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जन स्वास्थ्य की जानलेवा दुर्गति
रोज़गार, रोटी, आवास, स्वास्थ्य और शिक्षा — ये पाँच बुनियादी मानवीय आवश्यकताएँ देश के सभी लोगों को मुहैया कराना हर जनवादी सरकार का फर्ज़ होता है। भारत की जनता से भी 1947 में यही वादा किया गया था। मगर 65 वर्षों के दौरान भारतीय राज्य एक-एक करके अपनी सभी ज़िम्मेदारियों से मुकरता गया है। ख़ासतौर पर पिछले 22 वर्षों से जारी निजीकरण-उदारीकरण की नीतियों ने स्वास्थ्य के रहे-सहे ढाँचे को भी चौपट करके आम जनता के स्वास्थ्य को पूरी तरह बाज़ार के ख़ूनी भेड़ियों के हवाले कर दिया है।
‘मज़दूर बिगुल’ के इस अंक से हम देश में जनस्वास्थ्य के जानलेवा हालात और स्वास्थ्य की अर्थनीति और राजनीति पर रिपोर्टों की एक श्रृंखला शुरू कर रहे हैं। इसकी शुरुआत दवा कम्पनियों के खूनी खेल से की जा रही है।
आगामी अंकों में हम इन मुद्दों पर रिपोर्टें देंगे :
– सरकारी अस्पतालों की तबाही-बदहाली पर
– निजी अस्पतालों की लूट पर
– ‘डॉक्टर या डकैतों के संगठित गिरोह!’
– मेडिकल शिक्षा की स्थिति पर
– सबके लिए स्वास्थ्य को शानदार ढंग से लागू करने वाले अतीत के प्रयोगों पर
मुनाफे के लिए इन्सानों की जान से खेलती दवा कम्पनियाँ
सत्यप्रकाश
आज विज्ञान की खोजों ने बीमारियों से लड़ना और उनका इलाज बहुत आसान बना दिया है। आज से करीब सौ साल पहले भारत में औसत आयु 30 वर्ष थी जो अब बढ़कर 65 वर्ष हो गयी है। इसमें आधुनिक विज्ञान द्वारा खोजी गयी नयी दवाओें का बहुत बड़ा योगदान रहा है। पहले जो महामारियाँ हज़ारों और लाखों लोगों को मौत की नींद सुला देती थीं अब उनका आसानी से इलाज हो सकता है। लेकिन दूसरी तरफ आज भी हैजा, दस्त, बुखार जैसी मामूली बीमारियों से हज़ारों बच्चों की मौत हो जाती है। पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में मस्तिष्क ज्वर से हर साल हज़ारों बच्चे मरते हैं, जबकि इसका टीका आसानी से उपलब्ध है। देशभर में लाखों लोग बीमारियों के कारण मर जाते हैं या जीवनभर के लिए अपंग हो जाते हैं, इसलिए नहीं कि इन बीमारियों का इलाज सम्भव नहीं है, बल्कि इसलिए कि इलाज का खर्च उठा पाना उनके बस के बाहर है।
इस क्रूर विरोधाभास का कारण पूँजीवादी व्यवस्था है जिसने इन्सान की ज़िन्दगी बचाने वाली दवाओं को भी मुनाफे के कारोबार में बदल दिया है। इसने दुनिया के सबसे मानवीय पेशे, चिकित्सक के पेशे को एक निर्मम व्यापार में तब्दील कर दिया है और डॉक्टरों को कसाई बना डाला है। किसी भी मानवीय व्यवस्था में दवाओं और मनुष्यों की सेवा-सुश्रूषा को ख़रीद-बिक्री की चीज़ होना ही नहीं चाहिए मगर पूँजीवाद ने इसे दुनिया के सबसे बेरहम व्यवसायों में से एक बना दिया है। दवाओं का कारोबार आज दुनिया के कुछ सबसे अधिक मुनाफा देने वाले उद्योगों में से एक बन चुका है। आज विज्ञान की उन्नति की बदौलत अधिकांश बीमारियों का इलाज सम्भव है मगर इस ज्ञान पर दैत्याकार दवा कम्पनियों का कब्ज़ा है जो इसका इस्तेमाल इन्सानों की जान बचाने के बजाय उनकी जान से खेलने में करती हैं।
दवाओं की लागत से दसियों गुना अधिक दाम
हाल ही में भारत सरकार के कम्पनी मामलों के मन्त्रालय के एक अध्ययन में सामने आया कि अनेक बड़ी दवा कम्पनियाँ दवाओं के दाम 1100 प्रतिशत तक बढ़ाकर रखती हैं। यह कोई नयी बात नहीं है। बार-बार यह बात उठती रही है कि दवा कम्पनियाँ बेबस रोगियों की कीमत पर लागत से दसियों गुना ज्यादा दाम रखकर बेहिसाब मुनाफा कमाती हैं। ज्यादातर कम्पनियाँ दवाओं की लागत के बारे में या तो कोई जानकारी नहीं देतीं या फिर उन्हें बढ़ा-चढ़ाकर पेश करती हैं। फिर भी उनकी बतायी हुई लागत और बाज़ार में दवा की कीमतों में भारी अन्तर होता है। भारत की कई बड़ी दवा कम्पनियों में काम कर चुके एक युवा वैज्ञानिक ने ‘मज़दूर बिगुल’ को बताया कि जो दवा की गोली बीस या पच्चीस रुपये की बिकती है, उसके उत्पादन की लागत अक्सर दस या पन्द्रह पैसे से अधिक नहीं होती। अलग-अलग कम्पनियों द्वारा एक ही दवा की कीमत में जितना भारी अन्तर होता है उससे भी इस बात का अन्दाज़ा लगाया जा सकता है। नीचे बॉक्स में दिए गए उदाहरणों से देखा जा सकता है कि एक ही दवा के अलग-अलग ब्राण्ड की कीमतों में 13 गुना से लेकर 16 गुना तक अन्तर होता है जबकि दोनों की उत्पादन लागत में विशेष फर्क नहीं होता।
भारत सरकार बीच-बीच में ऐसी रिपोर्टें तो जारी करती रहती है मगर वास्तव में दवा कम्पनियों की इस भयंकर लूट को रोकने के लिए कोई कदम नहीं उठाती। उसे ग़रीब मरीज़ों के स्वास्थ्य से अधिक चिन्ता दवा उद्योग के स्वास्थ्य की रहती है। अगर वाकई उसे ग़रीबों के स्वास्थ्य की चिन्ता होती तो वह ऐसी नीतियाँ नहीं बनाती जो जीवनरक्षक दवाओं की ऊँची कीमतों को सही ठहराती हैं। जैसे, दिल के रोगियों के लिए कारगर दवा एटोर्वेस्टेटिन जो जन-औषधि नामक सरकारी दुकानों में 8.20 रुपये (दस गोलियाँ) की दर से मिलती है, को प्रचारित करने के बजाय 96 रुपये (दस गोलियाँ) की दर से बिकने वाली स्टोरवास दवा की ख़रीद की अनुमति देने का क्या औचित्य है? डॉक्टरों को डायबिटीज़ के लिए एमेरिल का नुस्खा लिखने की इजाज़त क्यों दी जानी चाहिए? एमेरिल का एक पत्ता 118 रुपये का बिकता है, जबकि ग्लिमेपिराइड यानी इसी दवा का जेनेरिक रूप जन-औषधि दुकानों में 11.80 पैसे में उपलब्ध है।
कई वैज्ञानिक और विशेषज्ञ यह साबित कर चुके हैं कि जिस दाम पर बड़ी कम्पनियाँ दवाएँ बेचती हैं उससे बहुत ही कम लागत पर अच्छी गुणवत्ता की दवाएँ बनायी जा सकती हैं। फिर आखिर यह सारा पैसा जाता कहाँ है? दवा कम्पनियों के बेहिसाब मुनाफे के अलावा मरीज़ और दवा कम्पनी के बीच बिचौलियों की लम्बी कतार होती है — क्लियरिंग एण्ड फॉरवर्डिंग एजेण्टों या सुपर स्टॉकिस्ट से लेकर डिस्ट्रीब्यूटर/स्टॉकिस्ट से होते हुए दवा की दुकान तक। हर कदम पर कमीशन और बोनस के रूप में मुनाफे का बँटवारा होता है। इसमें दवाओं के विज्ञापन और डॉक्टरों पर होने वाले खर्च को भी जोड़ दीजिये, जो शायद बाकी सभी खर्चों से अधिक होता है। इस सबकी कीमत भी मरीज़ से ही वसूली जाती है। भारत में दवा उद्योग का कुल घरेलू बाज़ार लगभग 60,000 करोड़ रुपये सालाना का है जिसमें से 51,843 करोड़ रुपये की दवाएँ केमिस्ट की दुकानों से बिकती हैं। सरकार द्वारा जनता के पैसे से खड़ी की गयी स्वास्थ्य सेवाओं के लम्बे-चौड़े ढाँचे के बावजूद बहिर्रोगी इलाज का 80 प्रतिशत निजी सेक्टर में होता है और इसका 71 प्रतिशत दवाओं की ख़रीद पर खर्च होता है। इसका मुख्य कारण यही है कि दवा कम्पनियाँ जेनेरिक दवाओं के अलग-अलग ब्राण्ड नाम रखकर उन्हें महँगे दामों पर बेचती हैं। डॉक्टर भी सस्ते विकल्प होने के बावजूद महँगी ब्राण्डेड दवाएँ ही नुस्खे में लिखते हैं और ग़रीब मरीज़ों के पास इन्हीं दवाओं को ख़रीदने के अलावा कोई चारा नहीं होता, चाहे उन्हें अपना घर-द्वार ही क्यों न बेचना पड़ जाये। बहुतेरे ग़रीब मरीज़ तो महँगी दवाओं के इन्तज़ार में दम तोड़ जाते हैं।
दवा कम्पनियों को खुला सरकारी संरक्षण
कहने को तो सरकार ने महँगी दवाओं पर नियन्त्रण करने के लिए कई क़ानून बना रखे हैं। 1997 में बने राष्ट्रीय फार्मास्यूटिकल मूल्य-निर्धारण प्राधिकरण (एनपीपीए) का मानना है कि दवाओं की बेवजह ऊँची कीमत एक बड़ी समस्या है लेकिन आज तक प्राधिकरण ने इसे रोकने के लिए कुछ ख़ास नहीं किया है। जून 2010 तक एनपीपीए ने दवा कम्पनियों को कुल मिलाकर 762 नोटिस जारी किये थे जिनमें कुल 2190.48 करोड़ रुपये का जुर्माना लगाया गया था। लेकिन इसमें से केवल 199.84 करोड़ यानी महज़ 9.1 प्रतिशत जुर्माने की ही वसूली हो पायी। दवाओं के मूल्य नियन्त्रण क़ानून का मकसद था कि जीवनरक्षक दवाएँ लोगों को सस्ते दामों पर उपलब्ध हो सकें। लेकिन दवा कम्पनियों के दबाव में मूल्य नियन्त्रण क़ानून के दायरे में आने वाली दवाओं की संख्या भी लगातार कम होती गयी है। 1979 में कुल 347 दवाएँ इस क़ानून के दायरे में आती थीं जो 1987 तक घटकर 142 और 1995 तक 76 रह गयीं। इस समय केवल 74 दवाएँ इसके तहत रह गयी हैं। इनमें से भी 24 दवाएँ पुरानी पड़ चुकी हैं और उनकी जगह नयी दवाओं ने ले ली है जो मूल्य नियन्त्रण क़ानून के दायरे से बाहर हैं। इन 74 में से भी केवल 63 दवाओं के लिए अधिसूचना जारी की गयी है जबकि अत्यावश्यक दवाओं की राष्ट्रीय सूची (एनएलईएम) में 354 दवाएँ हैं। हालाँकि इस सूची में भी कैंसर जैसे रोगों की दवाएँ अब तक शामिल नहीं की गई हैं।
सरकार की नाक के नीचे कम्पनियाँ तमाम तरह के तिकड़मों से मूल्य नियन्त्रण वाली दवाओं के भी दाम बढ़ाती रहती हैं। इसका सबसे आसान तरीका है मूल दवा में एक या अधिक तत्व और जोड़कर नये नाम से बाज़ार में उतार देना। कुछ मामलों में कम्पनियाँ दामों में भारी बढ़ोत्तरी को सही ठहराने के लिए दवाओं में कुछ ऐसे तत्व जोड़ देती हैं जिनकी चिकित्सा विज्ञान के अनुसार कोई ज़रूरत ही नहीं होती। जैसे पेट के संक्रमण की आम दवा नॉरफ्लॉक्सॉसिन और डॉक्सिसिलीन की अधिकतम मूल्य सीमा दस रुपये प्रति दस गोली है, लेकिन ब्राण्डेड नॉरफ्लॉक्स और डॉक्सी-1 लगभग 48 रुपये प्रति दस गोली पर बिकती हैं। ऐसी दवाओं की सूची बहुत लम्बी है।
भारत में कई ऐसी दवाएँ भी खुलेआम बिकती हैं जिनपर विदेशों में पाबन्दी लगी हुई है। जैसे निमेसुलाइड पर अमेरिका सहित कई देशों में रोक लगी हुई है लेकिन भारत में निजी डॉक्टरों से लेकर सरकारी अस्पतालों तक में यह दवा बुखार आदि के लिए धड़ल्ले से दी जाती है। बच्चों के लिए यह ख़ासकर नुकसानदेह होती है। सिप्ला कम्पनी द्वारा बनायी गयी निमेसुलाइड के निसिप नामक ब्राण्ड को खुदरा विक्रेता 1.88 रुपया प्रति दस गोली की दर से ख़रीदते हैं। यानी इस दर पर भी सिप्ला को मुनाफा हो रहा है। बाज़ार में यही गोली 30 रुपये के भाव से बिकती है।
अगले अंक में हम दवाओं के इस घिनौने कारोबार के कई और पहलुओं को उजागर करेंगे। शोध के नाम पर दवाओं की ऊँची कीमत रखने के झूठे तर्क, दवा उद्योग पर दैत्याकार बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के बढ़ते शिकंजे और इन कम्पनियों द्वारा अपनाये जाने वाले अमानवीय तौर-तरीकों का पर्दाफाश करने के साथ ही हम यह भी बतायेंगे कि इस व्यवस्था के भीतर भी दवाओं की कीमतें कैसे कम की जा सकती हैं। मगर तमाम पूँजीवादी सरकारें जनता के हितों की दुहाई देते हुए वास्तव में दवा कम्पनियों के हाथों जनता के स्वास्थ्य को गिरवी रखने में मददगार बनी हुई हैं।
[stextbox id=”black” caption=”ऊँचे दाम रखने के लिए दवा कम्पनियों के तर्क झूठे और खोखले हैं”]
तर्क 1. भारत की दवा कम्पनियों को पर्याप्त मुनाफा नहीं होता इसलिए उन्हें कीमत ऊँची रखनी पड़ती है
सच्चाई :
– सरकारी आँकड़ों के मुताबिक भारत में दुनिया की सबसे अधिक 10,563 दवा कम्पनियाँ हैं। इस धन्धे में भारी मुनाफे के कारण ही ऐसा है।
– दवाओं की सरकारी ख़रीद जिस दाम पर होती है वह न्यूनतम खुदरा मूल्य (एमआरपी) से बहुत ही कम होती है। उदाहरण के लिए, तमिलनाडु सरकार पेट के कीड़ों की दवा अल्बेंडाज़ोल की एक टिकिया 35 पैसे में ख़रीदती है, जबकि इसका एमआरपी छह रुपये से 17 रुपये तक होता है। सरकारी ख़रीद के दाम पर भी कम्पनियों को अच्छा मुनाफा होता है। इससे अन्दाज़ा लगाया जा सकता है कि मार्केटिंग और बिचौलियों के कमीशन निकालकर भी कम्पनियाँ कितना अधिक मुनाफा कमाती हैं।
– फोर्ब्स इण्डिया की सूची में देश के चालीस सबसे अमीर लोगों में से दस दवा उद्योग से जुड़े हुए हैं। दवा कम्पनियाँ केमिस्टों को बोनस और डॉक्टरों को रिश्वत देने पर हर साल अरबों रुपये खर्च करती हैं।
तर्क 2. कम्पनियों के बीच बाज़ार में होड़ से दवाओं के दाम कम होते हैं
सच्चाई :
– सबसे पहले हम अलग-अलग ब्राण्ड नामों से बिकने वाली उन्हीं दवाओं के दामों में भारी अन्तर पर नज़र डालते हैं।
– अल्बेंडाज़ोल 400 एमजी – ग्लेनमार्क के ब्राण्ड मिलीबैण्ड की कीमत छह रुपये प्रति गोली है, जबकि ग्लेक्सोस्मिथक्लाइन की ब्राण्ड ज़ेण्टेल की एक गोली 17 रुपये की है, यानी तीन गुने का अन्तर।
– ब्लडप्रेशर और सीने में दर्द की दवा एम्लोडिपाइन के दो ब्राण्ड एम्लोडैक और एम्लोगार्ड के दस गोलियों के पत्ते की कीमत क्रमश: रु 21 और रु. 77 है यानी साढ़े तीन गुना से ज्यादा का अन्तर।
हृदयरोगियों को दी जाने वाली क्लोपीडोग्रेल की ब्राण्ड नोक्लोट (कैडिला) की कीमत दस गोलियों के लिए रु. 78 है जबकि सनोफी कम्पनी की इसी दवा के ब्राण्ड क्लैविक्स के एक पत्ते की कीमत 1020 रुपये है यानी लगभग 13 गुना का अन्तर।
मानसिक रोगों की एक प्रचलित दवा रिस्पैरिडॉन के दामों में भी ज़बर्दस्त अन्तर है। टोरेण्ट के ब्राण्ड रिस्पीडॉन की कीमत रु. 17 से कम है जबकि जॉनसन एण्ड जॉनसन के ब्राण्ड रिस्पर्डाल की कीमत 270 रुपये है यानी 16 गुना का अन्तर।
ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं। सवाल यह है कि बेवजह महँगी बिकने वाली दवाएँ ख़ुद ही बाज़ार से बाहर क्यों नहीं हो जातीं? हक़ीक़त तो यह है कि महँगी दवाओं का कारोबार सस्ती दवाओं से कई गुना ज्यादा है। क्या इन दवाओं को लिखने वाले डॉक्टर मरीज़ों पर पड़ने वाले बोझ से नावाकिफ हैं? दरअसल, इसका कारण यह है कि दवा कम्पनियाँ इन दवाओं के ”विशेष गुणों” के बारे में डॉक्टरों को राज़ी करने के लिए भारी रकम खर्च करती हैं। डॉक्टरों को विदेश यात्राएँ कराने और महंगे उपहार देने से लेकर सीधे-सीधे नकद पैसे तक दिये जाते हैं। आख़िरकार यह सारी रकम मरीज़ों से ही वसूली जाती है क्योंकि इसका ख़र्च भी दवाओं की कीमत में जुड़ जाता है।
तर्क 3. अगर दवाओं पर मूल्य नियन्त्रण होगा तो नयी दवाओं के शोध के लिए कम्पनियों के पास पैसे नहीं होंगे
सच्चाई :
– कम्पनियाँ ग़रीब मरीज़ों से उन दवाओं की भी भारी कीमत वसूलती हैं जिन पर उन्होंने कोई भी मौलिक शोध नहीं किया है। इसके अलावा, हालाँकि मौलिक शोध के दावे किये जाते हैं लेकिन ज्यादातर दवा कम्पनियों की बैलेंस शीट में अनुसन्धान पर खर्च के बजाय भारी रकम मुनाफे और बैंक बैलेंस के रूप में दिखायी देती है।
– दूसरे, पिछले चार दशकों में भारत की दवा कम्पनियों ने एक भी ऐसी नयी दवा विकसित नहीं की है जो सफलतापूर्वक अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर बेची जा रही हो।
तर्क 4. भारत में दवाओं के दाम दुनिया में सबसे कम हैं
सच्चाई :
– यह दावा सरासर ग़लत है क्योंकि ज्यादातर आयात की गयी दवाइयाँ बहुत ऊँचे दामों पर बिकती हैं। दूसरे, भारत में वेतन आदि का खर्च विदेशों के मुकाबले काफी कम होता है। इसके अलावा, चूँकि दवा कम्पनियाँ केवल जनवरी 2005 के बाद पेटेण्ट की गयी दवाओं पर ही विदेशी कम्पनियों को रॉयल्टी चुकाती हैं, इसलिए अन्य दवाओं के दाम बहुत कम होने चाहिए।
स्रोत: डॉ. चन्द्र एम. गुलहाटी, सम्पादक, मन्थली इण्डेक्स ऑफ मेडिकल स्पेशियैलिटीज़ (MIMS)
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मज़दूर बिगुल, जुलाई 2012
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