भी इसकी प्रतिलिपि दी। न तो प्रबन्धन ने बात मानी, न ही श्रम विभाग ने कोई दबाव डाला। इसके बजाय प्रबन्धन यह कहने लगा कि कम्पनी तो घाटे में चल रही है। जबकि हकीकत तो यह है कि प्रतिदिन इस कम्पनी में लगभग 92 लिफ्टें बनती हैं। एक क्रिश लिफ्ट की कीमत 14,000 रुपये व एक फोर्ड लिफ्ट की कीमत 11,000 रुपये है। इस प्रकार गणना की जाये तो एक दिन में इतनी कमाई हो जाती है कि सारे मजदूरों का पूरा वेतन निकल आता है। ऐसे हालात में हैरिंग इण्डिया के मजदूरों के सामने अपनी एकजुट ताकत दिखाने के अलावा और कोई राह नहीं बची थी।
संगठनबध्द हो संघर्ष की शुरुआत
हैरिंग इण्डिया के मजदूरों ने धीरे-धीरे अपने आपको संगठनबध्द करना शुरू किया। अन्तत: उन्हें 23 दिसम्बर, 2009 को हैरिंग इण्डिया इम्प्लाइज यूनियन के नाम से पंजीकरण प्राप्त हुआ। 8 फरवरी 2010 को यूनियन ने हैरिंग इण्डिया के प्रबन्धन को अपना माँगपत्रक सौंपा जिसमें वेतन बढ़ोत्तरी से लेकर उन तमाम मुद्दों को रखा गया जिनसे मजदूर दो-चार हो रहे थे। लेकिन प्रबन्धन ने न तो कोई जवाब न ही दिया और न ही कोई सहमति प्रकट की। श्रम विभाग ने यूनियन व प्रबन्धन को वार्ता हेतु 3 अप्रैल 2010 की तारीख़ मुकर्रर की। मजदूर आने वाली वार्ता की तारीख़ को धयान में रखकर काम में शान्तिपूर्वक जुट गये। लेकिन मालिकों को चैन कहाँ। उन्होंने मजदूरों पर दबाव बढ़ाना शुरू कर दिया। उकसावेबाजी की हरकतें की जाने लगीं। इसी काम में महारत हासिल कर चुके किसी कर्नल कुंवर सिंह खटाना को एच आर के हेड पर नियुक्त किया गया। इनकी विशेषता बताते हुए मजदूर कहते हैं कि ये फरीदाबाद व गुड़गाँव में यूनियन तोड़ने वाले के रूप जाने जाते हैं। और यहाँ भी इन्हें मजदूरों की यूनियन तोड़ने की विशेषज्ञता प्राप्त व्यक्ति के तौर पर ही लाया गया है। कारख़ाने में आते ही कर्नल खटाना अपने तानाशाही तरीके को व्यवहार में अमल करते हुए मजदूरों पर दबाव बनाने लगे। इनके तमाम हथकण्डों को मजदूरों ने अपने धौर्य से बेकार कर दिया तो प्रबन्धन की तरफ से एक नया तरीका अपनाया गया। 10 मार्च, 2010 को कारख़ाने में 30-40 की संख्या में बाहरी तत्वों को भर्ती किया गया। रात की शिफ्ट के लोगों को 11 मार्च 2010 की सुबह डयू्टी खतम होने के पहले बाहर धकेला जाने लगा। मैनेजमेण्ट जानबूझकर झगड़ा- फसाद कराकर मजदूरों को फँसाने की चाल चलने लगा। यह बात मजदूर भाँप गये। जब वे बाहर निकल आये तो यही बात सुबह की शिफ्ट में आये मजदूरों को बतायी। इसी दौरान प्रबन्धन ने 12 लोगों को बेवजह सस्पेंड कर दिया। इसमें यूनियन के पदाधिकारीगण व कार्यकारिणी के सदस्यों को ख़ासतौर पर निशाना बनाकर घेरा गया था। जब मजदूर सुबह की शिफ्ट में अन्दर जाने के लिए गेट पर पहुँचे तो उन्हें चेन लगाकर रोक दिया गया। इस पर मजदूरों ने गेट पर एकत्रित होना शुरू कर दिया और यह माँग करने लगे कि जो बाहरी लोग अन्दर घुसाये गये हैं उनको कम्पनी बाहर निकाले। 12 मार्च 2010 को दोपहर तक एडीएम सिटी, श्रम विभाग के अधिकारीगण व पुलिस प्रशासन की उपस्थिति में अन्दर से 12 बाउंसरों (गुण्डों) को बाहर निकाला गया। कर्नल खटाना के मुताबिक ये उनके व्यक्तिगत बाउंसर हैं। अन्य लोगों को मैनेजमेण्ट ने दायें-बायें से बाहर निकाल दिया। प्रशासन के दबाव में प्रबन्धन ने 12 मजदूरों के सस्पेंशन को वापस ले लिया। एक बार फिर मैनेजमेण्ट की चाल ख़ुद उसी के लिए घातक साबित हुई। उसकी असलियत सबके सामने आयी। 