जनता में मोदी सरकार विरोधी लहर के मद्देनज़र
लोकसभा चुनाव में ईवीएम, केन्द्रीय चुनाव आयोग (केचुआ) और न्यायपालिका से सहयोग के भरोसे मोदी सरकार
सम्पादकीय अग्रलेख
18वीं लोकसभा के लिए हो रहे आम चुनावों की वोटिंग का छठवाँ दौर होने वाला है। वैसे तो 44 दिनों में चुनावों को फैलाकर कराने का चुनाव आयोग का निर्णय ही सन्देहास्पद है क्योंकि यह सरकार में बैठी पार्टी को अन्य पार्टियों के मुकाबले कहीं ज़्यादा जोड़-तोड़ करने का मौक़ा देता है। सम्भवत: जब ‘मज़दूर बिगुल’ का मई अंक कुछ देरी से आपके हाथों में पहुँचेगा, तब तक यह छठवाँ दौर पूरा हो चुका होगा। इस दौर के आते-आते, अगर गोदी मीडिया और उसके फ़र्ज़ी चुनाव विश्लेषकों को छोड़ दें तो, सभी वास्तविक और निष्पक्ष चुनाव विश्लेषक बता चुके हैं कि भाजपा अपने बूते बहुमत की संख्या यानी 272 सीटों तक नहीं पहुँच सकती, यहाँ तक कि भाजपा-नीत गठबन्धन यानी राष्ट्रीय (जन)तान्त्रिक गठबन्धन भी इस बहुमत चिह्न तक पहुँचता नज़र नहीं आ रहा है। वैसे भी अब राजग में भाजपा के अलावा दुअन्नी-चवन्नी जैसे दल ही बचे हैं, जिन्हें राजनीतिक दल भी मुश्किल से ही कहा जा सकता है। वे जातिगत आधार पर सौदेबाज़ी के लिए बने प्रेशर ग्रुप्स कहे जा सकते हैं जिनकी अपने आप में कोई औक़ात नहीं है और वे आपराधिक हद तक मौक़ापरस्त लोगों से भरे हुए हैं। इसके अलावा, भाजपा ने जिन दलों को तोड़कर उनके एक हिस्से को नयी पार्टी बना दिया (जैसे शिवसेना-शिन्दे गुट और एनसीपी-अजित पवार गुट), वे “पार्टियाँ” भाजपा के साथ हैं, या नीतीश कुमार जैसे अव्वल दर्जे के सत्तालोलुप अवसरवादी दलाल भाजपा के साथ गठबन्धन हैं। आप स्वयं देखिए, आपको पता चल जायेगा कि ऐसे दलों के अलावा भाजपा-नीत राजग में अब कुछ नहीं बचा है। ऐसे दलों या व्यक्तियों का अपना स्वतन्त्र कोई अस्तित्व ही नहीं है। उनका राजनीतिक करियर ही भाजपा के बिना अब समाप्त है। ऐसे में, वास्तव में राजग में भाजपा के अलावा कुछ ख़ास बचा नहीं है।
अब जबकि राजग के लिए भी बहुमत के चिह्न तक पहुँचना तमाम निष्पक्ष और अनुभवी चुनाव विश्लेषकों के अनुसार मुश्किल दिख रहा है, तो सत्ता के लिए पगलायी मोदी-शाह जोड़ी किन तरक़ीबों के भरोसे है?
पहला, उनकी पुरानी तरक़ीब: मुसलमान, पाकिस्तान आदि का नकली भय पैदाकर निकृष्ट कोटि का साम्प्रदायिक प्रचार और बयानबाज़ी और अन्धराष्ट्रवाद की फ़र्ज़ी लहर फैलाना; दूसरा, केचुआ (केन्द्रीय चुनाव आयोग) के ज़रिये, जो कि मोदी–शाह के लोगों का ही अड्डा बन चुका है, ईवीएम के आधार पर चल रही चुनाव की निहायत सन्देहास्पद प्रक्रिया और वोटिंग के आँकड़ों में हेर–फेर कर चुनाव के नतीजों में गड़बड़ी करना; तीसरा, कई निर्वाचन मण्डलों में विशेष तौर पर मुसलमानों और कुछ अन्य समुदायों के लोगों के नाम वोटर लिस्ट से हटवाना जो भाजपा को वोट नहीं करते रहे हैं; और चौथा, पुलिस व सैनिक व अर्द्धसैनिक बलों के भीतर फ़ासीवादी घुसपैठ का इस्तेमाल कर कई इलाकों में उन समुदायों के लोगों को वोट डालने से रोकना, उसमें बाधा पैदा करना और फ़र्ज़ी जाँच के ज़रिये उन लोगों से वोटिंग का अधिकार छीनना, जिनसे भाजपा को वोट मिलने की कोई उम्मीद नहीं है। इन चार तरक़ीबों के आधार पर भाजपा अपनी सरकार के विरुद्ध पूरे देश में असन्तोष और गुस्से की लहर के बावजूद तीसरी बार नरेन्द्र मोदी को सत्ता में पहुँचाने की फ़िराक़ में है। हम यह बात किस आधार पर कह रहे हैं? इन सभी के ठोस सबूत मौजूद हैं। आइए, देखते हैं कैसे।
पहली तरक़ीब के प्रमाण देखें : नरेन्द्र मोदी और भाजपा के कई नेता लगातार सीधे-सीधे साम्प्रदायिक बयान दे रहे हैं। मोदी ने ही पहले अपनी चुनावी सभाओं में कहा कि अगर ‘इण्डिया’ गठबन्धन के लोग सत्ता में आये तो वे लोगों की सम्पत्ति छीनकर उन्हें दे देंगे जो “घुसपैठिये” हैं और “ज़्यादा बच्चे पैदा करते हैं”! मनमोहन सिंह के एक पुराने बयान को मोदी ने अपनी बात के प्रमाण के तौर पर तोड़-मरोड़कर पेश किया, जिसमें मनमोहन सिंह ने वास्तव में ऐसी कोई बात नहीं कही थी। ज़ाहिर है, यह एक साम्प्रदायिक कथन था जिसमें इशारा सीधे मुसलमानों के प्रति किया गया था और उसके लिए मुसलमानों के प्रति संघी हाफ़पैण्टियों द्वारा फैलाये गये पूर्वाग्रहों का इस्तेमाल किया गया था। क्योंकि आँकड़ों से देखें तो न तो मुसलमान हिन्दुओं से ज़्यादा बच्चे पैदा करते हैं और न ही वे घुसपैठिये हैं। वे इसी देश के नागरिक हैं। इनकी नागरिकता पर मोदी सवाल इसलिए खड़ा कर रहा है क्योंकि संघी हाफ़पैण्टियों की नागरिकता की अवधारणा ही धर्म पर आधारित है। सीधे-सीधे साम्प्रदायिक बयानबाज़ी का अगला उदाहरण था जिसमें मोदी ने दावा किया कि कांग्रेस हिन्दू औरतों का मंगलसूत्र छीन लेगी; इसके बाद दावा किया गया कि अगर आपके पास दो भैंस है, तो एक भैंस छीन कर कांग्रेस अपने चहेतों (यानी मुसलमानों!) को दे देगी! इसी प्रकार, मीट-मछली खाने को लेकर भी साम्प्रदायिक और फ़िरकापरस्त बयानबाज़ियाँ हार के डर से घबराये मोदी और भाजपा नेता लगातार किये जा रहे हैं। यह हार की घबराहट में मोदी की बौखलाहट को दिखला रहा है।
लेकिन केचुआ (केन्द्रीय चुनाव आयोग) वाकई एक रीढ़विहीन केचुए की तरह बर्ताव कर रहा है। इस सारी साम्प्रदायिक बयानबाज़ियों और चुनावी भाषणों के बाद केचुआ क्या करता है? वह मोदी को कोई चेतावनी नहीं देता, उसके नामांकन को रद्द कर उसे अयोग्य नहीं घोषित करता! वह सभी पार्टियों को एक सुझाव जारी करता है और भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा को पत्र लिखता है! यह सम्पादकीय लिखे जाने तक भी साम्प्रदायिक आधार पर भाजपा नेता लगातार चुनावी भाषण दे रहे हैं, धर्म को खुल्लमखुल्ला इस्तेमाल कर रहे हैं, राम मन्दिर के नाम पर वोट माँग रहे हैं, पुरी में तो भाजपा नेता सम्बित पात्रा ने हिन्दू धर्म के एक भगवान जगन्नाथ को ही मोदी का भक्त बता दिया! लेकिन चुनाव आयोग कुछ भी नहीं बोल रहा। पूरे देश से हज़ारों शिक़ायत पत्र इस बारे में चुनाव आयोग को भेजे जा चुके हैं और लेकिन वह कुछ भी जवाब नहीं दे रहा है। स्पष्ट है, चुनाव आयोग मोदी की गोद में बैठा है। बैठा भी क्यों न हो? चुनाव आयुक्त हैं कौन लोग? तीन में से दो चुनाव आयुक्तों को नियुक्त करने से पहले भाजपा ने चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के नियमों में परिवर्तन कर एक ऐसी नयी व्यवस्था लायी जिसमें यह नियुक्ति करने वाले निकाय में तीन लोगों का प्रावधान किया गया : प्रधानमन्त्री, केन्द्रीय गृहमन्त्री और प्रमुख विपक्षी दल के नेता। ऐसे में, बहुमत तो हमेशा सरकार का ही होगा और नतीजतन चुनाव आयुक्त वे ही लोग चुने जायेंगे जो मोदी-शाह को भायेंगे! ऐसा ही हुआ भी। तो केचुआ की रीढ़ ग़ायब है, तो इसमें ताज्जुब करने वाली कोई बात नहीं है।
अब दूसरी तरक़ीब पर आते हैं : ईवीएम का इस्तेमाल और केचुआ व राज्यसत्ता के अंगों-उपांगों द्वारा चुनाव की प्रक्रिया और उनके नतीजों में गड़बड़ी। इसके तमाम प्रमाण तो 2019 के लोकसभा चुनावों से लेकर उसके बाद हुए सभी विधानसभा चुनावों में मिलते रहे हैं, लेकिन इस बार सबकुछ भयंकर और खुल्लमखुल्ला अन्दाज़ में हो रहा है। सबसे पहले तो ईवीएम का ही सवाल है, जिसकी अविश्वसनीयता मौजूदा चुनावों की प्रक्रिया में भी बार-बार सामने आ चुकी है। पहला सवाल तो ईवीएम मशीनों में ही गड़बड़ किये जाने का है। दूसरा प्रश्न है वोटिंग के बाद ईवीएम के भण्डारण से जुड़े मानकों का पालन न किया जाना, जिसकी वजह से बाद में उनमें गड़बड़ी करना या उनकी जगह दूसरी ईवीएम मशीनों को रख देना सम्भव हो जाता है। ग़ौरतलब है कि 19 लाख ईवीएम मशीनें ग़ायब हैं! इतनी ईवीएम मशीनें कहाँ गयीं? यह पूरा मसला भयंकर है और चिन्ताजनक सन्देह के घेरे में है। तीसरी बात, केचुआ ईवीएम के उत्पादन में कौन से उपक्रम या कम्पनियाँ लगीं हैं, इसे तक ज़ाहिर नहीं करना चाहता है। जहाँ तक सूचना है, ईवीएम की मैन्युफ़ैक्चरिंग की प्रक्रिया में ही भाजपाइयों और संघी हाफ़पैण्टियों को घुसाया जा चुका है। ईवीएम मशीनों की प्रोग्रामिंग व सोर्स कोड को उजागर करने पर भी केचुआ सीधा इंकार कर चुका है। ऐसे में, ईवीएम के बारे में जनता कुछ नहीं जान सकती। उसे कौन बनाता है, उसकी सोर्स कोड व प्रोग्रामिंग के विवरण क्या हैं, 19 लाख ईवीएम ग़ायब कैसे हो गयीं, इसके बारे में केचुआ व सरकार ने क्या किया? ये सारे सवाल ईवीएम मशीनों को सीधे सन्देहास्पद बना देते हैं। न्यायपालिका के सर्वोच्च शिखर सुप्रीम कोर्ट तक के सामने ये सारे सवाल रखे गये। उससे याचिकाकर्ताओं ने पूछा कि इन सारे सन्देहों का आंशिक इलाज, यानी कम-से-कम 100 प्रतिशत वीवीपैट मिलान, क्यों नहीं किया जा सकता, तो इस पर सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को जवाब देने को कहा और जब चुनाव आयोग ने बोल दिया कि यह सम्भव नहीं है क्योंकि यह बहुत भारी-भरकम उपक्रम बन जायेगा और जनता को ज़्यादा सन्देह करने की आदत से मुक्त हो जाना चाहिए तो सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग से कहा, “ओके” और फिर याचिकाकर्ताओं की ओर पलटा और उनको ही डाँटकर उनकी याचिका ख़ारिज कर दी और कहा कि ज़्यादा शक़ करना अच्छी बात नहीं है! यह किस प्रकार का निर्णय है?
ईवीएम पर शक़ एकदम वाजिब शक़ है और इस प्रकार के सन्देह और प्रश्नों से ही जनता एक पूँजीवादी व्यवस्था में हासिल बेहद सीमित जनवादी अधिकारों की हिफ़ाज़त कर सकती है। उन सन्देहों का निवारण करना इस व्यवस्था के निकायों, यानी उसकी कार्यकारिणाी और न्यायपालिका का कर्तव्य है। लेकिन ऐसा करने के बजाय जनता को ही शक़ न करने की सलाह दी जा रही है! वह भी तब जबकि इन सन्देहों का एकदम ठोस आधार है और इन चुनावों में दोबारा ये शक़ पुख़्ता हो रहे हैं। पिछले आम चुनावों में ही 544 में से 373 सीटों पर ईवीएम के वोटों की संख्या ग़लत पायी गयी थी। जहाँ तक वीवीपैट मिलान की प्रक्रिया के भारी-भरकम होने का प्रश्न है, तो अगर पूँजीवादी लोकतन्त्र की सबसे बुनियादी प्रक्रिया, यानी अपने प्रतिनिधियों को चुनने और प्रतिनिधि के तौर पर चुने जाने के अधिकार की पारदर्शिता और विश्वसनीयता को सुनिश्चित करने का प्रश्न हो, तो उस पर पर्याप्त धन और सरकारी तन्त्र की शक्ति को क्यों नहीं ख़र्च किया जा सकता है? अगर देश के नेताओं–नौकरशाहों की ऐय्याशी, ऐशो–आराम और सुरक्षा पर हर वर्ष सरकार खरबों रुपये और लाखों सरकारी कर्मियों को लगा सकती है, तो चुनावों में जनता को मिलने वाले बुनियादी जनवादी अधिकार को सुनिश्चित करने के लिए यह ख़र्च और प्रयास क्यों नहीं किया जा सकता है? यह पूरा तर्क ही चालाकी भरा है कि भारत जैसे बड़े देश में बैलट पेपर से चुनाव नहीं हो सकते (पहले तो होते ही थे!) और सौ प्रतिशत वीवीपैट मिलान करना खर्चीला और भारी-भरकम है। नेताओं-मन्त्रियों के विलास और सुरक्षा के लिए उससे ज़्यादा ख़र्च और भार देश की मेहनतकश जनता उठाती है। जब वह भार उठाया जा सकता है, तो यह क्यों नहीं? ईवीएम और वीवीपैट मिलान को लेकर ये माँगें तब और महत्वपूर्ण हो जाती हैं, जब हमें पता चलता है कि ईवीएम की वोटिंग में पिछले आम चुनावों में 544 सीटों में से 373 सीटों पर गड़बड़ी निकली थी। जब एक समाचार वेबसाइट ने यह खुलासा केचुआ की सूचनाओं के आधार पर ही किया तो उसका केचुआ ने क्या जवाब दिया? कोई जवाब देने के बजाय उसने इस गड़बड़ी से जुड़ा डेटा ही अपनी वेबसाइट से हटा दिया! इन सब चीज़ों के बावजूद देश का सर्वोच्च न्यायालय पर आँखों पर पट्टियाँ बाँधे बैठा है। आम जनता को यह समझना चाहिए कि ऐसा नहीं है कि न्यायपालिका का कोई वर्ग चरित्र नहीं होता है। इस घटना और तमाम अन्य घटनाओं से यह बात साबित होती है। मसलन, इलेक्टोरल बॉण्ड के बारे में सूचना जारी करवाने का काम तो सुप्रीम कोर्ट ने करवाया लेकिन जब उसमें काले धन को सफेद बनाने के स्पष्ट प्रमाण कई कम्पनियों के मामले में नज़र आये तो उन कम्पनियों की जाँच और उन पर कार्रवाई का आदेश न्यायपालिका की ओर से क्यों नहीं दिया गया?
अब आते हैं चुनाव के दौरान वोटिंग के आँकड़े जारी करने में केचुआ द्वारा की जा रही चोरी और सीनाज़ोरी पर। वोटिंग होने के बाद केचुआ को 48 घण्टे के भीतर वोटिंग के सारे आँकड़े यानी वोटिंग प्रतिशत और साथ ही कुल डाले गये वोटों की संख्या अपनी वेबसाइट पर डालनी होती है। 1961 के चुनाव नियमों के अनुसार, केचुआ को दो फ़ॉर्म रखने होते हैं 17ए और 17सी। पहला वोटिंग बूथ में आने वाले हर वोटर के विवरण को दर्ज करता है और दूसरा सभी रिकॉर्डेड वोटों को दर्ज करता है। 17सी का पार्ट 1 बेहद महत्वपूर्ण होता है क्योंकि यह इसतेमाल की गयी ईवीएम मशीनों की पहचान संख्या और कुल डाले गये वोटों की संख्या को दर्ज करता है। साथ ही, 17सी यह भी दर्ज करता है कि कितने वोटरों ने वोट न डालने का फ़ैसला किया, कितनों को वोट डालने की अनुमति नहीं दी गयी, आदि। यह फ़ॉर्म वोटिंग समाप्त होने के बाद वोटिंग बूथ पर मौजूद चुनाव अधिकारी द्वारा उम्मीदवारों के एजेण्टों को देना होता है। कई जगहों पर तो इन अधिकारियों ने विपक्षी व निर्दलीय उम्मीदवारों को 17सी फॉर्म देने से ही इंकार कर दिया। मिसाल के तौर पर, वरिष्ठ अधिवक्ता महमूद प्राचा ने यह शिकायत दर्ज करायी है कि रिटर्निंग ऑफिसर ने उन्हें 17सी उपलब्ध ही नहीं कराया। वैसे भी राष्ट्रीय पार्टियों को छोड़ दिया जाय तो अधिकतम उम्मीदवार 1500-2000 पोलिंग बूथों पर अपने एजेण्ट भेज ही नहीं सकते। राष्ट्रीय पार्टियों में भी आज तो भाजपा के पास ही धनबल और फ़ासीवादी संघ परिवार के काडर ढाँचे के बूते यह ताक़त है। ऐसे में, 17सी को 48 घण्टे के भीतर केन्द्रीय चुनाव आयोग की वेबसाइट पर डालने की माँग एकदम जायज़ जनवादी माँग है। लेकिन केचुआ यह कहकर इसमें आनाकानी कर रहा है कि यह जानना जनता का अधिकार नहीं है! वाह! तो फिर किसका अधिकार है? यह सूचना किसी भी प्रकार से गोपनीय सूचना कैसे हो सकती है?
दूसरी बात यह कि चुनाव आयोग ने पहले व दूसरे दौर की वोटिंग के बारे में शुरू में जो आँकड़े बताये और बाद में जो आँकड़े बताये उसमें 5 प्रतिशत से ज़्यादा का अन्तर था। 19 अप्रैल को पहले दौर की वोटिंग के बाद उसी दिन शाम 7 बजे केचुआ ने बताया कि 60 प्रतिशत वोट पड़े हैं। दूसरे दौर की वोटिंग, यानी 26 अप्रैल के ठीक बाद शाम को केचुआ ने बताया कि 60.96 प्रतिशत वोट पड़े हैं। लेकिन 30 अप्रैल को केचुआ ने जो सूचना जारी की उसमें नये ही आँकड़े सामने आये! पहले दौर की वोटिंग में नये आँकड़ों के अनुसार 66.14 प्रतिशत वोट पड़े थे जबकि दूसरे दौर की वोटिंग में 66.71 प्रतिशत वोट पड़े थे! यानी दोनों दौरों के लिए नये आँकड़ों के अनुसार क्रमश: 5.5 प्रतिशत और 5.74 प्रतिशत वोट ज़्यादा पड़े थे! ये अतिरिक्त वोट कहाँ से आये? क्या आपको नहीं पता कि इतने फ़र्क़ से तो चुनावों में जीत–हार के नतीजा बदला जा सकता है?
इस पर विपक्षी दलों ने बहुत-सी आपत्तियाँ और सवाल उठाये, लेकिन केचुआ ने कोई जवाब नहीं दिया। इस पर एसोसियेशन फॉर डेमोक्रैटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) नामक एक एनजीओ ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की। चुनाव आयोग से कोर्ट ने जवाबतलब किया। एडीआर ने माँग की थी कि वोटर टर्नआउट का प्रतिशत क्या है और कुल डाले गये वोटों की संख्या क्या है, इसका पूरा डेटा चुनाव आयोग के पास 24 घण्टे के भीतर आ जाता है और यह सूचना कोई गुप्त सूचना नहीं है जिसे किसी से छिपाया जाये, तो केचुआ को इसे फौरन अपनी वेबसाइट पर डालना चाहिए और इसका सहज रास्ता यह है कि केचुआ हर जगह से प्राप्त 17सी फॉर्म की प्रतिलिपि को ही वेबसाइट पर अपलोड कर दे। ज़रा सुनिए, चुनाव आयोग ने कोर्ट में क्या जवाब दिया : चुनाव आयोग ने कहा कि वह क़ानूनी तौर पर यह सूचना वेबसाइट पर डालने को बाध्य नहीं है और जनता को इसे जानने का कोई बाध्यताकारी क़ानूनी अधिकार नहीं है! यह मोदी सरकार के दौर में समूचे फ़ासीवादी पूँजीवादी का नारा है : “जनता को जानने का अधिकार नहीं है।” जब इलेक्टोरल बॉण्ड के डाटा को सार्वजनिक करने की बात हुई थी तो भी चुनाव आयोग और सरकार ने कहा था कि जनता को यह जानने का अधिकार नहीं है कि किस चुनावी पार्टी को किस स्रोत से कितना चन्दा हासिल हुआ है। वास्तव में, इलेक्टोरल बॉण्ड की घपलात्मक योजना मोदी सरकार लायी ही इसलिए थी कि सारे पूँजीपतियों को काला धन सफेद करने का मौक़ा मिले और उसका कमीशन भाजपा को मिले, सारे पूँजीपतियों को चन्दे के बदले में धन्धा मिले, जो पूँजीपति इसमें आनाकानी करे, उस पर ईडी और सीबीआई और आयकर विभाग के छापे डलवाकर बाँह मरोड़कर चन्दा वसूला जाये। यह बात अब जनता के सामने आ चुकी है। तब भी मोदी सरकार का नारा था “जनता को जानने का अधिकार नहीं!” अब जब जनता की ओर से वोटिंग के समस्त आँकड़ों को तत्काल सार्वजनिक करने की माँग की जा रही है, तो भी मोदी सरकार और उसकी गोद में बैठे केन्द्रीय चुनाव आयोग का यही नारा है : “जनता को जानने का अधिकार नहीं है।” यह किस प्रकार का तर्क है? औपचारिक तौर पर तो पूँजीवादी व्यवस्था भी मानती है कि विदेश सम्बन्धों से जुड़े खुफ़िया मामलों के अलावा (हालाँकि ये भी खुफ़िया रखने की ज़रूरत पूँजीवाद में ही होती है!) जनता को सबकुछ जानने का अधिकार है। और क्यों नहीं होना चाहिए? ऐसे अश्लील तर्क आज मोदी सरकार और उसकी गोद में बैठे राज्यसत्ता के तमाम निकाय सुप्रीम कोर्ट तक में रखते हैं और कोर्ट उसे सुनता है और फिर जनता की ओर से सूचना माँग रहे याचिकाकर्ताओं को ही फटकार लगाकर उनकी याचिका रद्द कर देता है!
साफ़ है कि ईवीएम में गड़बड़ी से लेकर चुनाव में वोटिंग के आँकड़ों तक में हेराफेरी किये जाने का सन्देह बेहद सशक्त है और उसकी मज़बूत बुनियाद है। ये बेबुनियाद शक़ नहीं हैं। भाजपा द्वारा खुले तौर पर साम्प्रदायिक प्रचार और भाषणों पर केचुआ की रीढ़विहीन चुप्पी उसके मोदीपरस्त होने के सन्देहों को पुष्ट करती है।
राज्यसत्ता के समस्त निकायों में फ़ासीवादी घुसपैठ और उसके ऊपर आन्तरिक क़ब्ज़े की बात हम पिछले कई वर्षों से कहते आये हैं और ये सारा घटनाक्रम उसे सही सिद्ध कर रहा है। आज पूँजीवादी जनवाद का महज़ खोल बाकी है। औपचारिक तौर पर वोटिंग होती है लेकिन उसके भी निष्पक्ष, न्यायपूर्ण, पारदर्शी और ईमानदार होने पर गम्भीर सवालिया निशान हैं। और जब जनता उसके बारे में जानना चाहती है तो फ़ासीवादी सरकार का नारा होता है : “जनता को जानने का अधिकार नहीं!” भाजपा के खिलाफ़ बड़े पैमाने पर वोटिंग के कारण तमाम भ्रष्टाचार और हेरफेर के बावजूद अगर भाजपा चुनाव हारकर सरकार से बाहर भी हो जाये, तो राज्यसत्ता में उसकी घुसपैठ पर केवल मात्रात्मक असर ही पड़ सकता है। राज्यसत्ता और समाज में संघ परिवार की फ़ासीवादी घुसपैठ मौजूद रहेगी। दीर्घकालिक मन्दी के दौर में, किसी अन्य ग़ैर–फ़ासीवादी दल या दलों के गठबन्धन की सरकार के फ़र्ज़ी कल्याणवाद के किसी भी दौर की असफलता तय है और उस असफलता की सूरत में समाज में टुटपुँजिया वर्गों और छोटे पूँजीपति वर्ग की प्रतिक्रिया नये सिरे से उभरेगी, समूचा पूँजीपति वर्ग और भी निर्णायक तरीके से भाजपा व संघ परिवार की बाँहों में जायेगा और पहले से भी आक्रामक तरीके से भाजपा की कोई सरकार आयेगी, जिसके शीर्ष पर कोई ऐसा भयंकर साम्प्रदायिक और दंगाई नेता होगा, जिसकी तुलना में नरेन्द्र मोदी इस देश के लिबरलों को लिबरल लगने लगेगा और वे उसे नॉस्टैल्जिक होकर वैसे ही याद करने लगेंगे जैसे आज आडवाणी और वाजपेयी को करते हैं! फ़ासीवाद की निर्णायक हार के लिए जनता की शक्तियों को क्रान्तिकारी हिरावल मज़दूर पार्टी के नेतृत्व में जुझारू जनान्दोलन खड़े करने होंगे, उन्हें आम क्रान्तिकारी राजनीतिक आन्दोलन के रूप में विकसित करना होगा और अन्तत: उसे मौजूदा व्यवस्था के ध्वंस और एक समाजवादी व्यवस्था की स्थापना और निर्माण तक पहुँचाना होगा। लेकिन अभी हम इस सम्पादकीय लेख की मूल विषयवस्तु पर लौटते हुए कुछ और बातें कहना चाहेंगे।
साम–दाम–दण्ड–भेद से चुनावों में जीत हासिल करने के लिए मोदी–शाह की तीसरी और चौथी तरक़ीबें क्या हैं? तीसरी तरक़ीब है कई इलाकों से वोटर लिस्ट से उन समुदायों के वोटरों के नाम हटाने की रपटें सामने आ चुकी हैं, जिनकी ओर से भाजपा को आम तौर पर वोट नहीं पड़ते। 26 अप्रैल को मथुरा में अनेक मुसलमान वोटरों ने पाया कि उनका नाम वोटर लिस्ट से हटा दिया गया है। इसी प्रकार, गुजरात में 700 मुसलमान मछुआरों के नाम वोटर लिस्ट से ग़ायब थे। इसी प्रकार के मामले पूरे देश से सामने आये हैं। अगर उन्हें जोड़ दिया जाय तो कुल हज़ारों या लाखों वोटों का फ़र्क आ जायेगा। इसी प्रकार, चौथी तरक़ीब यह है कि लोगों को वोट डालने से रोका जाये, विशेषकर उन लोगों को जिनके भाजपा को वोट देने की गुंजाइश बेहद कम है। इसके लिए पुलिस व अर्द्धसैनिक बलों और प्रशासन के भीतर फ़ासीवादी घुसपैठ का इस्तेमाल किया जा रहा है। उत्तर प्रदेश और उत्तर भारत के कई अन्य हिस्सों में उन निर्वाचन मण्डलों में वोटरों की लाइन में विशेष तौर पर पिछड़े व मुसलमान वोटरों के उन पहचान-पत्रों को जाँचा गया, जिसकी वोट डालने के लिए कोई आवश्यकता ही नहीं होती है और उनके न मिलने पर उन्हें वोट डालने की इजाज़त नहीं दी गयी। इसी प्रकार, अन्य कई शहरों से यह रिपोर्ट आयी कि कई स्थानों पर लोगों को वोट नहीं डालने दिया गया। यहाँ पर भी हम देख सकते हैं कि समूची राज्यसत्ता की मशीनरी पर अन्दर से क़ब्ज़े का भाजपा व संघ परिवार किस तरह से इस्तेमाल कर रहे हैं। ऐसे में, क्या मौजूदा चुनावों को किसी भी रूप में पूँजीवादी जनवादी मानकों से भी निष्पक्ष, स्वतन्त्र या पारदर्शी माना जा सकता है? जो मानता है, वह या तो मोदीभक्त है या फिर उसे दिमाग के डॉक्टर की ज़रूरत है। पूरी प्रक्रिया ही भाजपा द्वारा हेरफेर और भ्रष्टाचार से भरी हुई है।
इन चार तरक़ीबों के अलावा कुछ आम तरक़ीबें भी हैं जिनका भाजपा लम्बे समय से इस्तेमाल करती आ रही है। पिछले चुनावों में कुछ सीटों पर ऐसा हुआ कि भाजपा बेहद छोटे से मार्जिन से चुनाव हार या जीत रही थी। इनमें अभी पोस्टल बैलट की संख्या को नहीं जोड़ा गया था। बाद में पोस्टल बैलट की संख्या को जोड़ने पर अगर भाजपा छोटे मार्जिन से हार रही थी, तो चुनाव अधिकारियों ने कई पोस्टल बैलटों को रद्द कर दिया ताकि भाजपा जीत जाये। धोलका विधायक सीट को भाजपा के मौजूदा यूनियन मन्त्री भूपेन्द्र सिंह चुडासामा ने इसी प्रकार जीता था। वहाँ 429 पोस्टल बैलट में से 327 रद्द कर दिये गये। अगर ऐसा न किया जाता तो कांग्रेस प्रत्याशी जीत गया होता। ग़ौरतलब है कि यह चुनाव अधिकारी था धवल जारी जो स्वयं चुडासामा के मातहत एक अधिकारी के रूप में काम करता था, जब चुडासामा राजस्व मन्त्री था। पूँजीपति वर्ग के हितों की हिफ़ाज़त की बात आती है, तो सुप्रीम कोर्ट अपने से तमाम मसलों का संज्ञान लेता है और आदेश देता है। लेकिन इतने महत्वपूर्ण मसले पर कोई क़दम नहीं उठाया जाता। इसके अलावा, विपक्षी दलों के प्रत्याशियों को ख़रीद लेना, ग़ायब करवा देना, उन्हें केन्द्रीय एजेंसियों के छापों, जेल आदि से डरा देना, उनके नामांकन रद्द करवा देना, विपक्षी दलों को तोड़कर उनके छद्म प्रतिद्वन्द्वी खड़े करवा देना और इस पर सैकड़ों करोड़ रुपये ख़र्च कर देना फ़ासीवादी रंगा–बिल्ला की जोड़ी के लिए बायें हाथ का खेल है। देश के पूँजीपतियों से 12-14 हज़ार करोड़ रुपये का चन्दा इलेक्टोरल बॉण्ड के ज़रिये भाजपा को यूँ ही थोड़े ही दिया था! पूँजीवादी चुनावों में धनबल हमेशा ही प्रमुख भूमिका अदा करता है लेकिन भाजपाई फ़ासीवादियों के दौर में धनबल का ऐसा नंगनाच भारत की जनता ने कभी नहीं देखा था। जहाँ भाजपाई हारते हैं, वहाँ भी जीतने वाले दल या दलों के विधायकों, सांसदों, आदि को ख़रीद लेते हैं। मतलब, चुनाव कोई भी जीते, सरकार भाजपा की बनती है! इसीलिए तो भाजपाइयों का नारा है कि “आयेगा तो मोदी ही!” राजनीतिक नंगई और अश्लीलता की हद यह है कि इसे ‘ऑपरेशन कमल’ का नाम दिया जाता है और अब गोदी मीडिया के दलालों ने इसे एक स्वीकार्य बात बना दिया है!
ऐसे में देश की जनता को सोचने की ज़रूरत है कि लोकतन्त्र के फटे लबादे के नीचे वास्तव में बचा क्या है? समानता, स्वतन्त्रता, भ्रातृत्व, क़ानून के समक्ष समानता, पारदर्शिता, जवाबदेही, आदि शब्दों को सुनते ही क्या अधिकांश लोगों की फिक् से हँसी नहीं छूट जाती है? लेकिन इस पर हँसना अपने आप पर हँसना होगा। इसलिए सबसे पहले पूँजीवादी लोकतन्त्र द्वारा जनता के संघर्षों के कारण दिये जाने वाले सबसे बुनियादी राजनीतिक जनवादी अधिकारों की रक्षा के लिए अगर हम सड़कों पर नहीं उतरेंगे, गोलबन्द नहीं होंगे, संगठित नहीं होंगे तो इसके भयंकर नतीजे हम और हमारी आने वाली पुश्तें भोगेंगी।
इस स्थिति को पैदा होने से रोकने के लिए दूरगामी कार्यभार यह है कि हम एक क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी का निर्माण और गठन करें, उसे पूरी तरह से जनता की राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक ताक़त पर खड़ा करें ताकि उसकी राजनीतिक स्वतन्त्रता हमेशा बरकरार रहे, जनता के सभी असली ठोस मुद्दों पर जनता के सभी वर्गों (जनता में पूँजीपति वर्ग और उसके चाकरों के हिस्से नहीं शामिल होते; परिभाषत: जनता वह होती है जो शोषण, उत्पीड़न और दमन के शिकार वर्ग होते हैं) को संगठित कर जुझारू जनान्दोलन खड़े करें चाहे वह बेरोज़गारी हो, महँगाई हो, भुखमरी हो, कुपोषण हो, बेघरी हो, सामाजिक असमानता हो; इन जुझारू जनान्दोलनों को क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी के नेतृत्व में एक देशव्यापी क्रान्तिकारी आन्दोलन का स्वरूप दिया जाय और मौजूद पूँजीवादी व्यवस्था और उसकी राज्यसत्ता को ही उखाड़ फेंका जाये।
लेकिन इसके लिए आज के दौर में जनता की क्रान्तिकारी शक्तियों को वक्त, मौक़ा और मोहलत चाहिए क्योंकि वे देश के पैमाने पर बिखरी हुई हैं; जनता को एक क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी के नेतृत्व में गोलबन्द और संगठित करने के लिए आज यह ज़रूरी तात्कालिक कार्यभार बन जाता है कि भाजपा को मौजूदा चुनावों में हराया जाये और उसे एक तात्कालिक झटका दिया जाये। इसी से फ़ासीवादी संघ परिवार और भाजपा की निर्णायक पराजय नहीं होगी क्योंकि पिछले 7 दशकों में और विशेष तौर पर पिछले 4 दशकों में संघ परिवार ने समूची भारतीय पूँजीवादी राज्यसत्ता के भीतर लगातार निरन्तरता के साथ जारी घुसपैठ के ज़रिये एक आन्तरिक क़ब्ज़ा कर लिया है, अन्दर से उसे टेकओवर कर लिया है। भाजपा और संघ परिवार जानते हैं कि इक्कीसवीं सदी में वे हिटलर और मुसोलिनी के समान आपवादिक क़ानून लाकर संसद, विधानसभा और पूँजीवादी चुनावों को ही भंग करके खुली तानाशाही क़ायम करेंगे तो उनका अन्त और ध्वंस भी उसी प्रकार होगा जैसा कि बीसवीं सदी की फ़ासीवादी और धुर–दक्षिणपंथी तानाशाहियों का हुआ है। फ़ासीवादियों ने भी अपने पुरखों और उनके अनुभवों से सीखा है। इसलिए इक्कीसवीं सदी में फ़ासीवादियों ने हमारे ही नहीं बल्कि अन्य देशों में यह रणनीति अपनायी है: बुर्जुआ जनवाद के खोल को बनाये रखो; चुनाव करवाते रहो; लेकिन सारी पूँजीवादी जनवादी प्रक्रियाओं को संस्थाओं को पूँजीवादी राज्यसत्ता का भीतर से टेकओवर करके उन्हें इस कदर खोखला और निष्प्रभावी बना दो कि पूँजीवादी जनवाद महज़ खोल, महज़ उसका लबादा बाकी बचा रह जाये, लेकिन उसकी अन्तर्वस्तु क्रमिक प्रक्रिया में मरती जाये। निश्चित तौर पर, इस रणनीति के कुछ आन्तरिक अन्तरविरोध होंगे ही होंगे। मसलन, फ़ासीवादी भाजपा चुनाव हारकर कई बार सरकार से बाहर भी हो सकती है। लेकिन, जैसा कि हमने ऊपर उल्लेख किया है, दीर्घकालिक मन्दी के दौर में किसी भी अन्य पूँजीवादी सरकार द्वारा दिखावटी कल्याणवाद के प्रयास भी असफल होंगे, पूँजीवादी व्यवस्था के संकट को बढ़ायेंगे, टुटपुँजिया व छोटे पूँजीपति वर्ग की असुरक्षा को बढ़ायेंगे और नतीजतन नये सिरे से और भी आक्रामक फ़ासीवादी उभार और उनके वापस सरकार बनाने की परिणति तक पहुँचेंगे। पूँजीवाद के गहराते संकट और समाज व राजनीति में संघ परिवार और भाजपा के फ़ासीवाद की आन्तरिक पकड़ के नतीजे के तौर पर 1998 से यही तो होता रहा है। इसलिए यह समझना ज़रूरी है कि अगर मोदी चुनाव हारता है तो भी यह फ़ासीवाद की फ़ैसलाकुन हार नहीं होगी। फ़ासीवाद की निर्णायक पराजय इक्कीसवीं सदी में नयी समाजवादी क्रान्ति के साथ जुड़ गयी है। वह युग बीत गया जब कोई पॉप्युलर फ्रण्ट के आधार पर बनी जनवादी बुर्जुआ सरकार, कोई अन्य पूँजीवादी सरकार फ़ासीवाद को निर्णायक शिकस्त दे पाती। यहाँ तक कि बीसवीं सदी में भी ऐसा कोई युग वास्तव में था, यह बहस का मसला है। लेकिन आज तो ऐसी बात भी करना मूर्खतापूर्ण है। आज पूँजीपति वर्ग ही इस बात की इजाज़त नहीं देगा कि कोई गैर-फ़ासीवादी पूँजीवादी दल की सरकार फ़ासीवादी संघ परिवार और भाजपा पर प्रतिबन्ध लगाये (जिसके पर्याप्त कारण पूँजीवादी मानकों से भी मौजूद हैं!) या उनकी लगाम कसे। यही तो वजह थी कि बजरंग दल पर प्रतिबन्ध लगाने का वायदा करने के बावजूद कर्नाटक में सरकार बनाने के बाद कांग्रेस सीधे-सीधे इस वायदे से मुकर गयी।
फ़ासीवादी चुनौती को शिकस्त देने के लिए उपरोक्त दूरगामी कार्यक्रम और तात्कालिक कार्यक्रम के मद्देनज़र हमें एक भी क्षण गँवाए बिना तैयारियाँ शुरू करनी होंगी। चुनावों तक हमारा सबसे अहम कार्यभार है: भाजपा को हराना। जहाँ पर क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी के उम्मीदवार हों, वहाँ उन्हें वोट देकर स्वतन्त्र सर्वहारा पक्ष का निर्माण करते हुए यह कार्य करना और जहाँ मेहनतकश वर्ग का ऐसा प्रत्याशी नहीं है, वहाँ पर भाजपा की हार को सुनिश्चित करने के लिए जिस रूप में ज़रूरी हो उस रूप में वोट देना व्यापक मेहनतकश जनता के लिए ज़रूरी तात्कालिक कार्यभार है। इस कार्यभार का यह दूसरा नारा तात्कालिक विशिष्ट रणकौशलात्मक नकारात्मक नारा है, सकारात्मक नारा नहीं। सर्वहारा वर्ग फ़ासीवाद को हराने के लिए कभी सकारात्मक तौर पर किसी पूँजीवादी पार्टी को वोट देकर राजनीतिक तौर पर उसका पिछलग्गू नहीं बन सकता है। यह फ़ासीवाद को हराने के नाम पर अपनी राजनीतिक स्वतन्त्रता को खोना है। सच है कि यह नकारात्मक नारा एक मजबूरी का तात्कालिक विकल्प है। लेकिन क्रान्तिकारी यथार्थवाद के आधार पर, जब पूरे देश में कोई देशव्यापी क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी नहीं मौजूद है, तो सर्वहारा वर्ग एक ऐसे तात्कालिक विशिष्ट रणकौलशलात्मक नकारात्मक नारे पर ही अमल करने का आह्वान कर सकता है, ठीक इसलिए कि देश में ऐसा देशव्यापी सर्वहारा विकल्प खड़ा करने के लिए जो वक़्त, मौक़ा और मोहलत चाहिए उसके लिए तात्कालिक तौर पर भाजपा को सरकार से बाहर करना और फ़ासीवाद के विरुद्ध जुझारू जनान्दोलन खड़ा करने की तैयारियाँ शुरू करना एक अहम क़दम बन जाता है।
मज़दूर बिगुल, मई 2024
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