हमारी बस्तियाँ इंसानों के रहने लायक नहीं
दिव्या, राजीव गाँधी कालोनी, लुधियाना
आज इस ”आज़ाद और महान” भारत देश की एक कड़वी सच्चाई है कि ग़रीबों और मेहनतकशों की बस्तियाँ-कालोनियाँ इंसानों के रहने लायक़ नहीं हैं। ऐसी ही एक कालोनी हमारी भी है जो लुधियाना के ढण्डारी रेलवे स्टेशन की एक पुरानी, बन्द हो चुकी लाइन के किनारे गन्दे नाले पर बसी हुई है और चारों ओर से कारख़ानों से घिरी हुई है।
कालोनी को बसे हुए लगभग 35 वर्ष हो चुके हैं। लोगों के आधार कार्ड, राशन कार्ड आदि भी बने हुए हैं। वे बिजली आदि के बिल भरते हैं। लेकिन एक रिहायशी इलाक़े की बुनियादी सुविधाएँ यहाँ नदारद हैं। चारों तरफ़ गन्दगी ही गन्दगी है, बदबू ही बदबू है। गलियों में कूड़ा-कचरा है, मक्खी-मच्छरों का राज है। सीवेज व्यवस्था बस नाम की ही है। नालियाँ भी नहीं बनी हुई हैं। गलियों में, बेहड़ों में, यहाँ तक कि हमारे कमरों में भी आसपास के कारख़ानों से निकलने वाली काली राख छायी रहती है। कालोनी वासियों ने इसी राख से गन्दे नाले को भरा था, और ऊबड़-खाबड़ गलियों को समतल करने के लिए भी इसे ही बिछाया जाता है।
जब प्रशासन ने कुछ नहीं किया तो कुछ वर्ष पहले लोगों ने आपस में पैसे इकट्ठे करके सीवेज पाइप डलवाया जो हमेशा जाम रहता है। घरों के बाहर खोदे गये गङ्ढों जिन्हें इस पाइप के साथ जोड़ा गया था, में से गन्दगी हर सप्ताह निकालनी पड़ती है। कोई उचित व्यवस्था न होने के कारण गन्दगी लोगों को गलियों में ही बहानी पड़ती है। कूड़ा-कचरा उठाने की कोई व्यवस्था भी प्रशासन की ओर से नहीं है। ऐसे में ऊबड़-खाबड़, कूड़े-कीचड़ भरी गलियों से लोगों का गुज़रना तो मुश्कि़ल है ही बल्कि इस गन्दगी भरे, बदबूदार वातावरण में कालोनी के लोग कैसी-कैसी बीमारियाँ ढो रहे हैं इसका अन्दाजा भी नहीं लगाया जा सकता। हर वर्ष हैज़ा, डेंगू जैसी बीमारियाँ फैलती हैं। कितने ही इन बीमारियों से मर जाते हैं। लोगों की कितनी ही दिहाड़ियाँ टूटती हैं और परेशानियाँ झेलनी पड़ती हैं लेकिन सरकार या प्रशासन को कोई फ़िक़्र नहीं है।
पूरी कालोनी में प्रशासन की ओर से रात के समय रोशनी की कोई व्यवस्था नहीं की गयी है। हाँ, कालोनी के ऊपर से हाई वोल्टेज के मोटे तार गुज़रते हैं जिनसे कभी भी दुर्घटना होने का डर बना रहता है। ये तार इतने नीचे हैं कि कई जगह हमारे एकमंज़िला कमरों को भी छूते हैं। पिछले दिनों छत पर सोये हुए दो मज़दूर अँधेरे की वजह से इन तारों के नज़दीक़ आ गये और दूर तक उछाल दिये गये।
पानी कब आयेगा, कब जायेगा, आयेगा भी या नहीं कोई पता नहीं। बिजली का भी यही हाल है। कभी वोल्टेज ज़्यादा आता है तो कभी कम। आये दिन हमारे बल्ब और पंखे फुँकते रहते हैं। कई-कई दिनों तक बिजली और पानी नहीं आता। सुबह-शाम कहीं कुछ टोंटियों में पानी आता है – वहाँ लम्बी लाइनें लगी रहती हैं। पैदल और साइकिलों पर पानी ढोते हुए लोगों का रेला कालोनी में लगा रहता है। मज़दूर प्यासे मरें, उनके काम हों या न हों – प्रशासन को इससे कोई वास्ता नहीं। कालोनी में गन्दे पानी की सप्लाई आम बात है। गन्दा पानी पीकर लोग बीमार रहते हैं, पेट खराब रहते हैं। और ऊपर से बिना छुट्टी लिये 10-12 घण्टे कारख़ानों में काम करना पड़ता है।
कालोनी का हरेक निवासी बीमारियों से परेशान है। पास में कोई सरकारी अस्पताल न होने की वजह से निजी डॉक्टरों के पास जाकर जेबें खाली करनी पड़ती हैं। देश का संविधान अगर कहता है कि लोगों की मूलभूत ज़रूरतों को पूरा करना सरकार और प्रशासन की ज़िम्मेदारी है तो हम पूछते हैं कि जो सरकार और प्रशासन इन ज़िम्मेदारियों को नहीं निभाता उन्हें सज़ा क्यों नहीं दी जाती?
सरकार और प्रशासन अमीरों के लिए हर सुख-सुविधा, ऐशो-आराम की व्यवस्था कर सकता है तो हम ग़रीबों की बुनियादी ज़रूरतें भी पूरी क्यों नहीं करता? हमारी मेहनत की कमाई से ही सरकार का ख़ज़ाना भरता है। हम लोग बाज़ार से ख़रीदी हर चीज़ पर सरकार को टैक्स देते हैं। अमीर लोग भी सरकार को जो टैक्स देते हैं वो पैसा भी हमारी मेहनत की लूट से ही जाता है।
मज़दूर बिगुल, जून 2012
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