मई दिवस और मौजूदा दौर में मज़दूर वर्ग के समक्ष चुनौतियाँ

सनी

स्तालिन ने मई दिवस को मज़दूर वर्ग का त्यौहार कहा था परन्तु आज मई दिवस देश के अधिकांश मज़दूरों के लिए महज़ एक रस्मअदायगी बनकर रह गया है। अधिकतम मज़दूरों को मई दिवस के महत्व के बारे में नहीं पता है और न ही उन्हें इसके गौरवशाली इतिहास के बारे में पता है। इसके कारण मज़दूर आन्दोलन के बिखराव में निहित हैं। हर साल सालाना आनुष्ठानिक कार्यक्रम करने वाली सीटू, एटक, एचएमएस सरीखी गद्दार यूनियनों ने इस साल भी मई दिवस पर केवल लड्डू बाँटे और अपने दफ़्तरों पर झण्डा फहरा दिया। देश में केवल कुछ जगह ही मई दिवस के राजनीतिक महत्व पर ज़ोर देते हुए विशेष कार्यक्रम लिए गए। यह त्रासद है कि आज मज़दूर शिकागो के नायकों की शहादत और ‘काम के घण्टे आठ करो’ नारे के इतिहास से परिचित नहीं हैं। यह त्रासदी और भी दुखद इसलिए है कि शासक वर्ग ने अपने प्रचार तन्त्र के ज़रिये मज़दूरों के बीच गाँधी, अम्बेडकर, पटेल तथा बुर्जुआ वर्ग के अन्य नेताओं/नायकों को स्थापित किया है। यह सहज ही समझा जा सकता है कि यह मज़दूर आन्दोलन के ठहराव का ही नतीजा है। आज मज़दूर आन्दोलन संगठित नहीं है, पूँजी की शक्तियाँ अभूतपूर्व रूप से हावी हैं। यह विपर्यय का दौर है।

ऐसे वक़्त में मज़दूर दिवस पर शिकागो के शहीदों को याद करते हुए ‘मज़दूर वर्ग के राजनीतिक चेतना में प्रवेश’ करने के इस दिन को याद करना बेहद ज़रूरी बन जाता है। एक बार फिर अनौपचारिकीकरण, भयावह कार्यस्थिति, बेहिसाब काम के घण्टे और मज़दूर-विरोधी सरकारों जैसी चुनौतियाँ दुनिया के मज़दूरों के सामने एक सीमित मायने में और एक नये स्‍तर पर वैसी ही हैं जैसी कि 19वीं सदी के अन्त में दुनिया के मज़दूर वर्ग के सामने थीं। हालाँकि मई दिवस के शहीदों के संघर्ष का काल साम्राज्यवाद के उद्भव का काल था और इस दौर में ही सर्वहारा वर्ग और बुर्जुआ वर्ग के महासमर के पहले चक्र का आगाज़ हो चुका था। आज हम साम्राज्यवाद के अन्तिम चरण भूमण्डलीकरण के दौर में हैं। यह विपर्यय तथा पराजय का दौर है जब सर्वहारा क्रान्तियों का अगला चक्र प्रतीक्षारत है। 

एक ऐसे वक़्त में हम मई दिवस मना रहे हैं जब मज़दूरों से उन अधिकारों को ही छिना जा रहा है जिन्हें मई दिवस के शहीदों की शहादत और मजदूर वर्ग के बेमिसाल संघर्षों के बाद हासिल किया गया था। दुनिया भर में फ़ासीवादी और धुर-दक्षिणपंथी सरकारें सत्ता में पहुँच रही हैं जो मज़दूर अधिकारों पर पाटा चला रही हैं। यह दौर नवउदारवादी हमले का दौर है। ठेकाकरण, अनौपचारिकीकरण, यूनियनों को ख़त्म किया जाना और श्रम क़ानूनों को ख़त्म किया जाना मज़दूर वर्ग के समक्ष चुनौती है। तुर्की के मज़दूर वर्ग के कवि नाज़िम हिकमत ने एक कविता में कहा था कि यह जानने के लिए कि हमें कहाँ जाना है यह जानना ज़रूरी होता है कि हम कहाँ से आये हैं। मई दिवस के आज के दौर की चुनौतियों की थाह लेने से पहले हम एक बार अपने अतीत पर निगाह डालें तो इस चुनौती का सामना करने का रास्ता भी मिल जायेगा।

19वीं सदी में मज़दूर वर्ग और मई दिवस

19 वीं शताब्दी में पश्चिमी यूरोप, अमेरीका, ऑस्ट्रेलिया से लेकर दुनिया के लगभग हर उन्‍नत देश में आधुनिक सर्वहारा वर्ग अस्तित्व में आ चुका था। साथ ही, कई उपनिवेशों और अर्द्धउपनिवेशों में भी एक, छोटा-सा सही, सर्वहारा वर्ग अस्तित्‍व में आने लगा था। लियॉन, सिलेसिया, लंदन, मैंचेस्टर से लेकर पेरिस, शिकागो से लेकर न्यूयॉर्क और सिडनी के मज़दूरों का जीवन त्रासद था। कारख़ानों में सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक काम कराया जाता था। अलेक्ज़ैण्‍डर ट्रेक्टेनबर्ग ‘मई दिवस का इतिहास’ पुस्तिका में बताते हैं:

“उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में ही अमेरिका में मज़दूरों ने “सूर्योदय से सूर्यास्त” तक के काम के समय के विरोध में अपनी शिकायतें जता दी थीं। “सूर्योदय से सूर्यास्त” तक – यही उस समय के काम के घण्टे थे। चौदह, सोलह और यहाँ तक कि अट्ठारह घण्टे का कार्यकाल भी वहाँ आम बात थी। 1806 में अमेरिका की सरकार ने फ़िलाडेल्फ़िया के हड़ताली मोचियों के नेताओं पर साज़िश के मुक़दमे चलाये। इन मुक़दमों में यह बात सामने आयी कि मज़दूरों से उन्नीस या बीस घण्टों तक काम कराया जा रहा था।

“1834 में न्यूयॉर्क में नानबाइयों की हड़ताल के दौरान ‘वर्किंग मेन्स एडवोकेट’ नामक अख़बार ने छापा था – ‘पावरोटी उद्योग में लगे कारीगर सालों से मिस्त्र के ग़ुलामों से भी ज़्यादा यातनाएँ झेल रहे हैं। उन्हें हर चौबीस में से औसतन अट्ठारह से बीस घण्टों तक काम करना होता है।’”

इस दौर में पश्चिमी देशों के मज़दूरों ने काम के घण्टे कम करने की माँग मालिक वर्ग के समक्ष रखी। मज़दूर वर्ग पहले अपने कारख़ाने में, फिर अपने इलाक़े में और अन्ततः देश में राजनीतिक रूप से संगठित हुआ। उसकी लड़ाई क़दम-ब-क़दम बढ़ते हुए कारख़ानों में मशीन तोड़ने से आगे बढ़कर पहले वेतन-भत्ते की लड़ाई तक गयी और फिर इससे आगे बढ़कर देश स्तर पर अपने राजनीतिक अधिकारों की माँग रखने और राजनीतिक सत्ता की लड़ाई में तब्दील हो गयी। 1848 से पहले लियॉन शहर में औद्योगिक दंगे, सिलेसियाई बुनकरों का विद्रोह और इंग्लैण्ड के मज़दूरों का माँगपत्रक आन्दोलन वे प्रातिनिधिक आन्दोलन थे जिनके ज़रिये मज़दूर आन्दोलन ने इतिहास के रंगमंच पर धमाकेदार प्रवेश किया और 1848 तक आते-आते राजनीतिक सत्ता के लिए संघर्ष भी शुरू कर दिया। 1871 में पेरिस कम्यून की स्थापना के ज़रिये मज़दूर ‘स्वर्ग पर धावा बोल चुका था’ और पेरिस कम्‍यून के अल्पजीवी प्रयोग में समाजवादी व्यवस्था के भविष्य के प्रयोगों की ज़मीन तैयार कर चुका था।

इस समय ही अमेरिका के मज़दूर भी तेज़ी से संगठित हो रहे थे। कार्यस्थिति बेहतर करने का आन्दोलन तेज़ी से फैल रहा था। मार्क्स कहते हैं कि ‘काम के घण्टे आठ करो’ आन्दोलन – एक ऐसा आन्दोलन था जो तेज़ी के साथ अटलाण्टिक से हिन्द तक, न्यू इंग्लैण्ड से कैलिफ़ोर्निया तक फैल गया। अमेरीका के शिकागो शहर में इस आन्दोलन ने जो रूप लिया वह इतिहास में दर्ज हो गया। ‘आठ घण्टे काम की समितियों’ के नेतृत्व में “आठ घण्टे काम, आठ घण्टे मनोरंजन, आठ घण्टे आराम” के नारे के इर्द-गिर्द शिकागो का मज़दूर एकजुट हो गया। 1 मई 1886 के दिन को आम हड़ताल का दिन तय किया गया। इस दिवस के तीन दिनों बाद ही 4 मई को हे मार्केट चौक पर मज़दूरों ने इस माँग को लेकर एक विशाल प्रदर्शन का आयोजन किया, जहाँ साज़िशाना तरीके़ से पुलिस और मालिकों ने मिलकर बम फेंक दिया। इस सभा में बम के धमाके की अफरातफ़री में पुलिस ने मज़दूरों की सभा पर गोली चला दी, जिसमें चार लोगों की मौत हो गयी। इस घटनाक्रम में सात पुलिसकर्मी भी मारे गये। पुलिस ने मज़दूर नेताओं को जेल में ठूंस दिया जिनमें से चार नेतृत्‍वकारी मज़दूरों को बाद में एक नक़ली मुक़दमे में बिना किसी सुबूत के फाँसी दे दी गयी। यह मुक़दमा एक नाटक था, जिसमें मज़दूरों को आवाज़ उठाने के लिए सज़ा देने का निर्णय पहले ही किया जा चुका था। लेकिन शिकागो के शहीदों की क़ुर्बानी से दुनिया भर का मज़दूर जाग उठा।

1889 में द्वितीय इण्टरनेशनल ने, जो कि दुनियाभर की कम्युनिस्ट व मज़दूर पार्टियों का अन्तरराष्ट्रीय मंच था, पूरी दुनिया में 1 मई को मई दिवस मनाने का फ़ैसला किया क्योंकि यह मज़दूर वर्ग के राजनीतिक संघर्ष का एक प्रतीक बन चुका था। इसके साथ पूरी दुनिया में ही आठ घण्टे के कार्यदिवस का संघर्ष और आगे बढ़ा। यह मार्क्स के नारे ‘दुनिया के मज़दूरों एक हो’ का ही कार्यान्वयन था जहाँ रंग, नस्ल, भाषा, राष्ट्र के अन्तर के बावजूद अपनी अन्तर्राष्ट्रीय एकता दिखाते हुए मज़दूर एक ही माँग के बैनर तले सड़कों पर उतरे। एंगेल्स 1890 में लिखते हैं:

 “जब मैं ये पक्तियाँ लिख रहा हूँ, यूरोप और अमेरिका का सर्वहारा अपनी शक्तियों की समीक्षा कर रहा है, यह पहला मौक़ा है, जब सर्वहारा वर्ग एक झण्डे तले, एक तात्कालिक लक्ष्य के वास्ते, एक सेना के रूप में, गोलबन्द हुआ है : आठ घण्टे के कार्य-दिवस को क़ानून द्वारा स्थापित कराने के लिए…। यह शानदार दृश्य जो हम देख रहे हैं, वह पूरी दुनिया के पूँजीपतियों, भूस्वामियों को यह बात अच्छी तरह समझा देगा कि पूरी दुनिया के सर्वहारा वास्तव में एक हैं। काश! आज मार्क्स भी इस शानदार दृश्य को अपनी आँखों से देखने के लिए मेरे साथ होते।”

मज़दूर वर्ग ने 20वीं शताब्दी में मई दिवस के अवसर का बख़ूबी इस्तेमाल किया। बोल्शेविक पार्टी के नेतृत्व में रूस के मज़दूर वर्ग ने ज़ारशाही के निरंकुश शासन में ‘मई दिवस’ के उपलक्ष्य को अपनी शक्तियों को विस्तार देने और समाजवादी क्रान्ति का प्रचार करने का दिवस बना दिया। 20वीं शताब्दी में मजदूर आन्दोलनों के दबाव में दुनिया के अधिकांश देशों ने ‘काम के घण्टे 8’ को क़ानूनी तौर पर मान्यता दी। भारत सरकार ने भी कागज़ी तौर पर इस कानून को मान्यता दी। लेकिन आज जब हम मौजूदा दौर को देखते हैं तो पाते हैं कि मज़दूरों को मिले ये क़ानूनी हक़-अधिकार भी सरकारें छीन रही हैं। 

आज का मज़दूर वर्ग और ऐतिहासिक चुनौतियाँ

आज हम साम्राज्यवादी भूमण्डलीकरण के समय में जी रहे हैं जो साम्राज्यवादी युग का आख़िरी दौर है। 1970 के दशक से दीर्घकालिक मन्दी में डूबी पूँजीवादी अर्थव्यवस्था 2007-08 के बाद से दीर्घकालिक महामन्दी/संकट में डूबी है। आर्थिक संकट के चलते दुनिया भर में धुर दक्षिणपंथी और फ़ासीवादी सरकारें सत्तासीन हो रही हैं। इसका प्रभाव मज़दूरों के हक़-अधिकारों पर पड़ा है। 1980 के दशक से भारत में भी अनौपचारिकीकरण की प्रक्रिया तेज़ी से आगे बढ़ी है। आज़ाद हिन्दुस्तान में पहले से ही विशाल अनौपचारिक क्षेत्र मौजूद था जो नवउदारवाद के दौर में और तेज़ी से फैला है। ठेका प्रथा, कैज़ुअलाइज़ेशन व दिहाड़ीकरण के ज़रिये मज़दूरों का शोषण भीषण से भीषणतम हो रहा है। आज भारत के 93 से 94 प्रतिशत मज़दूर अनौपचारिक व असंगठित क्षेत्रों के कारख़ानों, वर्कशॉपों, दुकानों, खेतों व अन्य कार्यस्थलों पर काम करते हैं। हालत यह है कि भारत के कुल मज़दूरों के 90 प्रतिशत से भी ज़्यादा हिस्से को आठ घण्टे का कार्यदिवस हासिल नहीं है। न ही इन मज़दूरों को पीएफ़, ईएसआई, पेंशन, बोनस, स्वैच्छिक ओवरटाइम व ओवरटाइम के डबल रेट से भुगतान आदि जैसे श्रम अधिकार प्राप्त हैं। दशकों पहले संघर्षों के दम पर हासिल किये गये इन तमाम अधिकारों को आज पहले से भी बड़े पैमाने पर छीना जा रहा है और संगठित क्षेत्र के मज़दूर भी अब इसके निशाने पर आ रहे हैं। मोदी सरकार 8 घण्टे काम के क़ानून को कागज़ों से भी अपने नये लेबर कोड के साथ ग़ायब करने की तैयारी में है। दिल्ली, चेन्नई, गुडगाँव, नोएडा, पुणे, कोलकता से लेकर भारत के हर कोने में मज़दूरों की कार्यस्थिति और जीवनस्थिति दुरूह होती जा रही है।

दीर्घकालिक महामन्‍दी के दौर में पूँजीपति वर्ग अपना विकल्‍प चुन रहा है। आज हमारे देश में जो फ़ासीवादी मोदी सरकार मौजूदा चुनाव में विपरीत लहर के बावजूद भी पूँजीपति वर्ग के भारी धनबल, ईवीएम, चुनाव आयोग और केन्द्रीय एजेंसियों के इस्तेमाल के ज़रिये 2024 लोकसभा चुनाव में जीतकर सत्ता में पहुँचने का ख़्वाब देख रही है, वही वह प्रतिक्रियावादी विकल्‍प है जिसे देश के विशेष तौर पर बड़े पूँजीपति वर्ग ने चुना है। मोदी सरकार ने पिछले दस सालों में देश भर में मज़दूरों की लूट और शोषण को सुगम बनाने के लिए श्रम क़ानूनों की धज्जियाँ उड़ा दी हैं, अप्रत्‍यक्ष टैक्सों के ज़रिये महँगाई बेतहाशा बढ़ायी है, पुलिस प्रशासन और मालिकों को मज़दूर आन्‍दोलन का दमन करने के लिए खुला हाथ दिया है और पब्लिक सेक्टर कम्‍पनियों को पूँजीपतियों को औने-पौने दाम में बेचा है। इन सब नीतियों की ओर हमारी नज़र और हमारा ध्‍यान न जाये इसलिए हमें हिन्दू-मुसलमान, मन्दिर-मस्जिद और ‘पाकिस्तान का ख़तरा’ जैसे झूठे मसलों में उलझाया जाता है और आपस में लड़ाकर असली मुद्दों पर एकजुट होकर लड़ने से रोका जाता है। साम्प्रदायिक फ़ासीवाद का काला नाग मज़दूर आन्दोलन को कुचल देने पर आमादा है। यह पैदा ही इसलिए होता है क्‍योंकि आर्थिक संकट में घिरे पूँजीपति वर्ग को मज़दूरों को निचोड़ने के लिए फ़ासीवादियों की ज़रूरत होती है। इस ज़हरीले नाग को कुचलने और अपने हक़-अधिकारों को प्राप्त करने के लिए हम मज़दूरों को ख़ुद को संगठित और गोलबन्द करने की तरफ़ आगे बढ़ना होगा और साथ ही शोषण और दमन के विरुद्ध जनता के विभिन्‍न हिस्‍सों के आन्दोलनों को भी समर्थन और नेतृत्व देना होगा। इसके लिए हमें धर्म और जाति की राजनीति का पूर्ण बहिष्‍कार करना होगा और धर्म को पूरी तरह से नागरिकों के व्‍यक्तिगत मसले में तब्‍दील करने की लड़ाई भी लड़नी होगी।

आज का मज़दूर वहाँ नहीं खड़ा है जहाँ 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में शिकागो, पेरिस या लन्दन का मज़दूर खड़ा था। हमारे समक्ष चुनौतियाँ नये स्‍तर पर हैं और हमारी संख्‍यात्‍मक शक्ति पहले के मुकाबले कई गुना बढ़ चुकी है हालाँकि आज हम बिखरे हुए हैं। भारत में 50 करोड़ से ज्‍़यादा मज़दूर हैं। मज़दूर वर्ग आज इस देश का सबसे बड़ा वर्ग है। शासक वर्ग ने हमारी ताक़त को बिखरने के लिए उत्पादन की प्रणाली को बिखरा दिया गया है जिस वजह से एक फैक्ट्री की छत में मज़दूरों का संगठित होना मुश्किल हो गया है। आज का कार्यभार है कि विभिन्न सेक्टरों के सभी मज़दूरों की एकजुट सेक्टरगत–पेशागत यूनियनें बनायी जायें और इलाकाई यूनियन भी खड़ी की जायें। दूसरी तरफ़ मालिक ठेका मज़दूरों और परमानेण्ट मज़दूरों के बीच भी दीवार खड़ी कर मज़दूर एकता को तोड़ते हैं। इसलिए एक ज़रूरी कार्यभार मुख्‍यत: ठेका मज़दूरों को आधार बनाने वाली यूनियनों को खड़ा करना है क्योंकि केवल ऐसी यूनियनों को खड़ा कर ही हम परमानेण्ट मज़दूरों के हक़-अधिकारों के लिए भी लड़ सकते हैं। दुनिया भर में मज़दूर आन्दोलन के बिखरने का एक कारण संशोधनवादी पार्टियों की घुसपैठ भी रही है जो मज़दूर आन्दोलन को केवल आर्थिक संघर्षों तक सीमित रखकर मज़दूर वर्ग की राजनीतिक चेतना को कुन्द करते हैं। हालाँकि इनकी पहुँच मुख्यतः औपचारिक क्षेत्र के मज़दूरों के बीच ही है लेकिन यह अपने कुकर्मों से समूचे मज़दूर आन्दोलन को प्रभावित करते हैं। हमें अपने बीच से इन भितरघातियों को खदेड़ देना होगा।

हम इस मायने में आज 19वीं सदी के मज़दूरों से भी बेहतर ज़मीन पर खड़े हैं क्योंकि हमारे पास पेरिस कम्यून, शिकागो के आन्‍दोलन, अक्टूबर क्रान्ति और महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति की गौरवशाली परम्परा खड़ी है। हमें आज नये सिरे से क्रान्तिकारी मज़दूर आन्दोलन को संगठित करना होगा। इस आन्दोलन का मक़सद केवल अपने आर्थिक संघर्षों तक सीमित नहीं होगा बल्कि मज़दूर वर्ग के ऐतिहासिक मिशन यानी समाजवाद के लिए संघर्ष करने का होगा। यही मई दिवस के योद्धाओं को सच्‍ची आदरांजलि होगी। 

 

मज़दूर बिगुल, मई 2024


 

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