माँगपत्रक शिक्षणमाला – 4
काम की बेहतर और सुरक्षित स्थितियों की माँग इन्सानों जैसे जीवन की माँग है!
मज़दूर माँगपत्रक 2011 क़ी अन्य माँगों — न्यूनतम मज़दूरी, काम के घण्टे कम करने, ठेका के ख़ात्मे, काम की बेहतर तथा उचित स्थितियों की माँग, कार्यस्थल पर सुरक्षा और दुर्घटना की स्थिति में उचित मुआवज़ा, प्रवासी मज़दूरों के हितों की सुरक्षा, स्त्री मज़दूरों की विशेष माँगों, ग्रामीण व खेतिहर मज़दूरों, घरेलू मज़दूरों, स्वतन्त्र दिहाड़ी मज़दूरों की माँगों के बारे में विस्तार से जानने के लिए क्लिक करें। — सम्पादक
पिछले कुछ महीनों से जारी ‘भारत के मज़दूरों का माँगपत्रक-2011’ अभियान न्यूनतम मज़दूरी, काम के घण्टों, ठेका और पीस-रेट पर काम करने वाले मज़दूरों के लिए अधिकारों की माँगों के अलावा, मज़दूरों के काम करने के हालात से जुड़ी माँगों को एक महत्वपूर्ण राजनीतिक माँग के तौर पर रखता है। माँग संख्या-4 के तहत माँगपत्रक अभियान यह माँग करता है कि कारख़ानों, खदानों समेत सभी कार्यस्थलों पर तापमान, प्रदूषण का स्तर सामान्य होना चाहिए और इसके नियमित जाँच सम्बन्धी उपकरण सही तरीक़े से काम करने चाहिए; मज़दूरों को काम की प्रकृति के अनुसार सुरक्षा उपकरण मुहैया कराये जाने चाहिए और साथ ही उनके पेशागत स्वास्थ्य, यानी स्वास्थ्य पर पड़ने वाले पेशे के असर, पर ध्यान दिया जाना चाहिए; इसके अतिरिक्त, आये दिन ब्वायलर और ऐसे ही अन्य ख़तरनाक उपकरणों में होने वाली दुर्घटनाओं के मज़दूर शिकार बनते रहते हैं, इसलिए ब्वायलरों व अन्य ख़तरनाक उपकरणों के सही तरीक़े से काम करने की नियमित जाँच होनी चाहिए। कारख़ानों में ब्वायलरों की जाँच के लिए दिखावे के लिए सरकार ने ब्वायलर इंस्पेक्टर का एक अलग पद बना रखा है। लेकिन सभी जानते हैं कि इन ब्वायलर इंस्पेक्टरों को ढूँढ़ने के लिए स्वयं सरकार को जासूस लगाने पड़ेंगे! ब्वायलरों की नियमित जाँच के प्रावधान के बावजूद इस पर अमल में गम्भीर लापरवाहियाँ की जाती हैं। नतीजतन, आये दिन ब्वायलरों के विस्फोट की ख़बरें आती रहती हैं। अभी कुछ ही दिन पहले दिल्ली के तुगलक़ाबाद के एक कारख़ाने में ब्वायलर फटने के कारण कम से कम 12 मज़दूर मारे गये। और यह कोई अकेली घटना नहीं है। अपना पैसा बचाने के लिए कारख़ाना मालिक ब्वायलरों की मरम्मत और रख-रखाव नहीं करते और इसकी क़ीमत मज़दूरों को अपनी जान देकर चुकानी पड़ती है। ऐसे में, माँगपत्रक अभियान यह सुनिश्चित करने की माँग करता है कि ब्वायलर इंस्पेक्टर नियमित तौर पर ब्वायलरों की जाँच करें और किसी भी दुर्घटना की सूरत में उन्हें भी जवाबदेह माना जाये। लापरवाही के कारण दुर्घटना होने पर न सिर्फ मालिकान और कारख़ाना प्रबन्धन पर, बल्कि ब्वायलर इंस्पेक्टर और अन्य ज़िम्मेदार अधिकारियों पर सख्त कार्रवाई के लिए क़ानून बनाये जायें और मौजूदा क़ानूनों पर अमल किया जाय।
यही बात फैक्टरी इंस्पेक्टर और लेबर इंस्पेक्टर के बारे में भी कही जा सकती है। फैक्टरी इंस्पेक्टर का यह काम होता है कि वह कारख़ाना अधिनियम के तहत दिये गये प्रावधानों की रोशनी में जाँच करे कि कारख़ाना मालिक मज़दूरों के काम करने की स्थितियों, मशीनों के रख-रखाव और मरम्मत और सरकार के प्रति अन्य जवाबदेहियों को पूरा कर रहा है या नहीं। लेकिन सभी जानते हैं कि फैक्टरी इंस्पेक्टर कभी कारख़ाने के इर्द-गिर्द दिखायी भी नहीं देते। और जब दिखायी देते हैं तो वास्तव में वे मालिक या प्रबन्धन के अधिकारियों के चैम्बर में जाते हैं और अपना हिस्सा लेकर चलते बनते हैं। यही उनकी जाँच होती है और काग़ज़ में सारे कॉलम भरने का काम भी हो जाता है। लेबर इंस्पेक्टर का काम होता है कि वह इस बात की जाँच करे कि कारख़ाने के भीतर कारख़ाना मालिक और प्रबन्धन श्रम क़ानूनों के तहत मज़दूरों को प्राप्त अधिकार उन्हें दे रहे हैं या नहीं। लेकिन वह भी जब कारख़ाना जाता है तो महज़ अपना हिस्सा लेने जाता है। पूँजीपति मनमुआफिक तरीक़े से श्रम क़ानूनों को तोड़ें-मरोड़ें, उनका उल्लंघन करें और मज़दूरों को निचोड़ें, इसे सुनिश्चित करने के बदले मुनाफे का एक छोटा-सा हिस्सा कमीशन के तौर पर फैक्टरी इंस्पेक्टर, लेबर इंस्पेक्टर और ब्वायलर इंस्पेक्टर को मिलता है।
माँगपत्रक अभियान-2011 यह माँग करता है कि मज़दूरों की ज़िन्दगी के साथ इस तरह खिलवाड़ वास्तव में उनके जीने के अधिकार को छीनना है। माँगपत्रक अभियान माँग करता है कि ब्वायलर इंस्पेक्टर, लेबर इंस्पेक्टर और फैक्टरी इंस्पेक्टर अपने कर्तव्यों को पूरा करें इसे सुनिश्चित करने के लिए श्रम विभाग के पूरे ढाँचे में ज़रूरी बदलाव किये जाने चाहिए और इसके लिए मज़दूरों, मालिकों, श्रम मामलों के जानकार वकीलों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और सरकार के प्रतिनिधि की भागीदारी वाली निगरानी समितियाँ बनायी जानी चाहिए, जिनके पास क़ानूनों के उल्लंघन के दोषियों पर कार्रवाई करने का अधिकार हो।
इसके अतिरिक्त, मज़दूरों के लिए काम करने की जगह एक सज़ा के समान नहीं होनी चाहिए। काम करने की जगह ऐसी होनी चाहिए जहाँ मज़दूर अपने आपको एक ग़ुलाम या एक जानवर की तरह महसूस न करे, बल्कि एक इन्सान के रूप में महसूस करे। उसके लिए काम करने की जगह पर पीने के साफ पानी, प्रदूषण वाले काम में लगे मज़दूरों के लिए काम करने की जगह पर गुड़, दूध आदि की व्यवस्था (जिसका क़ानून बहुत पुराना है, लेकिन बिरले ही कहीं लागू होता है), ‘नो प्रॉफिट-नो लॉस’ के आधार पर काम करने वाली एक स्तरीय कैण्टीन, आराम करने के लिए कमरा, खेलकूद के सामान और टी.वी. सहित मनोरंजन कक्ष और पुस्तकालय की सुविधाओं की व्यवस्था की जानी चाहिए। इसके लिए सरकार को क़ानून बनाना चाहिए और उसे सख्ती से लागू करना चाहिए। यह माँग कोई बड़ी भारी माँग नहीं है। बेहद कम लागत में यह सारा इन्तज़ाम किया जा सकता है। वास्तव में, पुराने सार्वजनिक क्षेत्र के कारख़ानों के मज़दूरों के लिए कई बार ऐसी व्यवस्था पहले सरकार करती भी थी। साफ है कि सरकार इसके तर्क को मानती है, तभी इसकी व्यवस्था करती थी। ऐसे में, निजी क्षेत्र में काम करने वाले मज़दूरों के लिए ऐसी सुविधाएँ मुहैया कराने का क़ानून क्यों नहीं होना चाहिए? क्या मज़दूरों को इन्सान जैसा जीवन जीने का हक़ नहीं है? मज़दूर भाइयों और बहनों को पशुवत जीवन को ही अपनी नियति मान लेने की आदत को छोड़ देना चाहिए। हम भी इन्सान हैं। और हमें इन्सानों जैसी ज़िन्दगी के लिए ज़रूरी सभी सुविधाएँ मिलनी चाहिए। यह बड़े दुख की बात है कि स्वयं मज़दूर साथियों में ही कइयों को ऐसा लगता है कि हम कुछ ज्यादा माँग रहे हैं। वास्तव में, यह पीढ़ी-दर-पीढ़ी उजरती ग़ुलाम की तरह खटने चले जाने से पैदा होने वाली मानसिकता है कि हम ख़ुद को बराबर का इन्सान मानना ही भूल जाते हैं। जीवन की भयंकर कठिन स्थितियों में जीते-जीते हम यह भूल जाते हैं कि देश की सारी धन-दौलत हम पैदा करते हैं और इसके बावजूद हमें ऐसी परिस्थितियों में जीना पड़ता है। हम भूल जाते हैं कि यह अन्याय है और इस अन्याय को हम स्वीकार कर बैठते हैं। माँगपत्रक अभियान सभी मज़दूर भाइयों और बहनों का आह्नान करता है साथियो! मत भूलो कि इस दुनिया की समस्त सम्पदा को रचने वाले हम हैं! हमें इन्सानों जैसे जीवन का अधिकार है! काम, आराम, मनोरंजन हमारा हक़ है! क्या हम महज़ कोल्हू के बैल के समान खटते रहने और धनपशुओं की तिजोरियाँ भरने के लिए जन्म लेते हैं? नहीं! हमें काम की जगह पर उपरोक्त सभी अधिकारों के लिए लड़ना होगा। अपने दिमाग़ से यह बात निकाल दीजिये कि हम कुछ भी ज्यादा माँग रहे हैं। हम तो वह माँग रहे हैं जो न्यूनतम है।
इसके अलावा, मज़दूर को काम मिलने पर कोई नियुक्ति पत्र (अप्वाइंटमेंट लेटर) नहीं दिया जाता। इसके बाद आम तौर पर उसे कोई मज़दूर पहचान-पत्र या जॉब कार्ड (हाज़िरी कार्ड) भी नहीं दिया जाता। ऐसे में, उसके पास कोई क़ानूनी प्रमाण नहीं होता है जिससे कि वह यह साबित कर पाये कि वह फलाँ कारख़ाने में काम करता है। जब भी उसकी मज़दूरी मारी जाती है, या उसका कोई भी हक़ मालिक या प्रबन्धन द्वारा छीन लिया जाता है तो वह कोई क़ानूनी लड़ाई लड़ पाने की स्थिति में नहीं रहता है। माँगपत्रक अभियान यह माँग करता है कि नियुक्ति पत्र, पहचान पत्र, हाज़िरी कार्ड देना मालिकान, प्रबन्धन या ठेकेदार के लिए अनिवार्य बनाया जाये और इस नियम के उल्लंघन की सूरत में न सिर्फ उन पर क़ानूनी कार्रवाई की जाय, बल्कि सम्बन्धित अधिकारी, जिस पर इस नियम के पालन को सुनिश्चित करने की ज़िम्मेदारी है, पर भी क़ानूनी कार्रवाई की जाय। मज़दूरों को वेतन के साथ वेतन पर्ची अवश्य दी जाय। इस क़ानून पर अमल के लिए स्पष्ट जवाबदेही तय की जानी चाहिए और इसके उल्लंघन की सूरत में मालिकान, प्रबन्धन और ठेकेदार समेत ज़िम्मेदार सरकारी अधिकारी पर भी त्वरित कार्रवाई होनी चाहिए। कैज़ुअल मज़दूरों के मस्टर रोल भरने में भी ज़बर्दस्त धाँधली और लापरवाही की जाती है, ताकि उनकी जायज़ मज़दूरी मारी जा सके। इसकी भी पूरी देखरेख की जानी चाहिए कि मस्टर रोल नियमित तौर पर भरे जाते हैं और ऐसा न किये जाने पर मालिकान, प्रबन्धन और ज़िम्मेदार अधिकारी पर कार्रवाई का प्रावधान किया जाना चाहिए।
ठेका मज़दूर क़ानून 1971 में साफ तौर पर दर्ज किया गया है कि ठेका मज़दूरों को वेतन के भुगतान के समय प्रमुख नियोक्ता (यानी जिस कम्पनी या विभाग की ओर से ठेकेदार वह काम करवा रहा है) के किसी प्रतिनिधि को मौजूद होना चाहिए ताकि न्यूनतम मज़दूरी के समय पर भुगतान को ठीक तरीक़े से सुनिश्चित किया जा सके। लेकिन ऐसा बिरले ही कहीं होता है। वास्तव में, ठेका मज़दूरों को ठेकेदार अपनी मनमर्ज़ी से मज़दूरी देता है। यह मज़दूरी 99 प्रतिशत मामलों में न्यूनतम मज़दूरी के क़ानून द्वारा तय न्यूनतम मज़दूरी से कम होती है। ठेका मज़दूरों की मज़दूरी मार लिया जाना आम बात है। ऐसे में, यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि प्रमुख नियोक्ता या उसका प्रतिनिधि ठेका मज़दूरों के समय पर न्यूनतम मज़दूरी के क़ानून के अनुसार भुगतान को सुनिश्चित करे। ऐसा न करने पर प्रमुख नियोक्ता, ठेकेदार और जवाबदेह अधिकारी पर कठोर और त्वरित कार्रवाई का प्रावधान होना चाहिए।
इसके अलावा, मज़दूरों को मौसम के अनुसार वर्दी, काम की जगह पर आने और जाने की सुविधा कम्पनी या ठेकेदार द्वारा मुहैया करायी जानी चाहिए। जिन जगहों पर कोई ऐसा निर्माण कार्य चल रहा हो जो निर्धारित अवधि में समाप्त हो जाना हो, वहाँ निर्माण मज़दूरों को अस्थायी आवास की सुविधा भी कम्पनी या ठेकेदार द्वारा मुहैया करायी जानी चाहिए। इन सुविधाओं पर मज़दूरों का जायज़ हक़ बनता है और इनकी पूर्ति के लिए आवश्यक उचित क़ानून बनाना और उस पर सख्ती से अमल करवाना सरकार का कर्तव्य बनता है। अगर सरकार ये सुविधाएँ मज़दूरों के लिए सुनिश्चित नहीं करवा सकती तो उसे पूरी ज़नता का प्रतिनिधि होने का दावा छोड़ देना चाहिए। जो सरकार बहुसंख्यक मज़दूर आबादी को इन्सानों जैसी कार्य-स्थितियाँ मुहैया नहीं करा सकती, उसे सरकार में बने रहने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है।
कार्यस्थल की बेहतर स्थितियों सम्बन्धी माँगों को हमें अच्छी तरह समझ लेना होगा और इस बात को जान लेना होगा कि हम कोई ज्यादा नहीं माँग रहे हैं। हम वह माँग रहे हैं जो इज्ज़त और आसूदगी की ज़िन्दगी के लिए बुनियादी ज़रूरतें हैं। पूँजीवादी व्यवस्था हमें पशु बना देना चाहती है। वह चाहती है कि हम पशुओं जैसे जीवन को ही अपनी किस्मत का लेखा मान बैठें। हम यह मान बैठें कि हम ऐसे ही जीवन के लायक़ हैं। अगर हम ऐसा वाक़ई मान बैठते हैं, तो यह हमारी हार होगी। हमें इस पशुवत जीवन को अस्वीकार करना होगा और इन्सानी जीवन पर मज़दूर वर्ग का दावा ज़ोरदार तरीक़े से ठोंकना होगा! काम करने की बेहतर परिस्थितियों की माँगें ऐसी ही माँगें हैं। पूँजीवादी व्यवस्था अगर हमारी इन माँगों को पूरा नहीं करती तो साफ हो जायेगा कि जनवाद और समानता की इसकी बातें सिर्फ़ एक ढकोसला है। वास्तव में, मज़दूरों को पाशविक जीवन में धकेलकर और देश के 15 फीसदी धनपशुओं को सारे ऐशो-आराम मुहैया कराकर यह पूँजीवादी व्यवस्था यही साबित कर रही है कि वह पूँजीपति और निम्न पूँजीपति वर्ग के लिए जनवाद और मज़दूरों के लिए तानाशाही है।
मज़दूर बिगुल, फरवरी 2011
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन