क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षणमाला – 19 : पूँजी का संचय
अध्याय – 15 (पिछले अंक से जारी)
अभिनव
बेशी मूल्य के पूँजी व आमदनी में विभाजन से स्वतन्त्र वे कारक जो पूँजी संचय की दर को निर्धारित करते हैं
हमने अभी तक देखा कि पूँजी संचय की दर को निर्धारित करने वाला औपचारिक कारक वह अनुपात है जिसमें बेशी मूल्य को आय (revenue) यानी पूँजीपति के उपभोग में जाने वाली राशि और पूँजी में तब्दील की जाने वाली राशि यानी पूँजीकृत बेशी मूल्य (capitalized surplus value) में विभाजित किया जाता है। लेकिन यह विभाजन स्वयं अन्य कारकों से तय होता है। मसलन, मुनाफ़े की औसत दर, जिस पर हम आगे आयेंगे।
लेकिन वे आधारभूत और सारभूत कारक क्या हैं, जिनके आधार पर पूँजी संचय की दर निर्धारित होती है? मार्क्स बताते हैं कि वे आधारभूत कारक वही हैं जो बेशी मूल्य की दर और मात्रा को निर्धारित करते हैं। यानी, श्रम के शोषण की दर, यानी कि अतिरिक्त श्रम और आवश्यक श्रम का अनुपात, या बेशी मूल्य और मज़दूरी का अनुपात। यह अनुपात अपने आप में तीन कारकों पर निर्भर करता है: पहला, कार्यदिवस की लम्बाई; दूसरा, श्रमशक्ति के मूल्य को कम करना; तीसरा, श्रम की सघनता को बढ़ाना। इसके अलावा, यदि श्रम के शोषण की दर समान रहे, तो भी श्रम की उत्पादकता में वृद्धि पूँजी संचय की दर को बढ़ाती है।
पहली बात, जिसे यहाँ समझना ज़रूरी है वह यह है कि मज़दूरी (यानी ‘श्रम की कीमत’ या श्रमशक्ति की कीमत) हमेशा श्रमशक्ति के मूल्य के बराबर नहीं होती है। पूँजीपति हमेशा यह कोशिश करते हैं कि मज़दूरी को अधिकतम सम्भव नीचे रखा जाय। मार्क्स लिखते हैं :
“याद रहे कि बेशी मूल्य की दर सबसे पहले श्रमशक्ति के शोषण की दर पर निर्भर करती है। राजनीतिक अर्थशास्त्र इस बात पर इतना ज़ोर देता है कि अक्सर वह श्रम की उत्पादकता में होने वाली बढ़ोत्तरी के कारण संचय की गति त्वरित होने और मज़दूर के शोषण में होने वाली बढ़ोत्तरी के कारण संचय की गति त्वरित होने को एक ही समझ बैठती है। बेशी मूल्य के उत्पादन पर केन्द्रित अध्यायों में हमने लगातार यह माना था कि मज़दूरी कम-से-कम श्रमशक्ति के मूल्य के बराबर है। लेकिन श्रम की मज़दूरी को इसके मूल्य से जबरन कम करना व्यावहारिक मसलों की गति में इतनी अहम भूमिका निभाता है कि हमें कुछ समय इस परिघटना पर ख़र्च करना ही चाहिए। वास्तव में, यह मज़दूर के उपभोग के लिए आवश्यक निधि को पूँजी के संचय के लिए निधि में तब्दील कर देता है।” (कार्ल मार्क्स। 1990. पूँजी, खण्ड-1, पेंगुइन बुक्स, लन्दन, पृ. 747-48, अनुवाद हमारा)
पूँजीपति हमेशा चाहता है कि मज़दूरी को कम-से-कम दरों पर रखा जाय और इसके लिए हर सम्भव प्रयास करता है। मार्क्स दिखलाते हैं कि सत्रहवीं सदी से ही इंग्लैण्ड में उद्योगपति, पूँजीवादी फ़ार्मर व अन्य पूँजीवादी उद्यमी किस प्रकार मज़दूरों की मज़दूरी को इस स्तर पर रखने का प्रयास करते थे, जिस पर मज़दूर मुश्किल से अपने परिवार को ज़िन्दा रख पाते थे। पूँजीपति वर्ग के कई घाघ “बुद्धिजीवी” मज़दूरों के खान-पान को बेहद सस्ता बनाने के तरीक़े बताया करते थे, मसलन, किस प्रकार मज़दूर प्रोटीन व अन्य पोषक तत्वों से रिक्त भोजन, यानी माँस-मछली व अन्य पोषक भोज्य पदार्थों के बिना भी काम करने लायक बना रह सकता है! ज़ाहिर है, यह नुस्खे कभी अमीरज़ादों और धन्नासेठों और उनकी औलादों के लिए नहीं बताये जाते थे। लेकिन मज़दूरों को उस स्तर और उस रूप में कम–से–कम मज़दूरी पर ज़िन्दा रखना हमेशा पूँजीपतियों का लक्ष्य होता है, जिससे कि वह जब तक ज़िन्दा रहे, पूँजीपति के कारखाने या पूँजीवादी फार्मरों के खेतों में खट सके और उनके लिए बेशी मूल्य पैदा करता रह सके।
इसके अलावा, यदि मज़दूरी श्रमशक्ति के मूल्य के बराबर भी रहे, तो श्रम की सामाजिक शक्तियों के बूते श्रम की उत्पादकता नियमित रूप से बढ़ती है और यह मज़दूरी-उत्पाद पैदा करने वाले उद्योगों में होने पर श्रम के शोषण की दर और इसलिए बेशी मूल्य की दर को भी बढ़ा सकता है और ऐसा न होने की सूरत में भी यह पूँजी संचय की दर को बढ़ाता है। निश्चित तौर पर, जब भी ऐसा होता है, तो श्रम की उत्पादकता में होने वाली यह बढ़ोत्तरी हमारे सामने पूँजी के योगदान के रूप में नज़र आती है, क्योंकि तकनोलॉजी और मशीनों का मालिक पूँजीपति होता है। लेकिन वास्तव में, तकनोलॉजी और मशीनों में होने वाली हर उन्नति, हर सुधार होता कैसे है? यह श्रम की सामाजिक शक्ति का परिणाम होता है। यह पूँजीपति वर्ग के प्रतिभावान लोगों की मेहनत का परिणाम नहीं होता। इसमें सामाजिक उत्पादन में श्रम के वर्षों का अनुभव सम्मिलित होता है, जिसका सामान्यीकरण और उसे ठोस रूप में लागू कर तकनोलॉजी को उन्नत करना मानसिक श्रमिक यानी वैज्ञानिक मज़दूर, तकनीशियन आदि करते हैं, जो स्वयं पूँजीपति को अपनी श्रमशक्ति बेचते हैं। यानी, समूचे मज़दूर वर्ग के सामाजिक श्रम की शक्ति ही तकनोलॉजी और मशीनों की उन्नति के रूप में सामने आती है, लेकिन चूँकि स्वामित्व का अधिकार पूँजीपति वर्ग के पास होता है, इसलिए ऐसा दिखता है कि ये समूची उन्नति पूँजी की देन है और पूँजीपति उसका श्रेय लेता है और उसके ऊपर अपना दावा ठोंकता है।
बहरहाल, विज्ञान और तकनोलॉजी में होने वाली ऐसी हर उन्नति के साथ श्रम की उत्पादकता में बढ़ोत्तरी होती है। इस बढ़ोत्तरी के दो परिणाम होते हैं, जिन्हें समझकर हम देख सकते हैं कि वह किस प्रकार पूँजी के संचय को बढ़ाते हैं।
यदि श्रम की उत्पादकता उन उद्योगों में बढ़ती है, जो कि मज़दूरी–उत्पाद पैदा करते हैं, यानी वे वस्तुएँ और सेवाएँ पैदा करते हैं, जिनका उपयोग आम तौर पर मज़दूर वर्ग करता है, तो मज़दूर की श्रमशक्ति का मूल्य घटता है। वजह यह कि अब उन उपभोक्ता वस्तुओं व सेवाओं की टोकरी की कुल कीमत घट जाती है, जिनका इस्तेमाल एक मज़दूर और उसका परिवार करता है। नतीजतन, यह मुमकिन है कि मज़दूर की वास्तविक मज़दूरी में कोई अन्तर न आये, या वह बढ़ भी जाय, लेकिन फिर भी मज़दूर की श्रमशक्ति का मूल्य कम हो जाय। नतीजतन, मज़दूर अपनी श्रमशक्ति के मूल्य के बराबर मूल्य का उत्पादन पहले से कम समय में करेगा और इसलिए आवश्यक श्रमकाल घट जायेगा और यदि कुल कार्यदिवस समान रहा, तो सापेक्षिक तौर पर अतिरिक्त श्रमकाल बढ़ जायेगा। चूँकि कुल श्रमकाल समान है, इसलिए कुल मूल्य तो उतना ही पैदा होगा, लेकिन कुल पैदा होने वाले नये मूल्य में अब मज़दूरी का हिस्सा कम होगा और मुनाफ़े का हिस्सा बढ जायेगा। नतीजतन, बेशी मूल्य की दर और बेशी मूल्य की मात्रा दोनों में ही वृद्धि होगी। हम यह सब पहले ही पढ़ चुके हैं।
अब देखते हैं कि जब अन्य उद्योगों में श्रम की उत्पादकता बढ़ती है, तो क्या होता है। इसका अर्थ यह होता है कि यदि कार्यदिवस की लम्बाई और श्रम की सघनता पहले की ही तरह रहे, तो कुल उतना ही मूल्य उत्पादित हो रहा है, उसका बेशी मूल्य और मज़दूरी के बीच विभाजन भी पहले के ही समान हो रहा है, लेकिन मालों की कुल मात्रा बढ़ रही है और इसलिए बेशी उत्पाद का निरपेक्ष परिमाण भी बढ़ रहा है। इसका अर्थ क्या हुआ? पहले जितना मूल्य ही अब पहले से ज़्यादा उत्पादों की मात्रा पर वितरित है और पहले जितना बेशी मूल्य ही पहले से ज़्यादा बेशी उत्पाद की मात्रा पर वितरित है। ज़ाहिर है, इससे उत्पादों की प्रति इकाई कीमत घट जायेगी। पूँजीपति के उपभोग के साधन और साथ ही उत्पादन के साधन भी पहले से सस्ते हो जायेंगे। नतीजतन, पहले जितने पूँजी निवेश में ही पूँजीपति पहले से ज़्यादा मशीनें भी ख़रीद सकता है, पहले से ज़्यादा उपभोग भी कर सकता है और अगर आवश्यकता हुई तो अतिरिक्त श्रमशक्ति को भी रख सकता है। मार्क्स उत्पादकता में आम तौर पर होने वाली बढ़ोत्तरी के असर को बेहद स्पष्टता के साथ समझाते हैं:
“उत्पादों की समूची मात्रा जिसमें कोई निश्चित मूल्य, और इसीलिए बेशी मूल्य की एक दी गयी मात्रा निहित है, श्रम की उत्पादकता बढ़ने के साथ बढ़ती है। अगर बेशी मूल्य की दर समान भी रहती है…तो बेशी उत्पाद की मात्रा बढ़ती है। अगर (पूँजीपति की) व्यक्तिगत आय और अतिरिक्त पूँजी में इस उत्पाद का विभाजन समान रहता है, तो पूँजीपति का उपभोग भी संचय के लिए निर्धारित फण्ड में किसी कमी के बिना बढ़ सकता है। संचय-निधि का सापेक्षिक परिमाण उपभोग-निधि की कीमत पर बढ़ भी सकता है, क्योंकि मालों का सस्ता होना पूँजीपति को पहले के ही समान आनन्द के सारे साधन मुहैया करा सकता है, या पहले से ज़्यादा आनन्द के साधन भी मुहैया करा सकता है। लेकिन श्रम की उत्पादकता में बढ़ोत्तरी के साथ हमेशा मज़दूर भी सस्ता होता जाता है, और इसलिए बेशी मूल्य की भी उच्चतर दर पैदा होती है, और यह तब भी हो सकता है जबकि वास्तविक मज़दूरी बढ़ रही हो। वैसे भी वास्तविक मज़दूरी कभी भी श्रम की उत्पादकता के अनुपात में नहीं बढ़ती है। इसलिए परिवर्तनशील पूँजी के रूप में पहले जितना मूल्य ही पहले से ज़्यादा श्रमशक्ति को, और नतीजतन, पहले से ज़्यादा श्रम को सक्रिय कर सकता है। इसी प्रकार, स्थिर पूँजी के रूप में भी पहले जितना ही मूल्य पहले से ज़्यादा उत्पादन के साधनों का, यानी श्रम के पहले से अधिक उपकरणों, पहले से अधिक श्रम की सामग्रियों व सहायक सामग्रियों का रूप ले सकता है। इसलिए यह ज़्यादा उत्पाद पैदा करने वाले अभिकर्ताओं और साथ ही ज़्यादा मूल्य पैदा करने वाले अभिकर्ताओं की आपूर्ति करता है, दूसरे शब्दों में पहले से ज़्यादा श्रम को सोखता है। इसलिए, अगर अतिरिक्त पूँजी का मूल्य पहले जितना ही रहता है या घटता भी है, तो भी पहले से तेज़ पूँजी संचय होता है। न सिर्फ पुनरुत्पादन का पैमाना भौतिक रूप में पहले से बढ़ जाता है, बल्कि बेशी मूल्य का उत्पादन भी अतिरिक्त पूँजी के मूल्य से ज़्यादा तेज़ी से बढ़ता है।” (वही, पृ. 752-53, अनुवाद हमारा)
इसके अलावा, श्रम की उत्पादकता बढ़ने के साथ पूँजीपति के लिए अपने उत्पादन के साधनों के हिस्सों को बदलना, उनकी मरम्मत करना, कच्चे माल व सहायक मालों की भरपाई करना भी सस्ता हो जाता है क्योंकि ये सारी चीज़ें सस्ती हो जाती हैं। न सिर्फ़ ये चीज़ें सस्ती हो जाती हैं, बल्कि इन चीज़ों की गुणवत्ता और प्रभाविता भी श्रम की उत्पादकता बढ़ने के साथ बढ़ती जाती है। इसलिए वे पलटकर श्रम की उत्पादकता को और भी ज़्यादा बढ़ाती हैं। इसलिए ख़र्च होने वाले उत्पादन के साधन पूर्ण रूप में या आंशिक रूप में पहले से कम ख़र्च पर बदले जा सकते हैं और साथ ही वे उत्पादकता को और भी बढ़ाते हैं, क्योंकि उनकी प्रभाविता भी पहले से बढ़ती जाती है। यह सच है कि इसी प्रक्रिया में पहले से उत्पादन में लगी पूँजी का अवमूल्यन होता है। लेकिन यह अवमूल्यन आम तौर पर पूँजीपति वर्ग के लिए प्रतिस्पर्द्धा की प्रक्रिया में होता है और इसलिए इसकी कीमत भी पूँजीपति श्रमशक्ति के शोषण की दर को बढ़ाकर मज़दूर वर्ग से ही वसूलता है।
इसके अलावा, पूँजीपति वर्ग मज़दूरी बढ़ाये बग़ैर या समान अनुपात में मज़दूरी बढ़ाये बग़ैर कार्यदिवस की लम्बाई को बढ़ाकर और श्रम की सघनता को बढ़ाकर भी बेशी मूल्य की दर और मात्रा, दोनों को ही निरपेक्ष तौर पर बढ़ा सकता है और हर बार मौका मिलने पर ऐसा करता भी है। यह सच है कि यदि पूँजीपति मज़दूरों की संख्या में बढ़ोत्तरी करता है, तो उसे उसी अनुपात में अपने उत्पादन के साधनों में भी वृद्धि करनी होगी, यानी मशीनें और कच्चा माल। लेकिन पूँजीपति बिना मज़दूरों की संख्या बढ़ाये भी कच्चे मालों को बढ़ा सकता है, यानी वह भौतिक सामग्री जो श्रम को सोखती है और माल का रूप लेती है, इस प्रकार पूँजी संचय की दर को भी बढ़ा सकता है। मिसाल के तौर पर, अगर किसी कारखाने में 100 मज़दूर 8 घण्टे प्रतिदिन काम करते हैं, तो वे कुल 800 घण्टे का श्रम दे रहे हैं। यदि पूँजीपति 50 मज़दूर अतिरिक्त रखेगा तो कुल श्रम की मात्रा 1200 घण्टे हो जायेगी और उसे 50 अतिरिक्त मज़दूरों के अनुसार न सिर्फ़ अधिक कच्चा माल ख़रीदना होगा, बल्कि पहले से अधिक श्रम के उपकरण भी ख़रीदने होंगे। इसके लिए, उसे पहले से अधिक पूँजी न सिर्फ़ मज़दूरों की श्रमशक्ति को ख़रीदने व कच्चे माल के लिए लगानी पड़ेगी, यानी न सिर्फ़ उसे पहले से ज़्यादा चल पूँजी लगानी होगी, बल्कि श्रम के उपकरणों, यानी मशीनों आदि पर भी लगानी पड़ेगी, यानी उसे पहले से ज़्यादा अचल पूँजी भी लगानी पड़ेगी। लेकिन यदि वह पहले जितनी मज़दूरी पर ही, या मज़दूरी में समान अनुपात में बढ़ोत्तरी किये बग़ैर ही, मज़दूरों को 8 घण्टे के बजाय 12 घण्टे काम करने को बाध्य कर सके (और पूँजीपति अक्सर ऐसी स्थिति में होता है) तो वह पहले जितनी ही परिवर्तनशील पूँजी में ही और मशीनों पर किये जाने वाले पहले जितने निवेश में ही पहले से ज़्यादा श्रम का शोषण कर सकता है। इससे बस इतना होगा कि उत्पादन में लगी मशीनें पहले से तेज़ गति से ख़र्च होंगी, लेकिन इससे पूँजीपति को कोई नुकसान नहीं होगा क्योंकि जीवित श्रम की यही विशिष्टता होती है कि वह उत्पादन के साधनों के मूल्य को संरक्षित करता है और उन्हें मालों के मूल्य में स्थानान्तरित करता है। मार्क्स लिखते हैं :
“बस उनका (यानी श्रम के उपकरणों का) ज़्यादा तेज़ी से उपभोग होगा। इस प्रकार श्रमशक्ति को ज़्यादा ख़र्च करके मिलने वाला अतिरिक्त श्रम बेशी उत्पाद और बेशी मूल्य को बढ़ा सकता है, जो कि पूँजी संचय का सार है, वह भी पूँजी के स्थिर हिस्से में उसी अनुपात में बढ़ोत्तरी किये बग़ैर।” (वही, पृ. 751, अनुवाद हमारा)
उत्खनन वाले उद्योगों में तो यह फ़ायदा और भी ज़्यादा होगा क्योंकि वहाँ कोई कच्चा माल भी बढ़ाने की आवश्यकता नहीं होगी। क्योंकि वहाँ श्रम की विषय-वस्तु या उसका लक्ष्य जिसमें श्रम सोखा जाता है, अतीत के श्रम का उत्पाद नहीं होता, बल्कि प्रकृति द्वारा बिना किसी ख़र्च के मिलता है, यानी वही पदार्थ जिसका उत्खनन किया जा रहा है। यहाँ जो दो तत्व श्रम के उत्पाद यानी माल को पैदा कर रहे हैं, वे प्रकृति और जीवित श्रम ही है और श्रम को ज़्यादा देर तक खपाकर या उसकी सघनता को बढ़ाकर (यानी, एक घण्टे में औसतन ज़्यादा श्रम मज़दूर से निकलवाकर) बिना कोई अतिरिक्त निवेश किये बेशी उत्पाद और बेशी मूल्य दोनों को ही बढ़ाया जा सकता है। मार्क्स कहते हैं : “श्रमशक्ति के लचीलेपन की बदौलत स्थिर पूँजी के आकार में कोई बढ़ोत्तरी किये बिना ही संचय के क्षेत्र को विस्तारित कर दिया गया है।” (वही, पृ. 752, अनुवाद हमारा)
खेती में ज़मीन की मात्रा को बढ़ाना सम्भव न हो, तो भी श्रमशक्ति को ज़्यादा ख़र्च करके, बेशी उत्पाद और बेशी मूल्य को बिना उत्पादन के साधनों में वृद्धि किये बिना बढ़ाया जा सकता है। यहाँ भी केवल मनुष्य के श्रम और प्रकृति की अन्तर्क्रिया से, श्रम के उपकरणों में वृद्धि किये बिना संचय की दर और मात्रा दोनों को ही बढ़ाया जा सकता है। इस प्रकार, मार्क्स निम्न सटीक नतीजे पर पहुँचते हैं :
“इसलिए हम इस आम नतीजे पर पहुँचते हैं: समृद्धि के दो प्राथमिक सर्जकों, यानी श्रमशक्ति और प्रकृति, को अपने में सम्मिलित करके, पूँजी अपना विस्तार करने की एक ऐसी शक्ति अर्जित कर लेती है, जो इसे स्वयं अपनी मात्रा द्वारा, या पहले से उत्पादित उन उत्पादन के साधनों के मूल्य और मात्रा के द्वारा, जिसके रूप में पूँजी अस्तित्वमान होती है, प्रतीतिगत रूप में तय की गयी सीमा से आगे संचय के अपने तत्वों को संवर्धित करने की अनुमति देती है।” (वही, पृ. 752, अनुवाद हमारा)
इस प्रकार, यदि बेशी मूल्य की दर में बढ़ोत्तरी होती है, तो भी पूँजी संचय की दर और मात्रा दोनों बढ़ती है और यदि बेशी मूल्य की दर में बढ़ोत्तरी न भी हो (यानी मज़दूरी-उत्पाद पैदा करने वाले उद्योगों में उत्पादकता में वृद्धि न हो, श्रमशक्ति के मूल्य में गिरावट न आये और श्रमशक्ति के शोषण की दर समान रहे, या कार्यदिवस की लम्बाई और श्रम की सघनता समान रहे) तो भी श्रम की उत्पादकता की वृद्धि के ज़रिये बेशी मूल्य की मात्रा को बढ़ाया जा सकता है। यह इस कारक पर निर्भर करता है : श्रमशक्ति की मात्रा में बढ़ोत्तरी। निश्चय ही, इसके साथ पूँजी निवेश में भी बढ़ोत्तरी होगी। मार्क्स लिखते हैं :
“लगातार जारी संचय के साथ पूँजी जितनी बढ़ती है उतना ही उस मूल्य का कुल योग भी बढ़ता है जो उपभोग निधि और संचय निधि में विभाजित होता है। इसलिए पूँजीपति एक साथ ज़्यादा सुखप्रद जीवन भी जी सकता है, और साथ ही ज़्यादा ‘त्याग’ भी कर सकता है। और अन्त में, निवेश की गयी पूँजी की मात्रा के साथ उत्पादन का पैमाना जितना विस्तारित होता है, उसकी प्रेरक शक्तियों की विस्तार की क्षमता भी उतनी बढ़ती जाती है।” (वही, पृ. 757, अनुवाद हमारा)
इस प्रकार हम देख सकते हैं कि पूँजी कोई पूर्वनिर्धारित मात्रा नहीं होती है, बल्कि सामाजिक समृद्धि या सम्पदा का एक हिस्सा होती है, जो कि लचीली होती है। यह बेशी मूल्य के उपभोग-निधि और संचय-निधि में बँटवारे के अनुपात के बदलने के साथ बदलती है। साथ ही, हम यह भी समझ चुके हैं कि जो पूँजी निवेशित की जाती है, उसमें भी समाहित श्रमशक्ति, विज्ञान (जो कि श्रम की सामाजिक शक्तियों का ही उत्पाद होता है) और सभी प्राकृतिक संसाधन (जो बिना मानवीय श्रम के प्रकृति द्वारा बिना किसी ख़र्च उपलब्ध कराये जाते हैं) ऐसी लचीली शक्तियाँ हैं, जो पूँजी को अपनी ही मात्रा द्वारा तय सीमाओं का, निश्चित हद तक, अतिक्रमण करने की आज़ादी देते हैं।
पूँजीवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र ने हमेशा यह तस्वीर पेश की है, मानो पूँजी एक फिक्स्ड मात्रा है, उसकी एक तय प्रभाविता/कुशलता है और उसका अतिक्रमण सम्भव नहीं है। इस अवैज्ञानिक विचार के आधार पर उत्पादन में होने वाली आकस्मिक बढ़ोत्तरियों और उसके आकस्मिक तौर पर सिंकुड़ जाने को नहीं समझा जा सकता है। लेकिन समूची पूँजी की मात्रा को एक सख़्ती से निर्धारित मात्रा या परिमाण के रूप में चिह्नित करने का विचारधारात्मक लक्ष्य यह था कि मज़दूरी हेतु तय पूँजी, यानी परिवर्तनशील पूँजी और उसके भौतिक तत्वों, यानी मज़दूरों के उपभोग की वस्तुओं और सेवाओं को भी एक सख़्ती से तय और सीमित मात्रा के रूप में पेश किया जाय। यानी पूँजीपति जिस चीज़ को “लेबर फण्ड” या “श्रम निधि” बोलते हैं, उसे भी किसी ऐसी मात्रा के रूप में पेश किया जाता है, जिस पर कुछ प्राकृतिक सीमाएँ हों, जिनका अतिक्रमण न किया जा सकता हो। मार्क्स इस विचारधारात्मक नज़रिये की असलियत को खोलते हुए लिखते हैं :
“सामाजिक सम्पदा के एक हिस्से को, जो कि स्थिर पूँजी का काम करने वाला है या भौतिक रूप में इसी बात को कहें, जो उत्पदन के साधनों का काम करने वाला है, गतिमान करने के लिए जीवित श्रम की एक निश्चित मात्रा की आवश्यकता होती है। यह मात्रा तकनोलॉजी द्वारा तय होती है। लेकिन मज़दूरों की जो संख्या श्रमशक्ति के इस परिमाण को तरल (गतिमान–ले.) स्थिति में रखने के लिए आवश्यक है, वह तय नहीं होती, क्योंकि वह वैयक्तिक श्रमशक्ति के शोषण की दर के साथ बदलती रहती है। न ही इस श्रमशक्ति की कीमत तय होती है, बस इसकी न्यूनतम सीमा तय होती है, जो स्वयं काफ़ी लचीली होती है। जिन तथ्यों पर यह कठमुल्ला विचार आधारित है, वे ये हैं: एक ओर मज़दूर को सामाजिक सम्पदा के ग़ैर-मज़दूर (यानी पूँजीपति– ले.) के लिए आनन्द के साधनों और उत्पादन के साधनों में विभाजन में हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं होता। दूसरी ओर, केवल अनुकूल और आपवादिक मामलों में ही वह तथाकथित ‘लेबर फण्ड’ को अमीरों की ‘आय’ की कीमत पर बढ़ा सकता है।” (वही, पृ. 759-60, अनुवाद हमारा)
इस कठमुल्ला “तर्क” को साबित करने के लिए बुर्जुआ वर्ग के अर्थशास्त्री एक सस्ती तरक़ीब का इस्तेमाल करते हैं। वे पहले किसी देश के सभी मज़दूरों की मज़दूरी को जोड़ते हैं, जिससे देश का ‘मज़दूरी-बिल’ तैयार होता है, फिर उसे एक नियत व अपरिवर्तनीय मात्रा घोषित कर देते हैं और उसके बाद उसे मज़दूरों की कुल संख्या से भाग देकर प्रति मज़दूर औसत मज़दूरी निकाल लेते हैं और उसे मज़दूरी की अपरिवर्तनीय सीमा घोषित कर दिया जाता है! यह किस प्रकार की बाज़ीगरी है, आप स्वयं देख सकते हैं। मार्क्स इसकी खिल्ली उड़ाते हैं और बताते हैं कि किसी देश की समूची सम्पदा स्वयं कोई स्थिर मात्रा नहीं है, उसका वह हिस्सा जो पूँजी के रूप में सक्रिय होता है, वह भी कोई स्थिर मात्रा नहीं है। मज़दूरों की मज़दूरी को बढ़ाने की माँग को ग़लत ठहराने और मुनाफ़े को पूँजीपति के ‘त्याग और संयम’ का परिणाम बताने के लिए ही यह विचारधारात्मक गल्पकथाएँ रची जाती हैं।
यहाँ आकर पूँजी के संचय पर मार्क्स की चर्चा समाप्त होती है। इसके बाद वे पूँजीवादी संचय के आम नियम (General Law of Capitalist Accumulation) की चर्चा पर आते हैं। अगले अध्याय में हम इसी पर चर्चा करेंगे।
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