क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षण माला – 15 : सापेक्षिक बेशी मूल्य का उत्पादन
अध्याय-13 (जारी)
अभिनव
हमने देखा कि निरपेक्ष बेशी मूल्य की पद्धति से बेशी मूल्य की दर को बढ़ाने के लिए पूँजीपति कुल श्रमकाल को निरपेक्ष रूप से बढ़ा देता है। मज़दूर की श्रमशक्ति की कीमत यानी मज़दूरी के समान रहने पर आवश्यक श्रमकाल स्थिर रहता है, जबकि अतिरिक्त श्रमकाल बढ़ जाता है। अतिरिक्त श्रमकाल में होने वाली यह बढ़ोत्तरी पूरी तरह से पूरे श्रमकाल में हुई निरपेक्ष बढ़ोत्तरी के कारण होती है। लेकिन सापेक्षिक बेशी मूल्य के मामले में ऐसा नहीं होता है।
सापेक्षिक बेशी मूल्य
सापेक्षिक बेशी मूल्य कुल श्रमकाल में निरपेक्ष रूप से बढ़ोत्तरी करके नहीं प्राप्त किया जाता है। यह आवश्यक श्रमकाल में सापेक्षिक कमी लाकर किया जाता है। ऐसा किस स्थिति में हो सकता है? हम जानते हैं कि आवश्यक श्रमकाल कुल श्रमकाल का वह हिस्सा होता है, जिसमें मज़दूर अपने व अपने परिवार के जीविकोपार्जन के लिए आवश्यक वस्तुओं के मूल्य के बराबर मूल्य पैदा करता है। यदि मज़दूर वर्ग की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए आवश्यक इन वस्तुओं व सेवाओं (यानी मज़दूरी-उत्पादों) की कीमत ज़्यादा होगी, तो आवश्यक श्रमकाल ज़्यादा होगा क्योंकि उनके बराबर मूल्य सृजित करने में मज़दूर को ज़्यादा समय लगेगा। यदि ये मज़दूरी-उत्पाद सस्ते होंगे तो मज़दूर पहले से कम समय में उनकी कीमत के बराबर मूल्य को सृजित कर पाएँगे और नतीजतन आवश्यक श्रमकाल में कमी आयेगी। परिणामस्वरूप, आवश्यक श्रमकाल में कमी आयेगी और पूँजीपति वर्ग खुले या प्रच्छन्न तरीके से मज़दूरों की औसत मज़दूरी को घटा सकेगा। यदि कुल श्रमकाल में कोई अन्तर नहीं आता है और श्रम की सघनता समान रहती है, तो अतिरिक्त श्रमकाल में सापेक्षिक बढ़ोत्तरी होगी और अतिरिक्त मूल्य की दर में बढ़ोत्तरी होगी और नतीजतन मुनाफ़े की दर में भी बढ़ोत्तरी हो सकती है। यदि श्रमकाल 8 घण्टे ही रहता है, तो श्रम की सघनता समान रहने पर, मज़दूर अभी भी कुल मिलाकर उतना ही नया मूल्य सृजित कर रहे होंगे, जितना कि पहले कर रहे थे। लेकिन इस नये मूल्य में मुनाफ़े का हिस्सा बढ़ जायेगा, जबकि मज़दूरी का हिस्सा कम हो जायेगा।
इसका यह अर्थ नहीं है कि मज़दूर की वास्तविक मज़दूरी भी अनिवार्यत: कम हो गयी है। वास्तविक मज़दूरी का अर्थ होता है कि मज़दूर अपनी दी गयी मज़दूरी में कितनी वस्तुएँ व सेवाएँ ख़रीद सकता है, यानी, दी गयी मज़दूरी में ख़रीदी जा सकने वाली मालों की टोकरी या बास्केट। मज़दूरी यदि मुद्रा में नॉमिनली कम हो, तो यह ज़रूरी नहीं है कि वास्तविक मज़दूरी भी कम हो रही हो, हालाँकि ऐसा हो भी सकता है। यदि मज़दूरी-उत्पाद उसी दर से सस्ते हुए हैं, जिस दर से मुद्रा में मज़दूरी में कमी आयी है, तो वास्तविक मज़दूरी में कोई अन्तर नहीं आयेगा।
दूसरे शब्दों में, सापेक्षिक बेशी मूल्य को बढ़ाने का तरीका है श्रम की उत्पादकता को बढ़ाकर आवश्यक श्रमकाल को सापेक्षिक तौर पर कम करना।
लेकिन श्रम की उत्पादकता किन उद्योगों में बढ़ने पर आवश्यक श्रमकाल को कम किया जा सकता है और इस प्रकार सापेक्षिक बेशी मूल्य प्राप्त किया जा सकता है? किसी भी उद्योग में श्रम की उत्पादकता के बढ़ने पर आवश्यक श्रमकाल कम नहीं होता। आवश्यक श्रमकाल केवल उन उद्योगों में श्रम की उत्पादकता को बढ़ाने पर कम हो सकता है जो स्वयं मज़दूरी-उत्पाद पैदा करते हों, यानी वे उत्पाद बनाते हों जो नियमित तौर पर मज़दूर वर्ग के उपभोग में जाते हैं, या फिर उन उद्योगों में श्रम की उत्पादकता को बढ़ाने पर कम हो सकता है जो मज़दूरी-उत्पाद बनाने वाले उद्योगों को यंत्रों या कच्चे मालों की नियमित रूप से आपूर्ति करते हैं, क्योंकि ऐसे में मज़दूरी-उत्पाद बनाने वाले उद्योगों में श्रम की उत्पादकता स्थिर रहने पर भी कुल लागत कम हो जाती है और उत्पाद का कुल मूल्य कम हो जाता है।
तो फिर किसी भी अन्य उद्योग में श्रम की उत्पादकता बढ़ने का क्या नतीजा होता है? हमने देखा कि मज़दूरी-उत्पादों का उत्पादन करने वाले उद्योगों या उन उद्योगों को उत्पादन के साधनों की आपूर्ति करने वाले उद्योगों में श्रम की उत्पादकता बढ़ने का नतीजा यह होता है कि उनके द्वारा उत्पादित माल सस्ते हो जाते हैं। यानी मज़दूरी-उत्पाद सस्ते हो जाते हैं, आवश्यक श्रमकाल कम हो जाता है और श्रमशक्ति का मूल्य भी घट जाता है। अन्य किसी भी उद्योग में यदि आम तौर पर श्रम की उत्पादकता बढ़ती है, तो मज़दूरों के कार्यदिवस की लम्बाई और श्रम की सघनता के स्थिर रहने पर कुल मूल्य उतना ही सृजित होता है क्योंकि मूल्य और कुछ नहीं बल्कि वस्तुकृत अमूर्त श्रम ही है, जिसे सामाजिक रूप से आवश्यक श्रमकाल में मापा जाता है। लेकिन अब इतने ही श्रमकाल में पहले से ज़्यादा उपयोग-मूल्य पैदा हो रहे हैं, यानी उत्पादित मालों की संख्या में बढ़ोत्तरी हो गयी है क्योंकि श्रम की उत्पादकता बढ़ गयी है। श्रम की उत्पादकता बढ़ने का अर्थ ही यही है कि हर घण्टे मज़दूर पहले से ज़्यादा माल पैदा कर रहा है। यानी, अब पहले जितना मूल्य ही पहले से ज़्यादा उपयोग-मूल्यों पर वितरित होगा। नतीजतन, अब माल का मूल्य और साथ ही कीमत गिर जायेगी। जब मज़दूरी-उत्पाद सस्ते होते हैं, तो श्रमशक्ति का मूल्य भी कम होता है। मज़दूरी-उत्पाद पैदा करने वाले उद्योगों या उन्हें उत्पादन के साधनों की आपूर्ति करने वाले उद्योगों को छोड़कर अन्य किसी भी उद्योग में ऐसा होने पर श्रमशक्ति का मूल्य नहीं कम होता है क्योंकि अन्य उद्योगों में श्रम की उत्पादकता बढ़ने पर मज़दूरी-उत्पाद नहीं सस्ते होते। यानी श्रम की उत्पादकता किसी भी उद्योग में बढ़ने पर उसके माल सस्ते होते हैं। लेकिन जब मज़दूरी-उत्पाद पैदा करने वाले उद्योगों व उन्हें उत्पादन के साधनों की आपूर्ति करने वाले उद्योगों में श्रम की उत्पादकता बढ़ती है, तो मज़दूरी-उत्पाद सस्ते होते हैं और नतीजतन श्रमशक्ति का मूल्य भी कम हो जाता है। इसे एक उदाहरण से समझें।
मान लें कि किसी कारखाने में 10 सिलाई मज़दूर उत्पादकता के दिये गये स्तर पर पहले 10 घण्टे में 40 कमीज़ें बनाते थे। यानी, कुल 100 घण्टों में 40 कमीज़ों का उत्पादन होता था। यदि 1 घण्टे के सामाजिक श्रमकाल का मौद्रिक समतुल्य रु. 50 है, तो 40 कमीज़ों का मूल्य हुआ रु. 5000 और एक कमीज़ का मूल्य हुआ रु 125। अब यदि श्रम की उत्पादकता बढ़ जाती है और अब वही 10 मज़दूर 10 घण्टे में 65 कमीज़ों का निर्माण कर रहे हैं, तो अब 100 घण्टे के सामाजिक श्रमकाल में 65 कमीज़ों का उत्पादन हो रहा है। चूँकि कुल श्रमकाल पहले जितना ही है और चूँकि मूल्य और कुछ नहीं बल्कि जम गया, या, संघनित अमूर्त सामाजिक श्रम ही है, इसलिए कुल मूल्य पहले की ही तरह रु. 5000 होगा। लेकिन अब पहले के विपरीत यह रु. 5000 कुल 40 कमीज़ों पर वितरित नहीं होगा, बल्कि 65 कमीज़ों पर वितरित होगा। यानी अब 65 कमीज़ों का कुल मूल्य रु. 5000 होगा और एक कमीज़ का मूल्य होगा रु. 76.25। यानी, मालों का प्रति इकाई मूल्य घट जायेगा और माल सस्ता हो जायेगा, भले ही समस्त मालों का कुल मूल्य पहले जितना ही रहे या बढ़ी श्रम उत्पादकता के साथ विस्तारित पुनरुत्पादन की सूरत में पहले से भी ज़्यादा हो जाये। अब यदि यह कमीज़ आम कमीज़ है, जिसका नियमित तौर पर मज़दूर वर्ग भी उपभोग करता है, तो श्रमशक्ति का मूल्य घटेगा। लेकिन अगर हम किसी लक्ज़री यानी अमीरों की ऐय्याशी में जाने वाले किसी माल के ऊपर यही उदाहरण लागू करें, मसलन, कोई लक्ज़री कार या बाइक आदि, तो श्रम की उत्पादकता बढ़ने के कारण उसके मूल्य में जो गिरावट आयेगी, उसका श्रमशक्ति के मूल्य पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा और यह सापेक्षिक बेशी मूल्य नहीं बढ़ायेगा।
अब एक और भ्रम को दूर कर लेते हैं, जो अक्सर मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र के विद्यार्थियों को हो जाता है। किसी भी उद्योग में मालों का मूल्य का निर्धारण सामाजिक रूप से होता है। यानी, मालों के मूल्य में आने वाले उतार या चढ़ाव उस समूचे उद्योग में उत्पादन की औसत स्थितियों में बदलाव आने का नतीजा होते हैं। यानी उपरोक्त मामले में कमीज़ों की कीमत गिरी क्योंकि श्रम की उत्पादकता केवल एक कारखाने में नहीं बल्कि औसतन समूचे उद्योग में बढ़ी जिसके कारण कमीज़ों के सामाजिक मूल्य में कमी आयी। लेकिन अगर उत्पादकता किसी एक या कुछेक पूँजीपतियों के कारखाने में बढ़ती है, तो उसका क्या नतीजा होगा?
उसका नतीजा यह होगा कि उन विशिष्ट पूँजीपतियों को, जिनके कारखाने में उन्नत तकनोलॉजी व मशीन आदि के लगाये जाने के कारण उत्पादकता में बढ़ोत्तरी हुई है, अस्थायी अतिरिक्त मुनाफ़ा (surplus profit) प्राप्त होगा और उन्हें यह अतिरिक्त मुनाफ़ा तब तक हासिल होगा जब तक कि नयी तकनोलॉजी पूरे उद्योग के अधिकांश हिस्सों में नहीं अपना ली जाती। जो इस नयी तकनोलॉजी को नहीं अपनायेगा, उसे सापेक्षिक हानि तो होगी ही, उत्पादकता का अन्तर अधिक होने पर उसे निरपेक्ष हानि भी हो सकती है। ऐसे पूँजीपति जो उत्पादकता को बढ़ाने की इस होड़ में पीछे छूटते जायेंगे, वे कालान्तर में बरबाद हो जायेंगे क्योंकि वे बाज़ार में होन वाली कीमतों की प्रतिस्पर्द्धा में पिछड़ते जायेंगे। मिसाल के तौर पर, अगर दी गयी औसत सामाजिक उत्पादकता के स्तर पर एक निश्चित गुणवत्ता वाली एक कमीज़ का सामाजिक मूल्य 125 रुपये है, जबकि कुछ पूँजीपतियों ने आधुनिक तकनोलॉजी व मशीन का इस्तेमाल कर अपने कारखाने में श्रम की उत्पादकता को बढ़ाकर कमीज़ के उत्पादन की अपनी लागत को घटाया और अपने माल के वैयक्तिक मूल्य को घटाकर 76.25 रुपये कर लिया, तो क्या वह कमीज़ को अपने वैयक्तिक मूल्य पर बाज़ार में बेचेगा? नहीं। निश्चित तौर पर वह रु. 125 पर भी नहीं बेचेगा, बल्कि रुपये 120 या रुपये 115 पर बेचेगा, जिससे कि वह अपने प्रतिस्पर्द्धियों को बाज़ार में पीट सके। यदि वह अपने माल को रु. 76.25 पर बेचता तो उसे सामान्य मुनाफ़ा प्राप्त होता। लेकिन अपनी उत्पादकता में बढ़ोत्तरी के कारण यदि वह अपने माल को सामाजिक मूल्य, यानी रु. 125 से कम कीमत पर भी बेचेगा, मसलन रु. 120 पर, तो भी उसे करीब रु. 43.75 का बेशी मुनाफ़ा हासिल होगा। यह बेशी मुनाफ़ा उत्पादकता में बढ़ोत्तरी करने वाले इन चन्द पूँजीपतियों को एक उन्नत तकनोलॉजी पर अपने एकाधिकार के कारण प्राप्त होगा। यह बेशी मुनाफ़ा और कुछ नहीं बल्कि कम उत्पादक पूँजीपतियों के उत्पादन से होने वाले मूल्य के स्थानान्तरण से अधिक उत्पादक पूँजीपतियों को प्राप्त होगा। निश्चित ही, बेहतर तकनोलॉजी पर इजारेदारी किसी अधिक उपजाऊ ज़मीन पर इजारेदारी या उत्पादन की अन्य बेहतर प्राकृतिक स्थितियों पर इजारेदारी के समान स्थायी नहीं होगी और इसलिए उसे स्थायी बेशी मुनाफ़ा नहीं देगी। जैसे ही उन्नत तकनोलॉजी का उस विशिष्ट उद्योग में समाजीकरण हो जायेगा वैसे ही इन पूँजीपतियों का वह बेशी मुनाफ़ा जाता रहेगा और उन्हें वापस औसत मुनाफ़ा मिलने लगेगा।
