अपराध को साम्प्रदायिक रंग देने की संघियों की कोशिश को जनता की एकजुटता ने फिर किया नाक़ाम!
चार वर्षीय बच्ची के साथ बलात्कार और देश में बढ़ते स्त्री-विरोधी अपराधों के ख़िलाफ़ भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी (RWPI) द्वारा दिल्ली के शाहाबाद डेरी में सघन अभियान
अदिति
दिल्ली के शाहाबाद डेरी में बीते 21 अगस्त को 3 साल 8 महीने की बच्ची के साथ बलात्कार की घटना सामने आयी। 28 साल के इलाक़े के एक युवक द्वारा बच्ची को चॉकलेट का लालच देकर घर से दूर ले जाकर बच्ची के साथ दुष्कर्म किया गया। घर वापस लौटने पर बच्ची को पेट दर्द, उल्टी और बुख़ार होने पर परिजन बच्ची को अस्पताल लेकर गये। प्राथमिक जाँच में बच्ची के साथ बलात्कार की पुष्टि हुई थी। लेकिन अस्पताल और पुलिस प्रशासन की मिलीभगत के चलते बच्ची को बुख़ार और उल्टी की दवाई देकर भेज दिया गया। इस घटना के बाद पुलिस-प्रशासन का रवैया मामले को रफ़ा-दफ़ा करने का था। जनदबाव के कारण बच्ची की मेडिकल जाँच हुई, केस दर्ज हुआ और बलात्कारी युवक की गिरफ़्तारी की गयी।
इस अति संवेदनशील मसले पर भी भाजपा और आरएसएस साम्प्रदायिक तनाव उत्पन्न करना चाहते थे। इलाक़े का सांसद योगेन्द्र चन्दौलिया अपनी राजनीतिक रोटी सेंकने के लिए पीड़ित परिवार से मिलने पहुँचा और 25,000 हज़ार मुआवज़ा देने का एलान किया। साथ ही इस पूरे मसले पर मुसलमानों के प्रति ख़ूब ज़हर भी उगला क्योंकि बलात्कारी युवक मुस्लिम समुदाय से ताल्लुक रखता था। सांसद ने कहा कि “रोहिंग्या मुसलमान हमारे इलाक़ों में आते हैं, हमारी “बहन-बेटियों” को छेड़ते हैं, इन्हें सबक सिखाना होगा”। उसने कहा कि देश में भी जितनी भी चोरी से लेकर बलात्कार तक की घटनाएँ होती हैं, सबके पीछे मुसलमान ही होते हैं। भाजपा के स्थानीय नेताओं ने भी इलाक़े में लोगों के बीच फूट डालने की कोशिश की।
‘भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी’ (RWPI) द्वारा इस घटना पर इलाक़े में 10 दिन का सघन अभियान चलाया गया। पार्टी द्वारा रैली, नुक्कड़ सभा, व्यापक पर्चा वितरण, गली मीटिंग और जनसभाओं का आयोजन किया गया। इलाक़े के लोगों को बढ़ते स्त्री-विरोधी अपराधों के ख़िलाफ़ एकजुट किया गया, जिससे संघियों द्वारा साम्प्रदायिक माहौल बनाने के मंसूबे नेस्तनाबूद हो गये। साथ ही, इलाक़े के लोगों द्वारा शपथ ली गयी कि भाजपा, आरएसएस, विश्व हिन्दू परिषद के गुण्डों को गलियों में घुसने नहीं देंगे, अपनी एकता क़ायम करेंगे और संघ की दंगे की राजनीति को परास्त करेंगे।
प्रचार के दौरान जनता को सम्बोधित करते हुए वक्ताओं ने बताया कि भाजपा के केन्द्र में आने के बाद से बलात्कार और हत्या की घटनाओं में बेतहाशा वृद्धि हुई है। उन्नाव से लेकर कठुआ तक की घटनाओं में हमने देखा कि बलात्कारियों को सरकार का संरक्षण प्राप्त होता है। यह वही सरकार है जो ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ के नाम पर बेटियों के साथ अपराध करने वालो को बचाती और संरक्षण देती है, जिससे कि स्त्री-विरोधी तत्वों को पर्याप्त शह मिलती है। बृजभूषण शरण सिंह, चिन्मयानन्द, कुलदीप सिंह सेंगर, राम रहीम और आसाराम जैसे बलात्कारियों का उदाहरण हमारे सामने है, जिनको प्रश्रय देने का काम भाजपा सरकार और संघी फ़ासीवादी ही करते हैं। लेकिन यही लोग शाहाबाद डेरी इलाक़े में इस घटना को धार्मिक रंग देने कि कोशिश कर रहे थे। इन संघी दंगाइयों का मेहनतकश जनता की ज़िन्दगी की असल समस्याओं पर कभी कोई बयान तक नहीं आता, लेकिन इस मसले पर हिन्दू-मुसलमान के नाम पर उन्माद भड़काकर अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेंकने का काम करने में संघी फ़ासीवादी तुरन्त जुट गये। असल में इनकी राजनीति ही यही है कि जनता को उनके असल मुद्दों से भटकाकर उन्हें नक़ली मुद्दों में उलझा दिया जाये।
शाहाबाद- डेरी में यह घटना अनायास ही नहीं हो गयी। पूरे इलाक़े में नशाखोरी बड़े पैमाने पर फैली हुई है। अक्सर नुक्कड़ चौराहों तक पर लम्पट तत्व छेड़खानी की घटनाओं को अंजाम देते हैं। बहुत से लम्पट तो भाजपा-आम आदमी पार्टी तथा अन्य चुनावबाज़ पार्टियों से ही जुड़े होते हैं। इन पार्टियों के तमाम नेता इन गुण्डों को शह देते हैं, ताकि चुनाव के समय इनका इस्तेमाल कर सकें। इलाक़े में इस तरह की यह कोई पहली घटना नहीं है। इससे पहले भी कई बार बच्चियों व स्त्रियों से बलात्कार के मामले सामने आ चुके हैं। एक वर्ष पहले साक्षी हत्याकाण्ड एवं कुछ साल पहले पाँच वर्ष की बच्ची मुस्कान के साथ भी बलात्कार और हत्या की घटना सामने आयी थी।
पिछले कुछ सालों में देखें तो पता चलता है कि बलात्कार, छेड़छाड़ की घटनाओं की बाढ़ सी आ गयी है। कोलकाता के आरजी कर मेडिकल कॉलेज में महिला डॉक्टर से बलात्कार की घटना को लेकर देशभर के लोग विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। लेकिन उसके बाद भी लगातार ऐसी घटनाएँ लगातार सामने आ रही है। अभी कुछ दिन पहले करावलनगर (दिल्ली) में 9 साल की बच्ची के साथ बलात्कार, मुज़फ़्फरपुर में और उत्तराखण्ड में महिला डॉक्टर के साथ बलात्कार की घटना सामने आयी है और अभी हाल ही में राम मन्दिर में एक युवती के साथ सामूहिक बलात्कार की घटना भी सामने आयी है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) का डाटा बताता है कि भारत में महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराधों में भयानक वृद्धि हुई है। अकेले 2022 में 4,45,256 मामले दर्ज किये गये, जो हर घण्टे लगभग 51 एफ़.आई.आर के बराबर है। एक रिपोर्ट बताती है कि हमारे देश में हर दिन 86 महिलाओं के साथ बलात्कार के मामले दर्ज होते हैं। तमाम केन्द्र शासित प्रदेशों में सबसे अधिक महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध दिल्ली में दर्ज हुए हैं। दिल्ली पुलिस द्वारा जारी सूचना के आधार पर ‘द हिन्दू’ में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक देश की राजधानी दिल्ली में 2024 के पहले छः महीने में महिलाओं के ख़िलाफ़ होने वाले अपराध में 63.3 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। ये वे आँकड़े हैं जिनकी शिक़ायत दर्ज हो पाती है, जबकि सच्चाई इससे कहीं अधिक भयावह है क्योंकि अधिकांश मामलों में तो शिक़ायत भी नहीं दर्ज हो पाती है।
“लोकतन्त्र के मन्दिर” यानी संसद तक में बलात्कारियों और महिला-विरोधी अपराध में संलग्न नेताओं की भरमार है। अभी हाल ही में जारी एडीआर की रिपोर्ट बताती है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में जीते 543 सांसदों में से 46 प्रतिशत (251) के ख़िलाफ़ आपराधिक मामले दर्ज हैं। इसके अलावा सांसदों में 31 प्रतिशत (170) ऐसे हैं जिनके ख़िलाफ़ बलात्कार, हत्या, अपहरण जैसे गम्भीर आपराधिक मामले दर्ज हैं। भाजपा के 240 सांसदों में से 94, कांग्रेस के 99 सांसदों में से 49, सपा के 37 में से 21, तृणमूल कांग्रेस के 29 में से 13, डीएमके के 22 में से 13, टीडीपी के 16 में से 8 और शिवसेना (शिंदे) के 7 में से 5 सांसदों के ख़िलाफ़ आपराधिक मामले दर्ज हैं। आरजेडी के 100 प्रतिशत (चारों) सांसदों के ख़िलाफ़ गम्भीर आपराधिक मामले दर्ज हैं।
बर्बर स्त्री-विरोधी मानसिकता को खाद-पानी देने वाली इस व्यवस्था और इसकी रक्षक सरकारों के असल चेहरे को पहचानिए
मुनाफ़ाखोर पूँजीवादी व्यवस्था व पितृसत्ता के गठजोड़ से बनी सड़ाँध भरी संस्कृति एवं फ़ासिस्ट सत्ता से मिलने वाली शह लगातार बढ़ते स्त्री विरोधी अपराध का अहम कारक हैं। हमारे समाज के पोर-पोर में समायी पितृसत्तात्मक मानसिकता औरतों को पैर की जूती, उपभोग की वस्तु, पुरुष की दासी और बच्चा पैदा करने की मशीन समझती है। इसके साथ ही मुनाफ़ाखोर व्यवस्था ने हर चीज़ की तरह स्त्रियों को भी ख़रीदे-बेचे जा सकने वाले माल में तब्दील कर दिया है। विज्ञापनों व फ़िल्मी दुनिया ने औरतों को बिकाऊ वस्तु बनाने के काम बहुत ही नंगे और अश्लील तरीक़े से किया है। वहीं बेरोज़गारी, नशा, मूल्यहीन शिक्षा, आसानी से उपलब्ध अश्लील सामग्री आदि न केवल युवाओं को बल्कि पूरे समाज को बर्बाद कर रहीं हैं, बल्कि स्त्री-विरोधी मानसिकता को खाद्य-पानी देने का काम भी कर रही हैं। इसी के साथ हमें ये भी समझना होगा कि फ़ासीवाद अपने जन्मकाल से अब तक, सार्वजनिक रूप से चरम पुरुषवर्चस्वादी रहा है। उसके जनवाद-विरोधी विचार पुरुषस्वामित्ववाद की जड़ में होते हैं। यूँ तो पूँजीवाद स्त्रियों की श्रमशक्ति सस्ती से सस्ती दरों पर निचोड़ने के लिए उसे पुरुषों के मुक़ाबले हमेशा दोयम दर्जे का नागरिक बनाये रखना चाहता है। पर संकटग्रस्त पूँजीवाद उन्हें और अधिक निकृष्ट उजरती ग़ुलाम बनाये रखने के लिए उनकी घरेलू ग़ुलामी की ज़ंजीरों को भी और मज़बूत बना देना चाहता है। एक ओर वह पुरुष मज़दूरों की मोलभाव की क्षमता घटाने के लिए स्त्रियों को उत्पादक कार्रवाइयों में लाना चाहता है, दूसरी ओर दोयम दर्जे की नागरिक के रूप में उनकी श्रमशक्ति को सस्ती से सस्ती दरों पर निचोड़ना चाहता है। पूँजीवाद का यही बुनियादी आर्थिक तर्क ही पितृसत्तात्मक मानसिकता के अलावा फ़ासीवादियों की उग्र स्त्री-विरोधी धारणाओं-मान्यताओं का भौतिक आधार होता है। पूँजीवाद में स्त्रियों की सामाजिक स्थिति और भी बदतर होती जाती है।
साथ ही, हमें इस ग़लतफ़हमी में नहीं रहना चाहिए कि स्त्री-विरोधी अपराधों को महज़ पुलिस व क़ानून व्यवस्था को चाक-चौबन्द करके रोका जा सकता है। बलात्कार व दुर्व्यवहार जैसी घटनाएँ अक्सर पुलिस थानों तक में होती हैं। हाल में बलात्कार के दोषी रामरहीम को लगातर 6 बार बेल देने वाला जेलर हरियाणा विधानसभा चुनाव में भाजपा का रेवाड़ी से प्रत्याशी बना है। अदालतों में जज प्रायः अपने स्त्री-विरोधी पूर्वाग्रहों का ज़हर उगलते रहते हैं। अफ़सरों की रुग्ण यौन विलासिताओं और सेक्स पर्यटन की ख़बरों से कौन अपरिचित होगा? नेताओं द्वारा बलात्कारों और यौन अपराधों की घटनाओं का एक बहुत छोटा हिस्सा ही सामने आ पाता है। हालत यह है कि आज एक लाख से अधिक बलात्कार के मामले लम्बित हैं।
इसका मुक़ाबला करने के लिए आज ज़रूरत है कि प्रगतिशील, सेक्युलर आम मध्यवर्गीय युवाओं और मज़दूरों को (इनमें स्त्री समुदाय भी शामिल है) ऐसे दस्तों में संगठित करना होगा, जो अपने स्तर पर लम्पट-असामाजिक-आपराधिक तत्वों और फ़ासीवादी गुण्डों से निपटने को तैयार हों। इसका आधार एक वर्ग-आधारित पितृसत्ता विरोधी आन्दोलन ही बन सकता है, जो स्त्री-विरोधी अपराधों और मानसिकता की जड़ों को मौजूदा पूँजीवादी वर्गीय समाज में देखता है और पूँजीपति वर्ग और पूँजीवादी व्यवस्था को कठघरे में खड़ा करता है। एक ऐसा आन्दोलन ही क़ानूनी हक़ों को अधिकतम सम्भव हदों तक जीत सकता है, सड़कों पर स्त्री-विरोधी पितृसत्तात्मक तत्वों को सबक सिखा सकता है, जनसमुदायों में पितृसत्तात्मक विचारों के विरुद्ध विचारधारात्मक संघर्ष कर सकता है और एक समानतामूलक व न्यायसंगत समाजवादी व्यवस्था के संघर्ष में महती भूमिका निभा सकता है।
मज़दूर बिगुल, सितम्बर 2024
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