‘नकद सब्सिडी योजना’ -एक ग़रीब विरोधी योजना
महज चुनावी कार्यक्रम नहीं बल्कि व्यापारियों का मुनाफ़ा और बढ़ाने की योजना
योगेश
पिछले साल 15 दिसम्बर को दिल्ली की कांग्रेस सरकार ने ‘अन्नश्री’ योजना की शुरुआत की। खाद्य सुरक्षा हेतु प्रत्यक्ष नकदी अन्तरण योजना के अन्तर्गत दिल्ली के पन्द्रह लाख परिवारों को खाद्य सामग्री खरीदने के लिए प्रति माह 600 रु. दिए जायेंगे। दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने इस योजना की घोषणा करते हुए बड़ी बेशर्मी के साथ कहा कि पाँच लोगों के परिवार की खाद्य संबंधी जरूरतों को पूरा करने के लिए 600 रु. मासिक काफ़ी हैं। यानी प्रति व्यक्ति/प्रति दिन 4 रु.; अब 4 रु. में कोई व्यक्ति क्या खाना खायेगा यह तो खुद शीला दीक्षित ही बता सकती है। असलियत यह है कि एक परिवार को महज ज़िन्दा रहने के लिए खाद्य पदार्थ खरीदने के लिए नकद दी जा रही राशि से पाँच गुना राशि की ज़रूरत होती है। गौरतलब है कि दिल्ली में इस साल के अन्त से पहले विधानसभा चुनाव हैं और 2014 में लोकसभा के चुनाव है। केन्द्र में रिकॉर्ड तोड़ घपलों-घटालों और कई तरह के भ्रष्टाचार से घिरी कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए सरकार भी 2014 के चुनावों से पहले अपने दाग-धब्बों को नई-नई लोकलुभावन योजनाओं से छुपाने का प्रयास में लग गई है।
आपको याद होगा कि पिछले साल अगस्त में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने घोषणा की थी कि कुछ फ्री टॉक-टाईम के साथ हर ग़रीब आदमी तक एक मोबाइल फोन पहुँचाया जायेगा। इसी क्रम में 15 दिसम्बर से दिल्ली में और 1 जनवरी, 2013 से देश के 51 जिलों में ‘नकद सब्सिडी योजना’ को लागू किया गया। केन्द्र सरकार ने घोषणा की कि सार्वजनिक सुविधाओं में मिलने वाली सब्सिडी को अब से आधार कार्ड के माध्यम से बैंकों में नकद हस्तांतरित किया जायेगा। खाद्य सुरक्षा हेतु प्रत्यक्ष नकदी अन्तरण योजना को केन्द्र सरकार द्वारा क्रान्तिकारी योजना के रूप में प्रचारित करने के पीछे तर्क है कि ‘सार्वजनिक वितरण प्रणाली’ (पी.डी.एस.) में बहुत ही घपला होता है; लेकिन इस योजना के तहत सब्सिडी का पैसा सीधे प्रत्येक व्यक्ति के खाते में आने से सरकारी सेवाओं में दलाली, भ्रष्टाचार, फर्जी निकासी, बर्बादी और चोरी से मुक्ति मिलेगी। इस परियोजना के तहत वृद्धावस्था और विधवा पेंशन, मातृत्व लाभ और छात्रवृति जैसी 34 योजनाएँ आती है। यह योजना यह खाद्य, स्वास्थ्य सुविधाओं और ईंधन तथा खाद सब्सिडियों के लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पी.डी.एस.) जैसी तमाम योजनाओं को आधार (कार्ड) आधाारित नकद हस्तांतरण के अधीन लाने की दिशा में एक कदम है।
दिल्ली में विधानसभा और देश में लोकसभा चुनावों से पहले इस योजना की घोषणा करना वोट बैंक की बढ़ाने की कोशिश तो है ही; साथ ही इस योजना का खतरनाक पहलू यह भी है कि आने वाले समय में इस योजना के माध्यम से सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पी.डी.एस.) के रहे-सहे ढांचे को भी निर्णायक तरीक़े से ध्वस्त करके खाद्यान्न क्षेत्र को पूरी तरह बाज़ार की शक्तियों के हवाले कर दिया जायेगा। इससे साफ़ तौर पर इस क्षेत्र के व्यापारियों के मुनाफ़े में कई गुना की बढ़ोतरी होगी।
सार्वजनिक वितरण प्रणाली की दुर्दशा के विकल्प में इस योजना की शुरुआत करते हुए कहा गया था कि इस योजना के तहत लाभार्थियों को अपनी ज़रूरत के मुताबिक खाद्य पदार्थ और अन्य आवश्यक वस्तुएँ खरीदने का विकल्प मिल गया है। लेकिन जिस योजना को सरकार ग़रीबों के लिए बढ़िया बता रही है; उस पर स्वयं उन लोगों की राय अलग ही है। एक सर्वेक्षण से पता चला कि 90 फीसदी से ज्यादा ग़रीब लोग खाद्य पदार्थ नकद हस्तांतरण के मुकाबले सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पी.डी.एस.) से लेना पसंद करते हैं। इस योजना के तहत बैंकिंग स्टाफ को जैसे पूरी तरह ईमानदार माना गया है; जबकि वे ग़रीबों के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रस्त और उनके विरोधी हो सकते है।
और तो और, यह योजना देश के जिन जिलों में प्रयोग के तौर पर लागू की गयी, वहाँ के अनुभव नकारात्मक ही हैं। झारखण्ड के रामगढ़ जिले में मनरेगा के तहत भुगतान आधार आधारित नकदी हस्तांतरण के अधीन किए गये थे। इसके भयानक परिमाण सामने आये और जिला प्रशासन काम का बोझ संभाल ही नहीं सका। आबादी का वो अनुपात जिसकी यूआईडी संख्याएं और कल्याणकारी योजनाओं के विवरण मेल खाते थे, दो फीसदी से भी कम था। इलाके के बैंक कर्मचारी के अनुसार मनरेगा के आधे मज़दूरों की उंगलियों के निशानों को मिलान नहीं हुआ। रामगढ़ के एक ब्लॉक में 8,231 ‘‘सक्रिय’’ कार्ड धारकों में से केवल 162 को ही आधार कार्ड के ज़रिये भुगतान हो पाया। इस योजना की विफलता का एक अन्य उदाहरण राजस्थान के अलवर जिले के एक संपन्न गाँव में भी सामने आया। एक साल पहले सरकार ने कोटकासिम गाँव के 25,843 राशनकार्ड धारकों को 15.25 रु. लीटर की दर से मिट्टी का तेल बेचना बंद कर दिया और इसकी जगह उनसे 49.10 प्रति लीटर की बाजार दर से पैसे वसूल किए। इस अन्तर को प्रत्येक तीने महीने में उनके खाते में जमा किया जाना था। लेकिन उस क्षेत्र में बैंक की शाखा औसतन तीन किलोमीटर है और कुछेक के लिए तो 10 किलोमीटर तक है। इसलिए केवल 52 फीसदी परिवारों के ही बैंक खाता खुल पाए; बाकी तो इस योजना से ही बाहर हो गए। कुछ परिवारों को मूल्य में अन्तर की पहली किस्त मिली और उसके बाद कुछ नहीं मिला और ज्यादातर को तो पूरे साल कुछ नहीं मिला। इस बीच मिट्टी के तेल की बिक्री 84,000 लीटर से घटकर सिर्फ़ 5000 लीटर रह गई यानी 94 फीसदी कम हो गई। लोगों को सूखी टहनियाँ, कपास और सरसों के डंठलों या खरपतवार को जला कर काम चलाना पड़ा।
ब्रिटेन, अमेरिका, आस्ट्रेलिया, चीन, कनाडा और जर्मनी में भी इस तरह की योजनाओं के परिणाम खराब आने के बाद उन्हें बन्द कर दिया गया था। जबकि भारत की केन्द्र सरकार का इरादा अप्रैल 2014 से इस योजना को पूरे देश में लागू करने का है। लेकिन क्या इतने समय में सभी के आधार कार्ड बन जाएंगे और क्या समूची ग़रीब आबादी के पास बैंक खाते की सुविधा होगी? इस योजना का ढांचागत आधार तो कमजोर है ही; बल्कि सरकार द्वारा जिस मकसद से इस योजना को शुरू किया जा रहा है वह भी पूरा नहीं होने वाला है। खाद्य साम्रगी के लिए मिले पैसे उसी मद में खर्च होने की सम्भावना बहुत कम ही है। यह एक सच्चाई है कि तमाम ग़रीब लोग अक्सर कर्ज या उधार से दबे रहते है। जैसे ही उनके खाते में पैसा आएगा; कर्ज वसूलने वाले सिर पर सवार होंगे या किसी अन्य दूसरे ज़रूरी खर्चें में वह पैसा खर्च हो जायेगा।
आधार आधारित नकद हस्तांतरण की योजना न केवल बेहद खर्चीली है (अनुमानतः 45,000-1,50,000 करोड़ रुपये) बल्कि वास्तव में पात्र लाभार्थियों को बाहर रखने और अपात्रों को गलत ढंग से शामिल किए जाने की पूरी संभावना है। सरकार ने ग़रीब परिवारों की सूची बनाने का काम कुछ एन.जी.ओ. को सौंपा है। दिल्ली में यह काम जी.आर.सी. के माध्यम से अलग-अलग एन.जी.ओ. को दिया गया। यहीं के कच्ची खजूरी इलाके में अन्नश्री योजना के तहत कई ऐसे लोग शामिल किए गये है जिनका दिल्ली में अपना घर है और वे किसी अच्छी नौकरी पर लगे हुए है। जबकि इस इलाके के सैकड़ों मज़दूरों के परिवारों का इस योजना की सूची में नाम लिखा ही नहीं गया।
लोगों को सबसे बड़ा डर है कि इस योजना के लागू होने के बाद महँगाई में क्या होगा? सरकार कह रही है कि पैसों की राशि महँगाई के अनुसार होगी। लेकिन असलियत यह होगी कि सरकार तभी पैसा बढ़ायेगी जब चुनाव नजदीक होंगे-इसके अलावा नहीं बढ़ायेगी। उधार, बाज़ार में हर रोज़ खाद्य साम्रगी की कीमतें बढ़ती जायेंगी। इस योजना में नकद हस्तान्तरण से परिचलन में भारी मात्रा में पैसा आएगा जिससे मुद्रास्फीति बढ़ेगी और लोगों की क्रय शक्ति कम हो जायेगी।
विपक्ष में बैठी भाजपा व अन्य कई चुनावी पार्टियों ने इस योजना का महज दिखावटी विरोध किया है। स्वयं पूँजीपतियों की सेवा करने वाली ये पार्टियाँ सिर्फ़ इतना कह रही है कि इस योजना को चुनावों के कारण बिना तैयारी के घोषित किया गया। यानी इनके मुताबिक अच्छी तैयारी के साथ इस ‘ग़रीब विरोधी योजना’ को लागू किया जाये तो ज़्यादा अच्छा रहेगा। अब इस सच्चाई को ग़रीब आबादी भी समझने लगी है कि सरकार किसी भी चुनावी पार्टी की बनें सबको अपने-अपने तरीक़े से पूँजीपतियों की सेवा के लिए योजनाएँ बनानी है।
1990 के बाद से भारत में जो नवउदारनीतियाँ लागू हुईं उसी के तहत पहले सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पी.डी.एस.) से बहुसंख्यक ग़रीब आबादी को अलग-अलग श्रेणियों (लाल कार्ड, पीला कार्ड आदि) में बाँटकर एक आबादी को इस प्रणाली से बाहर कर दिया गया। अब इस योजना के माध्यम से सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पी.डी.एस.) के रहे-सहे ढांचे को भी खत्म किया जा रहा है।
यह बात सही है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पी.डी.एस.) में कई कमियाँ है। लेकिन पी.डी.एस. की कमियों को ठीक न करते हुए इस प्रणाली के विकल्प में आने वाली यह योजना ग़रीब आबादी के लिए नुकसानदायक ही है। ज्यादा सही यही होगा कि पी.डी.एस. की कमियों को ठीक किया जाये। पी.डी.एस. की सबसे बड़ी कमी है ग़रीबी रेखा का निर्धारण ही सही तरीक़े से नहीं किया गया है। अगर इस देश की सरकारें इस देश के आम लोगों का प्रतिनिधित्व करती है तो उन्हें सबसे पहले ग़रीबी रेखा का पुनः निर्धारण करना चाहिए; मौजूदा ग़रीबी रेखा हास्यास्पद है। उसे भुखमरी रेखा कहना अधिक उचित होगा। पौष्टिक भोजन के अधिकार को जीने के मूलभूत संवैधानिक अधिकार का दर्जा दिया जाना चाहिए तथा इसके लिए प्रभावी क़ानून बनाया जाये ।
इसके लिए ज़रूरी है कि सार्वजानिक वितरण प्रणाली का ही पुनर्गठन किया जाना चाहिए और अमल की निगरानी के लिए ज़िला स्तर तक प्रशासनिक अधिकारी के साथ-साथ लोकतान्त्रिक ढंग से चुनी गयी नागरिक समितियाँ होनी चाहिए। लेकिन पूँजीपतियों के इशारों पर चलने वाली मौजूदा सरकारें बिना किसी जनदबाव के ऐसी नीतियाँ नहीं ही बनाएंगी। इस देश की बहुसंख्यक मेहनतकश आबादी को चाहिए कि भोजन के अधिकार को मुलभूत संवैधानिक अधिकार बनाने के लिए संघर्ष तो करे ही; साथ ही सरकार कि ऐसी जनविरोधी योजनाओं का विरोध भी होना चाहिए।
मज़दूर बिगुल, फरवरी 2013
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