यानी, श्रम की उत्पादकता बढ़ने की सूरत में क्या अन्तर आते हैं, इसके बारे में कुछ बातें ध्यान में रखना बेहद ज़रूरी है। पहली बात यह कि श्रमशक्ति का मूल्य घटाकर सापेक्षिक बेशी मूल्य को पूँजीपति वर्ग तभी बढ़ा सकता है, जबकि उन उद्योगों में श्रम की उत्पादकता में बढ़ोत्तरी हो जो कि मज़दूरी-उत्पादों का उत्पादन करते हैं, या वे उद्योग जो मज़दूरी-उत्पादों का उत्पादन करने वाले उद्योगों को उत्पादन के साधनों की आपूर्ति करते हैं। यह मज़दूर के श्रमशक्ति के पुनरुत्पादन में जाने वाली वस्तुओं और सेवाओं की कीमत को घटा देता है और इस प्रकार श्रमशक्ति के पुनरुत्पादन की लागत और इसलिए उसके मूल्य को घटा देता है। नतीजतन, मज़दूर अपनी श्रमशक्ति के बराबर मूल्य पहले से कम सामाजिक श्रमकाल में पैदा कर लेता है। इस प्रकार आवश्यक श्रमकाल घट जाता है और अतिरिक्त श्रमकाल बढ़ जाता है। अतिरिक्त श्रमकाल के सापेक्षिक रूप से बढ़ने के साथ पूँजीपति के बेशी मूल्य की मात्रा और दर में बढ़ोत्तरी होती है। इसी को सापेक्षिक बेशी मूल्य कहा जाता है।
दूसरी बात, अगर अन्य किसी भी उद्योग में औसत श्रम उत्पादकता बढ़ती है, तो इससे सापेक्षिक बेशी मूल्य में कोई बढ़ोत्तरी नहीं होती है, बल्कि उत्पाद का मूल्य पहले से कम हो जाता है। इसका यह अर्थ नहीं है कि इस उद्योग के पूँजीपतियों के बेशी मूल्य में कोई कमी आती है। वजह यह है कि अन्य स्थितियाँ पहले के समान रहने की सूरत में कुल मूल्य पहले के जितना ही उत्पादित होता है और उसका बेशी मूल्य और मज़दूरी में बँटवारा भी पहले के समान ही होता है। बस फ़र्क यह होता है कि मूल्य की वही मात्रा उपयोग-मूल्यों की पहले से ज़्यादा मात्रा पर वितरित हो जाती है और नतीजतन प्रति इकाई मूल्य कम हो जाता है और माल सस्ता हो जाता है।
तीसरी बात, उपरोक्त स्थिति भी तभी पैदा हो सकती है कि जब समूचे उद्योग में औसत श्रम उत्पादकता में बढ़ोत्तरी हो क्योंकि मालों का सामाजिक मूल्य दिये गये सेक्टर में उत्पादन की औसत स्थितियों में परिवर्तन से ही प्रभावित होता है। यानी, यदि कोई एक या चन्देक पूँजीपति अपने कारखानों में श्रम की उत्पादकता में बढ़ोत्तरी करने में कामयाब होते हैं, तो भी सामाजिक मूल्य समूचे उद्योग में उत्पादन की औसत सामाजिक स्थितियों से तय होता है। नतीजतन, आधुनिकीकरण करने में कामयाब पूँजीपतियों को उन्नत तकनोलॉजी व मशीनों के बूते अपने कारखानों में श्रम उत्पादकता बढ़ाने के फलस्वरूप तब तक किसी न किसी मात्रा में बेशी मुनाफ़ा प्राप्त होता है जब तक कि यह उन्नत तकनोलॉजी समूचे उद्योग में समाजीकृत नहीं हो जाती, यानी अधिकांश पूँजीपतियों द्वारा नहीं अपना ली जाती।
उपरोक्त तीन बातों को न समझने के कारण कई बार मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र के विद्यार्थियों का विश्लेषण ग़लत नतीजों पर पहुँच जाता है। अब आगे बढ़ते हैं और सापेक्षिक बेशी मूल्य के पैदा होने की सामाजिक व ऐतिहासिक स्थितियों के बारे में विस्तार से बात करते हैं।
सबसे पहली बात जो समझने की आवश्यकता है वह यह है कि पूँजीवाद के विकास के साथ मज़दूर वर्ग का बेहतर जीवन व कार्य स्थितियों के लिए संघर्ष भी विकसित होता है। निरपेक्ष बेशी मूल्य को बढ़ाने की, यानी कार्यदिवस की लम्बाई को निरपेक्ष रूप से बढ़ाकर बेशी मूल्य को बढ़ाने की एक सीमा होती है। इसकी एक भौतिक सीमा भी होती है और एक वर्ग संघर्ष द्वारा उपस्थित सीमा भी होती है। इसलिए पूँजीवादी विकास की एक मंज़िल के बाद निरपेक्ष बेशी मूल्य गौण प्रवृत्ति बनता जाता है, जबकि सापेक्षिक बेशी मूल्य प्रधान प्रवृत्ति बनता जाता है। ऐसा नहीं है कि निरपेक्ष बेशी मूल्य को बढ़ाने की प्रक्रिया के पूरी तरह से समाप्त होने के बाद पूँजीपति वर्ग सापेक्षिक बेशी मूल्य के तरीके को अपनाता है। इतिहास में हम इन दोनों की तरीकों का एक साथ इस्तेमाल होते देखते हैं। सापेक्षिक बेशी मूल्य का तरीका पूँजीवाद के सामान्य सहकार की मंज़िल से फैक्ट्री व्यवस्था की मंज़िल तक विकास के साथ विकसित होता है। इसलिए इन ऐतिहासिक मंज़िलों को समझना अनिवार्य है।
सापेक्षिक बेशी मूल्य के पैदा होने की प्रक्रिया पूँजी के द्वारा श्रम के वास्तविक मातहतीकरण (real subsumption of labour) की ऐतिहासिक प्रक्रिया के ज़रिये उद्घाटित होती है। श्रम के वास्तविक मातहतीकरण का अर्थ होता है पूँजी द्वारा समूची उत्पादन और श्रम प्रक्रिया पर पूर्ण नियन्त्रण स्थापित करना। पूँजीवाद के विकास की प्रक्रिया में श्रम का यह मातहतीकरण कई मंज़िलों से होकर गुज़रता है, जिसमें पूँजी कदम-दर-कदम उत्पादन व श्रम प्रक्रिया को अपने मातहत करती जाती है। ‘पुटिंग आउट’ व्यवस्था से ही उसके बीज पड़ जाते हैं जिसमें व्यापारिक पूँजीपति स्वतन्त्र माल उत्पादकों को अपने मातहत करता है और उत्पादन-सम्बन्धी निर्णय लेने लगता है। लेकिन इस मंज़िल में पूँजी ने श्रम की प्रक्रिया को अपने अधीन नहीं किया होता है और इसलिए उसने श्रम का केवल औपचारिक मातहतीकरण (formal subsumption of labour) ही किया होता है। इसके बाद, माल उत्पादकों के अपने उत्पादन के साधनों से वंचित होने की प्रक्रिया पूरी होती है और पूँजीपति श्रम की प्रक्रिया को प्रत्यक्ष तौर पर कदम-दर-कदम अपने मातहत करता जाता है।
इसमें पहली मंज़िल होती है साधारण सहकार। इसके बाद, श्रम विभाजन व मैन्युफैक्चर की मंज़िल आती है जो अन्तत: कारखाना व्यवस्था या मशीनोफैक्चर में परिणत होती है। इन तीनों ही मंज़िलों पर थोड़ा विस्तार से विचार करना आवश्यक है। इससे पहले यह इंगित करना ज़रूरी है कि ये ऐतिहासिक चरण है और चूँकि पूँजीवाद का विकास पूरी दुनिया के स्तर पर और एक देश के स्तर पर भी असमान प्रकृति का होता है, इसलिए आम तौर पर हम अधिकांश मामलों में इन अलग-अलग ऐतिहासिक चरणों को कालिक रूप में सह-अस्तित्व में देख सकते हैं। हालाँकि, पूँजीवाद के उत्तरोत्तर विकास के साथ इस सह-अस्तित्व में कारखाना व्यवस्था का अस्तित्व अधिक से अधिक प्रभावी होता जाता है।
साधारण सहकार
अलग-अलग उत्पादन कर रहे साधारण माल-उत्पादकों के स्थान पर जब कई उत्पादक साथ आकर काम करने की शुरुआत करते हैं और आपस में साधारण सहकार स्थापित करते हैं, तो यह श्रम की सामाजिक उत्पादक शक्ति को विचारणीय रूप से निर्बन्ध करता है। साधारण सहकार के साथ कई उत्पादक (जो अब उजरती मज़दूर में तब्दील हो चुके हैं) एक स्थान पर, एक छत के नीचे आ जाते हैं। हम सभी जानते हैं कि उत्पादन के पैमाने के विस्तारित होने के साथ उत्पादकता में बढ़ोत्तरी होती है। साथ ही श्रम की सामाजिक उत्पादक शक्तियाँ अब उन उत्पादक कार्यों को करना सम्भव बना देती हैं जिन्हें व्यक्तिगत स्तर पर अकेले काम कर रहे माल उत्पादकों द्वारा कर पाना सम्भव नहीं था। चूँकि यह पूँजी है जो कई भूतपूर्व माल उत्पादकों (जो कि अब उजरती मज़दूर बन चुके हैं) को एक उत्पादन स्थल पर लाती है इसलिए इसके नतीजे के तौर पर उत्पादक शक्तियों में होने वाली बढ़ोत्तरी पूँजी द्वारा लायी गयी बढ़ोत्तरी प्रतीत होती है। ऐसा लगता है कि यह पूँजी की देन है लेकिन वास्तव में यह श्रम की सामाजिक उत्पादक शक्तियाँ होती हैं।
लेकिन तकनीकी तौर पर साधारण सहकार अभी भी दस्तकारी पर ही आधारित होता है। साथ ही, इसमें अभी कोई व्यवस्थित तकनीकी श्रम विभाजन (technical division of labour) नहीं होता है। यानी, सभी मज़दूर हाथ से साधारण उपकरणों के साथ काम करते हैं और हर मज़दूर हर कार्य करता है। नतीजतन, अभी काम की लय और समयबद्धता मज़दूरों के द्वारा ही निर्धारित हो रही होती है और श्रम प्रक्रिया पर पूँजी का नियन्त्रण अधिक विकसित नहीं हुआ होता है। यह प्रक्रिया धीरे-धीरे अगले चरण में विकसित होती है। इस चरण में श्रम विभाजन की शुरुआत होती है और मैन्युफैक्चर की मंज़िल आती है।
मैन्युफैक्चर
मैन्युफैक्चर की मंज़िल की विशिष्टता होती है सहकार के साथ श्रम विभाजन का मिश्रण। यानी, मज़दूर अभी भी उत्पादन की प्रक्रिया में आपसी सहकार करते हैं, लेकिन अब यह साधारण सहकार नहीं होता है जिसमें सभी मज़दूर सभी काम कर लिया करते हैं। यह एक ऐसा सहकार होता है, जिसमें तकनीकी श्रम विभाजन का विकास हो चुका होता है। यानी, अब उत्पादन के अलग-अलग कार्यभार अलग-अलग मज़दूरों के समूहों को आबण्टित होते हैं और वे अलग-अलग समूह लगातार उन्हीं कार्यभारों को अंजाम देते रहते हैं। जैसा कि एडम स्मिथ ने उचित ही लिखा था, इसके साथ श्रम की उत्पादकता में भारी बढ़ोत्तरी होती है। समूची उत्पादन प्रक्रिया छोटे-छोटे अलग-अलग कार्यभारों में तोड़ दी जाती है। इन अलग-अलग कार्यभारों को अलग-अलग मज़दूरों के विशेषीकृत समूह अंजाम देते हैं। ये सभी समूह एक साथ ही काम करते रहते हैं। नतीजतन, कई चीज़ें होती हैं।
पहला तो यह कि ये अलग-अलग समूह उत्पादन के एक छोटे-से कार्य को बार-बार करते हुए उनमें निपुण हो जाते हैं और उनकी इस बढ़ी हुई कुशलता के कारण उत्पादकता में भारी बढ़ोत्तरी होती है। इसके अलावा, चूँकि माल के उत्पादन की समूची प्रक्रिया के अलग-अलग चरण अब बारी-बारी से नहीं चलते हैं, बल्कि एक साथ जारी रहते हैं, इसलिए एक चरण से दूसरे चरण में जाने में बरबाद होने वाला समय अब बरबाद नहीं होता है। इससे भी श्रम की सघनता व नतीजतन उत्पादकता में भारी बढ़ोत्तरी होती है। यह दीगर बात है कि इसके साथ, एडम स्मिथ के शब्दों में, मज़दूर “अहमक” बनता जाता है क्योंकि वह समूचे माल के उत्पादन की सभी प्रक्रियाओं में शामिल नहीं होता है, बल्कि किसी एक छोटे-से कार्यभार को दिन भर दुहराता रहता है। उसकी कुशलता बहुकुशलता से एकल-कुशलता में तब्दील हो जाती है। जब भी पूँजी के मातहत श्रम विभाजन की प्रक्रिया घटित होती है तो वह इसी प्रकार अनमनीय होती है और मज़दूरों को व्यवस्थित तरीके से एकलकुशल व “अहमक” बनाती है।
दूसरा, अब काम की लय और गति इस श्रम विभाजन से निर्धारित होती है और मज़दूरों का इस पर से नियन्त्रण कम होता जाता है। यही श्रम विभाजन यह भी तय करता है कि मज़दूरों के अलग-अलग समूहों को अलग-अलग उत्पादक कार्यभारों को पूरा करने के लिए किस अनुपात में बाँटा जाये और उसी के अनुसार अलग-अलग उत्पादन के साधनों को किन मात्राओं में ख़रीदा जाये। श्रम प्रक्रिया पर से मज़दूरों के नियन्त्रण को कम करके ही पूँजीपति समूची उत्पादन प्रक्रिया की क्रमबद्धता (sequentiality) और समकालिकता (simultaneity) को सुनिश्चित कर सकता है। यानी, समूची प्रक्रिया में माल उत्पादन पूँजीवादी उत्पादक प्रक्रिया की एक मंज़िल से दूसरी मंज़िल में जाता है, यानी वह मज़दूरों के एक समूह के श्रम के मातहत होता है और वह विशिष्ट कार्यभार पूरा होने के बाद वह मज़दूरों के दूसरे विशिष्ट समूह के श्रम के मातहत होने चला जाता है। यह प्रक्रिया की क्रमिकता है। लेकिन जब कोई भी माल उत्पादन की एक मंज़िल में होता है, तो दूसरा माल दूसरी मंज़िल में होता है, और तीसरा तीसरी मंज़िल में, आदि। यानी जब मज़दूरों का एक विशिष्ट समूह अपने विशिष्ट उत्पादक कार्यभार को पूरा कर रहा होता है, तो उसके आगे के मज़दूरों के विशिष्ट समूह इन्तज़ार नहीं कर रहे होते हैं, बल्कि वह उस माल में पर पहले ही काम कर रहे होते हैं, जो पहली मंज़िल से गुज़र चुका होता है। यानी सभी समूह एक साथ समकालिक तौर पर काम कर रहे होते हैं। यह मैन्युफैक्चर की प्रक्रिया की समकालिकता है।
