महाकुम्भ में सन्तों की घृणित मायालीला, विहिप की धर्मसंसद में साम्प्रदायिक प्रेत जगाने का टोटका और आम मेहनतकश जन के लिए कुछ ग़ौरतलब सवाल
प्रसेन
प्रयाग में चल रहे सदी के दूसरे महाकुम्भ में ‘‘आस्था का सैलाब’’ उमड़ रहा है। बहुत-से लोगों की तर्कक्षमता व विवेक इस सैलाब में बहकर निर्वाण को प्राप्त कर रहा है। पर जिनकी तर्कक्षमता व विवेक अपनी जगह पर डटा हुआ है हम उनसे कुछ बातें साझा करना चाहते हैं।
इस महाकुम्भ की तैयारी पर केन्द्र सरकार व राज्य सरकार द्वारा अकूत धन ख़र्च किया गया। केवल राज्य सरकार द्वारा 1,000 करोड़ रुपये से ज़्यादा ख़र्च किया जा चुका है। आस्था की आड़ में ख़र्च का यह महाघड़ा जनता के सिर पर लाद दिया गया। जबकि जनता की रात इस सर्द मौसम में भी सड़कों पर व पेड़ों के नीचे बीत रही है। इस आबादी के लिए मेला क्षेत्र में रैन बसेरों की संख्या नगण्य है। और पूरी दुनिया को अपना परिवार बताने वाले ‘‘सन्तों’’, ‘‘महात्माओं’’ के भव्य, सुविधासम्पन्न शिविर में केवल उनके शिष्यों को ही शरण मिलती है। हाँ! इन सन्त-महात्माओं का ख्याल राज्य की ‘‘समाजवादी’’ सरकार द्वारा खूब ढंग से रखा गया है। इनकी सुरक्षा के इन्तज़ामात के प्रबन्ध तो देखिये। जूना अखाड़े के महन्त कैलाशानन्द की सुरक्षा में आधा दर्जन पुलिस के जवान लगे हैं। जगतगुरू पंचानन की सुरक्षा में पंजाब पुलिस के एक दर्ज़न कमाण्डो लगे हैं। शंकराचार्यों की सुरक्षा में तो पी.ए.सी. की पूरी कम्पनी ही तैनात है। मौनी अमावस्या पर इन सन्तों के शाही स्नान (सन्त और शाही स्नान?) के लिए अपर पुलिस अधीक्षक के नेतृत्व में, दो सहायक पुलिस अधीक्षक, आठ पुलिस उपअधीक्षक, दो सहायक पुलिस उपअधीक्षक, चार कम्पनी आर.ए.एफ., छः कम्पनी पी.ए.सी., पर्याप्त संख्या में नागरिक पुलिस बल, 48 घोड़े, एक टीम वी.डी.डी.एस. की तथा एक टीम ए.एस. की लगायी गयी है। मतलब कि सारा का सारा बोझ आम जनता पर। जबकि यह ख़र्च तमाम अखाड़ों मठों, महामण्डलेश्वरों से, जो कि अरबपति और खरबपति हैं, स्पेशल कुम्भ मेला टैक्स के रूप में लेना चाहिए। सरकार की जिम्मेदारी जनता के सुरक्षा इन्तज़ामात की ही होनी चाहिए।
अब उन धर्मध्वजाधारियों, महामण्डलेश्वरों, शंकराचार्यों, परमाचार्यों, जगतगुरुओं, परमहंसों, दण्डियों और सन्तों-महन्तों के असली चरित्र पर नज़र दौड़ायी जाय जिन पर सरकार इतनी मेहरबान है। ये सभी धन-दौलत या भौतिक सुख-साधनों को या इन्हीं के शब्दों में कहें तो ‘‘माया’’ को मुक्ति में बाधक बताते हैं। जबकि ख़ुद इसी माया में लोट लगा रहे हैं, डूब-उतरा रहे हैं। कारों, छोटी बसों, ट्रैक्टरों पर बने सोने के सिंहासन या चाँदी के हौदे पर रखा महाघड़ा-सा नग्न, चर्बीला, थुलथुला पेट जिसमें मुख-द्वार से निरन्तर खाद्य पदार्थों की ठुसाई करते, शाही स्नान के लिए जाते सन्त समाज के भौंड़े जुगुप्सित ‘‘माया प्रदर्शन’’ को देखकर मितली आने लगती है। यही नहीं, ‘माया’ का फूहड़ और भद्दा प्रदर्शन करने के लिए इनमें जो होड़ मची है, उसे देखकर यही कहना पड़ेगा कि ‘माया महा ठगिनि हम जानी।’ माया ही मानक है। जिसके पास जितनी माया, वह उतना बड़ा सन्त! सोने-चाँदी की नौका से भवसागर पार करने में जुटे सन्तों की माया के कुछ उदाहरण दें, तो बात ज़रा आसानी से समझ में आसानी आ सकती है। नया उदासीन अखाड़े के महामण्डलेश्वर चाँदी के हौदे में निकले, तो पायलट बाबा के शिष्य 100-100 ग्रा. के सोने के कड़े पहनकर। सन्त अवधूत अरुण के मोबाइल फोन पर तो सोने की परत चढ़ी हुई है। बाबा भौतिक सुख-सुविधाओं से दूर रहकर, त्याग-तपस्या से ही ‘‘मुक्ति’’ सम्भव बताते हैं पर ये सभी ‘‘आध्यात्मिक बाबा’’ महँगी-महँगी गाड़ियों, फोन, लैपटॉप, आइपैड का इस्तेमाल करने में बड़े-बड़े धनकुबेरों को पीछे छोड़ देते हैं। बाबाओं को माया ने ठग लिया और बाबा जनता को ठगने में लगे हैं।
थोड़ा इनके ‘माया-मुक्ति-मण्डपों’ की खोज-खबर भी ज़रूरी है। जूना पीठाधीश्वर अवधेशानन्द के प्रवचन महाकक्ष तथा ड्राइंगरूम किसी फाइव स्टार होटल से कम नहीं हैं। आसाराम बापू जैसे सन्तों के ‘मुक्ति-मण्डप’ के केवल गेट के निर्माण में ही 20 लाख रुपये ख़र्च हुए हैं। सीताराम यज्ञ के लिए बन रहे 11 मंजिला यज्ञशाला के निर्माण में 1 करोड़ पचास लाख तो केवल बाँस-बल्लियों पर ख़र्च आया है। महेश योगी की समाधि पर बन रहे मन्दिर पर 40 करोड़ की लागत आयी है। मन्दिर के अन्दर की दीवारों पर संगमरमर के ऊपर गोल्ड एन्ग्रेविंग (पत्थरों पर अक्षरों को उकेरकर सोने से लिखावट) के लिए अमेरिका के डॉ. हैरी आल्टो को लगाया गया है जबकि वास्तुशास्त्री हैं जर्मनी के डॉ. आई.के. हार्टमैन! (दुनिया को ज्ञान-विज्ञान सिखाने का दावा करने वाले इन सन्तों को भारत में कोई विश्वकर्मा नहीं मिला!)
अब ज़रा सोचिये! एक तरफ ये माया-मुक्त सन्त समाज है और दूसरी तरफ देश की 84 करोड़ जनता, जो सुबह से शाम तक खटने के बावजूद एक दिन में 20 रु. से अधिक नहीं कमा पाती। 9000 बच्चे भूख और कुपोषण से रोज़ मर जाते हैं और 36 करोड़ लोग बेघर या झुग्गी-झोंपड़ीवासी है। इस आबादी को भौतिक सुखों या ‘‘माया’’ से दूर रहने, कम से कम में जीने में ही आत्मिक सन्तोष प्राप्त करने का प्रवचन देने वाले बाबाओं का भोग-विलास देखकर तो आप भी शायद मेरी तरह यही कहेंगे – ग़रीब जनता के अमीर सन्तो! जनता को माया त्यागकर (जो कि वस्तुतः उसके पास है ही नहीं) परलोक सुधारने का उपदेश देने वालो! तुम्हारे परलोक का क्या होगा? तुम्हारी माया देखकर तो इन्द्र भी ख़ुशी-ख़ुशी स्वर्ग का सिंहासन छोड़ देंगे! तुम्हारे विलासी फूहड़ माया प्रदर्शन पर जितना धन ख़र्च होता है वो जनता पर किया जाता, तो परलोक की कौन जाने पर इहलोक से उनकी कुछ समस्याओं का अन्त ज़रूर हो जाता। हाँ! एक बात छूट रही थी कि भक्तों की जगह इन धर्मगुरुओं के हृदय में होती है (अब बाबा लोग तो यही बताते हैं!)। देखा नहीं, चिदानन्द स्वामी प्रीति जिंटा को साथ लेकर घूम रहे थे। यह ज़रूर है कि क्लास (वर्ग) का ध्यान बाबा लोग भी रखते हैं। तभी तो शाही स्नान का मार्ग सार्वजनिक कर दिये जाने पर अखाड़ा परिषद के महन्त ज्ञानदास मेला प्रशासन पर बिफ़र पड़े। उन्होंने बताया कि इससे इष्ट देव का अपमान होता है। इनके इष्ट देव को केवल एसी गाड़ियों में घूमने वाले साफ़-सुथरे, चिकने-चिकने लोग ही पसन्द हैं। पर धर्मगुरुओ, आपको कम से कम झूठ तो नहीं बोलना चाहिए!
बाबाजी, आप तो नम्बर एक के पाखण्डी निकले! दूसरों को माया का उपदेश देते हैं और ख़ुद माया दोनों हाथों से बटोरने में लगे हैं। इस महाकुम्भ में सन्त समाज द्वारा ‘‘अलौकिक आनन्द’’ का तीन से चार दिन का पैकेज प्रति व्यक्ति 7,500 से 11,000 रुपये की दर से बेचा जा रहा है। पर बाबा, इतने महँगे पैकेज से आपके करोड़ों ग़रीब भक्त ‘‘अलौकिक आनन्द’’ से वंचित ही रह जायेंगे। पर एक बात है बाबा, धन्धा अच्छा है!
सन्त-महात्मा अपने ज्ञानरूपी प्रकाश से जनता के अज्ञानरूपी अन्धकार को भगाने में जुटे हैं। अपने इसी दिव्य ज्ञान से इन्होंने बताया कि मौनी अमावस्या पर अमृत योग है। इस योग पर गंगा में डुबकी लगाने वालों को मनोवांछित फल प्राप्त होगा। 3 करोड़ लोग मनोवांछित फल पाने के लिए महाकुम्भ पहुँच गये। पर स्नान करके लौटते समय स्टेशन पर मची भगदड़ में 40 लोग मारे गये। अब इन लोगों ने डुबकी लगाते समय भगदड़ में मारे जाने की मनोकामना तो नहीं की होगी। इससे तो पता चलता है कि ये अज्ञान के सबसे बड़े पुंज हैं, लेकिन लगता है कि ये अपनी छीछालेदर कराके ही मानेंगे। इस घटना के बाद बाबा ने फिर अपने ज्ञानचक्षु खोले और बताया कि इस हादसे में ग्रहों की बहुत बड़ी भूमिका रही। कुम्भराशि में बुध के साथ मंगल भी आ गया और अमंगल कर दिया। पर सन्त जी का कोई अमंगल नहीं हुआ। हो सकता है कि इस अमृत-योग पर महात्मा जी स्नान ही नहीं किये। वाह रे! कूपमण्डूक कुतर्की।
फिर आप दोमुँहेपन की भी बहुत ठोस मिसाल पेश करते हैं। आप गंगा को मइया व उसके पानी को अमृत बताते हैं जबकि ख़ुद गंगा के किनारे रहकर मिनरल वाटर पीते हैं। सभी अखाड़ों के लिए हर रोज़ स्थानीय थोक विक्रेताओं से गाड़ियों में भर-भरकर बोतलों की पेटी पहुँचायी जा रही है। पंचायती अखाड़ा के महामण्डलेश्वर जसराजपुरी ने अपने शिविर में पानी शुद्ध करने के लिए प्यूरीफायर लगवा रखा है। बाबाजी! आस्था के नाम पर ये दोमुँहापन कब तक? आपके लिए वह पानी गन्दा है और जनता के लिए अमृत!
आसाराम जी बड़े पहुँचे हुए सन्त हैं। अपनी पत्रिका ‘‘ऋषि प्रसाद’’ में ज्ञान दिया कि अगर देखने का मजा, स्वाद का मजा लेने की आदत बनी रही तो पतंगे, मछली की योनि में जायेंगे, सुगन्ध लेने की आदत बनी रही तो भौंरा बनेंगे। स्वामी जी आपको सफ़ेद कपड़े पहनने की आदत है, अपने परम ज्ञान के मुताबिक तो आप अगले जन्म में बगुला या पहाड़ी चूहे की योनि में जायेंगे। आसाराम को यह परम ज्ञान उन साधुओं को ज़रूर देना चाहिए जो कि खुलेआम गाँजा चढ़ाते रहते हैं। कायदे से तो इन पर मुकदमा दर्ज होना चाहिये।
इन बाबाओं में से तो कई सेक्स स्कैण्डल (जैसे स्वामी नित्यानन्द! ये भी अपना पाप धोने चुपके-से महाकुम्भ पहुँच गये और महानिर्वाणी अखाड़ा द्वारा महामण्डलेश्वर की उपाधि पाने के बाद तो खुलेआम हौदे में बैठकर शाही स्नान के लिए गये), यौन उत्पीड़न, धोखाधड़ी, ज़मीन कब्जा (जैसे बाबा रामदेव! वह भी हौदे में बैठकर शाही स्नान के लिए गये) वेश्यावृत्ति आदि के कारण सुर्खियों में रहे।
इनका रूप पहले भी ऐसा ही था, तभी तो रैदास ने लिखा था कि – मन चंगा, तो कठौती में गंगा। और कबीर ने भगवा रंग का कपड़ा ओढ़कर जनता को ठगने वालों पर कठोर व्यंग्य करते हुए लिखा कि – मन न रंगाये, रंगाये जोगी कपड़ा, दढ़िया बढ़ाय, जोगी होई गइले बकरा। और बिना कुछ सोचे-विचारे, भेड़ों के रेवड़ की तरह गंगा स्नान के लिए चली जा रही जनता को भी कोसा है – चली कुलबोरनी गंगा नहाय, बहुरी भुजाइन सतुआ बनाइन मोटरी बनाइ के खसम के सिर पर दिहिन धराय, गंगा नहाइन यमुना नहाइन नौ मन मइल लिहिन चढ़ाय, पाँच पचीस के धक्का खाइन घरहु के पूँजी आइन गँवाय। सिर घुटाने से मोक्ष मिलता है! इस पर कबीर ने व्यंग्य करते हुए कहा था कि – मूंड़ मुड़ाये हरि मिले, तो सब कोई लेई मुड़ाय, बार-बार के मूंड़ते भेड़ न बैकुण्ठे जाय। हालाँकि, कबीर आज जीवित होते तो विहिप, आर.एस.एस. तो उनका घर घेर लिये होते।
तो, इन पेटुओं, लोलुपों, धोखेबाजों, चार सौ बीसों, मायावियों, अन्धविश्वासियों, विलासियों को मेहनतकश अवाम कब तक पूजती रहेगी! मेहनतकश अवाम को इनकी असलियत समझनी ही होगी और इन सभी को इनके उचित स्थान पर पहुँचाने की तैयारी में जुट जाना होगा।
इस महाकुम्भ के एक और पहलू पर मेहनतकश अवाम को ज़रूर सोचना चाहिए। जनता की धार्मिक आस्था का प्रतिक्रियावादी धार्मिक संगठनों, शासक वर्ग के विभिन्न धड़ों द्वारा हमेशा से अपने घृणित स्वार्थ के लिए इस्तेमाल होता रहा है। और तमाम धार्मिक प्रतिक्रियावादियों को इस महाकुम्भ से उपयुक्त जगह भला और कहाँ मिल सकती थी। विश्व हिन्दू परिषद इस महाकुम्भ में बड़े जोर-शोर से मन्दिर राग अलाप रही है। प्रयाग तमाम प्रतिक्रियावादी नारों के होर्डिंग्स से पटा हुआ है। भ्रष्टाचार में फँसे नितिन गडकरी की जगह भाजपा अध्यक्ष बने राजनाथ सिंह तत्काल इस कोरस में शामिल हो गये। अब भ्रष्टाचार का मुद्दा भाजपा उठा नहीं सकती क्योंकि वह ख़ुद ही ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार में लिप्त है। विहिप ने तो अभी तक पिछली बार मन्दिर निर्माण का नारा लगाकर जो चन्दा इकट्ठा किया है, उसका हिसाब भी नहीं दिया। वहीं, भाजपा फिर से आगामी चुनाव में वोट की रोटी मन्दिर निर्माण की आग लगाकर सेंकना चाहती है। मुट्ठी भर प्रतिक्रियावादियों का जमावड़ा महाकुम्भ में हुआ जिसमें विहिप, आर.एस.एस., बजरंग दल के गुर्गे शामिल थे। शंकराचार्यों के बारे में बड़ा मतभेद है क्योंकि पहले एक शंकराचार्य थे, फिर चार हुए और अब गली-गली में शंकराचार्य हैं। और इस जमावड़े को नाम दिया गया – धर्म संसद! वैसे तो आर.एस.एस. के मोहन भागवत को आधुनिकता से बहुत परहेज है और ‘संसद’ शब्द तो प्राचीन ग्रन्थों, वेदों में भी नहीं मिलता, फिर यह नाम! इसका ‘कट्टर हिन्दू दरबार’ जैसा नाम रखते तो ज़्यादा सही होता! और इसका चरित्र भी ‘संसद’ की अवधारणा से मेल नहीं खाता। संसद तो जन निर्वाचित संस्था है जबकि ‘‘धर्म संसद’’ के तमाम प्रतिक्रियावादी स्वनिर्वाचित स्वयंभू ‘‘धर्म सांसद’’ हैं। फिर संसद में तो हर वर्ग, धर्म के लोगों का प्रतिनिधित्व होता है जबकि इसमें केवल हिन्दू धर्म के मठाधीश ही शामिल थे। ग़ौरतलब है कि सन्तों के कई गुट धर्म संसद में शामिल नहीं थे। जैसे शंकराचार्य स्वरूपानन्द, जो कांग्रेसी सन्त हैं और अधोक्षजानन्द, जो सपा के सन्त हैं। सन्त भी पार्टियों के हिसाब से बँटे हुए हैं! गौ, गंगा, मन्दिर निर्माण के नारों से, जाहिर है कि भारतीय समाज में भारी विभाजन और अलगाव पैदा होगा। वैसे ये सन्तगण अलगाववाद के बहुत ‘‘विरोधी’’ हैं। नार्थ ईस्ट में कुख्यात कानूनों के खि़लाफ़ चल रहे आन्दोलन पर ये अलगाववाद का ठप्पा लगा देते हैं। ग़रीबी के खि़लाफ़ उठने वाली आवाज़ को देश को तोड़ने की साजिश बता देते हैं। फिर इस धर्म संसद में जिस लोकप्रिय लोकतान्त्रिक विकास पुरुष को भारत के अगले प्रधानमन्त्री के रूप में प्रोजेक्ट किया गया, वह है नरेन्द्र मोदी! दुनिया जानती है कि गुजरात में हज़ारों बेगुनाह मुसलमानों का क़त्ल करवाकर साम्प्रदायिक दंगों की आँच में इस शख़्स ने सत्ता हासिल की थी। गुजरात में हुए क़त्लेआम और सामूहिक बलात्कार काण्डों की तुलना केवल जर्मन नात्सियों के बर्बर कुकृत्यों से ही की जा सकती है। इस विकास पुरुष के गुजरात की विकास दर 11 प्रतिशत होने की रट लगाने के बावजूद हक़ीक़त का आँकड़ा 5 प्रतिशत से अधिक का नहीं है। एक तरफ टाटा जैसे उद्योगपतियों को कम्पनी लगाने के लिए औने-पौने दाम में ज़मीन, और रियायती दर पर बिजली मुहैया करायी जाती है। दूसरी तरफ 31 प्रतिशत से अधिक आबादी ग़रीबी रेखा के नीचे गुजर कर रही है। गुजरात उन राज्यों में से एक है जहाँ मज़दूरी की दर सबसे कम है। 21 प्रतिशत लोग कुपोषित हैं, और 15-49 वर्ष की उम्र की औरतों में 59-20 प्रतिशत औरतें खून की कमी का शिकार हैं। इन्हीं मोदी की तमाम महामण्डलेश्वर व शंकराचार्य जय-जयकार कर रहे हैं, तो मेहनतकश अवाम को इनकी मंशा और इनका प्रतिक्रियावादी चरित्र समझ जाना चाहिए।
विहिप ने गाय माता को बचाने का संकल्प लिया है। विहिप से पूछा जाना चाहिए कि गाय माता से जन्मे बछड़े भ्राता का दूध छीनकर गणेश की मूर्ति को पिलाने वाले या गंगा में पूजा-अर्चन करते समय दूध बहाने वाले साधुओं पर वह क्यों नहीं पिल पड़ती। क्योंकि इससे पता नहीं कितने बछड़ा भ्राताओं को भूखे ही रहना पड़ता होगा। या फिर वैदिक ग्रन्थों को जलाना चाहिए क्योंकि उसमें गाय का मांस ब्राह्मणों द्वारा खाने का उल्लेख है। फिर सारी सभ्यता को भी तहस-नहस कर देने की तैयारी करनी चाहिए क्योंकि गाय माता से जन्मे बछड़े भ्राता को खेतों में जोतकर ही कृषि व्यवस्था से आधुनिक समय तक की यात्रा तय हुई। ‘साम्प्रदायिकता और संस्कृति’ में प्रेमचन्द ने ऐसों पर लिखा है कि – हिन्दुओं में भी ऐसी जातियाँ हैं जो गाय का मांस खाती हैं यहाँ तक कि मृतक का मांस भी नहीं छोड़तीं! संसार में हिन्दू ही एक जाति है जो गोमांस को अखाद्य या अपवित्र समझती है, तो क्या इसलिए हिन्दुओं को समस्त विश्व से धर्म-संग्राम छेड़ देना चाहिए।
जानवरों की इतनी फिक्र करने वाले इन कुचक्रियों को अनाज होने के बावजूद लाखों मरते इन्सानों के बच्चे नहीं दिखते। मन्दिर के लिए देश की जनता को साम्प्रदायिक आग में झोंकने की तैयारी करते इन कट्टरपन्थियों को अशिक्षित जनता व चिकित्सा के अभाव में मरते बच्चे नहीं दिखते। भारत के पंजीयक एवं जनगणना विभाग द्वारा जारी आँकड़ों के मुताबिक देश में क़रीब 30 लाख पूजास्थल हैं जबकि शैक्षणिक संस्थान व अस्पतालों की संख्या कुल मिलाकर 27.89 लाख। मन्दिर बनने से मेहनतकश जनता को क्या मिलेगा? मन्दिर बन जायेगा तो यही होगा कि उसमें ग़रीबों का पैसा सोना के रूप में गैर-उपयोगी ढंग से इकट्ठा होगा। आँकड़े बताते हैं कि भारत के मन्दिरों में भारतीय रिज़र्व बैंक से भी ज़्यादा सोना है। बरबस कबीर याद आ जाते हैं – पाथर पूजे हरि मिले, तो मैं पूजू पहार, ताकी से चाकी भली जो पीस खाय संसार। गंगा की चिन्ता में पतले होने वाले इन गंगा प्रेमियों को उस समय गंगा की याद नहीं आयी जब भाजपा नेताओं के स्टोनक्रशर्स द्वारा गंगा को नुकसान पहुँचवाने के खि़लाफ़ उत्तराखण्ड में स्वामी निगमानन्द की अनशन करते-करते रहस्यमय तरीक़े से मौत हो गयी।
चलते-चलते, इन धर्म संस्कृति के झण्डाबरदारों से एक चीज़ और पूछ लिया जाये। आप नग्नता के बहुत विरोधी हैं, पर गंगा में हज़ारों नंगे घूम रहे हैं और उनको आप पूज रहे हैं। हैरत की बात है कि दुर्गा वाहिनी को भी यह सब नज़र नहीं आ रहा है। आस्था भी कितनी अन्धी हो सकती है!
एक बात हम आपके सामने और रखना चाहते हैं। अभी आँकड़ा आया था कि देश में 2008-09 में (दो साल के अन्दर) 1 लाख 70 हज़ार बच्चे ग़ायब हुए हैं। इन बाबाओं के मठों व आश्रमों पर बहुत सारे बच्चे देखे गये हैं। उनकी जाँच होनी चाहिए। दूसरे, बच्चों को बचपन में बाल संन्यासी बनाने के लिए सम्बन्धित मठाधीशों पर मुकदमा दर्ज होना चाहिए क्योंकि इस उम्र में बच्चे कोई स्वतन्त्र निर्णय लेने की स्थिति में नहीं होते। इस उम्र में उनके घरवाले भी उनसे यह कराने के लिए स्वतन्त्र नहीं हैं।
अब कुछ वामपन्थी बुद्धिजीवियों के रुदन पर नजर दौड़ा ली जाये। ये बुद्धिजीवी बड़े शिक़ायती अन्दाज़ में कहते हैं कि बताइये इतनी भीड़ कम्युनिस्टों के कार्यक्रम में क्यों नहीं होती। पहली बात तो इन कूपमण्डूकों को यह समझनी चाहिए कि इतनी भीड़ जब इंक़लाबी राजनीतिक आवाहन पर जुटने लगेगी, तो क्रान्ति आसन्न होगी या हो चुकी रहेगी। इससे भला कौन इन्कार कर सकता है कि इतिहास के गतिरोध के दिनों में व्यापक जनता भी भाग्यवाद और धर्म की जकड़बन्दी में जकड़ी होती है। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि धर्म के उद्गम का इतिहास हज़ारों वर्ष पुराना है और उसका सामाजिक वस्तुगत आधार पूँजीवाद की माल-उत्पादन की प्रणाली में भी मौजूद है। इन बुद्धिजीवियों के इस पराजयबोध पर भगत सिंह की यह टिप्पणी महत्वपूर्ण है – ‘‘जब गतिरोध की स्थिति लोगों को अपने शिकंजे में जकड़ लेती है तो वे किसी भी तरह की तब्दीली से हिचकिचाते हैं और ऐसे में प्रतिक्रियावादी शक्तियाँ उन्हें ग़लत रास्ते पर ले जाने में सफल हो जाती है। इस स्थिति को दूर करने के लिए क्रान्ति की स्पिरिट पैदा करने की ज़रूरत होती है।’’ लेनिन ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘धर्म के बारे में’ में लिखा है कि मेहनतकश जनता को एक अदृश्य दैवीय सत्ता में विश्वास होता है क्योंकि माल-उत्पादन पर टिकी पूँजीवादी व्यवस्था की अदृश्य ताक़तें मेहनतकश अवाम को निरन्तर तबाह करती रहती हैं और इन अदृश्य ताक़तों को मेहनतकश अवाम समझ नहीं पाती। मेहनतकश अवाम यह नहीं समझ पाता है कि उसके बच्चों को असमय कौन मार देता है, हाड़-तोड़ मेहनत के बाद अपनी आधी उम्र को गँवा देने का नसीब उसे ही क्यों मिला? वह कैसे अपनी खुशियाँ प्राप्त करे? परन्तु यहीं से कम्युनिस्टों का काम शुरू होता है। इन बुद्धिजीवियों को भी चाहिए कि अपने पराजयबोध से छुटकारा पाकर इन अदृश्य ताक़तों को मेहनतकश अवाम के सामने मूर्तिमान कर दें। इन ताक़तों के मूल स्रोत, यानी माल-उत्पादन पर टिकी पूँजीवादी व्यवस्था को उनके सामने खड़ा कर दें। उसे बतायें कि सारी भौतिक सम्पदा उसके मेहनती हाथों से ही पैदा होती है। उन्हें ऐसी व्यवस्था का विकल्प समझायें जबकि मेहनतकश अवाम ख़ुद अपने भविष्य की नियन्ता बन सकेगी। तब मेहनतकश अवाम की शक्ति इस व्यवस्था को तबाह करने वाली शक्ति में बदल जायेगी।
अन्त में, हम यह कहना चाहते हैं कि मज़दूर वर्ग को मुक्ति के लिए किसी पण्डे-पुरोहित-शंकराचार्य की ज़रूरत नहीं है। वह ख़ुद दुनिया का मुक्तिदाता है। पिछली शताब्दी में उसने ऐसा किया था और इस सदी में भी वह निर्णायक रूप से ऐसा ही करेगा।
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“धर्म द्वारा पागल बनाये गये लोग सबसे ख़तरनाक पागल होते हैं और… जिन लोगों का मक़सद समाज में विघटन पैदा करना होता है, वे हमेशा समझते हैं कि मौका पड़ने पर ऐसे पागलों का असरदार इस्तेमाल किस तरह किया जाता है।”
– देनी दिदरो (प्रबोधन काल के महान फ्रांसीसी दार्शनिक)
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मज़दूर बिगुल, फरवरी 2013
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