सत्ता की बर्बरता की तस्वीर पेश करती हैं हिरासत में होने वाली मौतें

डॉ. अमृत

कुछ दिन पहले लुधियाना के एक कारख़ाने में चोरी हुई और मालिक ने इसकी रिपोर्ट पास के एक थाने में दर्ज करवायी। पुलिस ”जाँच-पड़ताल” के लिए उस कारख़ाने के तीन मज़दूरों को थाने ले गयी जहाँ उन्हें बुरी तरह पीटा गया। दूसरे मज़दूरों को इसका पता चला तो उन्होंने चार कारख़ानों में कामकाज ठप्प कर दिया। इसके बाद मज़दूरों की रिहाई हुई और मालिक ने जख्मी मज़दूरों के इलाज़ का ख़र्च उठाया। बाद में यह सामने आया कि मालिक ने अपने किसी झगड़े के कारण यह सब किया था। यह मामला पूरे भारत में पुलिस के काम करने के ढंग और भारतीय तन्त्र में साधारण आदमी पर होने वाले शारीरिक और मानसिक दमन की एक झलक पेश करता है। देश में रोज़ पता नहीं कितनी ही, और इससे भी ज्यादा बर्बर घटनाएँ होती हैं। एशियाई मानवाधिकर केन्द्र (एशियन सेंटर फ़ॉर ह्यूमन राइट्स) की रिपोर्ट ‘भारत में टॉर्चर-2011’ ने एक बार फिर भारत में हिरासत के दौरान होने वाले अमानवीय ज़ुल्मों को बेपर्दा किया है। हालाँकि, ख़ुद रिपोर्ट के ही मुताबिक़ जारी किये गये आँकड़े पूरी तस्वीर का एक छोटा हिस्सा हैं और इसमें उन क्षेत्रों के आँकड़े शामिल नहीं हैं जहाँ सशस्त्र बल विशेष सुरक्षा क़ानून (आफ्स्पा) लागू है क्योंकि इन क्षेत्रों में हिरासती मौतों की पड़ताल करने का अधिकार मानवाधिकार आयोग को नहीं है। इसके बावजूद यह रिपोर्ट किसी भी संवेदनशील नागरिक के रोंगटे खड़े करने के लिए काफ़ी है।

इस रिपोर्ट के मुताबिक़ 2001-2010 के बीच दस वर्षों में भारत में हिरासत में 14,231 मौतें हुई यानि प्रति दिन चार से भी अधिक मौतें। यह संख्या नक्सली गतिविधियों या आतंकवादी हमलों में हुई मौतों से भी अधिक है। इसमें से 1504 मौतें पुलिस हिरासत में हुईं और 12,727 मौतें न्यायिक हिरासत के दौरान हुई। पुलिस हिरासत में होने वाली मौतों में से 99.99 प्रतिशत मौतें उस व्यक्ति को हिरासत में लिए जाने के 48 घण्टों के भीतर हुई हैं। यह संख्या सिर्फ़ मानवाधिकार आयोग के पास दर्ज केसों की है, इसलिए असल संख्या काफ़ी अधिक हो सकती है क्योंकि बहुत से मामले तो आयोग के पास पहुँचते ही नहीं हैं। ऐसे केस जिनमें यातना के दौरान मौत नहीं होती, वे तो लगभग पूरी तरह मानवाधिकार आयोग के दायरे से बाहर ही रहते हैं, जिनकी संख्या और भी बड़ी है। फिर भी, पिछले तीन वर्षों के दौरान मानवाधिकार आयोग ने 2,044 ऐसे मामलों के बारे में भी आँकड़े इकट्ठे किए हैं जिनमें से 574 मामले 2008-09 में, 615 मामले 2009-10 में, 855 मामले 2010-11 में सामने आये। इस तरह यह संख्या हर वर्ष बढ़ती रही है। मौत न होने वाले मामलों में अक्सर यातना का शिकार व्यक्ति लम्बे समय के लिए या कई बार तो उम्र भर के लिए शारीरिक तौर पर बेकार हो जाता है या फिर मानसिक सन्तुलन खो बैठता है जिसकी वजह से वह सामान्य ज़िन्दगी जीने के क़ाबिल नहीं रहता।

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अगर इस आँकड़े को प्रान्तों के अनुसार बाँट लिया जाये तो पुलिस हिरासत में होने वाली मौतों की संख्या सबसे अधिक महाराष्ट्र में हैं जहाँ 2001-2010 के दौरान 250 व्यक्ति पुलिस हिरासत में मरे, जबकि उत्तर प्रदेश में यह आँकड़ा 174 रहा। न्यायिक हिरासत में मौतों की संख्या उत्तर प्रदेश में पहले नम्बर पर है, वहाँ इसी अर्से के दौरान न्यायिक हिरासत में होने वाली मौतों की संख्या 2171 रही। पंजाब के आँकड़े और भी हैरान करने वाले हैं। पंजाब में इस अर्से के दौरान पुलिस हिरासत में 57 और न्यायिक हिरासत में 739 मौतें हुई हैं। देखने में यह संख्या दूसरे प्रान्तों के मुकाबले कम है लेकिन पंजाब की आबादी भी और राज्यों से कम हैं और यहाँ शान्ति व्यवस्था सम्बन्धी कोई गड़बड़ी नहीं है। ऐसे में समझा जा सकता है कि यहाँ के हालात उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र से भी बुरे हैं।

हिरासत के दौरान स्त्रियों की स्थिति और भी बुरी होती है और उन्हें बर्बर अत्याचार का सामना करना पड़ता है। हिरासत के दौरान बलात्कार, छेड़छाड़, कपड़े उतारने आदि जैसे घिनौने काम आम बात है। 2001-2010 के बीच हिरासत में बलात्कार के 39 मामले मानवाधिकार आयोग के पास आये, ज़ाहिर है कि असल संख्या इससे बहुत अधिक है। इस दरिन्दगी का शिकार होने वालों में 14 वर्ष की नाबालिग लड़कियाँ तक शामिल हैं। हिरासत के दौरान मौतों और यातना के दायरे में ग्यारह-बारह वर्ष के बच्चे भी हैं। मार्च, 2010 में केन्द्र सरकार ने ख़ुद माना कि 2006 से लेकर फ़रवरी, 2010 के बीच विभिन्न बाल सुधारघरों में 592 बच्चों की मौत हुई। इसके अलावा बाल सुधारघरों में बच्चों के साथ मारपीट और यौन अपराधों के बहुत सारे मामले समय-समय पर सामने आते रहते हैं। हिरासत के दौरान मौतें, बलात्कार और बच्चों पर ज़ुल्म के बहुत सारे मामलों के बारे में एशियन सेंटर की रिपोर्ट में पढ़ा जा सकता है जो इण्टरनेट पर उपलब्ध है।

custodial Rape

हिरासती मौतों पर परदा डालने के लिए पुलिस और अन्य सरकारी एजेंसियाँ हर तरह के हथकण्डे अपनाती हैं। मानवाधिकार आयोग के मुताबिक़ हिरासत में यातना के कारण हुई मौत को ख़ुदकुशी या पहले से मौजूद बीमारी की वजह से हुई मौत बताया जाना साधारण बात है और इसलिए पुलिस अजीबोग़रीब और हास्यास्पद कहानियाँ गढ़ती है। फाँसी लगाकर ख़ुदकुशी साबित करने के लिए पुलिस तरह-तरह की कहानियाँ गढ़ती है पुलिस के हिसाब से क़ैदी कभी जूते के फीते से तो कभी रजाई-चादर, जीन पैंट आदि से फाँसी लगा लेते हैं। यह भी समझ नहीं आता कि पुलिस हिरासत में बन्द व्यक्ति के पास ख़ुदकुशी करने के लिए ज़हर, बिजली के तार आदि चीजें कहाँ से आ जाती हैं? इसके अलावा हिरासत में लिये जाने से पहले दिमाग़ी तौर पर पूरी तरह ठीक-ठाक लोग 48 घण्टों के अन्दर ही ख़ुदकुशी क्यों कर लेते हैं? इन प्रश्नों का किसी के पास जवाब नहीं होता। ख़ुदकुशी करने के अलावा बहुत सारे व्यक्ति ”बीमारियों” के कारण भी मर जाते हैं। यहाँ तक कि हिरासत से पहले बिल्कुल ठीक-ठाक व्यक्ति 48 घण्टों के भीतर किसी ऐसी ”बीमारी” का शिकार हो जाते हैं जिसकी वजह से उनकी मौत हो जाती है। इन मामलों में अक्सर पुलिस डॉक्टरों और अन्य व्यक्तियों की मदद से झूठी रिपोर्टें बनाकर बच निकलती है। जहाँ कहीं हिरासत में लिये गये व्यक्ति को वास्तव में कोई बीमारी हो, वहाँ ऐसे व्यक्ति को मेडिकल सुविधा दिलाने में लापरवाही की जाती है या जानबूझकर देर की जाती है। इसके अलावा, मारे गये व्यक्ति के वारिसों को मामला दबाने के लिए धमकाना, वारिसों पर झूठे केस डालने और परिवार की स्त्रियों से दुर्व्‍यवहार और बलात्कार की घटनाएँ भी होती हैं।

हिरासती मौतों में मरने वाले अधिकतर व्यक्ति किसी छोटे-मोटे मामले में हिरासत में लिये जाते हैं। भारत में शक़ के आधार पर लोगों या अपराधियों से जानकारियाँ हासिल करने या गुनाह क़बूल करवाने के लिए यातना देना मौटे तौर पर एकमात्र तरीक़ा है। वैज्ञानिक ढंग से घटनाओं की जाँच करना और विश्लेषण करने का ढंग भारत में लगभग गैरहाज़िर है। लेकिन हिरासत में लेकर यातना देने की सिर्फ़ यही वजह नहीं है, और भी कई कारण हैं। जनान्दोलनों, जैसे किसानों के संघर्ष, मज़दूरों की हड़तालों के नेताओं, पुलिस दमन या सरकारी ज़ुल्म का विरोध करने वाले लोगों को हिरासत में लेकर यातना देना तो भारत के हरेक प्रान्त में आम बात है। ऐसे मामलों में अक्सर झूठे केस दर्ज करके लोगों को हिरासत में लिया जाता है और फिर उन्हें सबक़ सिखाने और बाक़ी लोगों को आतंकित करने के लिए अमानवीय ज़ुल्म किये जाते हैं। बहुत सारे मामले ऐसे भी हैं जहाँ मोटी रिश्वत वसूल करने के लिए ऐसा किया जाता है या फिर रिश्वत देने से इनकार करने पर सम्बन्धित व्यक्ति को यातना का शिकार बनाया जाता है। अक्सर ऐसा करने के दौरान पीड़ित व्यक्ति जानलेवा चोटों का शिकार हो जाता है। अक्सर ऐसा भी होता है कि कोई व्यक्ति पुलिस के किसी अधिकारी या एक साधारण सिपाही के साथ बहस में उलझ जाता है और इसकी क़ीमत उसे अमानवीय ज़ुल्म सहकर या यहाँ तक कि मर कर अदा करनी पड़ती है। पुलिस के किसी वाहन को स्कूटर-कार से खरोंच भी किसी व्यक्ति को बुरी तरह पीटने-मारने के लिए काफ़ी होती है। एक मामला तो ऐसा भी सामने आया जिसमें शिकार व्यक्ति का दोष सिर्फ इतना था कि उसने पुलिस के दो सिपाहियों से एक अन्य व्यक्ति को पीटने और घसीटकर ले जाने का कारण पूछ लिया था।

भारत में आज भी पुलिसिया ढाँचा अंग्रेज़ों के ज़माने की तरह काम करता है और जनता के बुनियादी जनवादी अधिकारों का कोई मतलब नहीं है। जनता द्वारा चुनी हुई तथाकथित लोकतांत्रिक सरकार भी कोई कम नहीं है। भारत सरकार अभी भी यातना को न सिर्फ जंग के दौरान बल्कि साधारण हालात में भी, मानवता के ख़िलाफ़ अपराध नहीं मानती। हालाँकि बहुत से पश्चिमी देश कम से कम कागज़ों पर तो ऐसा मानते हैं। भारत सरकार ने बरसों से लटके हुए यातना विरोधी क़ानून को पारित नहीं किया है। आख़िर सरकार को ऐसा करने की ज़रूरत भी क्या है? इस शोषक व्यवस्था के हितों के लिए तो ऐसा ही ढाँचा चाहिए। भारतीय समाज में अमीरी-ग़रीबी की खाई जैसे-जैसे गहरी होती जा रही है और बेरोज़गारी, महँगाई, भुखमरी बढ़ रही है वैसे-वैसे ग़रीबों का दमन-उत्पीड़न भी बढ़ता जा रहा है। दूसरी ओर, भारतीय समाज में गहरे जड़ जमाये गैर-जनवादी मूल्य-मान्यताएँ मसले को और भी गम्भीर बना देती हैं क्योंकि बहुत-से लोग पुलिसिया यातना के तौर-तरीक़ों को ग़लत नहीं मानते या फिर चुपचाप सह लेते हैं। हालाँकि पुलिसिया दमन के ख़िलाफ़ समय-समय पर देश के विभिन्न हिस्सों में जनता के ग़ुस्से का लावा फूटता भी रहता है और मानवीय अधिकारों और नागरिक आज़ादी के लिए लड़ने वाले विभिन्न संगठन भी इसके ख़िलाफ़ संघर्ष करते रहते हैं लेकिन अभी तक इसके ख़िलाफ़ कोई व्यापक जनविरोध संगठित नहीं हो पाया है।

 

मज़दूर बिगुलअप्रैल 2012

 


 

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