मैन्युफैक्चर एक ओर दस्तकारी के कई रूपों को तोड़ता है, तो वहीं दस्तकारी के कुछ रूपों को साथ लाकर जोड़ भी देता है। इसके साथ ही, श्रम की उत्पादकता में गुणात्मक बढ़ोत्तरी होती है। श्रम का पूँजी के द्वारा मातहतीकरण एक नयी मंज़िल में पहुँच जाता है। लेकिन यह बात भी नहीं भूलनी होगी कि इस मंज़िल में भी अभी उत्पादन का तकनोलॉजिकल आधार दस्तकारी ही होता है। यानी मज़ूदर श्रम विभाजन के साथ भी अभी, मूलत: और मुख्यत:, श्रम के साधारण उपकरणों से ही काम कर रहे होते हैं।
यहाँ यह स्पष्ट करना भी ज़रूरी है कि जब हम मैन्युफैक्चर के सन्दर्भों में या आगे चलकर उत्पादन की जगह होने वाले श्रम विभाजन की बात कर करते हैं, तो हम तकनीकी श्रम विभाजन की बात कर रहे हैं, न कि सामाजिक श्रम विभाजन की। सामाजिक श्रम विभाजन समाज में समूचे सामाजिक उत्पादन का अलग–अलग पूँजीवादी या गैर–पूँजीवादी माल उत्पादकों के बीच विभाजित होना है, जबकि तकनीकी श्रम विभाजन एक ही उत्पादक प्रक्रिया का अलग–अलग विशेषीकृत श्रमिकों के समूहों के बीच विशिष्ट उत्पादक कार्यों (particular productive tasks or details) के रूप में विभाजित होना है।
कारखाना व्यवस्था
पूँजीवादी उत्पादन तथा श्रम के पूँजी द्वारा मातहतीकरण के विकास की यह तीसरी मंज़िल मैन्युफैक्चर की मंज़िल से ही तार्किक रूप में विकसित होती है। जैसे-जैसे मैन्युफैक्चर विकसित होता है, उसमें श्रम विभाजन और भी आगे जाता है, विकसित होता है। उत्पादन की प्रक्रिया कालान्तर में बेहद छोटे-छोटे उत्पादक कार्यों में तोड़ दी जाती है, जिसे मज़दूर या मज़दूरों का एक विशिष्ट समूह अपने श्रम के उपकरण का उपयोग कर दुहराता रहता है। मसलन, कोई लगातार हथौड़ा चला रहा है, कोई लगातार रिंच कस रहा है, कोई लगातार बस रन्दा चलाये जा रहा है, कोई लगातार पेचकस घुमाये जा रहा है। जब उत्पादक कार्यों को इतने छोटे–छोटे संघटक अंगों में तोड़ दिया जाता है, तो उनका स्वचालन आसान होता जाता है क्योंकि ये सारे उत्पादक कार्य बेहद सरल, साधारण व दुहराये जाने वाले कार्य बन जाते हैं। इससे पहले उत्पादक प्रक्रिया का स्वचालन सम्भव नहीं होता है।
जब स्वचालन की मंज़िल की ये पूर्वशर्तें पूरी हो गयीं तो ऐतिहासिक तौर पर स्वचालन के लिए अलग-अलग प्रेरक शक्ति के स्रोतों का इस्तेमाल किया गया। एक दौर में इसके लिए पशुओं की शक्ति का इस्तेमाल किया गया, जिसमें श्रम के उपकरणों को उत्पादन की प्रक्रिया के विशिष्ट कार्यभारों (tasks or details) के लिए एक ख़ास तरीके से व्यवस्थित किया गया होता था और उपकरणों की उस व्यवस्था को पशुओं की शक्ति से चलाया जाता था। एक अन्य दौर में प्राकृतिक शक्तियों का इस्तेमाल प्रमुखता ग्रहण करता गया। मसलन, वायु शक्ति, जल शक्ति आदि का। विशेष तौर पर, नदियों व जल के अन्य स्रोतों की धाराओं से प्राप्त ऊर्जा का इस्तेमाल तमाम कारखानों या मिलों को चलाने के लिए काफ़ी इस्तेमाल किया जाने लगा। यही कारण है कि एक दौर में अधिकांश मिलें नदियों या अन्य जल स्रोतों के किनारों पर हुआ करती थीं।
लेकिन पशुओं के पेशीय बल पर निर्भर करने या प्राकृतिक शक्तियों पर निर्भर करने की अपनी सीमाएँ थीं। जब स्वचालन के लिए इन प्रेरक शक्ति के स्रोतों का इस्तेमाल किया जाता था, तो उनकी गति, उनकी कार्रवाई और उनकी लय व समयबद्धता पर मनुष्य का कोई नियन्त्रण नहीं था, या बेहद सीमित नियन्त्रण था। पशुओं या प्रकृति की अनियमितता पर निर्भर रहना उत्पादन की कार्रवाई को निश्चित ही प्रभावित करता था। इसलिए प्रेरक शक्ति के किसी ऐसे स्रोत की आवश्यकता थी, जिस पर इंसान का नियन्त्रण हो, उसकी गति, लय व समयबद्धता को वह अपने अनुसार निर्धारित कर सकता हो।
इसी आवश्यकता के सन्दर्भ में औद्योगिक क्रान्ति व वैज्ञानिक क्रान्ति की ज़मीन तैयार हुई थी। वे निश्चय ही महान आविष्कारकों की मेधा से हुए आविष्कारों से परिणत हुईं। लेकिन ये महान आविष्कारक भी किसी निर्वात या शून्य में अस्तित्वमान नहीं थे। वे अपने आविष्कारों की परिकल्पना कर पाये, उन्हें व्यवहार में उतारने की सामग्री अर्जित कर सके और उन्हें व्यवहार में उतारने की प्रक्रिया को समझ पाये, इसके पीछे वास्तव में श्रम की शक्तियाँ थीं, उत्पादन की समूची प्रक्रिया थी और इन्हें चलाने वाला मज़दूर वर्ग था। मज़दूर वर्ग द्वारा उत्पादक कार्रवाई के बुनियादी व्यवहार में संचित ज्ञान और अनुभव के बिना कोई मेधावी से मेधावी आविष्कारक भी वैज्ञानिक सामान्यीकरण कर वे आविष्कार नहीं कर पाता जिनके बूते पर औद्योगिक क्रान्ति सम्भव हुई। उत्पादक शक्तियों में लगने वाली यह छलाँग मज़दूर वर्ग के सामाजिक उत्पादक व्यवहार के बूते ही सम्भव हुई।
बहरहाल, जब भाप के इंजन का आविष्कार हुआ तो स्वचालन की किसी ऐसी प्रेरक शक्ति के स्रोत की खोज पूरी हुई, जिस पर मनुष्य का नियन्त्रण हो। भाप के इंजन के आविष्कार और अन्य कई ऐसे आविष्कारों के पीछे श्रम प्रक्रिया, उत्पादक शक्तियों के विकास और मज़दूर वर्ग का क्या योगदान था, यह अपने आप में लम्बी चर्चा का विषय है, जिसमें हम यहाँ नहीं जा सकते। लेकिन रुचि रखने वाले पाठक इसके बारे में विस्तार से जानने के लिए विज्ञान के इतिहास पर उत्कृष्ट कार्य करने वाले कई मार्क्सवादी लेखकों को पढ़ सकते हैं, मसलन, जे. डी. बरनाल और जे. बी. एस. हाल्डेन।
बहरहाल, प्रेरक शक्ति के एक ऐसे स्रोत की खोज के साथ मशीनीकरण और कारखाना व्यवस्था के उदय की सभी पूर्वशर्तें पूरी हो गयीं। जैसा कि हम देख सकते हैं कि कारखाना व्यवस्था के उदय में प्रमुख भूमिका मशीन की होती है। मशीन के तीन बुनियादी अंग होते हैं। पहला है प्रेरक शक्ति (motive power), या सेण्ट्रल ऑटोमेटॉन, यानी शक्ति का वह स्रोत जो उपकरणों की समूची व्यवस्था को चलाता है। दूसरा है सम्प्रेषक तंत्र (conveying or transmission system) यानी प्रेरक शक्ति से उपकरणों की व्यवस्था को शक्ति पहुँचाने वाली व्यवस्था। और तीसरा है मुख्य मशीन उपकरण का हिस्सा (machine-tool part), यानी मशीन का वह हिस्सा जो उपकरणों के एक तन्त्र या व्यवस्था का निर्माण करता है। हम उन्नत से उन्नत मशीनों में जब उपकरणों के तन्त्र को, यानी इस तीसरे हिस्से को देखते हैं, तो हम उसमें सभी बुनियादी पुराने उपकरणों को देख सकते हैं, मसलन, हथौड़ा, आरी, रन्दा, पेचकस, रिंच, इत्यादि। निश्चित ही, एक ताकतवर प्रेरक शक्ति वाली मशीन में ये उपकरण विशालकाय रूप धारण कर लेते हैं, जैसे कि प्रेस मशीन में जो विशालकाय उपकरण प्रेस करने का काम करता है, वह और कुछ नहीं बल्कि हथौड़े का ही एक विशालकाय रूप है, जो उपकरणों के तन्त्र में व्यवस्थित है।
कारखाना-व्यवस्था के उदय के परिणाम
मशीन के आने के साथ श्रम की उत्पादकता में भारी बढ़ोत्तरी होती है। लेकिन साथ ही मज़दूर अब श्रम प्रक्रिया से पूर्ण रूप में नियन्त्रण खो देता है। मैन्युफैक्चरिंग की मंज़िल तक अभी मनुष्य उपकरणों का इस्तेमाल कर रहा था और उपकरण मानवीय अंगों का ही विस्तार थे। लेकिन मशीन के आगमन के साथ स्वयं उत्पादक यानी मज़दूर मशीन का एक विस्तार बन जाता है। अब मशीन की लय और गति मज़दूरों के काम करने की लय व गति को निर्धारित करती है। ज़ाहिर है, मशीन की गति और लय को पूँजीपति तय करता है। जब मशीन का आगमन हुआ तो मज़दूर वर्ग ने, जो कि अभी अपनी शैशवावस्था में ही था, मशीन को अपने दुश्मन के तौर पर देखा। अभी मज़दूर वर्ग की चेतना निम्न स्तर पर थी। उसे लगता था कि यह मशीन है जो उसे काम से बाहर कर रही है और उसके भयंकर शोषण के लिए ज़िम्मेदार है। इस दौर में मज़दूरों ने मशीनों को तोड़ने आदि के रूप में अपना प्रतिरोध दर्ज़ कराया। लेकिन एक प्रक्रिया में मज़दूर वर्ग ने यह समझा कि यह स्वयं मशीन नहीं है, जो उसकी शत्रु है, बल्कि यह पूँजी और पूँजीपति वर्ग है जो उसका शत्रु है।
मशीन वैसे तो एक मेहनत को कम करने वाली चीज़ होती है, क्योंकि मशीन के साथ मज़दूर वर्ग के लिए उत्पादन की प्रक्रिया ठोस तौर पर देखें तो उतनी श्रमसाध्य नहीं रह जाती है। लेकिन जब मशीनें पूँजी के नियन्त्रण में होती हैं, तो वे मेहनत को कम करने के बजाय मेहनत को बढ़ाती हैं।
इसकी एक वजह यह होती है कि मशीनों की श्रम प्रक्रिया में तो घिसाई होती ही है, लेकिन जब उत्पादन नहीं हो रहा होता और मशीनें यूँ ही खड़ी होती हैं, तो भी प्राकृतिक शक्तियों के कारण उनकी घिसाई व टूट-फूट होती है। हर पूँजीपति चाहता है कि मशीन अधिक से अधिक समय केवल और केवल श्रम प्रक्रिया और उत्पादन प्रक्रिया में ही घिसे क्योंकि इस प्रक्रिया में मशीन का मूल्य माल के मूल्य में स्थानान्तरित होता है। जबकि प्राकृतिक शक्तियों द्वारा होने वाले ह्रास के कारण मशीन का मूल्य नष्ट होता है। इसलिए पूँजीपतियों ने मशीन के आगमन के साथ काम के घण्टों को और ज़्यादा बढ़ाया और औद्योगिक क्रान्ति जब ज़ोरों पर थी, तो कार्यदिवस की लम्बाई 14 से 16 घण्टों तक भी पहुँच गयी। इसी दौर में रात्रि शिफ्ट के काम की भी बड़े पैमाने पर शुरुआत हुई। रात का काम मज़दूर वर्ग के शरीर और सेहत को विशेष तौर पर नुकसान पहुँचाता है। विशेषकर, रात में काम करने वाले मज़दूरों की विशिष्ट आवश्यकताओं को यदि न पूरा किया जाय, तो यह उनके लिए विनाशकारी हो सकता है। उन्नीसवीं सदी के पूरे दौर में यूरोप के उन्नत पूँजीवादी देशों में रात की शिफ्ट के काम के भयंकर नतीजे सामने आये। मज़दूर वर्ग ने इनके खिलाफ़ भी पुरजोर संघर्ष किया। नतीजतन, तमाम सरकारों को उन्नीसवीं सदी के दौरान ही रात्रि कार्य का भी लगातार कई बार विनियमन करना पड़ा।
साथ ही, मशीन के आने के साथ मनुष्य के पेशीय बल की भूमिका पहले के मुकाबले काफ़ी कम हो गयी। अब कुछ लीवरों को खींचने और बटनों को दबाने से काम हो जाता था। इसका यह अर्थ नहीं था कि इसमें मज़दूरों के श्रम की भूमिका समाप्त हो गयी। क्योंकि मशीनों को भी हमेशा मज़दूरों के पर्यवेक्षण में ही काम करना पड़ता है, अन्यथा वे निरन्तरता के साथ काम कर ही नहीं सकती हैं। उत्पादन की प्रक्रिया के दौरान उनकी मरम्मत, देख-रेख और उनके प्रचालन की निरन्तरता को सुनिश्चित करने के लिए त्रुटियों के निवारण की आवश्यकता पड़ती है। हर मज़दूर इस बात को जानता है। लेकिन मैन्युफैक्चरिंग के दौर की तुलना में यह अन्तर अवश्य आता है कि अब शुद्ध पेशीय बल की भूमिका कम हो जाती है, क्योंकि मज़दूर अपने हाथों से उपकरणों का प्रयोग नहीं कर रहा होता। इसके साथ पूँजीपति वर्ग के सामने एक और लाभदायक सम्भावना पैदा हुई। यह था स्त्रियों और बच्चों के श्रम का पूँजीवादी समाजीकरण और पूँजीवादी उत्पादन में बेशी मूल्य पैदा करने के लिए उसका इस्तेमाल करना। स्त्रियों और बच्चों का श्रम सस्ता था। इसलिए पूँजीपति वर्ग ने इस दौर में बड़े पैमाने पर उसके इस्तेमाल की शुरुआत की।
औद्योगिक क्रान्ति के शुरू होने के बाद से लेकर उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध तक औरतों और बच्चों के श्रम का जो अमानवीय शोषण पूँजीपति वर्ग ने किया वह तमाम उपन्यासों और कलात्मक रचनाओं का विषय बना, समाज में आम तौर पर इसके प्रति गहरा असन्तोष पैदा हुआ और मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों के एक हिस्से ने, मसलन, सरकारी डॉक्टरों, वकीलों व सामाजिक कार्यकर्ताओं व अर्थशास्त्रियों तक ने इसको विनियमित करने की माँग उठानी शुरू की। उन्नीसवीं सदी में ही पूँजीवादी सरकारों को विशेषकर ब्रिटेन व फ्रांस में बच्चों और औरतों के श्रम के पूँजीपतियों द्वारा शोषण को विनियमित करने की शुरुआत करनी पड़ी। लेकिन इसके पीछे सबसे बड़ा कारण था स्वयं विराट बन चुके सर्वहारा वर्ग का वर्ग संघर्ष जो लगातार कार्यदिवस की लम्बाई को कम करने, सुरक्षा उपकरणों व अन्य कार्य-स्थितियों को बेहतर बनाने के लिए चल रहा था। वह संघर्ष आज भी जारी है क्योंकि पूँजीपति वर्ग भी लगातार नये तौर-तरीकों से उन हक़ों को छीनने का प्रयास करता रहता है, जो उसने तमाम लड़ाइयों और कुर्बानियों के बाद अर्जित किये हैं। 1970 के दशक में नवउदारवाद की नीतियों की शुरुआत के साथ पूँजीपति वर्ग ने मज़दूर वर्ग द्वारा डेढ़ सदी में अर्जित तमाम हक़ों को छीनना शुरू किया। अनौपचारिकीकरण के ज़रिये मज़दूरों की नौकरी की सुरक्षा, आठ घण्टे के कार्यदिवस, सुरक्षा के इन्तज़ामात, साप्ताहिक छुट्टी, सामाजिक व आर्थिक सुरक्षा के अधिकारों को छीन लिया है। मज़दूर वर्ग नये सिरे से उसके लिए संघर्ष कर रहा है।
मशीनों के आने के साथ न सिर्फ कार्यदिवस पहले से लम्बा हो गया बल्कि श्रम की सघनता में भी भारी बढ़ोत्तरी हुई। वजह यह थी कि अब उत्पादन प्रक्रिया में मौजूद छोटे-छोटे अन्तराल अब न्यूनातिन्यून होते जाते हैं। मज़दूर मशीन का विस्तार बन जाता है और निरन्तर काम करता रहता है। नतीजतन, पूँजीवाद के दौर में मशीन मज़दूर के काम को आसान बनाने की जगह उसे ज़्यादा श्रमसाध्य, थकाऊ और लम्बा बनाती है। केवल एक समाजवादी व्यवस्था में मशीनीकरण वास्तव में मज़दूर वर्ग के काम को अधिक से अधिक आसान, सुगम और छोटा बना सकती है। उस समय मशीन की गति और लय पर नियन्त्रण किसी शत्रु वर्ग का नहीं होता है, बल्कि स्वयं मज़दूर वर्ग का होता है। मज़दूर वर्ग के अलगाव के समाप्त होने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है और यदि वह सफलतापूर्वक आगे बढ़ती है तो मशीनीकरण और उत्पादक शक्तियों में होने वाली हर तरक्की मज़दूर वर्ग के जीवन स्थितियों और कार्यस्थितियों को पहले से बेहतर बनाती जाती है। लेकिन पूँजीवाद में इसका ठीक उल्टा होता है, जैसा कि आज हम अपने चारों ओर देख सकते हैं।
मशीन के आने के साथ एक अन्य बड़ा परिवर्तन होता है, मज़दूरों के बीच बेरोज़गार मज़दूरों की रिज़र्व सेना के आकार में तेज़ी से बढ़ोत्तरी। मशीन श्रम की उत्पादकता में गुणात्मक और अभूतपूर्व बढ़ोत्तरी करती है। नतीजतन, मशीनें बड़े पैमाने पर मज़दूरों को विस्थापित करती हैं। इसका यह अर्थ नहीं होता कि मशीनें हमेशा बेरोज़गारी को बढ़ाती ही हैं। यदि मुनाफ़े की दर ज़्यादा हो, तो पूँजीपति वर्ग उत्पादन का इतना विस्तार कर सकता है कि मशीनों द्वारा विस्थापित मज़दूरों को पूर्णत: या आंशिक रूप में वापस काम पर लगा दे। लेकिन ऐसा केवल तभी होता है जब मुनाफ़े की दर अधिक हो और विस्तारित पुनरुत्पादन की दर मशीनों द्वारा मज़दूरों के विस्थापन की दर के बराबर या उससे ज़्यादा हो। अन्यथा, निरपेक्ष रूप में, मशीनें निश्चय ही मज़दूरों को विस्थापित करती हैं। पूँजी संचय की गति पर यह निर्भर करता है कि इसके बावजूद बेरोज़गारी बढ़ेगी, या स्थिर रहेगी या घटेगी। लम्बी दूरी में बेरोज़गार मज़दूरों की रिज़र्व आर्मी निरपेक्ष अर्थों में बढ़ती ही है।
लेकिन पूँजीपतियों के टट्टू कलमघसीटों ने मशीनों द्वारा मज़दूरों के विस्थापन की परिघटना पर यह दावा किया कि इससे पूँजी “मुक्त” होती है और “मुक्त” हुई पूँजी फिर से निवेश में जाती है और इस प्रकार वह निकाले गये मज़दूरों को फिर से काम पर रख लेती है। लेकिन मार्क्स ने बताया कि वास्तव में ऐसा नहीं होता है। मशीनीकरण से मुक्त हुई जो नयी पूँजी उत्पादन में लगती है, वह पुरानी पूँजी-सघनता (मशीन-मज़दूर अनुपात) के साथ नहीं निवेश की जाती है, बल्कि नयी पूँजी-सघनता के साथ निवेश की जाती है। इसलिए मशीनों के लगने के कारण जो पूँजी मज़दूरों को मज़दूरी देने के लिए होने वाले निवेश से मुक्त या स्वतन्त्र होती है, वह फिर से निवेशित होने पर उतने ही मज़दूरों को आम तौर पर काम पर नहीं रखती। मशीनीकरण के बाद निश्चय ही उत्पादन के पैमाने और उसकी मात्रा में बढ़ोत्तरी होती है, उत्पादन के साधनों, जैसे कि मशीनों व कच्चे माल की माँग बढ़ती है और मज़दूरों के रोज़गार में मशीनों के लगने के बावजूद वृद्धि केवल तभी हो सकती है, जबकि कुल पूँजी निवेश ही मुनाफ़े की बेहतर औसत दर के कारण इतना हो कि उत्पादन का निरपेक्ष रूप से इस हद तक विस्तार हो कि वह मशीनों द्वारा मज़दूरों के विस्थापन से ज़्यादा हो। मार्क्स ने पूँजीवाद के समर्थन में दिये गये इन कुतर्कों को तथ्यों और तर्कों के आधार पर ख़ारिज किया।
जैसा कि हम देख सकते हैं, सापेक्षिक बेशी मूल्य का सम्बन्ध सीधे तौर पर श्रम की उत्पादकता को बढ़ाने से है। श्रम की उत्पादकता आम तौर पर तकनोलॉजिकल सुधार के साथ, यानी उन्नत तकनोलॉजी व मशीनों को लगाने से बढ़ती है। लेकिन यही चीज़ मज़दूरों को काम से विस्थापित भी करती है। नतीजतन, एक लम्बी उथल-पुथल भरी प्रक्रिया में बेरोज़गारों की रिज़र्व सेना का भी विस्तार होता है। निश्चित तौर पर, इसके साथ निरपेक्ष रूप में रोज़गारशुदा मज़दूरों की संख्या भी बढ़ सकती है। कितने मज़दूर काम से बाहर हो रहे हैं, कितने वापस उद्योगों द्वारा काम पर लिये जा रहे हैं और कुल मिलाकर श्रम की सक्रिय सेना व श्रम की रिज़र्व सेना के अनुपात पर उसका क्या असर पड़ता है, यह बात औद्योगिक चक्र (industrial cycle) से निर्धारित होती है।
तकनोलॉजिकल उन्नति के दौरों में मज़दूर काम से बाहर किये जाते हैं; लेकिन मुनाफ़े की औसत दर के पर्याप्त मात्रा में बढ़ने पर निवेश की दर बढ़ती है और फिर विकर्षित किये गये मज़दूर उद्योगों द्वारा फिर से आकर्षित किये जाते हैं। तकनोलॉजिकल ठहराव के दौरों में मुनाफ़े की औसत दर के स्वस्थ होने की स्थिति में भी मज़दूरों का इस प्रकार उद्योगों द्वारा सोखा जाना जारी रहता है, क्योंकि विस्तारित पुनरुत्पादन होता रहता है। लेकिन आपसी प्रतिस्पर्द्धा और मज़दूर वर्ग का वर्ग संघर्ष लगातार पूँजीपतियों को उन्नत से उन्नत तकनोलॉजी और मशीनें लाने पर मजबूर करता है। नतीजतन, तकनोलॉजिकल नवोन्मेष एक बार फिर से मज़दूरों के विस्थापन का कारण बनता है। साथ ही, यह मुनाफ़े की औसत दर में गिरावट का कारण भी बनता है क्योंकि इसके साथ पूँजी-श्रम अनुपात बढ़ता जाता है और चूँकि नया जीवित श्रम ही नया मूल्य पैदा करता है, इसलिए मुनाफ़े की औसत दर एक प्रवृत्ति के रूप में गिरती है। इसे हम आगे के अध्यायों में विस्तार से समझेंगे कि यह क्यों और कैसे होता है। अभी इतना समझ लेना ज़रूरी है कि श्रम की उत्पादकता को बढ़ाकर सापेक्षिक बेशी मूल्य बढ़ाने के लिए जिन तरीकों का पूँजीपति वर्ग इस्तेमाल करता है, ठीक उन्हीं के कारण लम्बे दौर में मुनाफ़े की औसत दर में गिरने की प्रवृत्ति होती है। जब मुनाफ़े की औसत दर गिरती जाती है, तो वह अपने आपको सामान्य अतिउत्पादन व पूँजी के प्राचुर्य के रूप में प्रकट करती है। यह अतिउत्पादन सर्वप्रथम उत्पादन के साधनों का अतिउत्पादन होता है। मुनाफ़े की औसत दर के गिरने के फलस्वरूप निवेश की दर में गिरावट आती है। निवेश की दर गिरने के साथ पूँजीपतियों के बीच की आपसी ख़रीदारी में कमी आती है, जिसका सर्वाधिक बड़ा हिस्सा उत्पादन के साधनों की ख़रीद होता है। नतीजतन, उत्पादन के साधनों का अतिउत्पादन प्रकट होता है। निवेश की दर गिरने के साथ बेरोज़गारी भी बढ़ती है, आम मेहनतकश आबादी की औसत आय में कमी आती है और नतीजतन उनका औसत उपभोग भी कम होता है। परिणामत:, उपभोग के साधनों का अतिउत्पादन भी प्रकट होता है और आम तौर पर अतिउत्पादन की परिघटना प्रकट होती है। लेकिन इसके पीछे सापेक्षिक बेशी मूल्य को बढ़ाने के लिए पूँजीपति वर्ग द्वारा अपनाये गये तौर-तरीके होते हैं, जिनके कारण पूँजी-श्रम अनुपात या जिसे हम पूँजी का आवयविक संघटन कहते हैं, वह बढ़ता है, मुनाफ़े की औसत दर में गिरने की प्रवृत्ति अपने आपको अभिव्यक्त करती है और नतीजतन बेरोज़गारी, अतिउत्पादन व अल्पउपभोग की परिघटनाएँ सामने आती हैं। ऐसे दौरों में बेरोज़गार मज़दूरों की रिज़र्व सेना में निरपेक्ष रूप से बढ़ोत्तरी होती है।
यानी बेरोज़गार मज़दूरों की रिज़र्व सेना में बढ़ोत्तरी या कमी मूलत: तेज़ी और मन्दी के चक्र से जुड़ी हुई है। औद्योगिक चक्र किस अवस्था में है, यह तय करता है कि उद्योग शुद्ध रूप में श्रम को विकर्षित करेंगे, या आकर्षित करेंगे।
जैसा कि हमारा ऊपर पेश विश्लेषण दिखलाता है, तीन कारक आवश्यक व अतिरिक्त श्रमकाल की सापेक्षिक मात्राओं को तय करते हैं और इस प्रकार वे बेशी मूल्य की मात्रा और दर को भी निर्धारित करते हैं: पहला, श्रम की उत्पादकता; दूसरा, श्रम की सघनता; और तीसरा, कार्यदिवस की लम्बाई। श्रम की उत्पादकता बढ़ने पर अन्य चीज़ें समान रहने पर भी अतिरिक्त श्रमकाल सापेक्षिक रूप में बढ़ता है और यदि कुल मूल्य सृजन समान भी रहे तो उसमें श्रमशक्ति के मूल्य का हिस्सा, यानी जो अपने आपको मज़दूरी के रूप में प्रकट करता है, घट जाता है, जबकि बेशी मूल्य का हिस्सा, जो पूँजीपति के मुनाफ़े का स्रोत है, वह बढ़ जाता है। ध्यान रहे कि यदि श्रम की उत्पादकता बढ़ती है लेकिन कार्यदिवस व श्रम सघनता समान रहते हैं, तो कुल मूल्य सृजन उतना ही होता है, लेकिन उपयोग-मूल्यों की, यानी मालों की मात्रा बढ़ जाती है और समान मूल्य अब उपयोग-मूल्य की पहले से ज़्यादा मात्रा पर वितरित होता है। नतीजतन, माल का प्रति इकाई मूल्य कम हो जाता है। श्रम की सघनता बढ़ने का अर्थ है कि प्रति घण्टे मज़दूर द्वारा दिये जाने वाले श्रम की मात्रा में बढ़ोत्तरी हो जाती है। मसलन, मशीन की गति को बढ़ाकर या बीच के खाली अन्तरालों या विराम के समय को समाप्त कर पूँजीपति श्रम की सघनता को बढ़ाते हैं। इसके परिणामस्वरूप आवश्यक श्रमकाल कम होता है और अतिरिक्त श्रमकाल बढ़ता है। इसके ज़रिये मूल्य और उपयोग-मूल्य दोनों में ही वृद्धि होती है क्योंकि उतने ही समय में श्रम की मात्रा निरपेक्ष रूप से बढ़ती है, जो कि ज़्यादा मूल्य भी पैदा करती है और ज़्यादा उपयोग-मूल्य भी। कार्यदिवस की लम्बाई बढ़ाने का सीधा अर्थ है कुल श्रमकाल को निरपेक्ष रूप से बढ़ा देना, और यदि आवश्यक श्रमकाल समान ही रहता है, तो इसका अर्थ होगा अतिरिक्त श्रमकाल में निरपेक्ष बढ़ोत्तरी और नतीजतन मूल्य व उपयोग-मूल्य दोनों में वृद्धि।
(अगले अंक में जारी)
मज़दूर बिगुल, नवम्बर 2023
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन