Table of Contents
144वीं जन्मतिथि (26 फ़रवरी, 1869) और 74वीं पुण्यतिथि (27 फ़रवरी, 1939) के अवसर पर
रूसी क्रान्ति की सच्ची सेनानी नादेज़्दा क्रुप्स्काया को श्रद्धांजलि
नादेज़्दा क्रुप्स्काया रूस की महान अक्टूबर क्रान्ति के नेता लेनिन की जीवनसाथी ही नहीं, बल्कि सच्चे अर्थों में बोल्शेविक थीं। वह 1917 की बोल्शेविक क्रान्ति के अग्रणी सेनानियों में तभी शामिल हो गयी थीं जब लेनिन और उनकी पीढ़ी के युवा क्रान्तिकारी ग्रुप्स बनाकर मज़दूरों और छात्रों के बीच काम करते थे।
वे उसी दौरान लेनिन के सम्पर्क में आयीं और 1896 में लेनिन की गिरफ़्तारी के कुछ ही समय बाद उन्हें भी गिरफ़्तार कर लिया गया। बाद में लेनिन को साइबेरिया भेजने की सज़ा सुनायी गयी तो उन्होंने पत्र भेजकर क्रुप्स्काया से शादी का प्रस्ताव रखा। ज़ारकालीन नियम के तहत लेनिन की पत्नी बन जाने के बाद क्रुप्स्काया को भी साइबेरिया भेज दिया गया।
रूस की 1905 की असफल क्रान्ति के बाद ज़ार की पुलिस के दमन से बचने के लिए लेनिन विदेश गये, तो वे भी उनके साथ गयीं। वहाँ नेतृत्वकारी साथियों के साथ पार्टी निर्माण और क्रान्ति की योजनाओं में शिरकत करने के साथ ही क्रुप्स्काया यूरोप के स्त्री मज़दूर आन्दोलन में भी सक्रिय रहीं, और रोज़ा लग्ज़म्बर्ग, क्लारा जेटकिन, अलेक्सान्द्रा कोलन्ताई, इमेसा आर्मां जैसे अग्रणी नेताओं के साथ रूस ही नहीं बल्कि पूरे यूरोप के स्त्री आन्दोलन के लिए महत्वपूर्ण योगदान किया।
महान अक्टूबर क्रान्ति के बाद के कठिन दिनों में हर राजनीतिक संघर्ष में क्रुप्स्काया ने सही अवस्थिति लेकर संघर्ष में भागीदारी की। कृषि के सामूहिकीकरण के सवाल पर त्रात्स्की, बुख़ारिन, जिनेवियेव, कामेनेव आदि की ग़लत लाइन का विरोध किया और स्तालिन की नीतियों का समर्थन किया।
इस दौर में अनातोली लूनाचार्स्की शिक्षा विभाग के कमिसार रहे, और क्रुप्स्काया शिक्षा विभाग की उप कमिसार रहीं। नादेज़्दा ने इस विषय पर महत्वपूर्ण सैद्धान्तिक योगदान दिया कि समाजवादी समाज में प्रारम्भिक शिक्षा कैसी होनी चाहिए और पॉलीटेक्निकल शिक्षा का स्वरूप क्या होना चाहिए! स्त्री मुक्ति के प्रश्न पर वह लगातार सक्रिय रहीं और लेनिनवादी नीतियों को लागू करने की पक्षधर रहीं।
लेनिन और क्रान्तिकारी दिनों के बारे में जितने भी संस्मरण लिखे गये उनमें से नादेज़्दा क्रुप्स्काया के संस्मरणों में हमें बोल्शेविक क्रान्तिकारियों के इस्पाती चरित्र के निर्माण का सबसे सजीव ब्यौरा मिलता है।
क्रुप्स्काया की 144वीं जन्मतिथि 26 फ़रवरी, 1869 और 74वीं पुण्यतिथि 27 फ़रवरी, 1939 के अवसर पर श्रद्धांजलि देते हुए, हम ‘मज़दूर बिगुल’ के पाठकों के लिए उन्हीं की लेखनी से कुछ अंश प्रस्तुत कर रहे हैं:
“कम्युनिस्ट नैतिकता के सम्बन्ध में लेनिन के विचार” नामक लेख का अंश
लेनिन का सम्बन्ध उस पीढ़ी से था जो पिशारेव शेड्रिन, नेक्रासोव, दोब्रोल्यूबोव तथा चेर्नीशेव्स्की के प्रभाव में उन्नीसवीं शताब्दी के सातवें दशक के क्रान्तिकारी जनवादी कवियों के प्रभाव में पली थी। ‘ईस्क्रा’ (सेण्ट पीट्सबर्ग से 1859 से लेकर 1873 प्रकाशित होने वाली व्यंग्य पत्रिका) के कवि पुरानी अर्द्धदास व्यवस्था के अवशेषों का निर्ममता से मज़ाक बनाते थे; दुराचारिता, दासवृत्ति, खुशामदीपन, धोखाधड़ी, अधकचरेपन तथा नौकरशाहाना तौर-तरीक़ों पर वे कठोर प्रहार करते थे। उन्नीसवीं शताब्दी के सातवें दशक के लेखक कहते थे कि जीवन का और भी ज़्यादा क़रीब से अध्ययन किया जाना चाहिए और पुराने सामन्ती व्यवस्था के अवशेषों को खोलकर सामने रख देना चाहिए। लेनिन अपने प्रारम्भिक जीवन से ही अधकचरेपन, गपबाज़ी, समय की व्यर्थ बर्बादी, फ्सामाजिक हितों से” पारिवारिक जीवन को विलग रखने की बात से नफ़रत करते थे; स्त्रियों को खिलवाड़ की चीज़ बनाने, उन्हें मनोरंजन की वस्तु अथवा आज्ञाकारिणी दासी का रूप देने की बात से वे घृणा करते थे। उस तरह के जीवन से उन्हें हार्दिक घृणा थी जिसमें कुटिलता तथा अवसरवादिता हो। चेर्नीशेव्स्की के उपन्यास ‘क्या करें’ से इलिच को विशेष प्रेम था, शेड्रिन का तीव्र व्यंग्य उन्हें बहुत पसन्द था; ‘ईस्क्रा’ के कवियों को वे बहुत चाहते थे-उनकी अनेक कविताएँ उन्हें याद थीं। नेक्रासोव से वे प्रेम करते थे।
अनेक वर्षों तक व्लादीमीर इलिच को जर्मनी, स्विट्ज़रलैण्ड, इंग्लैण्ड और फ्रांस में प्रवास करना पड़ा था। वे मज़दूरों की सभाओं में जाते थे, मज़दूरों की ज़िन्दगियों का गहरायी से अध्ययन करते थे, इस चीज़ को समझने की कोशिश करते थे कि अपने घरों में वे किस तरह रहते हैं और अपनी छुट्टी के समय को कहवाघरों अथवा घूमने-फिरने में किस तरह बिताते हैं…
परदेश में हम लोग काफ़ी ग़रीबी की हालत में रहते थे। ज़्यादातर हम सस्ते किराये के कमरों में रहते थे जहाँ हर तरह के लोग ठहरते थे। हम लोग अनेक तरह की मकान-मालकिनों के यहाँ रहे थे और सस्ते ढाबों में खाना खाते थे। इलिच को पेरिस के कहवाघर बहुत पसन्द थे; उनमें गाने वाले लोग अपने जनवादी गीतों से पूँजीवादी जनतन्त्र तथा रोज़मर्रा की ज़िन्दगी के अनेक पहलुओं की तीव्र आलोचना किया करते थे। मौंटेगस के गीत इलिच को विशेष तौर से अच्छे लगते थे। वह एक ‘‘कम्युनार्ड’’ (1870 के प्रसिद्ध पेरिस कम्यून में भाग लेने वाला व्यक्ति।) का बेटा था; शहर के बाहरी हिस्सों में रहने वाले लोगों की ज़िन्दगी के बारे में वह अच्छी कविताएँ लिखता था। एक बार एक संध्याकालीन पार्टी में इलिच की मौंटेगस से मुलाक़ात हो गयी; फिर वे क्रान्ति, मज़दूर आन्दोलन तथा समाज के बारे में आधी रात बीतने के बहुत देर बाद तक बातें करते रहे थे। समाजवाद किस तरह एक नये जीवन की सृष्टि करेगा और जीवन की समाजवादी पद्धति क्या है, आदि विषयों पर वे बहुत देर तक बातें करते रहते थे।
नैतिकता के प्रश्नों को व्लादीमीर इलिच सदैव विश्व-दर्शन के प्रश्नों के साथ जोड़कर देखते थे…
2 अक्टूबर, 1920 को तरुण कम्युनिस्ट संघ की तीसरी कांग्रेस में अपने भाषण में व्लादीमीर इलिच ने कम्युनिस्ट नैतिकता के प्रश्न पर विचार किया था और कम्युनिस्ट नैतिकता के मूल तत्व को स्पष्ट करने के लिए सरल, ठोस मिसालें दी थीं। अपने श्रोताओं से उन्होंने कहा था कि सामन्ती और पूँजीवादी नैतिकता महज धोखे की चीज़ें हैं, उनका उद्देश्य ज़मीन्दारों और पूँजीपतियों के हितों में मज़दूरों और किसानों की आँखों में धूल झोंकना और उन्हें मूर्ख बनाना होता है। इसके विपरीत, कम्युनिस्ट नैतिकता का आधार सर्वहारा वर्ग के वर्ग संघर्ष के हित होते हैं। उन्होंने कहा था कि कम्युनिस्ट नैतिकता का लक्ष्य मानव समाज को ऊँचे स्तर पर ले जाना, श्रम के शोषण का अन्त कर देना होना चाहिए। कम्युनिज़्म के संघर्ष को मजबूत करना तथा, अन्त में, उसकी स्थापना करना-यही कम्युनिस्ट नैतिकता का आधार होता है। एकता, अपने ऊपर काबू रखने की क्षमता, नयी सामाजिक व्यवस्था को सुदृढ़ बनाने के लिए अनथक रूप से आवश्यक काम करने की योग्यता, इस लक्ष्य-प्राप्ति के लिए आवश्यक कठोर तथा सचेत अनुशासन क़ायम करने की ज़रूरत, तथा निर्धारित कार्यों की पूर्ति के लिए सुदृढ़ एकता स्थापित करने की आवश्यकता का कितना महत्व है इसे स्पष्ट करने के लिए लेनिन ने ठोस उदाहरण दिये थे। तरुणों से लेनिन ने कहा था कि उन्हें चाहिए कि अपनी सारी शक्ति, अपने सारे श्रम को वे सामान्य लक्ष्य की प्राप्ति के उद्देश्य के लिए उत्सर्ग कर दें।
और, इस काम को किस तरह करना चाहिए-इसका आदर्श स्वयं लेनिन का अपना जीवन था। इलिच और किसी तरह से रह ही नहीं सकते थे, वे नहीं जानते थे कि और किसी तरह से कैसे रहा जा सकता है। किन्तु कोई बैरागी-सन्यासी वे नहीं थे; स्केटिंग करना (बर्फ़ पर फिसलने की क्रीड़ा में भाग लेना) तथा तेज़ साइकिल चलाना, पर्वतारोहण करना और शिकार खेलना उन्हें अत्यन्त प्रिय थे। संगीत से उन्हें प्रेम था। उसके समस्त इन्द्रधनुषी सौन्दर्य के साथ जीवन से वे प्यार करते थे। अपने साथियों को वे प्यार करते थे, वे आम लोगों को प्यार करते थे। उनकी सादगी, प्रसन्नताभरी उनकी संक्रामक हँसी से हर एक परिचित है। किन्तु उनसे सम्बन्धित प्रत्येक चीज़ एक मुख्य लक्ष्य के अधीन थी-वह उस संघर्ष के अधीन थी जो सबके लिए एक उज्जवल, प्रबुद्ध, समृद्ध तथा सुखी जीवन की सृष्टि के लिए किया जा रहा था। इस संघर्ष की सफलताओं से जितनी अधिक ख़ुशी उन्हें होती थी उतनी और किसी चीज़ से नहीं होती थी। उनके जीवन का निजी पक्ष उनके काम के सामाजिक पक्ष से स्वाभाविक रूप से मिल जाता था…
मक्सिम गोर्की के नाम लिखे गये एक पत्र का अंश
20 सितम्बर, 1932
समाजवाद के निर्माण का अर्थ केवल विशालकाय फ़ैक्टरियों और आटे की मिलों का निर्माण करना नहीं है। ये चीज़ें ज़रूरी हैं, किन्तु समाजवाद का निर्माण इतने से नहीं नहीं हो सकता। आवश्यक है कि लोगों के मस्तिष्कों और हृदयों का भी विकास किया जाये। और, प्रत्येक व्यक्ति की इस वैयक्तिक उन्नति के आधार पर, अन्ततोगत्वा एक, नये प्रकार की बलशाली समाजवादी सामूहिक इच्छा की सृष्टि की जाये जिसके अन्दर “मैं” और “हम” अभिन्न रूप से मिलकर एकाकार हो जाएँ। इस तरह की सामूहिक इच्छा का विकास गहरी वैचारिक एकता तथा उतने ही गहरे परस्परिक सौहार्द-भाव एवं आपसी समझदारी के आधार पर ही किया जा सकता है।
और इस क्षेत्र में, कला और साहित्य विशेष रूप से असाधारण भूमिका अदा कर सकते हैं। मार्क्स की पूँजी में एक अद्भुत अध्याय है (यहां क्रुप्स्काया “पूँजी” के तेरहवें अध्याय “सहकारिता” का उल्लेख कर रही हैं।-स); उसका ऐसी सरल से सरल भाषा में मैं अनुवाद करना चाहती हूँ जिसे कि अर्द्धशिक्षित लोग भी समझ लें। वह अध्याय सहकारिता के सम्बन्ध में है। उसमें मार्क्स ने लिखा है कि सहकारिता एक नयी शक्ति को जन्म देती है। यह नयी शक्ति जनता का कुल योग मात्र उसकी शक्तियों का कुल योग मात्र नहीं होती, बल्कि एक सवर्था नयी, कहीं, अधिक सबल, शक्ति होती है। सहकारिता पर अपने अध्याय में मार्क्स ने नयी भौतिक शक्ति के विषय में लिखा है। किन्तु उसके आधार पर जब चेतना और संकल्प की एकता हो जाती है, तो वह एक अदम्य शक्ति बन जाती है…
मज़दूर बिगुल, फरवरी 2013
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन