21वीं सदी के पहले दशक का समापन : मजदूर वर्ग के लिए आशाओं के उद्गम और चुनौतियों के स्रोत
सम्पादकीय अग्रलेख
वर्ष 2010 के बीतने के साथ 21वीं सदी का पहला दशक बीत गया। यह दशक पूरी दुनिया में उथल-पुथल के दशक के तौर पर याद किया जायेगा। इसके पहले ही वर्ष में साम्राज्यवादी अमेरिका ने अपनी डगमगाती आर्थिक नैया को बचाने के लिए आतंकवाद के सफाये के नाम पर एक विनाशकारी युध्द दुनिया पर थोप डाला जिसकी कीमत मध्य-पूर्व की आम जनता अपने ख़ून से आज भी चुका रही है। लेकिन अब यह साबित हो चुका है कि इस युध्द ने अमेरिकी शक्तिमत्ता को बचाने की बजाय और अधिक संकट में ही डाल दिया है। दशक की शुरुआत में जहाँ तमाम टकसाली संशोधनवादी मार्क्सवादी बुध्दिजीवी अमेरिकी शक्ति के निर्विरोध वर्चस्व और अन्तिम विजय की बात कर रहे थे, वहीं दशक का अन्त होते-होते वे अपना ही थूका हुआ चाटने पर मजबूर हो गये हैं। अमेरिकी वर्चस्व के पराभव और पतन की प्रक्रिया शुरू होने के पीछे वास्तव में पूरी विश्व पूँजीवादी व्यवस्था का अन्तकारी संकट है।
पहले से भी खोखला, परजीवी और मरणासन्न हुआ है पूँजीवाद!
1990 में सोवियत संघ में नकली कम्युनिज्म का झण्डा गिरने के बाद दुनियाभर में पूँजीपतियों के टुकड़ों पर पलने वाले कलमघसीट पूँजीवाद की अन्तिम विजय की बात करने लगे थे। वे सभी आज बगलें झाँक रहे हैं। 1970 के दशक की शुरुआत में जिस मन्द मन्दी ने पूँजीवाद को जकड़ना शुरू किया था, वह भूमण्डलीकरण के इस दौर में एक कभी न समाप्त होने वाले संकट का रूप ले चुकी है। ख़ासतौर पर, इस बीते दशक की शुरुआत से पूँजीवाद तेजी का कोई छोटा दौर भी नहीं देख सका है। एक संकट ख़त्म होता है, तो दूसरा संकट सामने मुँहबाये खड़ा रहता है। 2006 के अन्त में जिस आर्थिक संकट की शुरुआत अमेरिका में हुई, आज उसने पूरे पूँजीवादी विश्व को अपने पाश में जकड़ लिया है। इस संकट से उबरने के सारे दावे और भविष्यवाणियाँ फेल हो रही हैं और अब साम्राज्यवादी देशों के शासक भी इस बात को स्वीकार कर रहे हैं कि अभी इस संकट से पूरी तरह उबरने के लक्षण नहीं दिखायी दे रहे हैं और पूरी विश्व अर्थव्यवस्था कभी भी फिर से महामन्दी की चपेट में आ सकती है।
साफ नजर आ रहा है कि पूरी विश्व पूँजीवादी व्यवस्था अपने अन्तकारी संकट से जूझ रही है और हर बीतते वर्ष के साथ उसका आदमख़ोर और मरणासन्न चरित्र और भी स्पष्ट तौर पर नजर आने लगा है। पूँजीवाद की अन्तिम विजय को लेकर जो दावे और भविष्यवाणियाँ की जा रही थीं, वे अब चुटकुला बन चुकी हैं। दुनियाभर में कम्युनिज्म और मार्क्सवाद की वापसी की बात हो रही है। बार-बार यह बात साफ हो रही है कि दुनिया को विकल्प की जरूरत है और पूँजीवाद इतिहास का अन्त नहीं है। आज स्वत:स्फूर्त तरीके से दुनिया के अलग-अलग कोनों में मजदूर सड़कों पर उतर रहे हैं। कहीं पर नौसिखुए नेतृत्व में, तो कहीं बिना नेतृत्व के वे समाजवाद के आदर्श की ओर फिर से देख रहे हैं। जिन देशों में समाजवादी सत्ताएँ पतित हुईं, वहाँ का मजदूर आज फिर से लेनिन, स्तालिन और माओ की तस्वीरें लेकर सड़कों पर उतर रहा है। वह देख चुका है कि पूँजीवाद उसे क्या दे सकता है। यह सच है कि पूरी दुनिया में अभी भी श्रम की शक्तियों पर पूँजी की शक्तियाँ हावी हैं और मजदूर वर्ग की ताकत अभी बिखराव और अराजकता की स्थिति में है। लेकिन इसका कारण पूँजीवाद की शक्तिमत्ता नहीं है। इसका कारण मजदूर वर्ग के आन्दोलन की अपनी अन्दरूनी कमजोरियाँ हैं। लगातार संकटग्रस्त पूँजीवाद आज महज अपनी जड़ता की ताकत से टिका हुआ है। युध्दों और विभीषिकाओं को पैदा करके और मजदूर वर्ग की जीवन-स्थितियों को नर्क जैसा बनाकर वह अपने आपको टिकाये हुए है। क्योंकि कोई चीज अपने आप नहीं गिरती। उसे गिराने के लिए बल लगाने की जरूरत होती है। और आज बल लगाने वाली ताकत विचारधारात्मक, राजनीतिक और भौतिक तौर पर बिखरी, निराश और टूटी हुई है। एक ओर मजदूरों के स्वत:स्फूर्त उभार हो रहे हैं तो दूसरी तरफ इन संघर्षों को एक कड़ी में पिरो सकने और मौजूदा हालात के सही विश्लेषण के आधार पर मजदूर क्रान्ति का सही कार्यक्रम और रास्ता प्रस्तुत कर सकने वाला कोई परिपक्व और मँझा हुआ राजनीतिक नेतृत्व आज अनुपस्थित दिख रहा है। इसलिए पूँजीवाद के लगातार पतन और कमजोर होते जाने के बावजूद भी श्रम का शिविर अभी निराशा के अंधेरे में डूबा हुआ दिख रहा है। इसके कारणों पर हम आगे चर्चा करेंगे।
भारत और चीन जैसी उभरती पूँजीवादी अर्थव्यवस्थाएँ विश्व पूँजीवादी अर्थव्यवस्था से जुड़े होने के बावजूद इस कदर नहीं जुड़ी थीं, कि संकट का उन पर वैसा ही असर हो जैसा कि यूरोप के देशों और अमेरिका पर हुआ। संकट का असर भारत पर भी पड़ा लेकिन वैश्विक वित्तीय व्यवस्था से कम जुड़ाव और देश की वित्तीय व्यवस्था के अभी भी काफी हद तक नेहरूआई विनियमन और नियन्त्रण के अन्तर्गत होने के कारण यह असर उन्नत पूँजीवादी देशों के मुकाबले कम रहा। यही कारण है कि आज भारत का पूँजीपति वर्ग भारतीय अर्थव्यवस्था के संकट के दौर में भी 7 से 9 प्रतिशत के बीच की दर से तरक्की करने पर जश्न मना रहा है। इस तरक्की का अर्थ है भारत के उच्च मध्यवर्गों के लिए ऐयाशी के सारे साधनों का आसान ऋण पर उपलब्धा होना, तमाम किस्म की उपभोक्ता सामग्रियों से बाजार का पट जाना, जमकर प्रत्यक्ष विदेशी निवेश होना, वित्तीय पूँजी के बूते पर रियल एस्टेट में तेजी, शेयर मार्केट का सट्टेबाजी और जुएबाजी के बूते उछाल! भारत का यह खाया-पिया-अघाया 15 फीसद अमीर वर्ग ऐयाशियों की सारी इन्तहाँ पार कर रहा है और अपने वर्ग अहंकार और पैसे की नुमाइश करने के मामले में प्राचीन रोम के पतित ऐयाशों को भी मात कर रहा है। और भारतीय अर्थव्यवस्था की इस वृध्दि दर का ग़रीबों और आम मेहनतकश आबादी के लिए क्या अर्थ है? इस देश की समस्त भौतिक सम्पदा को अपने हाथों से गढ़ने वाले मजदूर वर्ग और ग़रीब किसानों के लिए इस तरक्की का अर्थ है बेतहाशा महँगाई, बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं से वंचित होना, शिक्षा से वंचित होना, बेरोजगारी, सामाजिक-आर्थिक असुरक्षा, कुपोषण और बेघरी! जाहिर है, यह तरक्की सिर्फ ऊपर के 15 फीसदी धनिकों के लिए है। इस पूरे दशक के दौरान भी जब अर्थव्यवस्था हिचकोले खा रही थी, यह धनिक वर्ग अपनी ऐयाशी और जश्न में डूबा हुआ था। उनकी ही नुमान्दगी करने वाली तमाम सरकारों ने इस बात का पूरा धयान रखा कि विश्व अर्थव्यवस्था से आने वाले और देशी अर्थव्यवस्था में अतिउत्पादन के संकट से आने वाले झटकों का 1 ग्राम बोझ भी इन नवधनाढयों के ऊपर नहीं पड़ना चाहिए। इस संकट का पूरा बोझ उठाया इस देश के मजदूरों और ग़रीब किसानों ने – महँगाई, छँटनी-तालाबन्दी, बेरोजगारी, भुखमरी और कुपोषण के रूप में। नतीजतन, सरकारी अर्जुन सेनगुप्ता समिति की रिपोर्ट के अनुसार देश की 77 प्रतिशत आबादी आज 20 रुपये प्रतिदिन या उससे कम की आय पर जीती है और देश में करोड़ों की तादाद में खेतिहर मजदूर और असंगठित औद्योगिक मजदूर भयंकर सामाजिक और आर्थिक असुरक्षा में जीवन व्यतीत करते हैं। भूमण्डलीकरण की नवउदारवादी आर्थिक नीतियों ने जिस विकास को जन्म दिया है वह एक रोजगारविहीन विकास है जिसका कोई भी लाभ देश की आम मेहनतकश आबादी को नहीं मिला है और न ही मिलेगा। इन नीतियों से होने वाले विकास का फायदा इस देश के ऊपर के 20 फीसदी लोगों को ही मिला है।
लेकिन साथ ही यह भी सच है कि आज भारतीय अर्थव्यवस्था की ऊँची तरक्की दर भी उसी तरह के वित्तीय पूँजी के बुलबुले पर आधारित है जिस प्रकार के वित्तीय पूँजी के बुलबुले पर अमेरिकी अर्थव्यवस्था इस दशक की शुरुआत में कुलाँचे भर रही थी। और निश्चित रूप से भूमण्डलीकरण की दौड़ में देरी से शामिल हुए चीन और भारत जैसे देशों में यह बुलबुला भी विनाशकारी तौर पर थोड़ी देर से फटेगा। यह आज नहीं तो कल होना ही है। वित्तीय पूँजी के जुएघर के बूते होने वाले हर विकास का यही हश्र होता है। इस गति की दिशा उसी तरफ है और आने वाले समय में पहले से दीर्घकालिक बेरोजगारी और ग़रीबी का सामना कर रहे इन देशों में जब संकट अपने विकराल रूपों में आयेगा तो सामाजिक विस्फोटों को रोक पाना पूँजीवादी तन्त्र के लिए सम्भव नहीं होगा।
मजदूर आन्दोलन में छाया सन्नाटा टूट रहा है!
वास्तव में, छिटपुट तौर पर देश के तमाम हिस्सों में मजदूर वर्ग और आम मेहनतकश आबादी सड़कों पर उतर भी रही है। बीते दशक को मजदूर संघर्षों की बढ़ती बारम्बारता के लिए भी याद किया जायेगा। नयी सहड्डाब्दी शुरू होने के साथ ही देशभर में मजदूर संघर्षों में वृध्दि हुई है। पंजाब, दिल्ली और उत्तर प्रदेश से लेकर पश्चिम बंगाल और उड़ीसा तक और महाराष्ट्र से लेकर दक्षिण भारत के प्रदेशों में मजदूर स्वत:स्फूर्त ढंग से बार-बार सड़कों पर उतरे। एटक, एक्टू और सीटू जैसी संशोधनवादी ट्रेड यूनियनों को इन संघर्षों के दबाव में आना पड़ा (क्योंकि वे नहीं आते तो वे भी बेनकाब होते और इन संघर्षों के अधिक रैडिकल रूप धारण कर लेने का ख़तरा भी रहताध्द, हालाँकि निरपवाद रूप से हर जगह इन्होंने इन संघर्षों के साथ ग़द्दारी की और मजदूर वर्ग को धोखे से पराजित करने में मालिकों की पूरी मदद की। लेकिन इस कटु सत्य के बावजूद यह तथ्य उम्मीद जगाने वाला है कि स्वत:स्फूर्त मजदूर संघर्षों में वृध्दि हुई है और 1980 के दशक के मध्य से जो सन्नाटा छाया हुआ था वह इस दशक में एक हद तक टूटना शुरू हुआ है। लेकिन इससे कोई आधारहीन आशावाद नहीं पैदा होना चाहिए। ऐसे स्वत:स्फूर्त संघर्ष अपने आपमें समस्याओं का कोई स्थायी समाधान नहीं कर सकते हैं। पूँजीवाद के इतिहास में बार-बार ऐसे दौर आये हैं जिनमें मजदूर वर्ग और आम मेहनतकश आबादी बेरोजगारी और ग़रीबी से तंग आकर सड़कों पर उतरी है। हर बार इन संघर्षों ने किसी क्रान्तिकारी आन्दोलन को जन्म नहीं दिया है। आज ये स्वत:स्फूर्त क्रान्तिकारी दिशा में जा सकें, इसके लिए कई पूर्वशर्तों के पूरा होने की आवश्यकता है। और इन पूर्वशर्तों को पूरा करने में कई चुनौतियाँ हमारे सामने खड़ी हैं। इन चुनौतियों पर विचार करना आज का एक तात्कालिक प्रश्न है। मजदूर वर्ग का आन्दोलन स्वत:स्फूर्त संघर्षों की बढ़ती बारम्बारता और पूँजीवाद से बढ़ते आम मोहभंग के बावजूद किन संकटों का शिकार है? वे कौन-सी चुनौतियाँ हैं जिनका सामना आज उसे करना है?
आज पूँजीवाद के विश्वव्यापी आर्थिक संकट के दौर में यूरोप और अमेरिका में भी पूँजीवादी सरकारों के सामने अभूतपूर्व स्थिति उपस्थित हो रही है। फ्रांस और ब्रिटेन तक में सरकारों को अपने ख़र्च में कटौती करनी पड़ रही है (इसका अर्थ हमेशा जनता के शिक्षा, स्वास्थ्य, भोजन और रोजगार पर होने वाले ख़र्च में कटौती से होता है) और इसके विरोध में छात्र से लेकर आम मेहनतकश आबादी सड़कों पर उतर रही है। लेकिन इन संघर्षों के बारे में बहुत प्रफुल्लित और आशान्वित होना अदूरदर्शी होने की निशानी है। तमाम संशोधनवादी और कठमुल्लावादी वामपन्थी पत्र-पत्रिकाएँ उन्नत पूँजीवादी देशों में संकट के दौर में हो रहे जनसंघर्षों की सम्भावनाओं को काफी बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर रही हैं। वास्तव में, वे ख़ुद अपनी निराशा को दूर करने में ज्यादा दिलचस्पी रखती हैं। जिन देशों में क्रान्तिकारी परिस्थिति निर्मित होने की सम्भावना वाकई मौजूद है, वहाँ पर सारे संशोधनवादी अपने राजनीतिक चातुर्य से पूँजीवाद की उम्र बढ़ाने में लगे हुए हैं और कठमुल्लावादी वामपन्थी बदली हुई परिस्थितियों के बारे में सोचने की बजाय अतीत में हुई क्रान्तियों की हूबहू नकल कर देने पर आमादा हैं और विशालकाय मजदूर वर्ग तक उनकी पहुँच बेहद सीमित और ग़ैर-राजनीतिक है। ऐसे में, अपने देश के भीतर तो इन्हें उम्मीद की किरण नजर आती नहीं है, इसलिए वे प्रफ़ांस और ब्रिटेन के छात्र व मजदूर आन्दोलनों को इतना बढ़ा-चढ़ाकर पेश करते हैं, कि मानो वहाँ क्रान्ति दरवाजे पर दस्तक दे रही हो। हमारा मानना है कि लेनिन की यह बात आज भी सच है कि साम्राज्यवाद के दौर में (और साम्राज्यवाद के भूमण्डलीकरण के इस चरण में तो यह बात और भी अधिक लागू होती है) क्रान्तियों का झंझाकेन्द्र यूरोप और अमेरिका से स्थानान्तरित होकर एशिया, अफ्रीका और लातिन अमेरिका के देशों में पहुँच गया है। आज भी ये ही देश विश्व पूँजीवादी कमजोर कड़ी हैं। ब्रिटेन और फ्रांस जैसे उन्नत पूँजीवादी देशों की पूँजीवादी व्यवस्था के पास साम्राज्यवाद के जरिये प्राप्त अकूत अधिशेष के बूते ऐसे कई आन्दोलनों के झटकों को सोख लेने की ताकत है। जब तक इन कमजोर कड़ियों में साम्राज्यवादी अधिशेष नियोजन के तन्त्र का धवस्त नहीं किया जाता, इन देशों में किसी क्रान्तिकारी परिवर्तनकारी आन्दोलन के खड़ा हो जाने और मुकाम तक पहुँच जाने की उम्मीद करना बेकार है। इसलिए इन देशों में मजदूर आन्दोलन की चुनौतियों को हल करने, क्रान्तिकारी विचारधारा की सही समझ स्थापित करने, क्रान्तिकारी आन्दोलन खड़ा करने और एक क्रान्तिकारी पार्टी के निर्माण के सवाल पर चर्चा ही सबसे अहम और प्रासंगिक है। निश्चित तौर पर, अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस जैसे देशों में पूँजीवादी सरकार द्वारा लागू की जा रहीं मजदूर-विरोधी और छात्र-विरोधी नीतियों के विरुध्द जुझारू संघर्ष को हम सलाम करते हैं और उनसे सीखते भी हैं। लेकिन उनसे वे उम्मीदें नहीं की जानी चाहिए जिन्हें वे पूरा नहीं कर सकते।
इक्कीसवीं सदी के पहले दशक के समापन पर भारत के मजदूर आन्दोलन के समक्ष मौजूद चुनौतियाँ
भारत भी आज उन देशों की कतार में खड़ा है जहाँ से विश्व पूँजीवाद की कमजोर कड़ी के टूटने की उम्मीद की जा सकती है। मेक्सिको, ब्राजील, चिले, दक्षिण अफ्रीका, टर्की, मिड्ड, इण्डोनेशिया, आदि देश जहाँ विचारणीय पूँजीवादी विकास हुआ है, विशालकाय मजदूर वर्ग है, वैविधयीकृत अर्थव्यवस्था है, वहीं पर सर्वहारा क्रान्तियाँ सम्भावित भी हैं और आज के दौर में ऐसे देशों में ही वे टिक भी सकती हैं। भारत को हम इन देशों की कतार में अग्रिम देशों में से एक मानते हैं। भारत में भी पूरा मजदूर आन्दोलन आज कई संकटों से जूझ रहा है।
भारत में जो समस्याएँ मजदूर आन्दोलन के रास्ते में बाधा बनकर खड़ी हैं, वे ऐतिहासिक हैं और लम्बे समय से मौजूद हैं। जो सबसे बड़ी समस्या आज समाधान की माँग कर रही है वह है सही विचारधारात्मक और कार्यक्रमगत समझ वाले कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी नेतृत्व का अभाव। नक्सलबाड़ी आन्दोलन के ”वामपन्थी”दुस्साहसवाद के विचलन का शिकार होने के बाद बीते लगभग चार दशक पूरे क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट शिविर के विघटन और बिखराव का दौर रहा है। कम्युनिस्ट आन्दोलन में कोई एकता स्थापित होने की बजाय लगातार टूटने-बिखरने की प्रक्रिया जारी रही है और अभी भी जारी है। भाकपा (माओवादी) पूरी तरह दुस्साहसवादी लाइन को लागू कर रही है। भारत के विशाल मजदूर वर्ग के बीच उसकी पहुँच नहीं के बराबर है और जहाँ है भी वहाँ भी उसके पास मजदूर वर्ग के बीच काम करने की कोई सही समझ मौजूद नहीं है। अगर संशोधनवादी माकपा की यूनियन सीटू उनके बीच समझौतापरस्त अर्थवाद करती है, तो ये उनके बीच जुझारू और लड़ाकू अर्थवाद करते हैं। लेकिन दोनों करते अर्थवाद ही हैं – यानी, मजदूरों को उनके ऐतिहासिक लक्ष्य समाजवाद के लिए लड़ने के लिए सचेत बनाने, उनके बीच राजनीतिक प्रचार करने, उनके बीच कम्युनिज्म के सिध्दान्तों का प्राधिकार स्थापित करने की बजाय उनकी पूरी चेतना को दुअन्नी-चवन्नी की लड़ाइयों तक सीमित कर देना। सभी क्रान्तिकारी मार्क्सवादी-लेनिनवादी संगठनों की स्थिति मजदूर वर्ग के बीच काम करने की समझ के मामले में कमोबेश यही है। आज वे पूँजीवाद के विरुध्द इस देश के करीब 60 करोड़ औद्योगिक और खेतिहर मजदूरों को समाजवाद के लिए संघर्ष के लिए संगठित करने की बजाय,कहीं धनी किसानों की लड़ाइयाँ लड़ रहे हैं तो कहीं उन्हें लगता है कि पूँजीवादी सत्ता के बर्बर अत्याचार और पूँजी के मुनाफे की ख़ातिर किये जा रहे दमन-उत्पीड़न का शिकार इस देश की सबसे पिछड़ी, ग़रीब, उत्पीड़ित और दमित आदिवासी आबादी के प्रतिरोध-युध्द के जरिये ही वे इस देश में नवजनवादी क्रान्ति तक पहुँच जायेंगे। यह कतई सम्भव नहीं है। इस देश की विशाल सर्वहारा आबादी को संशोधनवादी और फासीवादी यूनियनों के भरोसे छोड़कर छत्तीसगढ़,झारखण्ड, महाराष्ट्र आदि के आदिवासी क्षेत्रों में ‘रेड कॉरीडोर’ बनाने से इस देश की पूँजीवादी सत्ता की सेहत पर दूरगामी तौर पर बहुत ज्यादा असर नहीं पड़ने वाला है। आदिवासी आबादी के अपनी आजीविका के लिए इस संघर्ष को भी देश के क्रान्तिकारी मजदूर आन्दोलन का एक अंग बनाकर ही उसे मुकाम तक पहुँचाया जा सकता है।
लेकिन मजदूर वर्ग में काम की सही समझ का आज के क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट नेतृत्व में अभाव कोई अजूबे की बात नहीं है। भारत की सामाजिक-आर्थिक स्थितियों का उनका मूल्यांकन और नवजनवादी क्रान्ति की उनकी ग़लत समझ उन्हें मजदूर वर्ग में काम की सही दृष्टि को अपनाने नहीं दे रही। आज देश के क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट आन्दोलन के नेतृत्व के बड़े हिस्से की समस्या यह है कि वह कठमुल्लावादी, अतीतग्रस्त और अवसरवादी हो चुका है। नवजनवादी क्रान्ति का कार्यक्रम उसके लिए एक गाँठ बन चुका है। भारत आज भी उसे एक अर्ध्दसामन्ती- अर्ध्दऔपनिवेशिक देश दिखलायी देता है और भारत का पूँजीपति वर्ग उसे अमेरिका का दलाल मालूम पड़ता है। उसे लगता है कि आज भी दुनिया वहीं खड़ी है जहाँ 1963 में खड़ी थी, जब चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने विश्वभर में सर्वहारा क्रान्ति की रणनीति और आम रणकौशल के बारे में आम कार्यदिशा देते हुए नवस्वाधीन या औपनिवेशिक देशों में दीर्घकालिक लोकयुध्द के रास्ते नवजनवादी क्रान्ति होने की बात कही थी। सच्चाई यह है कि उस समय भी ‘तीसरी दुनिया’ के सभी देशों में नवजनवादी क्रान्ति होना सम्भव नहीं था। और आज तो यह सोचना आश्चर्यजनक होगा कि भारत की सामाजिक-आर्थिक संरचना अर्ध्दसामन्ती-अर्ध्दऔपनिवेशिक है। भारत में आज एक विशाल सर्वहारा वर्ग मौजूद है जो कुल आबादी का करीब 50 फीसदी है। अगर इसमें सर्वहाराकरण की कगार पर खड़े ग़रीब किसानों की विशाल आबादी को जोड़ दिया जाये तो सर्वहारा और अर्ध्दसर्वहारा आबादी की तादाद आबादी के करीब 75 फीसदी तक पहुँच जाती है। खेती में पूँजी की दख़ल एक-एक पोर तक हो चुकी है। लगान का चरित्र खेती में कहीं भी सामन्ती नहीं है। सामन्ती भूस्वामियों का वर्ग अनुपस्थित है। किसान सीधो राज्य को लगान देते हैं। खेती में उत्पादन बाजार के लिए हो रहा है। औद्योगिक विकास और शहरीकरण पिछले तीन दशकों में अभूतपूर्व रफ्तार से हुआ है। एक विशालकाय और गतिमान औद्योगिक सर्वहारा वर्ग आज भारत में मौजूद है। भारत का पूँजीपति वर्ग साम्राज्यवाद का दलाल नहीं बल्कि छोटे साझेदार की तरह व्यवहार कर रहा है। अगर कई मौकों पर वह साम्राज्यवादी महाप्रभुओं के सामने झुकता है तो कई मौकों पर वह अपने विशाल बाजार और उपभोक्ता आबादी के बूते पर उन्हें भी मोलभाव करके झुकाता है। भारतीय सामाजिक संरचना में पूँजीवादी उत्पादन पध्दति प्रभावी उत्पादन पध्दति बन चुकी है। यह देखने और समझने के लिए आज अर्थशास्त्र के गहन ज्ञान की आवश्यकता नहीं है। लेकिन भारत, और वस्तुत: ‘तीसरी दुनिया’ के देशों में मौजूद कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी नेतृत्व अभी भी अनुसरणवाद, कठमुल्लावाद और अतीतग्रस्तता के कारण चीनी पार्टी द्वारा 1963 में दी गयी नवजनवादी क्रान्ति की आम कार्यदिशा से आगे नहीं सोच पा रहा है। यह वह गाँठ है जिसे खोले बिना भारत समेत ‘तीसरी दुनिया’ के उन तमाम देशों में कम्युनिस्ट आन्दोलन आगे नहीं बढ़ सकता है जहाँ 21वीं सदी की नयी समाजवादी क्रान्तियाँ सम्भावित हैं।
नवजनवादी क्रान्ति की इस गाँठ से जो कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी मुक्त हैं और मजदूर वर्ग में काम को सबसे अहम मानते हैं, वे भी तमाम विजातीय निम्न बुर्जुआ विचारों के शिकार हैं। उनके अन्दर ट्रेड यूनियनवाद और अर्थवाद के विचलन गहराई तक जड़ जमाये हुए हैं। यही कारण है कि आज वे मजदूर वर्ग में काम करते हुए भी महज कारख़ाना-आधारित संघर्षों को ही वर्ग संघर्ष का एकमात्र सम्भव रूप मानते हैं। जबकि सच्चाई यह है कि अनौपचारिकीकरण के इस दौर में जब मजदूर वर्ग को काम करने की जगह के लिहाज से बिखराया जा रहा है, तो कारख़ाना-आधारित संघर्षों का भी इलाकाई आधार और सेक्टोरल आधार पर संगठित मजदूर यूनियनों के बिना टिक पाना और जीत पाना मुश्किल हो गया है। लेकिन वे मजदूर वर्ग के संघर्ष के पुराने रूपों पर पुनर्विचार करने, उनमें परिवर्तन करने, उन्हें विकसित करने और नये रूपों को ईजाद करने की कोई जरूरत नहीं महसूस करते। वे बस कारख़ाने के भीतर की आर्थिक लड़ाइयों तक ही सीमित रहते हैं और इन आर्थिक लड़ाइयों को भी अर्थवादी तरीके से लड़ने के हामी होते हैं। साथ ही, अनौपचारिक क्षेत्रों में काम करने वाली बिखरी हुई मजदूर आबादी के प्रति उनका रवैया पक्षपातपूर्ण होता है। इनका मानना है कि बड़े कारख़ानों में काम करने वाला स्थायी मजदूर सर्वहारा चेतना से अधिक सम्पन्न होता है और बिखरी हुई अनौपचारिक मजदूर आबादी शोषित और उत्पीड़ित तो ज्यादा होती है, लेकिन उसमें से हिरावलों का तैयार होना अधिक मुश्किल भरा है और इसमें बहुत झंझट है। उन्हें लगता है कि इन मजदूरों के नागरिक अधिकारों, जैसे शिक्षा, चिकित्सा, आवास और साफ-सफाई आदि के अधिकारों के लिए लड़ना एन.जी.ओ. का काम है, क्रान्तिकारी सर्वहारा संगठनों का नहीं। यह तो एक त्रासद बात है कि आज उन मसलों को एन.जी.ओ. उठा रहे हैं जिन्हें उठाकर सर्वहारा संगठन मजदूर वर्ग का जबर्दस्त राजनीतिकीकरण और क्रान्तिकारीकरण कर सकते हैं। वे उन्हें सुधारवादी तरीके से उठाकर क्रान्तिकारी सम्भावनाओं को चोट पहुँचा रहे हैं। मजदूर वर्ग के नागरिक पहचान पर दावे को एन.जी.ओ. का मुद्दा मानने की समझदारी पर ज्यादा कुछ कहने की जरूरत नहीं है।
इसके अतिरिक्त, आज मजदूर आन्दोलन के भीतर जो विजातीय प्रवृत्तिायाँ मौजूद हैं, उनमें सबसे महत्तवपूर्ण है ग़ैर-पार्टी क्रान्तिवाद, अराजकतावादी संघाधिपत्यवाद और स्वत:स्फूर्ततावाद की प्रवृत्तिा। इस प्रवृत्तिा की अभिव्यक्ति भारत में ”स्वतन्त्र” ट्रेड यूनियन (यानी, पार्टी-विरोधी ट्रेड यूनियनध्द, मजदूर वर्ग के जनराजनीतिक केन्द्र की सोच, और अभिव्यक्त रूप से पार्टी का विरोध करने वाली सोच के रूप में मौजूद है। कुल मिलाकर, यह खुले तौर पर या प्रच्छन्न तौर पर सर्वहारा वर्ग की हिरावल पार्टी के लेनिनवादी सिध्दान्त का विरोध करती है। यह प्रवृत्तिा अलग से एक लम्बी आलोचना की माँग करती है जिस पर हम आगे ‘मजदूर बिगुल’ में अवश्य लिखेंगे। आज इस प्रवृत्तिा का हर जगह विरोध करने की जरूरत है जो मार्क्स की इस उक्ति ”मजदूर वर्ग की मुक्ति मजदूर वर्ग के द्वारा” का अर्थ यह समझते हैं कि यह मुक्ति बिना किसी हिरावल के आ सकती है। वे लेनिन की इस शिक्षा को भूल जाते हैं कि मजदूर आन्दोलन स्वत:स्फूर्त ढंग से सिर्फ आर्थिक तर्क तक ही सोच पाता है। उसमें समाजवाद की विचारधारा को बाहर से डालना पड़ता है और इसके जरिये ही मजदूर वर्ग अपनी मुक्ति के पथ पर आगे बढ़ सकता है। मार्क्सवाद की यह शिक्षा है कि जब तक वर्ग समाज मौजूद है तब तक शासक वर्ग अपने हिरावल के बिना शासन नहीं कर सकता और शासित वर्ग अपने हिरावल के बिना मुक्ति-युध्द नहीं लड़ सकता। अराजकतावाद की इस प्रवृत्तिा के ख़िलाफ लड़ना आज मजदूर वर्ग के लिए एक अस्तित्व का प्रश्न है। इन प्रवृत्तिायों को मजदूर आन्दोलन में पराजित करके और इनका ख़ात्मा करके ही मजदूर आन्दोलन आज के गतिरोध को तोड़ सकता है।
क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट आन्दोलन जब तक इन प्रवृत्तिायों से छुटकारा नहीं पाता है, तब तक मजदूर आन्दोलन के मौजूद गतिरोध को महज स्वत:स्फूर्त संघर्षों के बूते पर तोड़ा नहीं जा सकता है। यहाँ पर हमने सीटू, एटक और एक्टू जैसी संशोधनवादी ट्रेड यूनियनवाद और अर्थवाद की चुनौती की विस्तार से चर्चा नहीं की है। कहने की जरूरत नहीं है कि मजदूर वर्ग के इन ग़द्दारों को जहाँ कहीं भी और जैसे भी सम्भव हो नंगा किया जाना चाहिए और कहीं भी मजदूरों को अपने संघर्ष में इन्हें घुसने नहीं देना चाहिए। जैसे ही यह किसी मजदूर संघर्ष में घुसते हैं वैसे ही इसे भीतर से दीमक की तरह चाटना शुरू कर देते हैं। मजदूरों के कानूनी विभ्रम का फायदा उठाकर यह अपने विशाल और पंजीकृत यूनियन होने का लालच दिखलाते हैं और पूरे आन्दोलन को अन्धाी गली में ले जाकर छोड़ देते हैं। इनके बारे में आज मजदूरों का विशाल हिस्सा भी अच्छी तरह जानता है। हमारी भावी चुनौतियों में इन संशोधनवादी ग़द्दारों को मजदूर वर्ग के सामने बेनकाब करना भी शामिल होना चाहिए।
अन्त में…
बीता दशक पूँजीवाद के और अधिक कमजोर और जर्जर होने का साक्षी बना। पूँजीवाद का ढाँचागत संकट उसे अजगर के समान अपने पाश में जकड़ चुका है। यह पूँजीवाद का अन्तकारी संकट है और पूँजीवाद के ख़ात्मे के साथ ही इससे मुक्ति सम्भव है। पूरी दुनिया में पूँजीवाद से जनता का मोहभंग हो रहा है। लोग विकल्प की तलाश में छटपटा रहे हैं। यह छटपटाहट स्वत:स्फूर्त तरीके से लोगों के सड़कों पर उतरने के रूप में साफ तौर पर देखी जा सकती है। दुनियाभर में समाजवाद का सपना तमाम पूँजीवादी घोषणाओं के बावजूद फीनिक्स पक्षी की तरह राख से फिर से जन्म ले रहा है। एशिया, अफ्रीका और लातिन अमेरिका के तुलनात्मक रूप से पिछड़े किन्तु पूँजीवादी देशों में भी मजदूर स्वत:स्फूर्त तरीके पर सड़कों पर उतर रहे हैं और जब-तब उनका गुस्सा फूटकर लावे की तरह सड़कों पर बह रहा है। पूँजीवाद से बढ़ता मोहभंग और उसका असमाधोय संकट और सड़कों पर मौजूद सन्नाटे का टूटना बीते दशक की वे परिघटनाएँ थीं, जो उम्मीद पैदा करती हैं।
लेकिन इसके साथ ही तमाम चुनौतियाँ आज मजदूर आन्दोलन के सामने खड़ी हैं। ये चुनौतियाँ हैं नवजनवादी क्रान्ति की गाँठ और ”वामपन्थी” दुस्साहसवाद से मुक्ति पाने; अर्थवाद, ट्रेड यूनियन, अराजकतावादी संघाधिपत्यवाद से छुटकारा पाने; ग़ैर-पार्टी क्रान्तिवाद और स्वत:स्फूर्ततावाद से पिण्ड छुड़ाने; और संशोधनवाद को बेनकाब करने और उसका सफाया करने की चुनौतियाँ। इन चुनौतियों का सामना करते हुए आज मजदूर आन्दोलन और उसके क्रान्तिकारी नेतृत्व को नये सिरे से मजदूर वर्ग के हिरावल का निर्माण करना होगा; भारतीय सामाजिक संरचना के सही विश्लेषण के आधार पर नयी समाजवादी क्रान्ति की सोच को आगे बढ़ाना होगा; आज के युग में सही मार्क्सवाद को समझते और विकसित करते हुए सही विचारधारात्मक अवस्थिति अपनानी होगी। आज फिर से नयी शुरुआत करने का वक्त है। पूँजीवाद पहले से कहीं अधिक कमजोर और जर्जर हो चुका है और अपने आन्तरिक अन्तरविरोधों से ही उसकी दीवारें दरक रही हैं। लेकिन यह अपने आप नहीं गिरने वाला। यही समय है कि हम क्रान्ति के विज्ञान की सही समझ विकसित करते हुए मजदूर वर्ग की क्रान्ति के लिए तीन जरूरी चीजों को नये सिरे से विकसित करें : सही क्रान्तिकारी विचारधारा, मजबूत क्रान्तिकारी आन्दोलन और एक अग्निदीक्षित क्रान्तिकारी हिरावल पार्टी।
मज़दूर बिगुल, जनवरी 2011
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन