पर्यावरण संरक्षण का खेल
सनी
हमारा समाज विकास कर रहा है। मेहनत के दम पर हमने धरती की सूरत को बदल दिया है। जंगल काटकर खेत उगाये हैं, फ़ैक्टरियाँ लगायी हैं, धातुओं को धरती के गर्भ से निकाला है और विशाल पर्वतों को काटकर रास्ता बनाया है; सागरों की तलहटी से हमने ईंधन निकाला है और दैत्याकार यन्त्र खड़े किये हैं। मनुष्यता के जन्म से लेकर अब तक इन तमाम चीज़ों में ज़बर्दस्त तरक्की नज़र आती है। लेकिन यह भी सच है कि इस विकास के ज़्यादातर फल वर्गों में बँटे हुए समाज में एक बेहद छोटी आबादी तक सीमित रहे हैं।
पूँजीवादी व्यवस्था के दौरान हुए विकास ने पिछले 200-300 सालों में प्रकृति को बुरी तरह से तबाह किया है। ओज़ोन परत में छेद (जिसके कारण सूर्य की हानिकारक किरणों का दुष्प्रभाव इंसानों पर पड़ता है), जानवरों और पौधों की कई प्रजातियों का विलुप्त होना, ज़हरीली गैसों, रसायनों के उत्सर्जन से जन्मी बीमारियाँ, सुनामी से हुई तबाही (क्योंकि पूँजीपतियों ने सुनामी के प्रभाव को रोकने वाले मैंग्रोव वनों को मुनाफे की ख़ातिर काट डाला था) और भोपाल गैस त्रासदी, चेर्नोबिल, नागासाकी, हिरोशिमा, थ्रीमाईल द्वीप में नाभिकीय तबाही, और हाल ही में फुकोशिमा जापान में हुई नाभिकीय दुर्घटना जैसे पूँजीवाद के पैदा किये हुए हादसों की सूची बेहद लम्बी है।
फिलहाल ग्लोबल वार्मिंग (धरती पर तापमान का बढ़ना) के ख़तरे को आज बड़ा ख़तरा माना जा रहा है जिसका एक कारण जीवाश्म ईंधनों (जैसे पेट्रोल, डीज़ल) की अन्धाधुन्ध खपत है। हालाँकि ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोत आज मौजूद हैं, और नये वैकल्पिक स्रोत अनुसन्धान से खोजे जा सकते हैं। लेकिन इस काम में कोई भी पूँजीपति निवेश नहीं करेगा क्योंकि उसे तुरन्त फायदा चाहिए। और न ही विशालकाय तेल कम्पनियाँ ऐसे किसी भी स्रोत का इस्तेमाल होने देंगी क्योंकि इससे वे तबाह हो जायेंगी।
बताने की ज़रूरत नहीं है कि पर्यावरण के विनाश का नुकसान सबसे ज्यादा ग़रीब जनता को ही उठाना पड़ता है। 12-14 घण्टे रोज़ फैक्टरियों में खटते हुए, मुर्गी के दड़बेनुमा और कूड़ेदानों से घिरी असुरक्षित झुग्गियों में रहते हुए, प्रदूषित भूजल का सीधे उपयोग करते हुए, या बाढ़ में कच्चे घरों के बह जाने से होने वाली बरबादी-तबाही को ग़रीब जनता ही झेलती है। अमीरों के पास बड़े-बड़े वातानुकूलित आफिस, वातानुकूलित घर, बाज़ार, स्कूल, गाड़ियाँ हैं, पानी साफ करने के यन्त्र हैं व अन्य सुविधाएँ हैं। सीधी बात यह कि इस पूँजीवादी समाज में तबाही ग़रीब जनता झेलती है और जो वह पैदा करती है उसका उपभोग जोंक रूपी मालिक वर्ग और उसके दलाल करते हैं। पर्यावरण को ख़तरा, जो अन्तत: मानवजाति के लिए ख़तरा है इस पूँजीवादी प्रणाली ने पैदा किया है।
लेकिन विडम्बना यह है कि पूँजीवाद के भक्षक ही पर्यावरण को बचाने के लिए बड़े-बड़े सम्मेलन करते हैं। वे ”विनाशरहित विकास” की बात करते हैं, हालाँकि वे भी जानते हैं कि पूँजीवादी व्यवस्था के अराजक जंगलराज में यह असम्भव है। पर्यावरण पर मौजूद संकट पर जनता के ग़ुस्से के दबाव के कारण मजबूरन पूँजीवादी विश्व के चौधरी हर वर्ष पर्यावरण सम्मलेन करते हैं। एक ऐसा ही सम्मलेन पिछली 16-19 जून को ब्राज़ील के रियो द जनेरो शहर में हुआ। कहने को तो इस पृथ्वी शिखर सम्मलेन का मकसद पृथ्वी के पर्यावरण पर मँडराते ख़तरों पर चर्चा करना व विनाशरहित विकास की तरफ दुनिया को ले जाना था। परन्तु यह नाकाम रहा। रियो सम्मलेन में भी यह बात पूरी तरह से स्पष्ट हो गयी कि पूँजीवाद के रहते पर्यावरण को बचाना असम्भव है। साम्राज्यवादी देशों, ”उभरती अर्थव्यवस्था” वाले देशों (जैसे चीन, ब्राज़ील, भारत, दक्षिण अफ्रीका आदि) और अन्य देशों के अन्तरविरोध फिर सतह पर आ गये। विकसित देशों ने अपने औद्योगिक विकास के दौर में जीवाश्म ईंध्नों और कोयला आदि का जमकर इस्तेमाल किया। वास्तव में, आज जो पर्यावरणीय संकट हमारे सामने है उसका कारण पश्चिमी पूँजीवादी देशों द्वारा किया गया अन्धाधुन्ध औद्योगिक विकास था। लेकिन अब विकसित देश यह चाहते हैं कि विकास के रास्ते पर जो देश देर से उतरे हैं वे पर्यावरण को नुक़सान न पहुँचाने वाले रास्ते अपनायें, हालाँकि विकसित देशों का अमीर वर्ग अभी भी पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा कार्बन उत्सर्जन कर रहा है। लेकिन समस्या यह है कि तेज़ी से मुनाफा पैदा करने वाला औद्योगिक विकास नये वैकल्पिक और पर्यावरण अनुकूल साधनों से नहीं हो सकता। विकासशील और कम विकसित पूँजीवादी देशों का तर्क है कि अब जब औपनिवेशिक ग़ुलामी से मुक्त होकर वे पूँजीवादी विकास के रास्ते पर आये हैं तो पश्चिमी देश उन पर बन्दिशें थोप रहे हैं और दोहरे मानक अपना रहे हैं। इन देशों का मालिक वर्ग अब वैश्विक पैमाने पर मुनाफे की दौड़ में पिछड़ना नहीं चाहता। इसलिए ऐसे सभी विकासशील देशों के पूँजीपति वर्ग एकजुट होकर साम्राज्यवादी देशों के दबाव का प्रतिरोध कर रहे हैं। इसलिए यह सवाल हल ही नहीं हो सकता कि पर्यावरण को बचाने में कौन-सा देश पहल करेगा। कम-से-कम विश्व पूँजीवादी व्यवस्था के रहते यह सम्भव नहीं है।
इसके अलावा, वैश्विक मन्दी के इस कठिन दौर में सभी देशों की प्राथमिकता पर्यावरण नहीं है। अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा ने तो इस सम्मलेन में समय देना भी ज़रूरी नहीं समझा। सम्मलेन के नतीजा दस्तावेज ‘भविष्य जो हमें चाहिए’ आज से 20 साल पहले हुए रियो सम्मलेन का दुहराव भर था और छोटे बच्चों को पढ़ाये जाने वाले शिष्टाचार जैसे उपदेशों से भरा था। इसमें पर्यावरण को बचाने सम्बन्धी कोई ठोस कार्यक्रम नहीं था। इसमें ग़रीबी, हरित आर्थिकी, विनाश-रहित विकास, स्वास्थ्य, शिक्षा लगभग हर मुद्दे पर भावनात्मक दलीलें दी गयी हैं। अमरीका और अन्य विकसित देशों ने हरित आर्थिकी का मतलब सिर्फ अपने देश के पूँजीपतियों को आर्थिक मदद देने तक सीमित रखा, विकसित देशों द्वारा पर्यावरण सम्बन्धी कोई सुधारात्मक कार्रवाई और अन्य देशों के विकास के लिए मदद ग़ायब थी। इसी कारण हमारे देश के प्रधानमन्त्री ने विकसित देशों के व्यवहार पर आपत्ति दर्ज की क्योंकि वे उनके देश को किसी तरह की मदद नहीं दे रहे थे। साफ है कि आर्थिक मन्दी के भीषण दौर से गुज़र रहे पूँजीवाद के लिए अभी ”पर्यावरण-पर्यावरण” खेल में समय खपाना बिलकुल नामुमकिन है। पर्यावरण संरक्षण और शिखर सम्मेलनों में साम्राज्यवादी देशों के आपसी अन्तरविरोध ही उभरकर आते हैं। वस्तुत: रियो सम्मलेन का यही हश्र होना था। आश्चर्य की बात तो तब होगी जब वे इस से अलग आचरण करते। पूँजीवादी व्यवस्था का तर्क ही मानवीय श्रम और धरती की लूट पर आधरित है। पर्यावरण संरक्षण इस तर्क के विरुद्ध जाता है। तो आख़िर पर्यावरण को विनाश से बचाने का रास्ता क्या है? पर्यावरण को बचाने के लिए हमें उस प्रक्रिया को रोकना होगा जो इस तबाही का मूल स्रोत है। यानी, दुनिया से पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली को उखाड़ फेंकना होगा और एक मानवकेन्द्रित व्यवस्था का निर्माण करना होगा।
[stextbox id=”black”]”जो धरती हमारी एकमात्र और सबकुछ है, जो हमारे अस्तित्व की पहली शर्त है — उसी धरती को फेरी लगाकर बेचने की वस्तु बना देना ही वह आख़िरी क़दम था जिसने स्वयं व्यक्ति को ही फेरी लगाकर बेचे जाने की वस्तु बना दिया।” – फ़्रेडरिक एंगेल्स[/stextbox]
मज़दूर बिगुल, जुलाई 2012
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