3 अप्रैल 2010 को प्रबन्धन व यूनियन के बीच श्रम कार्यालय में वार्ता हुई और मजदूरों की कुछ माँगें मानी गयीं। जिनमें वेतन बढ़ोतरी 350 रुपये, ओवरटाइम का भुगतान डबल रेट से किये जाने की सहमति, दो जोड़ी वर्दी,एक जोड़ी जूता, साल में एक टूर तय किया गया। जिनमें एक जोड़ी वर्दी व टूर अभी तक नहीं दिया गया है। साथ में यूनियन ने मालिकान से लिखित में यह समझौता भी किया कि आगे प्रबन्धन बदले की भावना से किसी मजदूर पर कार्रवाई नहीं करेगा। लेकिन प्रबन्धन ने मजदूरों को बेवजह परेशान रखना जारी रखा। इसी क्रम में 1 नवम्बर 2010 को मालिक ने बिना कारण बताये 6 लोगों को निकाल दिया, जिसमें यूनियन अध्यक्ष विश्वम्भर व अन्य कार्यकारिणी सदस्य भी हैं। प्रबन्धन के इस तानाशाहीपूर्ण रवैये के विरोध में मजदूरों ने काम बन्द कर दिया और 2 नवम्बर 2010 से फैक्टरी गेट पर हड़ताल स्थल बनाकर बैठ गये। 2 नवम्बर 2010 से चली हड़ताल काफी उतार-चढ़ाव भरी रही। इसी दौरान एलाइड निप्पोन के गोलीकाण्ड ने प्रशासन को मजबूर किया कि मजदूरों के अन्दर पल रहे गुस्से को विस्फोटक होने से रोके। वार्ता के दौरान प्रबन्धन का कहना था कि 6 महीने बाद निकाले गये 6 मजदूरों को अन्दर रखा जायेगा। यह बात मजदूरों को किसी भी रूप में स्वीकार नहीं थी। उनका कहना था कि 6 लोगों को सीधो काम पर लिया जाये। आगे चलकर प्रबन्धन तीन महीने पर आकर अड़ गया। जिस दौरान मजदूर वर्ग से लगातार ग़द्दारी करने वाली संसदीय वामपन्थी टट्टू माकपा की ट्रेड यूनियन सीटू के लोग भी यह मनवाने की कोशिश करने लगे कि अभी जो तय हो रहा है उतना मान लिया जाये। लेकिन मजदूर तैयार नहीं हुए। अन्तत: श्रम कार्यालय में 20 नवम्बर 2010 को तय हुआ कि निकाले गये 6 लोगों को 27 जनवरी 2011 को काम पर लिया जायेगा। और इस दौरान का वेतन मजदूरों को मिलेगा। 22 नवम्बर 2010 से मजदूर फिर काम पर आ गये हैं। अब इन्तजार है कि आगामी 27 जनवरी 2011 को मैनेजमेण्ट निकाले गये 6 लोगों को वापस लेता है या नहीं।
संघर्ष के इस रूप में मजदूर कहाँ तक माँगें मनवा पायेंगे यह आगे देखना होगा। जब तक वे अपने साथ अपने ही कारख़ाने के ठेका, दिहाड़ी मजदूरों की माँग नहीं रखते तब तक कारख़ाने के आधार पर भी ताकत अधूरी है। आने वाले समय में जिस तरह से ठेकाकरण का जोर बढ़ता जायेगा वैसे-वैसे स्थायी मजदूरों को भी एक-एक करके निकाला जायेगा और ठेका मजदूरों की संख्या बढ़ायी जायेगी। वहाँ ऐसे में अगर संघर्ष महज वेतन भत्तों तक सीमित रहेगा तो उतना ही कमजोर पड़ता जायेगा। हैरिंग इण्डिया के मजदूरों को भी सोचना पड़ेगा कि अर्थवादी चवन्नीवादी फेडरेशन सीटू की भूमिका आन्दोलन के समय कैसी थी? जब मजदूर संघर्ष कर रहे थे तो ये लगभग ग़ायब ही थे। जब मजदूर संघर्ष करना चाहते हैं और करते हैं तो यह (सीटू) मालिकों की हाँ में हाँ मिलाते मजदूरों को कम से कम पर मनाने की कोशिश करते हैं। यही इनका चरित्र है। हर जगह के आन्दोलन में इनकी यही भूमिका देखने को मिलती है।
हैरिंग इण्डिया के मजदूरों को जहाँ एक ओर सीटू जैसी संशोधनवादी अर्थवादी ग़द्दार ट्रेड यूनियनों से छुटकारा पाना होगा, वहीं ठेका मजदूरों के मुद्दों को भी अपने साथ लेना होगा। यही हैरिंग इण्डिया में मजदूरों की सबसे मजबूत एकता की तरफ ले जायेगा। उन्हें यह लड़ाई अपने बल पर लड़नी होगी और इस विभ्रम से निकलना होगा कि चूँकि सीटू एक बड़ा ट्रेड यूनियन संघ है इसलिए उसके हस्तक्षेप से वे जल्द से जल्द अपनी माँगें जीत सकते हैं।
वास्तव में, आज के समय में हर जगह ही सीटू की भूमिका मालिकों के दलाल की बन रही है। जहाँ-जहाँ मजदूर अपने दम पर एक रुपया जीत सकते हैं, वहाँ सीटू उन्हें दुअन्नी दिलवाकर मालिकों को फायदा पहुँचाता है। चाहे तो एलाइड निप्पोन के संघर्ष को देख लें या फिर आई.ई.डी. कारख़ाने के मजदूरों के संघर्ष को देख लें। हर जगह सीटू ने मजदूरों की पीठ में छुरा भोंकने का काम किया है।
ऐसे में कितनी बार धोखा खायें? मजदूरों को ”विशाल पंजीकृत यूनियन” होने का तर्क अपने दिमाग़ से निकालकर सीटू जैसी यूनियनों का भण्डाफोड़ करना चाहिए और उन्हें कहीं भी अपने संघर्ष में घुसने नहीं देना चाहिए। यह मालिकों का ट्रोजन हॉर्स है।
मज़दूर बिगुल, जनवरी 2011
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