बोलते आँकड़े चीखती सच्चाइयाँ
• भूख और कुपोषण से दुनिया भर में रोज़ 24 हज़ार लोग मरते हैं। इनमें से एक तिहाई मौतें भारत में होती हैं। भूख से मरने वालों में 18 हज़ार बच्चे होते हैं, जिनमें से 6 हज़ार बच्चे भारत के होते हैं। (जनसत्ता, 7 जुलाई 2013)
• इस समय दुनिया में 80 करोड़ लोगों को दो वक़्त की रोटी नहीं मिलती। इनमें से 40 करोड़ भारत, पाकिस्तान और बंगलादेश में हैं। इन तीनों देशों के खाद्यान्न के भण्डार अन्न से भरे हैं।
• देश में हर साल जितना अनाज बरबाद होता है उससे दस करोड़ बच्चों को एक साल तक खाना ख़िलाया जा सकता है।
• सरकार हर साल 12-13 रुपये प्रति किलो के भाव गेहूँ ख़रीदती है जिसका भारी हिस्सा गोदामों पड़े-पड़े ख़राब हो जाता है। फिर उसे 5-6 रुपये या उससे भी कम पर शराब कम्पनियों को बेच दिया जाता है। मगर सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावज़ूद गोदामों में पड़ा अनाज भूखे लोगों तक पहुँचाने के लिए सरकार तैयार नहीं है।
• पिछले दस वर्षों में एक्सप्रेस वे, अत्याधुनिक हवाई अड्डे, होटल, अन्तरराष्ट्रीय स्तर के स्टेडियम, शॉपिंग कॉम्प्लेक्स आदि बनवाने पर सरकार ने सार्वजनिक धन से क़रीब 25 लाख करोड़ रुपये खर्च किये हैं। केवल एक वर्ष, 2011-12 के बजट में ही बड़े पूँजीपतियों को 5 लाख करोड़ रुपये की सब्सिडी दी गयी। इसके बहुत छोटे-से हिस्से से पूरे देश में अनाज के सुरक्षित भण्डारण का इन्तज़ाम किया जा सकता है।
• संयुक्त राष्ट्र संघ के खाघ व कृषि संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार हर तीन में से एक, भारतीय को अक्सर भूखे पेट सोना पड़ता है। इसका कारण खाद्यान्न की कमी नहीं बल्कि खाने-पीने की चीज़ों की बढ़ती महँगाई ओर लोगों की घटती वास्तविक आय है।
• संयुक्त राष्ट्र संघ की एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 1991 में (यानी नयी आर्थिक नीतियों की शुरुआत के समय) प्रति व्यक्ति औसत 580 ग्राम खाद्यान्न उपलब्ध था, जो 2007 तक घटकर 445 ग्राम रह गया। ध्यान देने की बात है कि इस दौरान समाज के समृद्ध तबके का खान-पान पर ख़र्च और बरबादी काफ़ी बढी है। यानी खाद्यान्न की औसत उपलब्धता में आयी कमी का का भारी हिस्सा ग़रीब के भोजन से कम हुआ है। इसी रिपोर्ट के अनुसार, उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों के दौर में ग़रीबों की प्रति व्यक्ति कैलोरी की खपत में भी काफ़ी कमी आयी है
• भारत में प्रोटीन के मुख्य स्रोत के रूप में औसतन एक आदमी को प्रतिदिन 50 ग्राम दाल मिलनी चाहिए। लेकिन भारत की नीचे की 30 प्रतिशत आबादी को औसतर 13 ग्राम ही दाल मिल पाती है। पिछले कुछ वर्षों में दालों की क़ीमत में दोग़ुने से भी अधिक की बढ़ोत्तरी ने इसे और भी कम कर दिया है। आज से 55 वर्ष पहले 5 व्यक्तियों का परिवार एक साल में औसतन जितना अनाज खाता था, आज उससे 200 किलो कम खाता है।
मज़दूर बिगुल, जुलाई 2013
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन