सेनाध्यक्ष विवाद : क्रान्तिकारी मज़दूर वर्गीय नज़रिया
पिछले दिनों सेनाध्यक्ष जनरल वी.के. सिंह की चिट्ठी लीक होने के बाद से मीडिया में देशभक्ति की लहर आयी हुई है और मध्यवर्ग का एक बड़ा हिस्सा तो जैसे देशभक्ति में सर से पाँव तक लिथड़ा हुआ नज़र आ रहा है। सेनाध्यक्ष ने लिखा था कि भारतीय सेना में ज़्यादातर हथियार पुराने पड़ गये हैं और उसके पास गोला-बारूद की कमी हो गयी है। इसके बाद टीवी चैनलों और अख़बारों के ज़रिये ऐसा माहौल बनाने की कोशिश शुरू हो गयी कि देश को बड़े पैमाने पर हथियारों की ख़़रीद की ज़रूरत है। चिट्ठी किसने और कैसे लीक की, इसके पीछे किसका हाथ है आदि-आदि विवादों के साथ-साथ लगातार इस बात पर जनमत बनाने का काम जारी है कि सेना के बड़े पैमाने पर ”आधुनिकीकरण” करने की ज़रूरत है। इस पूरे प्रश्न का एक क्रान्तिकारी मज़दूर वर्गीय नज़रिये से विश्लेषण करने की ज़रूरत है।
चिट्ठी वास्तव में कहाँ से लीक हुई यह मुद्दा है ही नहीं। असली सवाल यह है कि सेना और सरकार के बीच यह अन्तरविरोध पैदा ही कैसे हुआ। पहली बात यह है कि पूँजीवादी व्यवस्था में जब भी संकट बढ़ता है तो पूँजीवाद के सिपहसालारों, पैरोकारों, राजकाज चलाने वालों की इच्छा से स्वतन्त्र कुछ अन्तरविरोध फूट पड़ते हैं और लाख दबाने पर भी सतह पर आ जाते हैं। यहाँ भी कुछ ऐसा ही हुआ है। व्यवस्था के भीतर की इस सच्चाई के सामने आ जाने का भी व्यवस्था के पक्ष में इस्तेमाल करने की कोशिश में पूँजीवाद के पैरोकार जुट गये हैं। इस समय मीडिया राष्ट्रवादी भावनाओं से ओत-प्रोत नज़र आ रहा है और इस बात की काफ़ी चिन्ता प्रकट की जा रही है कि चीन और पाकिस्तान से इस सेना के बूते हम कैसे निपट पायेंगे।
दूसरी बात यह कि जिस तरह बताया जा रहा है कि 97 प्रतिशत हथियार पुराने हो गये हैं, वह एक भारी अतिश्योक्ति है। जैसा कि एक रिटायर्ड अनुभवी जनरल ने टीवी पर कहा कि कोई भी युद्ध सौ प्रतिशत हथियारों से नहीं लड़ा जाता। किसी भी युद्ध में किसी भी देश की सैन्य शक्ति के दो-तीन प्रतिशत से अधिक का इस्तेमाल नहीं होता। हर सेना के पास बहुत बड़ी तादाद में पुराने हथियार मौजूद होते हैं, सभी कुछ हर समय अत्याधुनिक नहीं होता। उन्नततम देशों की सेनाएँ भी बड़े पैमाने पर पुराने नियमित हथियारों का प्रयोग करती हैं। हर समय जितने हथियारों का आधुनिकीकरण किया जाता है, वह कुल हथियारों का बहुत छोटा प्रतिशत ही होता है। इसलिए 97 प्रतिशत हथियार पुराने पड़ जाने का यह आँकड़ा जिस तरह से पेश किया जा रहा है वह दरअसल बड़े पैमाने पर हथियारों की नयी ख़रीद के पक्ष में माहौल बनाने की एक कोशिश है। जिस देश में दुनिया की एक चौथाई भूखी जनता रहती हो, जहाँ सरकारी आँकड़ों के मुताबिक़ ही एक तिहाई से ज़्यादा आबादी भयंकर ग़रीबी की शिकार हो, रोज़ नौ हज़ार बच्चे भूख और कुपोषण से मर जाते हों, आधी से अधिक आबादी को जीवन की बुनियादी सुविधाएँ भी न मिल पाती हों, वहाँ लाखों-करोड़ रुपये हथियारों पर ख़र्च करने के शासक वर्ग के आपराधिक कृत्य को सही ठहराने की यह भी एक कोशिश है।
भारत पहले ही दुनिया में हथियारों के सबसे बड़े ख़रीदारों में शामिल है। अभी ब्राज़ील, रूस, भारत, चीन, दक्षिण अफ्रीका का जो गँठजोड़ (ब्रिक्स) उभर रहा है उसमें हथियारों का सबसे बड़ा ख़रीदार भारत ही है। फिर भी चीन की सैन्य शक्ति के मुक़ाबले यह बहुत पीछे है और बहुत कोशिश करके भी उसकी बराबरी में नहीं आ सकता। यहाँ यह चर्चा करना भी महत्वपूर्ण है कि चीन अब साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाएँ पाल रहा है और क्षेत्रीय विस्तारवादी महत्वाकांक्षाओं में भारत से उसके टकराव की अभी बहुत कम सम्भावना है। पाकिस्तान के मुक़ाबले तो भारत की सैन्य शक्ति पहले ही कई गुना अधिक है। इसलिए यह समझा जा सकता है कि इन देशों से सम्भावित ख़तरे के कारण नहीं बल्कि अपनी क्षेत्रीय विस्तारवादी महत्वाकांक्षा के चलते ही भारतीय शासक वर्ग इतने बड़े पैमाने पर हथियारों का ज़खीरा इकट्ठा कर रहे हैं। अगल-बगल के छोटे देशों को डराने के लिए और दुनिया के पैमाने पर अपनी ताक़त दर्शाने के लिए यह सारी क़वायद की जा रही है। परमाणु शक्ति तो वह पहले ही हासिल कर चुका है। भारतीय शासक वर्ग जानते हैं कि साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्धा में वे अपने बूते पर नहीं टिक सकते। विश्वस्तर पर लूट में अपना हिस्सा बढ़ाने के लिए उन्हें किसी न किसी गुट में शामिल होना है और इसके लिए अपनी सामरिक शक्ति का मुज़ाहिरा करते रहना भी ज़रूरी है। इसके अलावा विराट सैन्य शक्ति का हव्वा दिखाना अपनी जनता के लिए भी ज़रूरी होता है। हर शोषक राज्यसत्ता अपने उन्नत, शक्तिशाली सैन्यतन्त्र का हव्वा खड़ा करने की कोशिश करती है जिससे कि आम जनता उससे टकराने की हिम्मत न जुटा सके।
फिर सवाल उठता है कि यदि सेना इतनी महत्वपूर्ण है तो यह कमज़ोरी बाहर कैसे आ गयी। यहाँ मुख्य बात व्यवस्था के आपसी अन्तरविरोधों की है। देशभक्ति के नाम पर अक्सर इसकी चर्चा नहीं होती मगर यह एक खुला रहस्य है कि सेना में ऊपर से नीचे तक ज़बर्दस्त भ्रष्टाचार व्याप्त है। सैनिकों की वर्दी और भोजन से लेकर ताबूतों की ख़रीद से लेकर हथियारों के सौदों तक में ज़बर्दस्त कमीशनख़ोरी होती है। हथियारों के सौदागरों की अन्तरराष्ट्रीय लॉबियाँ इतनी ताक़तवर हैं कि वे कई देशों की सरकारों को गिराने की क्षमता रखती हैं। भले ही हथियार देश की रक्षा के नाम पर ख़रीदे जाते हों मगर सच यह है कि हथियार आज दुनिया का सबसे बड़ा उद्योग है। हथियार बेचने के लिए युद्ध तक करवाये जाते हैं। हथियारों के एजेण्टों का एक विश्वव्यापी तन्त्र है जिनके बिना यह उद्योग चल ही नहीं सकता। अपनी-अपनी हथियार कम्पनियों की पैरोकारी करने में सरकारें भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेती हैं। हाल में भारत सरकार द्वारा फ्रांस से रफ़ाले लड़ाकू विमान खरीदने के लिए किये गए 76 हज़ार करोड़ रुपये के सौदे के बाद जिस तरह ब्रिटेन के प्रधनमन्त्री अपने देश की कम्पनी को ठेका न मिलने पर भड़क उठे थे वह इस बात का उदाहरण है। यह स्पष्ट है कि सेनाधयक्ष को लेकर चल रहा सारा विवाद हथियारों के सौदागरों, उनकी अलग-अलग लॉबियों और उनसे जुड़े नेताओं और अफ़सरों की प्रतिस्पर्धा का ही नतीजा है। संकटग्रस्त पूँजीवादी व्यवस्था और एक कमज़ोर सरकार की वजह से यह अन्तरविरोध फूट कर सतह पर आ गया है।
लेकिन इससे सत्ता का ज़्यादा नुक़सान नहीं होने वाला क्योंकि पढ़ी-लिखी आबादी जानती ही है कि सेना में किस कदर भ्रष्टाचार फैला हुआ है। मगर इससे सत्ता को फ़ायदा यह हुआ कि अब आने वाले कई वर्षों तक हथियारों की ख़रीद पर सवाल उठाने वालों को देशद्रोही ठहराया जा सकेगा। इस पूरे प्रकरण में, मीडिया, ख़ासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की भूमिका एक बार फिर नंगी हुई है जो बिना किसी आलोचनात्मक विवेक के अन्धराष्ट्रवाद का ढोल पीटने और देशभक्ति के नाम पर जनता की गाढ़ी कमाई से निचोड़ी गयी भारी रकमों को बड़े-बड़े रक्षा सौदों में ख़र्च करने का माहौल बनाने में जुट गया है। कहीं भी इस बात की चर्चा नहीं होती कि युद्ध और हथियारों के धन्धे की जड़ में पूँजीवाद ही है। दूसरे महायुद्ध के बाद से कोई महायुद्ध भले न हुआ हो लेकिन पूरी दुनिया में साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्धा के चलते हुए या फिर साम्राज्यवादियों द्वारा भड़काए गए सैकड़ों छोटे-बड़े युद्धों में कई करोड़ लोग मारे जा चुके हैं। दुनिया की समस्त वैज्ञानिक और तकनीकी क्षमता का सबसे बड़ा हिस्सा मौत के नये-नये सामान बनाने और विकसित करने में लगा हुआ है। जब तक पूँजीवाद और साम्राज्यवाद का अस्तित्व रहेगा तब तक हथियारों का धन्धा फलता-फूलता रहेगा। पूँजीवाद भ्रष्टाचार से मुक्त नहीं हो सकता और हथियारों का कारोबार दलाली और अपराध से मुक्त नहीं हो सकता। व्यवस्था के पैरोकारों की यह चिन्ता होती है कि जिन सौदों में सबकी भलाई हो उनकी असलियत उजागर न हो। हर बार ऐसे अन्तरविरोधों के प्रकट हो जाने के बाद नियन्त्रण और सन्तुलन के अलग-अलग इन्तज़ाम किये जाते हैं जिससे इन घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो। इस बार भी ऐसा करने की कोशिश की जा रही है। लेकिन न तो हथियार ख़रीदने की होड़ बन्द होने वाली है और ना ही हथियारों की ख़रीद में दलाली पर स्थायी रोक लग सकेगी।
मज़दूर बिगुल, अप्रैल 2012
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन