कुसुमपुर पहाड़ी में मेहनतकशों-नौजवानों की जीवन स्थिति पर एक छात्र की चिट्ठी

सागर, जेएनयू, दिल्ली

मेरा नाम सागर है। मैं दिल्ली के जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय (जेएनयू) में चीनी भाषा में बीए कर रहा हूँ। विश्वविद्यालय के हम कुछ छात्र पिछले एक साल से कुसुमपुर पहाड़ी नाम के एक मज़दूर इलाक़े में बच्चों को नियमित पढ़ा रहे हैं और यहाँ के लोगों की राजनीतिक चेतना को उन्नत करने का काम भी कर रहे हैं। इस दौरान मैंने यहाँ के मेहनतकशों और नौजवानों की जीवन स्थिति के बारे में जो देखा, उसे मज़दूर बिगुल के पाठकों के साथ साझा करना चाहूँगा।

देश की राजधानी दिल्ली में क़रीब 700 मज़दूर बस्तियाँ हैं। उनमें से एक कुसुमपुर पहाड़ी है, जो दक्षिण दिल्ली में स्थित एक बड़ा रिहायशी इलाक़ा है। दिल्ली शहरी सुधार आश्रय बोर्ड (DSUIB) का डेटा बताता है कि कुसुमपुर में 4,909 घर हैं। 2011 के जनगणना के अनुसार इस इलाक़े में 17,028 लोग रहते हैं, हालाँकि स्थानीय लोगों की मानें तो यह संख्या अब लगभग 40 हज़ार है। यहाँ मुख्यतः राजस्थान, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और तमिलनाडु से आये मेहनतकश रहते हैं। कुछ हिस्सों में बिहार और पश्चिम बंगाल के लोग भी मिल जायेंगे। दक्षिण दिल्ली के वसंत विहार और वसंत कुंज जैसे इलाक़ों की बड़ी बड़ी कोठियों, अपार्टमेंटों और एम्बेसियों की विलासिता और चकाचौंध के बीच कुसुमपुर पहाड़ी जैसी मज़दूर बस्तियाँ, जहाँ बुनियादी नागरिक सुविधाएं भी नहीं पहुँची हैं, अक़्सर आँखों से ओझल हो जाती हैं। या यूँ कहें कि दिल्ली की शहरी योजना और आर्किटेक्चर ही कुछ इस प्रकार बनायी गयी है कि मज़दूर मेहनतकशों की गन्दी रिहायशी इलाक़ें शहर के कुलीन वर्ग, नेताओं, नौकरशाहों, विदेशी राजदूतों के आँखों की किरकिरी न बनें।

कुसुमपुर में रह रहे लोगों के लिए सबसे बड़ी समस्या पानी की है। यहाँ पक्के पाइप लाइन की सुविधा उपलब्ध नहीं है जिसके कारण लोगों तक साफ़ पानी पहुँच नहीं पाता है। पानी की कमी की पूर्ति के लिए दिल्ली सरकार “दिल्ली जल बोर्ड” (DJB) के टैंकर भेजती है। असल में इन टैंकरों पर टैंकर माफ़ियाओं का एकाधिकार होता है जो प्रति कनस्तर 10 रुपये की दर से पानी बेचते हैं। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि कुसुमपुर के मेहनतकशों की दिनचर्या पानी और टैंकरों के इर्दगिर्द ही घूमती है। टैंकर से पानी भरने के लिए घण्टों लाइन में खड़ा रहना पड़ता है और जल्दी पानी भरने की होड़ में आये दिन सिरफुटव्वल होता रहता है। कभी पानी भरने में देरी हो जाये या टैंकर के कारण पतली गलियों में जाम लग जाये तो बच्चों के एग्जाम छूट जाते हैं और कई बार लोगों को अपनी नौकरी से भी हाथ धोना पड़ता है। लोग रास्ते से 40-40 लीटर के कनस्तरों को अपने घरों तक ढोकर लाते हैं जिसके कारण महिलाओं और बच्चों के कमर और घुटनों में दर्द एक आम बात बन चुकी है। बूढ़े लोग जो कनस्तर नहीं उठा सकते वे 10 रुपये देकर ये काम किसी और से करवाते हैं। कुसुमपुर के मेहनतकशों की आमदनी का एक अच्छा-ख़ासा हिस्सा पानी पर खर्च होता है। हर चुनाव से पहले आम आदमी पार्टी और भाजपा से लेकर सभी चुनावबाज पार्टियाँ यहाँ पानी के नाम पर ही वोट माँगती हैं। लेकिन पक्के पानी की सुविधा कुसुमपुर के मेहनतकशों के लिए फिलहाल एक दूर की कौड़ी ही है।

कुसुमपुर के घरों और गलियों की हालत भी कुछ ख़ास अच्छी नहीं है। घर के छोटे-छोटे कमरों में न तो रौशनी आती है और न ही ताज़ी हवा। इन माचिस की डिब्बी जैसे घरों से बाहर निकलते ही तंग, गीली, गन्दी गलियाँ और बजबजाती नालियाँ मिलती हैं। गालियों में कूड़ेदान न होने के कारण गलियों में ही कचरे का ढेर लग जाता है। गलियों में बिजली के नंगे तार लटकते रहते है, जिससे लोगों को बिजली का झटका लगने का डर बना रहता है। कुसुमपुर के बच्चों और नौजवानों के पास खेलने, टहलने या व्यायाम करने के लिए कोई पार्क, मैदान या खुली जिम नहीं है। मद्रासी मन्दिर के सामने जो एक छोटी जगह है वह मैदान कम और कूड़ेदान ज़्यादा है। ग़रीबी और भुखमरी की मार झेल रहे मेहनतकशों को एक स्वच्छ और स्वस्थ माहौल भी नहीं मिल पाता जिसके कारण यहाँ ज़्यादातर लोग किसी न किसी बीमारी से जूझ रहे हैं। यहाँ सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधा के नाम पर बस एक डिस्पेंसरी है जिसमें न तो पर्याप्त कर्मचारी हैं और न ही ढंग के उपकरण और दवाइयाँ। ज़्यादा बीमार होने पर या तो लोगों को कर्ज लेकर प्राइवेट क्लीनिक या हॉस्पिटल जाना पड़ता है या एम्स और सफ़दरजंग जैसे सरकारी अस्पतालों में कई दिनों तक चप्पलें घिसनी पड़ती हैं।

कुसुमपुर पहाड़ी के ज़्यादातर लोग वसंत विहार, वसंत कुंज और आस पास के अन्य समृद्ध इलाक़ों में झाड़ू-पोंछा, बर्तन, कपड़े धोना, खाना बनाना, माली या गार्ड जैसे घरेलू काम करते हैं। कुछ लोग पास के जेएनयू में सफ़ाई कर्मचारी के तौर पर काम करते हैं। इसके अलावा कई लोग बेलदारी, पास के लेबर चौक पर दिहाड़ी मज़दूरी, किसी दुकान में हेल्पर का काम करते हैं, स्विगी-ज़ोमैटो-ब्लिंकिट आदि की डिलीवरी करते हैं या अपना रेहड़ी-खोमचा लगाते हैं। सुबह के समय शोषण की चक्की में पिसने के लिए इस बस्ती से इन मज़दूरों की लम्बी रेल निकलती है। मुनाफ़े की भट्टी में 10-12 घण्टों तक अपनी हड्डियाँ गलाने के बाद जब वे वापस बस्ती में लौटते हैं, यहाँ न तो उन्हें रहने का अच्छा माहौल मिलता है, न पीने का साफ़ पानी और न ही साँस लेने के लिए ताज़ी हवा। क्या ऐसी ज़िन्दगी किसी जहन्नुम से कम है?

वैसे तो कुसुमपुर के आसपास कई स्कूल हैं लेकिन यहाँ के ज़्यादातर बच्चे दिल्ली सरकार द्वारा चलाये जा रहे सर्वोदय विद्यालय में पढ़ने जाते हैं। दिल्ली की उत्कृष्ट सरकारी स्कूल व्यवस्था के बारे में केजरीवाल के बड़े बड़े दावों के विपरीत इस स्कूल की ख़स्ता हालत है। ‘शिक्षा सहायता मण्डल’ में यहाँ के बच्चों को पढ़ाते हुए मैंने सरकारी स्कूल व्यवस्था की जर्जर स्थिति को क़रीब से देखा। यहाँ हालत यह है कि आठवीं या नौवीं क्लास में पढ़ने वाले छात्रों को तीसरी या चौथी क्लास के सवाल हल करने में परेशानी होती है। बारहवीं तक पहुँचते-पहुँचते ज़्यादातर बच्चों की पढ़ाई छूट जाती है। जो बच्चे बारहवीं के बाद पढ़ाई जारी रखते हैं वे भी मुख्यतः ओपन कोर्स में दाखिला लेकर मज़दूरी करना शुरू कर देते हैं। यहाँ हमें विरले ही कोई ऐसा नौजवान मिला है जो नियमित कोर्स कर रहा हो। लॉटरी के ज़रिए जिन बच्चों का प्राइवेट स्कूल में दाखिला हो भी जाता है उन्हें भी मज़दूर वर्गीय पृष्ठभूमि से होने के कारण स्कूल में भेदभाव झेलना पड़ता है। पूरे देश की तरह यहाँ भी लड़कियों की शिक्षा को अनदेखा किया जाता है और उनपर घर की रसोई से लेकर झाड़ू-पोंछा, कपड़े धोना और पानी भरने जैसे सभी कामों का बोझ लाद दिया जाता है। इसके अलावा, अच्छी पढ़ाई, रोज़गार, खेल कूद और अच्छी संस्कृति के अभाव में नौजवानों के बीच नशाखोरी और हिंसा आम बात बन गयी है। आये दिन यहाँ चोरी से लेकर मर्डर तक होते रहते हैं, जिसमें ज़्यादातर 18-20 साल के लड़के शामिल होते हैं। यहाँ कई एनजीओ भी काम करते हैं जो पूँजीपतियों से फण्डिंग लेकर इलाक़े में बच्चों को पढ़ाने, दवाई बाँटने, कम्प्यूटर और सिलाई सिखाने जैसे कुछ सुधारपरक काम करते हैं और इस व्यवस्था और सरकारों की नाकामियों को छिपाने का काम करते हैं।

मेहनतकशों और नौजवानों की जो जीवन स्थिति कुसुमपुर पहाड़ी में है, वही हाल देश के लगभग सभी मज़दूर रिहायशी इलाक़ों में है। विश्वविद्यालयों में पढ़ रहे हम छात्रों को यह सोचना होगा कि सुई से लेकर जहाज़ तक सब कुछ पैदा करने वाला मज़दूर वर्ग क्या पीढ़ी-दर-पीढ़ी इसी तरह शोषण की चक्की में पिसता रहेगा? कुसुमपुर में रहने वाले मेहनतकशों की अगली पीढ़ियाँ भी क्या इन्हीं नारकीय और अमानवीय परिस्थितियों में अपनी ज़िन्दगी काटेंगी? अगर इतिहास में चीज़ें बदली हैं तो क्या आगे भी मज़दूर वर्ग के हालात बदलेंगे? अगर बदलेंगे तो कैसे बदलेंगे? कौन बदलेगा उन्हें?

 

मज़दूर बिगुल, नवम्‍बर 2024


 

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