ये तो निर्माण मज़दूरों के भीतर सुलगते ग़ुस्से की एक बानगी भर है
गुड़गाँव संवाददाता
पिछली 23 मार्च को सेक्टर 58, गुड़गाँव में आरियो ग्रांड आर्च प्रोजेक्ट की एक निर्माणाधीन इमारत में काम के दौरान सातवीं मंज़िल से गिरकर एक मज़दूर बाबुल हसन की मौत हो गयी। बागपत, उत्तर प्रदेश का रहने रहने वाला यह 25 वर्षीय मज़दूर एक कम्पनी की तरफ़ से ठेके पर काम कर रहा था। इमारत को बनाने का ठेका एल एंड टी और एलूफ़िट नामकी कम्पनियों के पास है। इस विशाल इमारत के निर्माण में 3,500 मज़दूर ठेके पर लगे हैं। मज़दूरों के अनुसार ख़तरनाक काम के लिए मज़दूरों की सुरक्षा का कोई इन्तजाम इन ठेका कम्पनियों द्वारा नहीं किया जाता है। इस हादसे के पीछे भी यही कारण था। ऐसे हादसों का एक बड़ा कारण यह भी होता है कि मज़दूरों से लगातार 12 से 14 घण्टों तक हफ्ते के सातों दिन जानवरों की तरह काम कराया जाता है। कमरतोड़ मेहनत और पर्याप्त आराम न मिलने से कभी-कभी मज़दूरों से असावधानी हो जाती है और सुरक्षा इन्तज़ाम न होने का नतीजा यह होता है कि मज़दूर गम्भीर दुर्घटनाओं के शिकार हो जाते हैं।
मज़दूरों का कहना था कि अगर बाबुल को समय पर अस्पताल पहुँचा दिया जाता तो उसकी जान बच सकती थी। इसके बजाय कम्पनी मैनेजमेण्ट ने गिरने के बाद बाबुल को चुपचाप पुलिस की गाड़ी में बाहर ले जाने की कोशिश की ताकि इस दुर्घटना को दूसरे मज़दूरों से छुपाया जा सके। जैसे ही यह ख़बर वहाँ काम करने वाले मज़दूरों तक पहुँची उन्होंने पुलिस की गाड़ी को रोकने की कोशिश की जिससे मज़दूरों और कम्पनी के सिक्योरिटी गार्डों के बीच झड़प हो गयी। अपने साथी की मौत और कम्पनी एवं पुलिस द्वारा दुर्घटना को छुपाने के प्रयास ने मज़दूरों के ग़ुस्से को भड़का दिया। इसके बाद पुलिस ने ज़ोर-ज़बरदस्ती की तो फिर इसके जवाब में कुछ मज़दूरों ने अपना ग़ुस्सा पुलिस की जीप और कम्पनी कार्यालय में आग लगाकर निकाला। इसके बाद पुलिस ने बेरहमी से मज़दूरों पर लाठियाँ चलायीं जिसमें अनेक मज़दूर घायल हो गये।
इस घटना के बाद ठेका कम्पनी के विरुद्ध कार्रवाई की माँग कर रहे मज़दूरों को हटाने के लिए प्रशासन ने वहाँ पर लगभग 50 पुलिसकर्मियों की तैनाती कर दी। पुलिस के ही एक अधिकारी के अनुसार इमारत परिसर के पास ही बनी झुग्गी में रहने वाले अनेक बेगुनाह मज़दूरों को पुलिस ने उनके कमरों से निकाल-निकाल कर मारा-पीटा और 23 मज़दूरों को तुरन्त गिरफ्तार कर लिया गया, जबकि कम्पनी के कहने पर 200 अन्य मज़दूरों के विरुद्ध एफ़.आई.आर दर्ज की गयी। लेकिन मज़दूर की मौत के लिए जिम्मेदार कम्पनी मैनेजमेण्ट के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं की गयी। कम्पनी का कहना है कि दुर्घटना मज़दूर द्वारा सुरक्षा बेल्ट न लगाने के कारण हुई थी। अगले दिन तक पुलिस ने पास की सारी झुग्गी को जबरन खाली करा दिया।
यदि मज़दूरों ने हंगामा न किया होता तो इस मज़दूर की मौत का पता भी किसी को नहीं चलता। इसके अगले ही दिन 24 मार्च को बादशाहपुर में एक अन्य निर्माणाधीन इमारत की छत से गिरने के कारण हुई एक अन्य मज़दूर की मौत की कोई ख़ास ख़बर मीडिया में नहीं आयी, और न ही इस घटना की कोई जाँच हुई। गुड़गाँव में हो रहे औद्योगिक विकास के साथ चारों तरफ बहुमंज़िला चमचमाती इमारतों का निर्माण ज़ोरों पर है जिसमें हज़ारों-हज़ार मज़दूर लगे हुए हैं। मगर कहीं भी कोई सुरक्षा इन्तज़ाम न होने का कारण आये दिन मज़दूर जानलेवा हादसों के शिकार होते रहते हैं, और ज़्यादातर मामलों में परिवार वालों को न तो इंसाफ़ मिलता है और न ही कम्पनी या ठेकेदार को कोई हरजाना देना पड़ता है। ऐसी दुर्घटनाओं में होने वाली मौत की घटनाओं को कम्पनियाँ अपने गुण्डों और प्रशासन के सहयोग से मरने वाले मज़दूर के परिवार को डरा-धमकाकर या थोड़ा-बहुत पैसा देकर छुपा देती हैं या फिर परिवार वाले सालों तक कम्पनी, सरकारी कार्यालयों और कोर्ट-कचहरी में न्याय के लिए चक्कर लगाते रह जाते हैं। निर्माण क्षेत्र में काम करने वाली बड़ी-बड़ी ठेकेदार कम्पनियाँ जैसे एल एन्ड टी, डी.एल.एफ़. आदि पूरे गुड़गाँव क्षेत्र में भारी संख्या में निर्माण के कामों में लगी हुई हैं। इनके लिए काम करने वाले निर्माण मज़दूरों का न तो कोई पहचान-पत्र बनता है और न ही कोई दूसरा प्रमाण उनके पास होता है जिसके आधार पर परिवार मुआवज़े की माँग को क़ानूनी दायरे में ला सके। ऐसे अनेक मज़दूर हैं जो काम पर हुई दुर्घटना के बाद अपंग हो जाने के कारण कहीं और काम नहीं कर सकते और उन्हें कोई मुआवज़ा भी नहीं मिलता। अक्सर शुरू-शुरू में कम्पनी थोड़ा-बहुत इलाज कराती भी है मगर उसके बाद मज़दूरों को उनके हाल पर छोड़ दिया जाता है। दुर्घटनाएँ होती रहती हैं और इन्हीं के बीच देश की तरक्क़ी दिखाने वाली आलीशान इमारतों का निर्माण लगातार चलता रहता है, जैसे मज़दूरों की जिन्दगी की कोई क़ीमत ही नहीं है।
गुड़गाँव में जिस तरह मज़दूरों का ग़ुस्सा फूटा वह सिर्फ़ एक दुर्घटना का नतीजा नहीं है बल्कि पूरे देश में उत्पादन और निर्माण के हर क्षेत्र का जिस प्रकार ठेकाकरण हो रहा है उससे एक-एक कर मज़दूरों के सभी अधिकार उनसे छीने जा रहे हैं, और मज़दूर खुलेआम ठेकेदारों और कम्पनियों के शोषण का शिकार बन रहे हैं। उस शोषण के विरुद्ध जमा हो रहे मज़दूरों का आक्रोश बीच-बीच में किसी घटना के बहाने सामने आ जाता है। लेकिन कोई संगठन या कोई दिशा न होने के कारण जल्दी ही ग़ुस्से का ज्वार थम जाता है और सबकुछ फिर से पहले की तरह चलने लगता है। मगर ऐसी घटनाएँ सतह के नीचे धधक रहे ज्वालामुखी की एक आहट भर हैं। आज भारत की कुल मज़दूर आबादी का 93 प्रतिशत हिस्सा असंगठित मज़दूर आबादी का है, जिनके लिए कोई श्रम क़ानून लागू नहीं होता। निर्माण उद्योग में काम करने वाले ठेका मज़दूरों की संख्या में तेज़ी से बढ़ोत्तरी हो रही है जो इस असंगठित मज़दूर आबादी का एक हिस्सा हैं। इन मज़दूरों की समस्याओं की सुनवाई न तो श्रम विभाग में होती है, न किसी अन्य सरकारी दफ्तर में। ठेकेदार इन मज़दूरों को दासों की तरह मनमर्ज़ी से जहाँ चाहे वहाँ स्थानान्तरित करते रहते हैं।
देश की बड़ी-बड़ी ट्रेड यूनियनें कुल मज़दूर आबादी के इस 93 प्रतिशत हिस्से की समस्याओं पर बस ज़ुबानी जमाख़र्च करती रहती हैं। ये ट्रेड यूनियनें कुछ सफ़ेदपोश मज़दूरों के बीच कुछ प्रतीकात्मक कार्रवाइयाँ करके पूरे मेहनतकश वर्ग को गुमराह करने के साथ पूँजीपति वर्ग की ही सेवा करती हैं। निर्माण क्षेत्र में ठेके पर काम करने वाले मज़दूरों को नये सिरे से संगठित करते हुए उन्हें अपने अधिकारों के बारे में शिक्षित करने के साथ ही दूरगामी संघर्ष के लिए तैयार करने की आवश्यकता है। उनकी रोज़मर्रा की मांगों के लिए संघर्ष करते हुए दूसरे उद्योगों के मज़दूरों के साथ एकता क़ायम करनी होगी और उनमें सर्वहारा चेतना विकसित करने के लिए राजनीतिक रूप से शिक्षित-प्रशिक्षित करना होगा। तभी बीच-बीच में फूट पड़ने वाले विस्फोटों से आगे बढ़कर इस अँधेरगर्दी के ख़िलाफ़ कारगर लड़ाई लड़ी जा सकती है।
मज़दूर बिगुल, अप्रैल 2012
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