हर साल लाखों माँओं और नवजात शिशुओं को मार डालती है यह व्यवस्था
कविता
किसी भी समाज की ख़ुशहाली का अनुमान उसके बच्चों और माँओं को देखकर लगाया जा सकता है। लेकिन जिस समाज में हर साल तीन लाख बच्चे इस दुनिया में अपना एक दिन भी पूरा नहीं कर पाते और क़रीब सवा लाख स्त्रियाँ हर साल प्रसव के दौरान मर जाती हैं, वह कैसा समाज होगा, इसे बयां करने की ज़रूरत नहीं। आज़ादी के 66 साल बाद, जब देश में आधुनिक चिकित्सा सुविधाओं की कोई कमी नहीं है, तब ऐसा होना शर्मनाक ही नहीं बल्कि एक घृणित अपराध है। और इसकी ज़िम्मेदार है यह पूँजीवादी व्यवस्था जिसके लिए ग़रीबों की ज़िन्दगी का मोल कीड़े-मकोड़ों से ज़्यादा नहीं है।
पूँजीवादी मीडिया गर्व से बताता है कि भारत इतनी तरक्की कर गया है कि यहाँ अमेरिका और इंग्लैण्ड से लोग इलाज कराने के लिए आ रहे हैं। लेकिन वह यह नहीं बताता कि पूरी दुनिया में जन्म के पहले दिन ही मरने वाले बच्चों में से 30 फ़ीसदी हमारे देश में हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन और कई अन्य संगठनों की एक रिपोर्ट (2007) के अनुसार पूरी दुनिया में हर साल प्रसव के दौरान 5.36 लाख स्त्रियों की मृत्यु हो जाती हैं इनमें से 1.17 लाख यानी क़रीब 25 प्रतिशत मौतें सिर्फ़ भारत में होती हैं भारत में प्रसव के दौरान हर 1 लाख में से 450 स्त्रियों की मत्यु हो जाती है। इस मामले में अफ्रीका के कई बेहद ग़रीब देशों से भी हम पीछे हैं। गर्भावस्था और प्रसव के दौरान मृत्यु के 47 प्रतिशत मामलों में कारण शरीर में ख़ून की कमी और बहुत अधिक ख़ून बहना होता है। रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि भारत सहित सभी विकासशील देशों में गर्भवती और जन्म देने वाली महिलाओं के मामलों में 99 फीसदी मौतें ग़रीबी, भूख और बीमारी के चलते होती हैं। ख़ुद भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय ने 2007 में जारी रिपोर्ट ‘एन.एफ.एच.एस.-3’ में यह माना था कि माँओं की मृत्यु की ऊँचली दर का मुख्य कारण यह है कि ग़रीबी के कारण ज़्यादातर महिलाओं को समुचित डाक्टरी देखभाल नहीं मिल पाती। आज भी क़रीब 25 प्रतिशत स्त्रियों को प्रसव के पहले या उसके बाद डाक्टरी देखभाल की कोई सुविधा नसीब नहीं हो पाती। गाँवों में ज़्यादातर महिलाओं का प्रसव घर पर ही दाई द्वारा कराया जाता है। अन्धविश्वास और शिक्षा की कमी से बहुतेरी स्त्रियाँ पूरे नौ महीने डाक्टरी सलाह से भी दूर रहती हैं। कस्बों और शहरों के आसपास की स्त्रियाँ प्रसव के लिए अस्पताल अक्सर तब पहुँचती हैं जब बहुत देर हो चुकी होती है। अगर उन्हें समय पर अस्पताल की सुविधा मिल जाये तो बहुतेरी माँओं ओर बच्चों की ज़िन्दगी बच सकती है।
दूसरी तरफ़ गाँवों में स्वास्थ्य सुविधाओं की हालत सुधरने के बजाय बिगड़ती जा रही है। आबादी के हिसाब से जितने प्राथमिक चिकित्सा केन्द्र, सरकारी डिस्पेंसरी और जच्चा-बच्चा केन्द्र होने चाहिए उससे बहुत कम मौज़ूद हैं। जो हैं उनमें भी डाक्टर और स्टाफ नहीं रहते, दवाएँ काले बाज़ार में बिक जाती हैं। सरकार ने सबको स्वास्थ्य सुविधा मुहैया कराने की अपनी ज़िम्मेदारी से पूरी तरह हाथ खींच लिया है और इसे भी बाज़ार के हवाले कर दिया है। यानी जिसके पास पैसा है वह अपने लिए अच्छे से अच्छा डाक्टर ओर नर्सिंग होम की सुविधा हासिल कर ले, और जिसके पास मोटी फीस चुकाने को पैसा नहीं है वह तिल-तिलकर मरे। देश के सरकारी अस्पतालों में डाक्टरों और नर्सों के आधे से लेकर दो तिहाई तक पद खाली पड़े हैं, बहुत बड़ी आबादी के लिए कोई सरकारी अस्पताल उपलब्ध ही नहीं हैं, मगर इस कमी को पूरा करने के बजाय सरकार ने ए.एन.एम. और आशा बहू जैसी योजनाओं के जरिए अपनी ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया है। सरकारी अस्पतालों की हालत यह है कि राजधानी दिल्ली तक में लाखों की आबादी वाली ग़रीबों की कई बस्तियों के आसपास जल्दी डाक्टर नहीं मिलता।
पूँजीवादी मीडिया ने लोगों के दिमागों को इस तरह से अनुकूलित कर दिया है कि ज़्यादातर लोगों में अपने अधिकारों की चेतना ही नहीं रह गयी है। अक्सर वे कहते हैं कि सरकार सबका दवा-इलाज कहाँ से करायेगी। मगर सच तो यह है कि आज़ादी के समय देश की जनता से वादा किया गया था कि रोजी-रोटी, मकान, शिक्षा और स्वास्थ्य सरकार की ज़िम्मेदारी होगी, और सरकार के लिए ऐसा करना पूरी तरह मुमकिन था।
प्रसव के समय होने वाली मौतों की संख्या इसलिए और भी बढ़ जाती है क्योंकि भारत में अधिकतर माँएँ कुपोषण और ख़ून की कमी की शिकार होती हैं। इससे उनमें और गर्भस्थ शिशु में रोगरोधक क्षमता की कमी हो जाती है। इसकी वजह से हल्का-सा संक्रमण भी उनके लिए जानलेवा हो जाता है।
भारत के बच्चे पड़ोसी ग़रीब देशों बंगलादेश और नेपाल से भी ज़्यादा कुपोषित हैं। बंगलादेश में शिशु मृत्यु दर 48 प्रति हज़ार है जबकि भारत में यह 67 प्रति हज़ार है, यानी पैदा होने वाले 1000 बच्चों में से 67 पैदा होते ही मर जाते हैं। भारत में बच्चों में कुपोषण की दर 55 प्रतिशत है। कुछ रिपोर्टों में इसे 70 प्रतिशत तक बताया गया है। यूनिसेफ की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में करीब एक करोड़ बच्चों का कुपोषण के कारण शारीरिक विकास बाधित है।
हमारे समाज में स्त्रियों की दोयम दर्जे की स्थिति के कारण भी उनका स्वास्थ्य उपेक्षित रहता है। घरों में अक्सर स्त्रियाँ सबसे बाद में, बचा हुआ खाना खाती हैं। उन्हें पौष्टिक भोजन सबसे कम मिलता है। यहाँ तक कि कारख़ानों और खेतों में काम करने वाली स्त्रियाँ दोहरे काम का बोझ उठाने के बावजूद पुरुषों के
मुकाबले ख़राब खाना खाती हैं। इसकी वजह से उनमें ख़ून की कमी और उससे पैदा होने वाली अनेक बीमारियाँ आम तौर पर पायी जाती हैं। बीमारियों के इलाज में भी स्त्रियों की स्थिति दोयम दर्जे की होती है।
देश में करोड़ों की संख्या में कारख़ानों में काम करने वाली स्त्री मज़दूरों को न तो जच्चगी के लिए छुट्टी मिलती है और न ही कोई अन्य सुविधा। काम छूट जाने और आर्थिक तंगी के कारण वे प्रसव से कुछ दिन पहले तक कमरतोड़ काम करती रहती हैं। ऐसे में माँ और बच्चे दोनों का जीवन ख़तरे में पड़ जाता है।
माँ और ममता के बारे में हमारे देश में बहुत बड़ी-बड़ी बातें की जाती हैं, लेकिन देश की करोड़ों माँओं और नन्हें शिशुओं के साथ यह व्यवस्था जो सुलूक करती है, उसके बाद अगर किसी के मन में इस व्यवस्था को आग लगा देने का विचार नहीं पैदा होता है, तो उसे अपने बारे में गम्भीरता से सोचना चाहिए।
मज़दूर बिगुल, जुलाई 2013
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