डॉ. अमृतपाल को चिट्ठी!
शमशुद्दीन, गुड़गाँव
मै शमशुद्दीन जिला भागलपुर ‘बिहार’ का रहने वाला हूँ। बड़ी हँसती-खेलती जिन्दगी थी मेरी, माँ, बाप, बीवी व तीन बच्चे! गाँव में खेती करके अपने परिवार का पेट पाल लेता था। फिर अचानक पिता को पेशाब होना बन्द हो गयी, आसपास के सारे झोलाछाप डाक्टरों को दिखाया। किसी ने कैथाराइटर डाला (पेशाबनली) किसी ने रामबाण जड़ी-बूटी दी, किसी ने कुछ कैप्सूल देकर कोक-पेप्सी पिलाई तो किसी झोलाछाप ने पानी मे बैठने की बात कही और नतीजा कुछ नहीं निकला और तीन दिन मे पिता जी का पेट फूलकर गुब्बारा हो गया। आखिर तीन दिन बाद अमरजेन्सी मे यहाँ से 30 कि.मी. दूर मायागंज सरकारी अस्पताल मे ले गये। वहाँ तुरन्त ही पेट चीरकर पेशाबनली डाली गयी। तब जाकर स्थित काबू मे आयी। डाक्टर ने बताया कि बुढापे की ये आम बीमारी है। अक्सर बीमारी मे प्रोस्टेट फूल जाता है और पेशाब रुक जाती है। उसके बाद अल्ट्रासाउण्ड कराने पर पता लगा कि पेशाब के रास्ते मे 9 मिमी की पथरी अटकी हुई है। डाक्टर ने अगली तरीख देकर घर भेज दिया और बताया कि लेजर से इनका आपरेशन होगा। तब से तारीख पर तारीख मिली और छ: महीने बाद नम्बर आया। इन छ: महीनों मे 3रू, 5रू सैकड़े के हिसाब से करीब एक लाख रू के कर्ज का पहाड़ मेरे ऊपर लद गया। क्योंकि छ: महीने लगातार महँगी दवाई चलती रही और पेट मे नली पड़ी रही। इसके बाद मुझे मजबूरी मे अपना गाँव, शहर छोड़कर कमाने निकलना पड़ा। मुझे सिलाई करना आता था इसलिए एक्सपोर्ट लाइन मे मुझे सिलाई कारीगर की नौकरी मिल गई, गुड़गाँव (हरियाणा) मे। मुझे भी अपना कर्ज पटाना था और मालिक के पास भी बहुत काम था। इसलिए रात के एक-एक बजे तक मै काम करता था। एक दिन मेरी कुछ तबीयत सही नहीं थी। इसलिए मै शाम 5:30 बजे ही छुट्टी कर लिया, तो हीरो होण्डा चौक पर कुछ लोग मज़दूर बिगुल अखबार बेच रहे थे। वहाँ मैने भी अखबार लिया और वो लोग फोन न., पता भी माँग रहे थे। मैने अपना पता, फोन न. भी दिया। तब से मुझे मज़दूर बिगुल के छः-सात अंक प्राप्त हो चुके हैं। और मुझे ये बिगुल अखबार पढ़ना बहुत अच्छा लगता है। ये अखबार हम मज़दूरों के लिए ढेर सारी जानकारियों का केन्द्र है। अखबार के कार्यकर्ता साथियों ने कहा कि आप भी अखबार के लिए कुछ लिखिए। इसलिए मै डॉ. अमृतपाल जी को एक चिट्ठी के रूप मे लिख रहा हूँ। डॉ. अमृतपाल जी मज़दूर बिगुल अखबार मे मुझे आपके लेख बहुत अच्छे लगते हैं। क्योंकि ये लेख जीवन की सच्चाई होती है। अप्रैल-मई-2013 के अंक मे आपने लिखा -मज़दूरों की सेहत से खिलवाड़-आखिर कौन जिम्मेदार, कि किस तरह रामप्रकाश की हल्की बीमारी को झेालाछाप डाक्टरों ने टी.बी. की बीमारी मे बदल दिया। मै भी अगर इन झोलाछापों के चक्कर मे पड़ा रहता तो शायद मेरे पिता अल्लाह को प्यारे हो जाते।
आपने सितम्बर 2013 के अंक मे लिखा ‘रैनबैक्सी मामला कम गुणवत्ता वाली और नकली दवाओं के कारोबार की एक छोटी-सी झलक है।’ कि किस तरह नकली दवाओं का कारोबार फल फूल रहा है, और कैसे मुनाफ़ा बढ़ाने के चक्कर मे इन्सानों की बलि चढ़ाती हैं, ये दवा कम्पनियाँ। इनके मुनाफे के आगे आम गरीबों मज़दूरों की कोई कीमत नहीं है।
आपने बिगुल के अक्टूबर 2013 के अंक मे लिखा है ‘डेंगू-लोग बेहाल, डाक्टर मालामाल और सरकार तमाशाई।’ इस लेख मे आपने बड़े विस्तार से ‘डेंगू’ की चीरफाड़ करते हुए लिखा है कि ‘‘सैल कम’’ होने का मतलब क्या होता है। और इसके लिए क्या करना होता है?कि कब-कब कम होते है ‘‘सैल’’? ‘डेंगू’ के लक्षण क्या हैं? ऐसे बुखारों का इलाज कैसे हो? ग्लूकोज कब लगाया जाता है? और सरकारें क्या कर रहीं हैं।?
इन लेखों से मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला और मै तो ये मानता हूँ। कि हमारे जितने मज़दूर भाई हैं। उन सब के लिए ये मज़दूर बिगुल अखबार बहुत जरूरी है। मै तो अपने और दोस्तों को भी यह अखबार पढ़वाता हूँ।
मज़दूर बिगुल, नवम्बर 2013
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