मेहनतकश साथियो! साम्प्रदायिक ताक़तों के ख़तरनाक इरादों को नाकाम करने के लिए फ़ौलादी एकता क़ायम करो!
मुज़फ़्फ़रनगर से शुरू होकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कई ज़िलों में फैले दंगों में 50 से ज़्यादा बेगुनाह लोग बेरहमी से क़त्ल कर दिये गये हैं, बहुत से अब भी लापता हैं और 40 हज़ार से ज्यादा लोग अपने गाँवों से उजड़कर कैम्पों में रहने को मजबूर हैं। साम्प्रदायिक ताक़तें अब भी लगातार अफ़वाहों और ज़हरीले प्रचार के ज़रिये तनाव और नफ़रत बढ़ाने में लगी हुई हैं। तमाम रिपोर्टों में अब यह बात सामने आ चुकी है कि साम्प्रदायिक फ़ासीवादियों ने नकली वीडियो दिखाकर और अफ़वाहें फैलाकर योजनाबद्ध ढंग से दंगों की शुरुआत की। इस साज़िश में वे लम्बे समय से लगे हुए थे। केन्द्र और राज्य सरकारें दंगों को रोकने में नाकाम रहीं! वास्तव में, सरकार का मकसद दंगाइयों को रोकना था ही नहीं! अब यह भी साफ हो चुका है कि यह कोई दंगा नहीं था बल्कि गुजरात की तर्ज़ पर संगठित ढंग से अल्पसंख्यकों का क़त्लेआम किया गया। औरतों को वहशी तरीक़े से मारा गया और कइयों के साथ बलात्कार करने की भी ख़बरें आयी हैं। मरने वालों की संख्या भी 50 से कहीं ज़्यादा हो सकती है।
मुज़फ़्फ़रनगर की हिंसा ने यह भी संकेत दे दिया है कि शहरी आबादी को पूरी तरह ध्रुवीकृत कर देने के बाद साम्प्रदायिक संगठनों ने अपना ध्यान ग्रामीण क्षेत्रों पर केन्द्रित किया है। अगर वे अपनी कोशिश में कामयाब हो गये तो यह बेहद ख़तरनाक होगा।
इन दंगों के पीछे संघ परिवार के संगठनों की भूमिका बिल्कुल साफ है। उनका सीधा खेल है कि जितने हिन्दू मरेंगे, उतना ही हिन्दू डरेंगे और जितना ही वे डरेंगे उतना ही वह भाजपा के पक्ष में लामबन्द होंगे। दूसरी ओर उत्तर प्रदेश की सपा सरकार का गणित है कि मुसलमानों के अन्दर जितना डर पैदा होगा उतना ही वह समाजवादी पार्टी की ओर झुकेंगे। गुजरात में नरेन्द्र मोदी ने यही मॉडल और फार्मूला अपनाया था, और अब उत्तर प्रदेश में यही किया जा रहा है। गुजरात में नरसंहार के एक प्रमुख आयोजक और मोदी के दाहिने हाथ अमित शाह को इसी लिए उत्तर प्रदेश की कमान सौंपी गयी है। पिछले दिनों विहिप नेताओं के साथ मुलायम सिंह यादव की मुलाकातों और चौरासी कोसी परिक्रमा के मामले में दोनों की नूरांकुश्ती को भी इससे जोड़कर देखा जाना चाहिए।
चुनाव करीब आने के साथ ही देश भर में दंगों की राजनीति शुरू हो चुकी है। किसी भी पार्टी के पास कोई वास्तविक मुद्दा नहीं है, ऐसे में दंगों की आग पर रोटी सेंकने में वे पीछे क्यों रहेंगे? पिछले साल उत्तर प्रदेश में नौ दंगे हुए – कोसीकलां, प्रतापगढ़, सीतापुर, बरेली व बिजनौर में और फ़ैज़ाबाद व गाज़ियाबाद में दो-दो बार। महाराष्ट्र में पछोरा, बुलढ़ाना, रावेर (जलगाँव) व आकोट में दंगे हुये। आंध्रप्रदेश में रंगारेड्डी और हैदराबाद में साम्प्रदायिक हिंसा हुयी। गुजरात में बड़ौदा और दामनगर (अमरेली) में दंगे हुए। इस साल भी दंगों में कोई कमी नहीं आयी। धुले (महाराष्ट्र), नवादा (बिहार), किश्तवार (जम्मू एवम् कश्मीर) व उत्तर प्रदेश के कई शहरों में दंगे हो चुके हैं।
एक ओर नरेन्द्र मोदी यह ढोंग कर रहे हैं कि उनका चुनाव अभियान केवल विकास से जुड़े मुद्दों और सुशासन पर केन्द्रित है, वहीं संघ परिवार के विहिप सहित सभी सदस्य, मतदाताओं का ध्रुवीकरण करने के नए-नए उपाय खोज रहे हैं। विहिप द्वारा शुरू की गयी 84 कोसी परिक्रमा का यही उद्देश्य था। इस तरह की परिक्रमा की कोई धार्मिक परम्परा न होने के बावजूद, विहिप ने इस कार्यक्रम का आयोजन किया। संघ परिवार, साम्प्रदायिक हिंसा का उपयोग अपने जनाधार को विस्तार और अपने संगठन को मजबूती देने के लिये करता रहा है। और यह उसकी नीति है।
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मुज़फ़्फ़रनगर में जिस योजनाबद्ध तरीके से पूरी तैयारी के साथ दंगा कराया गया यह संघ परिवार के ख़तरनाक इरादों को पूरी तरह उजागर कर देता है। दो युवकों के बीच मोटरसाइकिल लड़ने को लेकर झगड़े और हिंसा की घटना को पहले तो लड़की के साथ छेड़छाड़ के मामले के तौर पर प्रचारित किया गया। इसके बाद, किसी अन्य घटना का एक फर्ज़ी वीडियो, जो पुलिस के अनुसार दो साल पुराना है, सोशल नेटवर्किंग साइटों और मोबाइल फोनों के जरिए बड़े पैमाने पर प्रसारित किया गया। कहा गया कि यह वीडियो भीड़ द्वारा हिन्दू युवकों को पीट-पीट कर मार डालने की घटना का है। दरअसल यह वीडियो कुछ साल पहले पाकिस्तान में हुई एक घटना का था, जिसमें हिंसक भीड़ ने दो युवकों को डकैत होने के शक में घेरकर मार डाला था। भाजपा विधायक संगीत सोम द्वारा अपलोड किये गये इस नकली वीडियो से इलाके में अल्पसंख्यकों के विरुद्ध घृणा भड़कायी गयी। इस घटना पर जाट समुदाय ने पहले प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। भाजपा के पारम्परिक समर्थकों ने दो युवकों की हत्या का बदला लेने के लिये जाटों को उकसाया। उधर एक बसपा नेता और कुछ अन्य नेताओं ने 30 अगस्त को मुसलमानों की बैठक करके ख़ून का बदला ख़ून से लेने का ऐलान कराया। इस बीच चार भाजपा विधायकों ने जाट महापंचायत का आयोजन किया। प्रतिबन्धात्मक धाराएँ लागू होने के बावजूद, महापंचायत में बन्दूकों, तलवारों व अन्य घातक हथियारों से लैस करीब एक लाख जाटों ने भाग लिया। कुल तीन महापंचायतें हुयीं और उनमें निहायत भड़काऊ भाषण दिये गये। ऐसा आरोप है कि जाट महापंचायतों में लगाये गये नारों में से एक था “मसलमान के दो ही स्थान, पाकिस्तान या कब्रिस्तान।”
इसके काफी पहले से मुज़फ़्फ़रनगर क्षेत्र में यह प्रचार किया गया कि ‘हमारी बेटियाँ और बहुएँ सुरक्षित नहीं हैं।’ सभी जातिवादी-साम्प्रदायिक संगठन पितृसत्तात्मक मूल्यों में विश्वास रखते हैं। अतः आश्चर्य नहीं कि “बहू-बेटी बचाओ” के नारे से भड़के हज़ारों जाट हथियारबंद होकर महापंचायत में इकटठा हो गए। साम्प्रदायिक दुष्प्रचार ने गति पकड़ी और देश में पहली बार, ग्रामीण क्षेत्रों में साम्प्रदायिक हिंसा भड़क उठी। भाजपा की जाटों में पैठ नहीं है परन्तु उसने अत्यंत कुटिलतापूर्वक इस घटना का उपयोग अपनी विभाजनकारी राजनीति को मजबूती देने के लिये किया। मोदी को हिन्दुओं के उद्धारक के रूप में प्रस्तुत किया गया और जाटों को अपनी जातिगत पहचान त्याग कर, हिन्दू पहचान पर जोर देने के लिये प्रेरित किया गया। मुस्लिम गुटों ने भी हिंसा में भाग लिया। परन्तु पूर्वाग्रहग्रस्त पुलिसतंत्र ने एकतरफा कार्यवाही की। नतीजा यह हुआ कि हिंसा के शिकार मुख्यतः अल्पसंख्यक बने। उनमें से कई को अपने घरबार छोड़कर भागना पड़ा। दर्जनों मकानों में आग लगा दी गयी, 40,000 लोगों को अपने घर-बार छोड़कर राहत शिविरों में शरण लेनी पड़ी और कम से कम 53 लोग मारे गये। 15 सितम्बर के ‘टाइम्स आफ इंडिया’ ने दंगों में मारे गये 53 लोगों की लाशों का पोस्टमार्टम करने वाले डॉक्टरों के हवाले से लिखा कि जिस वहशियाना तरीके से ये हत्याएँ की गयी थीं, उसे देखकर डॉक्टर भी काँप उठे। कई मामलों में महिलाओं के यौनांग कटे-फटे पाये गये। पुलिस, हमेशा की तरह, हिंसा की मूकदर्शक बनी रही।
इससे पहले भी, भागलपुर, नेल्ली, गुजरात और असम के बोडो इलाके में हुए दंगों में ग्रामीण क्षेत्रों में साम्प्रदायिक हिंसा हुई थी लेकिन यह मूलतः शहरी क्षेत्रों में होने वाली हिंसा का आसपास के गाँवों में विस्तार भर था। मगर, मुज़फ़्फ़रनगर, शामली और मेरठ में हिंसा मुख्यतया ग्रामीण क्षेत्रों में हुई। मुज़फ़्फ़रनगर दंगों में बेघर हुये लोगों की संख्या, उत्तरप्रदेश में अब तक हुए किसी भी दंगे से कहीं ज्यादा है। भयग्रस्त विस्थापितों का कहना है कि वे अब कभी अपने गाँवों में वापस नहीं जा पायेंगे।
इन दंगों से भाजपा और संघ परिवार को तो सबसे अधिक फायदा होने की उम्मीद है ही, लेकिन वोटों के मुस्लिम वोटों के ध्रुवीकरण से सपा भी लाभ पाने की आशा लगाये हुए है। दंगों के बाद भी जिस तरह से लखनऊ में विधानसभा के ऐन सामने भाजपा विधायक हीरो बने घूम रहे थे और पुलिस को खुली चुनौती दे रहे थे, उससे भी सरकार की मिलीभगत ज़ाहिर है। जहाँ तक पुलिस और प्रशासन की भूमिका का प्रश्न है, उसके बारे में जितना कम कहा जाये उतना बेहतर। प्रशासन और पुलिस में नीचे से लेकर ऊपर तक, पूर्वाग्रहग्रस्त और साम्प्रदायिक अधिकारी-कर्मचारी भरे हुए हैं। और अगर सत्तारूढ़ पार्टी ख़ुद यह तय कर ले कि हिंसा से उसे चुनावी लाभ उठाना है तो ज़ाहिर है हिंसा भड़केगी ही और उसे तब तक चलने दिया जायेगा जब तक कि सम्बन्धित पक्षों को यह न लगने लगे कि उन्हें जो लाभ मिलना था, वह मिल चुका है।
मुज़फ़्फ़रनगर दंगों में भाजपा की भागीदारी और समाजवादी पार्टी की आपराधिक मिलीभगत से यह साफ है कि उत्तर प्रदेश को गुजरात बनाने के संघी फार्मूले को लागू करने की उसी प्रक्रिया की एक कड़ी है, जिस पर अमल की शुरुआत जून 2012 में मथुरा के कोसी कलां में हुए दंगों से हो गयी थी। वहाँ दो जुड़वा भाइयों को बिल्कुल उसी अंदाज़ में ज़िन्दा जला दिया गया था जिस तरह से गुजरात के दंगों में सैकड़ों मुसलमानों को जलाया गया था। इस अनुभव की सफलता के बाद नरेन्द्र मोदी के दाहिने हाथ अमित शाह प्रदेश को कमान दी गयी और उसने 9 जुलाई 2013 को गोरखपुर में जो ज़हर उगला उसने उत्तर प्रदेश को गुजरात बनाने की प्रक्रिया पर मुहर लगा दी थी। अमित शाह ने पार्टी के ज़िला कार्यकारणी की बैठक में कहा कि ‘जिस हिन्दू का खून न खौले, ख़ून नहीं वह पानी है’। आज यही नारा उत्तर प्रदेश में संघी संगठनों के घातक प्रचार का मुख्य नारा बना हुआ है।
ऐसे समय में हम मेहनतकश साथियों और आम नागरिकों से कहना चाहते हैं कि तमाम साम्प्रदायिक फ़ासीवादियों के भड़काऊ बयानों से अपने ख़ून में उबाल लाने से पहले ख़ुद से पूछियेः क्या ऐसे दंगों में कभी तोगड़िया, ओवैसी, आज़म खाँ, मुलायमसिंह यादव, राज ठाकरे, आडवाणी या मोदी जैसे लोग मरते हैं? क्या कभी उनके बच्चों का कत्ल होता है? क्या कभी उनके घर जलते हैं? हमारे लोगों की बेनाम लाशें सड़कों पर पड़ी धू-धू जलतीं हैं। सारे के सारे धार्मिक कट्टरपन्थी तो भड़काऊ बयान देकर अपनी ज़ेड श्रेणी की सुरक्षा, पुलिस और गाड़ियों के रेले के साथ अपने महलों में वापस लौट जाते हैं। और हम उनके झाँसे में आकर अपने ही वर्ग भाइयों से लड़ते हैं।
सपा की अखिलेश सरकार जहाँ एक समुदाय का हितैषी बन अपने वोट बैंक को सुरक्षित कर रही है, वहीं भाजपा, संघ परिवार धार्मिक उन्माद फैलाकर देश स्तर पर साम्प्रदायिक माहौल तैयार कर रह है। भाजपा और भगवा ब्रिगेड नरेन्द्र मोदी के फ़ासीवादी उग्र हिन्दुत्व की रणनीति पर अमल कर फिर से सत्ता की मलाई चखने का मंसूबा बाँधे हुए है। भगवा गिरोह समझ चुका है कि अगले लोकसभा चुनाव में 80 सांसदों वाले उत्तर प्रदेश में साम्प्रदायिक बँटवारा करके ही वह केन्द्र की सत्ता तक पहुँच सकता है। वहीं कांग्रेस ने भी नरम हिन्दुत्व कार्ड खेलने के साथ ही मुसलमानों को भरमाने का खेल शुरू कर दिया हैं। कांग्रेस चालाकी के साथ धर्मनिरपेक्षता की बातें करते हुए, कभी हिन्दुओं को रिझाने के लिए कुछ कदम उठाती है, और ज़रूरत पड़ने पर अपने आपको साम्प्रदायिक फ़ासीवाद के एकमात्र विकल्प के रूप में पेश करती है।
भाजपा के हिन्दुत्ववादी एजेण्डे को बढ़ाने में हमेशा की तरह हिन्दू कट्टरपंथी ताक़तें जुटी हुई हैं, साथ ही मुस्लिम कट्टरपन्थी ताकतें भी इसमें पूरी मदद कर रही हैं। क्योंकि वास्तव मे जब भी साम्प्रदायिक फ़ासीवाद पनपता है, तो उससे केवल बहुसंख्यवादी हिन्दुत्व फ़ासीवादी को ही नहीं, बल्कि अल्पसंख्यक इस्लामी कट्टरपंथ को भी खाद-पानी मिलता है। ये सारे कठमुल्ले जानते हैं अगर हिन्दू और मुसलमान ग़रीब जनता रोज़गार, शिक्षा, चिकित्सा और बेहतर सुविधाओं के लिए वर्गीय आधार पर एकजुट और गोलबन्द होने लगी तो हिन्दुत्वादी कट्टरपन्थियों के साथ-साथ मुस्लिम कट्टरपन्थियों की दुकानें भी तो बन्द हो जायेंगी। इसलिए देश में कट्टरपंथी ताक़तें आम जनता को धार्मिक, जातिगत, क्षेत्रगत या भाषागत तौर पर बाँटकर पूँजीवादी व्यवस्था के खि़लाफ़ चलने वाले संघर्ष की धार को कुन्द करने का काम करती है। ऐसे में सभी चुनावबाज़ पार्टियों के पास ‘बाँटो और राज करो’ के अलावा चुनाव जीतने का और कोई हथकण्डा नहीं बचता। मगर मेहनतकशों को इनके गन्दे इरादों को पहचान लेना होगा और उन्हें नाकाम करने के लिए अपनी फ़ौलादी एकजुटता क़ायम करनी होगी।
मज़दूर बिगुल, सितम्बर 2013
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