क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षण माला – 14 : बेशी मूल्य का उत्पादन
अध्याय – 13
अभिनव
बेशी मूल्य ही समूचे पूँजीपति वर्ग के मुनाफ़े, लगान व ब्याज़ का स्रोत होता है। बेशी मूल्य के उत्पादन को समझने के लिए हमें पूँजीपति द्वारा निवेशित पूँजी के संघटन को समझना होगा। इस पूँजी को हम दो हिस्सों में बाँट सकते हैं: परिवर्तनशील पूँजी (variable capital) और स्थिर पूँजी (constant capital)। यह कोई मनमाने तरीके से किया गया बँटवारा नहीं है, बल्कि वैज्ञानिक तौर पर किया गया बँटवारा है। इसे समझे बग़ैर हम बेशी मूल्य के उत्पादन की प्रक्रिया, बेशी मूल्य की दर व शोषण की दर को उपयुक्त रूप में नहीं समझ सकते हैं।
परिवर्तनशील पूँजी और स्थिर पूँजी
हमने पिछले अध्याय में पढ़ा था कि उत्पादन के साधनों का मूल्य श्रम द्वारा संरक्षित किया जाता है और उसे माल के मूल्य में ज्यों का त्यों स्थानान्तरित कर दिया जाता है। हम जानते हैं कि हर उत्पादन का साधन एक विशिष्ट प्रकार का उत्पादन का साधन होता है। किसी भी उत्पादन के साधन का उत्पादक उपभोग, यानी उत्पादन की प्रक्रिया में उसका ख़र्च, एक ख़ास प्रकार के ठोस श्रम द्वारा ही हो सकता है। मसलन, उत्पादन की प्रक्रिया में आरी का उत्पादक ख़र्च उस प्रकार नहीं हो सकता है, जिस प्रकार फावड़े का होता है। दोनों का उत्पादक उपभोग अलग-अलग प्रकार के ठोस मूर्त श्रम द्वारा ही सम्भव है। कहने का तात्पर्य है कि इन दोनों उत्पादन के साधनों का इस्तेमाल अलग-अलग तरह से अलग-अलग प्रकार के ठोस उत्पादक श्रम के ज़रिये ही हो सकता है। इसलिए उत्पादन के साधनों के मूल्य को संरक्षित करना और उन्हें ज्यों का त्यों माल के मूल्य में स्थानान्तरित करना मूर्त श्रम (concrete labour) का काम होता है। यह श्रमशक्ति का पहली नैसर्गिक ख़ूबी होती है। यानी, अपने ख़र्च होने की प्रक्रिया में उत्पादन के साधनों का उत्पादक उपभोग करना और उनके मूल्य को संरक्षित कर माल के मूल्य में स्थानान्तरित करना वह प्रकार्य है जो कि श्रमशक्ति एक निश्चित प्रकार का मूर्त श्रम देकर पूरा करती है।
श्रमशक्ति की दूसरी नैसर्गिक ख़ूबी होती है अपने ख़र्च होने की प्रक्रिया में अपने मूल्य से ज़्यादा मूल्य पैदा करना। यह अमूर्त श्रम का प्रकार्य होता है क्योंकि मूल्य का सारतत्व साधारण अमूर्त श्रम होता है। हम पहले के अध्यायों में समझ चुके हैं कि जब हम भिन्न मालों का विनिमय करते हैं, तो हम उनमें लगे मूर्त श्रम और विशिष्ट उपयोग मूल्य पर ध्यान नहीं देते हैं, उसे नज़रन्दाज़ करते हैं और उसमें लगे अमूर्त श्रम पर ग़ौर करते हैं, यानी आम तौर पर मनुष्य के मस्तिष्क, नसों, मांसपेशियों द्वारा किया गया कार्य। इस अमूर्त श्रम को सामाजिक रूप से आवश्यक श्रमकाल में मापा जाता है, जो किसी भी उत्पादन शाखा में उत्पादन की औसत स्थितियों से निर्धारित होता है। श्रमशक्ति अपने ख़र्च होने की प्रक्रिया में उससे ज़्यादा अमूर्त श्रम देती है, जितना कि स्वयं उन मालों के उत्पादन में लगता है जिनका उपभोग मज़दूर श्रमशक्ति के पुनरुत्पादन के लिए करता है। यानी श्रमशक्ति अपने उत्पादक उपभोग की प्रक्रिया में उससे ज़्यादा अमूर्त श्रम देती है जितना अमूर्त श्रम स्वयं श्रमशक्ति के पुनरुत्पादन में लगता है। यानी श्रमशक्ति अपने मूल्य से ज़्यादा मूल्य अपने उत्पादक उपभोग में पैदा करती है। पहले वह मज़दूरी के बराबर मूल्य पैदा करती है और उसके बाद वह उससे ऊपर बेशी मूल्य पैदा करती है। यानी उसके द्वारा पैदा किये गये नये मूल्य के दो हिस्से होते हैं: मज़दूरी और बेशी मूल्य। यही श्रमशक्ति की दूसरी नैसर्गिक ख़ूबी है और यह पूँजीपति के लिए सबसे ज़्यादा अहम होती है।
चूँकि उत्पादन के साधनों का मूल्य उत्पादन की प्रक्रिया में नहीं बढ़ता और न ही वे अपने से कोई नया मूल्य पैदा करते हैं, इसलिए पूँजी का वह हिस्सा जो पूँजीपति उत्पादन के साधनों को ख़रीदने पर लगाता है, स्थिर पूँजी (constant capital) कहलाता है। उत्पादन के साधनों का मूल्य एक बार में उत्पादित माल में स्थानान्तरित हो सकता है, या फिर टुकड़े-टुकड़े में। मसलन, कच्चे माल भौतिक तौर पर भी माल में तब्दील हो जाते हैं और उनका पूरा मूल्य भी एक बार में माल में स्थानान्तरित हो जाता है। जबकि कोई मशीन या इमारत अपना मूल्य धीरे-धीरे टुकड़े-टुकड़े में माल में स्थानान्तरित करती है, जबकि भौतिक तौर पर वह माल में कभी रूपान्तरित नहीं होती, उत्पादन की प्रक्रिया में बस उसकी घिसाई होती जाती है। मिसाल के तौर पर, यदि किसी मशीन की औसत उम्र एक साल है, यानी वह हर रोज़ 8 घण्टे काम करने पर एक साल तक चलती है, तो इसका अर्थ है कि हर दिन उस मशीन के मूल्य का 1/365वाँ हिस्सा माल में स्थानान्तरित होता है। साल पूरा होने पर वह उत्पादन में लगने योग्य नहीं रह जाती, उसकी ‘मृत्यु’ हो जाती है, उसका पूरा मूल्य उत्पादित माल में स्थानान्तरित हो चुका होता है और जो बचता है वह मार्क्स के शब्दों में ‘मशीन का शव’ होता है। इस प्रकार पूरे साल में उस मशीन का पूरा मूल्य माल में स्थानान्तरित हो जाता है। निश्चित तौर पर, जिन उत्पादन के साधनों का मूल्य अंश-अंश में स्थानान्तरित होता है, वे भी एक उपयोग-मूल्य के तौर पर पूर्ण रूप में उत्पादन में भागीदारी करते हैं। यानी, उनके मूल्य के अंश-अंश में स्थानान्तरित होने का अर्थ यह नहीं है कि एक ठोस उपयोग-मूल्य, यानी एक मशीन के तौर पर भी वे उत्पादन में अंश-अंश में हिस्सा लेते हैं। उत्पादन में वे अपने पूरे भौतिक अस्तित्व के साथ भागीदारी करती हैं।
साथ ही, अगर किसी मशीन की उम्र पूरी होने से पहले उस मशीन का उत्पादन करने वाले उद्योग में उत्पादकता बढ़ने के कारण लागत कम हो जाती है और मशीन का मूल्य तथा कीमत गिर जाती है, तो पहले से उत्पादन में इस्तेमाल की जा रही इस विशिष्ट मशीन का मूल्य भी गिर जायेगा। मिसाल के तौर पर, अगर किसी बर्तन बनाने वाले पूँजीपति ने एक प्रेस मशीन 1 लाख रुपये में 2022 में ख़रीदी और इस मशीन की उम्र औसतन एक वर्ष है, तो ये 1 लाख रुपये एक वर्ष में माल के मूल्य में अंश-अंश में स्थानान्तरित होते रहेंगे; यानी, हर दिन 1 लाख रुपये का 1/365वाँ हिस्सा, यानी लगभग रु. 274, माल में स्थानान्तरित होगा। लेकिन अगर इसी बीच इस मशीन की बाज़ार कीमत गिरकर 75 हज़ार रुपये हो जाती है, तो बचे हुए समय में मशीन का मूल्य इस घटे हुए सामाजिक मूल्य के अनुसार ही स्थानान्तरित होगा। वजह यह कि हर नयी पूँजी इस मशीन को नयी कीमत पर ख़रीदेगी और वह माल में इस नये सामाजिक मूल्य को ही साल भर में टुकड़े-टुकड़े में स्थानान्तरित करेगी और बाज़ार की सामान्य औसत स्थितियों द्वारा तय नया सामाजिक मूल्य की माल में स्थानान्तरित होगा। पूँजीपति वर्ग की आपसी प्रतिस्पर्द्धा इस बात को सुनिश्चित करती है। यही वजह है कि पूँजीपति जल्द से जल्द अपने उत्पादन के साधनों को उत्पादन की प्रक्रिया में खपाकर उनका मूल्य माल में स्थानान्तरित कर देना चाहते हैं। हमें हमेशा यह बात ध्यान में रखनी होगी कि मूल्य एक सामाजिक निर्धारण है।
इतना स्पष्ट है कि उत्पादन के साधन कोई नया मूल्य नहीं पैदा करते और ज़्यादा से ज़्यादा अपने मूल्य को ही एक बार में या अंशों में माल के मूल्य में स्थानान्तरित करते हैं। यह प्रकार्य श्रम द्वारा ही पूरा किया जाता है। यही वजह है कि उत्पादन के साधनों पर पूँजीपति की पूँजी का जो हिस्सा ख़र्च होता है, उसे स्थिर पूँजी कहा जाता है।
श्रमशक्ति को ख़रीदने के लिए पूँजी का जो हिस्सा ख़र्च होता है, यानी वह हिस्सा जो मज़दूरों को मज़दूरी देने में ख़र्च होता है, उसे परिवर्तनशील पूँजी (variable capital) कहते हैं क्योंकि मज़दूर पहले अपनी मज़दूरी के बराबर मूल्य पैदा करता है और फिर उसके ऊपर अतिरिक्त मूल्य या बेशी मूल्य पैदा करता है। यानी, पूँजी का यह हिस्सा निवेशित होने पर बढ़ता है क्योंकि इससे एक ऐसा माल ख़रीदा जाता है, जो कि अपने उत्पादक उपभोग, यानी उत्पादन के दौरान ख़र्च होने की प्रक्रिया में स्वयं अपने मूल्य से ज़्यादा मूल्य पैदा करता है।
यहाँ यह ध्यान रखना ज़रूरी है पूँजीपति मज़दूर को मज़दूरी उधार नहीं देता बल्कि वास्तव में मज़दूर पूँजीपति को अपना श्रम उधार देता है, जिसका भुगतान बाद में होता है, यानी तब, जब मज़दूर ने अपनी मज़दूरी से ज़्यादा मूल्य पैदा कर दिया है। इसलिए उत्पादन की प्रक्रिया के दौरान पूँजीपति मज़दूर का कर्ज़दार होता है, न कि मज़दूर पूँजीपति का। यह परिवर्तनशील पूँजी, यानी मज़दूरी पर ख़र्च होने वाला पूँजी का अंश ही है जो बेशी मूल्य को पैदा करता है क्योंकि इसका भौतिक तत्व है श्रमशक्ति, एक ऐसा ख़ास माल जो अपने उत्पादन में लगने वाले श्रम से ज़्यादा श्रम दे सकता है और यही अतिरिक्त श्रम बेशी मूल्य और मुनाफ़े का आधार होता है।
बेशी मूल्य की दर
परिवर्तनशील पूँजी ही बेशी मूल्य को पैदा करती है क्योंकि श्रम ही मूल्य और बेशी मूल्य को पैदा करता है। इसे आप एक साधारण उदाहरण से समझ सकते हैं। उत्पादन की ऐसी कई शाखाएँ हैं जिनमें पूँजीपति कोई भी उत्पादन के साधन नहीं ख़रीदता है और समूची उत्पादन प्रक्रिया के केवल दो ही तत्व होते हैं: श्रमशक्ति और प्रकृति। मिसाल के तौर पर, कुछ प्रकार की खदानें जिनकी उत्पादन की प्रक्रिया में श्रमशक्ति और प्रकृति के संसाधनों के अलावा और कुछ नहीं लगता। इस स्थिति में हम बेशी मूल्य को तभी समझ सकते हैं, यानी पूँजीपति के मुनाफ़े की तभी व्याख्या कर सकते हैं जब हम यह समझें कि बेशी मूल्य श्रमशक्ति द्वारा उत्पादन की प्रक्रिया में पैदा किया जाता है। श्रमशक्ति पहले मज़दूरी के बराबर मूल्य पैदा करती है और फिर उसके ऊपर बेशी मूल्य पैदा करती है। यानी, जहाँ स्थिर पूँजी 0 होती है वहाँ भी पूँजीपति मुनाफ़ा विनियोजित करता है और ऐसा ठीक इसलिए होता है कि नया मूल्य, यानी मज़दूरी और बेशी मूल्य, केवल और केवल श्रमशक्ति द्वारा, यानी मज़दूर द्वारा पैदा किया जाता है और उत्पादन के साधनों का मूल्य, बस माल के मूल्य में स्थानान्तरित होता है।
मज़दूर श्रमकाल के जिस हिस्से में अपनी मज़दूरी के बराबर मूल्य पैदा करता है उसे आवश्यक श्रमकाल (necessary labour-time) कहते हैं, क्योंकि यह श्रमशक्ति के पुनरुत्पादन के लिए आवश्यक होता है और इसके बिना उत्पादन निरन्तर जारी रह ही नहीं सकता है। यह जितना मज़दूर के लिए आवश्यक है, उतना ही पूँजीपति के लिए भी आवश्यक है क्योंकि उसके मुनाफ़े का आधार यही है। इस आवश्यक श्रमकाल के बाद मज़दूर बेशी मूल्य पैदा करता है और कार्यदिवस का वह हिस्सा जिसमें वह बेशी मूल्य पैदा करता है, अतिरिक्त श्रमकाल (surplus labour-time) कहलाता है। आवश्यक श्रमकाल में किया गया आवश्यक श्रम (necessary labour) आवश्यक उत्पाद (necessary product) में मूर्त रूप ग्रहण करता है, जबकि अतिरिक्त श्रमकाल में किया गया अतिरिक्त श्रम (surplus labour) अतिरिक्त उत्पाद (surplus product) में मूर्त रूप ग्रहण करता है।
अलग-अलग शोषणकारी वर्ग समाजों के बीच इसी आधार पर अन्तर किया जाता है कि प्रत्यक्ष उत्पादक वर्ग के अतिरिक्त श्रम को शासक-शोषक वर्ग किस प्रकार हड़पते हैं। दास व्यवस्था में दास स्वयं दास स्वामी की सम्पत्ति होता था और वह जैसे चाहे उसके अतिरिक्त श्रम को हड़प सकता था। सामन्ती व्यवस्था में प्रत्यक्ष उत्पादक निश्चित दिनों के दौरान अपने प्लाट पर खेती करता था और बाकी दिनों सामन्ती भूस्वामी के खेत पर बिना किसी मेहनताने के खेती करता था। इन व्यवस्थाओं में अतिरिक्त श्रम को हड़पने की प्रक्रिया व्यवस्थित तौर पर आर्थिकेतर ज़ोर-जबर्दस्ती पर निर्भर करती थी, जिसके आधार में राज्य की हिंसा और धार्मिक विचारधारा का वर्चस्व खड़ा था। लेकिन पूँजीवादी उत्पादन पद्धति की ख़ासियत यह होती है कि इसमें अतिरिक्त उत्पाद को पूँजीपति वर्ग ज़ोर-ज़बर्दस्ती के बूते नहीं हड़पता है। प्रत्यक्ष उत्पादक उत्पादक के साधनों से वंचित किये जा चुके होते हैं, लेकिन वे दासत्व व भूदासत्व से भी मुक्त हो चुके होते हैं। नतीजतन, वे “दोहरे तौर पर आज़ाद” हो चुके होते हैं: यानी वे उत्पादन के साधनों के मालिकाने से “आजाद” हो चुके होते हैं और वे अपनी श्रमशक्ति किसी को भी बेचने के लिए “आज़ाद” हो चुके होते हैं! अब पूँजीपति उनकी श्रमशक्ति को ख़रीदता है और उसे पूरे दिन के लिए इस्तेमाल करने का अधिकारी होता है। श्रमशक्ति एक कार्यदिवस में अपने मूल्य से ज़्यादा मूल्य पैदा करती है, यानी मज़दूर एक दिन में अपने गुज़ारे के लिए आवश्यक दिहाड़ी से ज़्यादा मूल्य पैदा करके पूँजीपति को देता है। लेकिन चूँकि अब आवश्यक श्रमकाल और अतिरिक्त श्रमकाल एक ही सजातीय, एकाश्मी कार्यदिवस का अंग होते हैं और समय और स्थान में अलग-अलग नहीं होते, इसलिए अब औपचारिक तौर पर ऐसा लगता है कि कहीं कोई शोषण नहीं है! मज़दूर मेहनत करता है और उसका मेहनताना उसे मिल जाता है! लेकिन फिर पूँजीपति का मुनाफ़ा कहाँ से आता है? यह सच्चाई अब छिप जाती है कि मज़दूर का अतिरिक्त श्रम ही पूँजीपति को अतिरिक्त उत्पाद देता है जिसे बेचकर वह मुनाफ़ा हासिल करता है। यह सच्चाई अब वैज्ञानिक विश्लेषण से ही सामने आती है। इसे ही मार्क्स ने पूँजीवादी शोषण का घृणित क्षुद्र रहस्य कहा और इसी वजह से पूँजीवादी समाज का एक फेटिश चरित्र होता है, यानी ऐसा चरित्र जो कि सच्चाई को छिपाता है, उस पर पर्दा डालता है और हमें उस सच्चाई को समझने से रोकता है।
बहरहाल, आगे बढ़ते हैं। श्रम के शोषण की दर (degree of exploitation of labour) अतिरिक्त श्रम और आवश्यक श्रम का अनुपात है। यानी,
श्रम के शोषण की दर = अतिरिक्त श्रम/आवश्यक श्रम
Degree of exploitation = surplus labour/necessary labour, or, SL/NL
इसी अनुपात को श्रमकाल के रूप में भी रखा जा सकता है, यानी,
श्रम के शोषण की दर = अतिरिक्त श्रमकाल/आवश्यक श्रमकाल
surplus labour-time /necessary labour-time = SLT/NLT
याद रहे कि श्रम के शोषण की दर श्रम के शोषण की निरपेक्ष मात्रा को नहीं दिखलाती है। मसलन, अगर एक मज़दूर 5 घण्टे में अपनी मज़दूरी के बराबर मूल्य सृजित कर देता है और बाकी 5 घण्टे वह पूँजीपति के लिए बेशी मूल्य पैदा करता है, तो शोषण की दर 100 प्रतिशत (5 घण्टे/5 घण्टे) हुई। मान लें कि बाद में वह 6 घण्टे में अपनी मज़दूरी के बराबर मूल्य पैदा करता है और 6 घण्टे पूँजीपति के लिए बेशी मूल्य पैदा करता है, तो भी शोषण की दर हुई 100 प्रतिशत लेकिन निरपेक्ष अर्थों में शोषण की मात्रा 5 घण्टे अतिरिक्त श्रम से बढ़कर 6 घण्टे अतिरिक्त श्रम हो गयी।
जब हम शोषण की दर को स्वतन्त्र मूल्य-रूप यानी मुद्रा के रूप में अभिव्यक्त करते हैं तो उसे ही हम बेशी मूल्य की दर (rate of surplus value) कहते हैं। यानी, जब पूँजीपति आवश्यक श्रमकाल में पैदा उत्पाद व अतिरिक्त श्रमकाल में पैदा उत्पाद, यानी कि आवश्यक उत्पाद व अतिरिक्त उत्पाद को बेचकर मज़दूरी के बराबर मूल्य और बेशी मूल्य को मुद्रा के रूप में वापस प्राप्त कर लेता है, तो अतिरिक्त श्रम व आवश्यक श्रम उसके पास मुद्रा पूँजी के रूप में मौजूद होता है। शोषण की दर जीवित श्रम के रूप में अभिव्यक्त होती है, जबकि बेशी मूल्य की दर वस्तुकृत (objectified – उत्पाद का रूप ग्रहण कर चुके) हो चुके और वास्तवीकृत (realized – बिक चुके) हो चुके श्रम, यानी मृत श्रम के रूप में अभिव्यक्त होती है।
बेशी मूल्य की दर = बेशी मूल्य/परिवर्तनशील पूँजी
S = s/v
(v = परिवर्तनशील पूँजी जो मज़दूरी पर ख़र्च होती है; s = बेशी मूल्य)
श्रम के शोषण की दर उसी सच्चाई को जीवित श्रम की मात्राओं के अनुपात में पेश करती है, जिसे बेशी मूल्य की दर मूल्य-रूप में, या मृत श्रम की मात्राओं के रूप में पेश करती है। पूँजीपति वर्ग अपनी वर्ग दृष्टि और अपने वर्ग हितों के कारण बेशी मूल्य की दर को नहीं समझता। वह बेशी मूल्य और मज़दूरी पर ख़र्च परिवर्तनशील पूँजी के अनुपात को नहीं देखता, बल्कि मुनाफ़े और कुल पूँजी के अनुपात को देखता है। उसके लिए उसका मुनाफ़ा अपनी पूरी पूँजी से ही पैदा हो रहा है, न कि श्रमशक्ति के द्वारा। लेकिन हम ऊपर दिये गये उदाहरण में देख चुके हैं कि यह बात कि मुनाफ़ा केवल श्रमशक्ति से ही पैदा होता है, उन खनन उद्योगों के उदाहरण से एकदम साफ़ हो जाती है जहाँ उत्पादन के साधनों पर निवेश शून्य होता है और उत्पादन में केवल प्राकृतिक संसाधन व श्रमशक्ति का ही इस्तेमाल होता है। वजह यह कि मूल्य और कुछ नहीं होता बल्कि वस्तुकृत श्रम ही होता है। इसलिए बेशी मूल्य की दर की गणना की पद्धति मार्क्स के शब्दों में यह होती है:
“इसलिए बेशी मूल्य की दर का आकलन करने की पद्धति संक्षेप में इस प्रकार है। हम उत्पाद के कुल मूल्य को लेते हैं और स्थिर पूँजी को जो कि उत्पाद के मूल्य में केवल दोबारा प्रकट हो रही है, को शून्य कर देते हैं। जो बचता है वह मात्र वह मूल्य होता है जो कि माल के उत्पादन की प्रक्रिया में सृजित हुआ है। अगर बेशी मूल्य की मात्रा दी गयी हो, तो हमें केवल उसे केवल इस शेष राशि से घटाने की आवश्यकता होगी, जिससे कि हमें परिवर्तनशील पूँजी की मात्रा का पता चल जाता है। और इसके विपरीत अगर परिवर्तनशील पूँजी की मात्रा दी गयी हो, तो इसकी उल्टी क्रिया द्वारा हम बेशी मूल्य का पता लगा सकते हैं। अगर दोनों ही दिये हुए हों, तो हमें केवल अन्तिम गणना करनी होगी, यानी s/v की गणना करना, यानी बेशी मूल्य और परिवर्तनशील पूँजी के अनुपात की गणना।” (कार्ल मार्क्स, 1982, कैपिटल, वॉल्यूम 1, पेंगुइन पब्लिशर्स, लन्दन, पृ. 327)
इसके बाद मार्क्स कई ठोस उदाहरणों के साथ बेशी मूल्य का आकलन करके दिखलाते हैं, जिनको पाठक सन्दर्भित कर सकता है। सबसे अहम बात यह है कि चूँकि अतिरिक्त मूल्य या बेशी मूल्य परिवर्तनशील पूँजी का प्रकार्य है, उसी से पैदा होता है इसलिए उसकी दर की गणना परिवर्तनशील पूँजी के सापेक्ष ही की जा सकती है, न कि कुल पूँजी के सापेक्ष। याद रखें, यहाँ हम बेशी मूल्य की बात कर रहे हैं, मुनाफ़े की नहीं। बेशी मूल्य की मात्रा और मुनाफ़े की मात्रा समान होती है लेकिन बेशी मूल्य परिभाषा से ही परिवर्तनशील पूँजी के सापेक्ष निर्धारित श्रेणी है जबकि मुनाफ़ा (profit) कुल पूँजी के सापेक्ष निर्धारित श्रेणी है। आम तौर पर, इन शब्दों को अदल-बदलकर इस्तेमाल किया जाता है। ऐसे में, जहाँ हमारा अर्थ बेशी मूल्य के परिमाण और मुनाफ़े के परिमाण से है, तो कुछ जगहों पर हमारा काम चल सकता है, लेकिन जहाँ कहीं भी बेशी मूल्य के मुनाफ़े, लगान व ब्याज़ में विभाजन की बात हो रही हो या जहाँ बेशी मूल्य व मुनाफ़े के परिमाणों की नहीं बल्कि उनकी दरों की बात हो रही हो, वहाँ हम इन दोनों शब्दों को अदल-बदलकर नहीं इस्तेमाल कर सकते हैं। इस पर हम आगे के अध्यायों में बात करेंगे। अभी इतना समझ लेना काफ़ी है कि बेशी मूल्य की दर का आकलन हमेशा परिवर्तनशील पूँजी के सापेक्ष ही होती है।
इस प्रकार हम पूँजीवादी उत्पादन के फलस्वरूप पैदा होने वाले माल को मूल्य के रूप में विभाजित करके भी पेश कर सकते हैं, उत्पाद के रूप में विभाजित करके भी पेश कर सकते हैं और श्रमकाल के रूप में विभाजित करके भी पेश कर सकते हैं। माल के मूल्य को इस रूप में पेश किया जा सकता है:
माल का मूल्य = स्थिर पूँजी + परिवर्तनशील पूँजी + बेशी मूल्य = c + v + s
या,
कुल उत्पाद = अतीत के श्रम से पैदा उत्पादन के साधन + जीवित श्रम से पैदा आवश्यक उत्पाद + जीवित श्रम से पैदा बेशी उत्पाद
या,
कुल श्रमकाल = उत्पादन के साधनों के उत्पादन में अतीत में लगा कुल श्रमकाल + आवश्यक श्रमकाल + अतिरिक्त श्रमकाल
इन तीनों रूपों में ही कुल उत्पाद को अभिव्यक्त किया जा सकता है।
कहने की आवश्यकता नहीं है कि पूँजीपति हमेशा बेशी मूल्य की दर और उसकी मात्रा दोनों को ही बढ़ाने की कोशिश करता है। बेशी मूल्य को बढ़ाने के लिए पूँजीपति वर्ग दो तरीकों का इस्तेमाल करता है। पहला तरीका है निरपेक्ष बेशी मूल्य (absolute surplus value), जिसका इस्तेमाल पूँजीपति पूँजीवादी उत्पादन पद्धति के विकास के शुरुआती दौर में ज़्यादा किया करते थे, हालाँकि आज भी जब भी मौका मिले वे इस तरीके का इस्तेमाल करते हैं। दूसरा तरीका होता है सापेक्षिक बेशी मूल्य (relative surplus value)। इस तरीके का इस्तेमाल पूँजीवादी उत्पादन पद्धति के उन्नत होने के साथ आम प्रवृत्ति बनता जाता है। इन दोनों पर ही अलग से चर्चा करना पूँजीपति वर्ग द्वारा मज़दूर वर्ग के शोषण को समझने के लिए अनिवार्य है।
निरपेक्ष बेशी मूल्य
हमने ऊपर देखा कि कुल श्रमकाल यानी पूरे कार्यदिवस को दो हिस्सों में बाँटा जा सकता है: आवश्यक श्रमकाल और अतिरिक्त श्रमकाल। आवश्यक श्रमकाल, यानी वह समय जब मज़दूर अपनी मज़दूरी यानी, फिलहाल हम यह मान सकते हैं कि, अपनी श्रमशक्ति के मूल्य के बराबर मूल्य पैदा करता है। आवश्यक श्रमकाल इस बात पर निर्भर करता है कि मज़दूर की श्रमशक्ति का मूल्य क्या है? मज़दूर की श्रमशक्ति का मूल्य उन उत्पादों के मूल्य से निर्धारित होता है, जिनका उपभोग मज़दूर व उसका परिवार अपनी बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए करते हैं। इन उत्पादों को मज़दूरी–उत्पाद (wage-goods) कहा जाता है। नतीजतन, श्रमशक्ति का मूल्य उन उद्योगों में श्रम की उत्पादकता पर निर्भर करता है, जो मज़दूरी-उत्पाद पैदा करते हैं या फिर उन उद्योगों में श्रम की उत्पादकता पर निर्भर करता है जो कि मज़दूरी-उत्पाद पैदा करने वाले उद्योगों को उत्पादन के साधनों की आपूर्ति करते हैं।
मान लें कि ऐसे उद्योगों में श्रम की उत्पादकता स्थिर है। ऐसे में श्रमशक्ति का मूल्य भी लगभग स्थिर रहेगा। नतीजतन, आवश्यक श्रमकाल भी समान ही रहेगा। यदि आवश्यक श्रमकाल में कोई परिवर्तन नहीं आता है, तो फिर बेशी मूल्य को बढ़ाने का एक ही तरीका रह जाता है: कुल श्रमकाल को बढ़ाना। जब पूँजीपति काम के घण्टों को बढ़ाकर यानी कुल श्रमकाल में वृद्धि करके बेशी मूल्य को बढ़ाते हैं तो इसे निरपेक्ष बेशी मूल्य कहा जाता है क्योंकि यह समूचे कार्यदिवस की लम्बाई में निरपेक्ष बढ़ोत्तरी पर आधारित होता है।
कार्यदिवस की लम्बाई निर्धारणीय होती है लेकिन निर्धारित नहीं होती। यानी उसे तय किया जा सकता है, लेकिन वह पहले से तय नहीं होती है। कार्यदिवस की लम्बाई पूँजीपति वर्ग और मज़दूर वर्ग के बीच के संघर्ष पर निर्भर करती है। पूँजीपति उसे अधिकतम सम्भव लम्बा रखने की कोशिश करते हैं, जबकि मज़दूर उसे कम करने के लिए संघर्ष करते हैं। पूँजीपति कार्यदिवस को अधिक लम्बा बनाने की लगातार कोशिश करते हैं, क्योंकि मुनाफ़े की उनकी हवस की कोई हद नहीं होती है। पूँजीवादी उत्पादन पद्धति से पहले के शोषणकारी वर्ग समाजों में शासक वर्ग जैसे कि सामन्तों, राजाओं, दास स्वामियों आदि की लालच की एक सीमा थी: उनके ऐशो-आराम और ऐय्याशी की चाहत और माँग। लेकिन पूँजीपति के लिए ऐसी कोई सीमा नहीं होती है। उसका नारा ही यह होता है: पैसे से अधिक पैसा बनाना। अधिक पैसा बनाने का और कोई लक्ष्य नहीं होता, सिवाय उससे भी अधिक पैसा बनाने के! इसलिए पूँजीपति का अतिरिक्त श्रम को हड़पने का लालच असीम होता है, क्योंकि यही अतिरिक्त श्रम बेशी मूल्य और इसलिए मुनाफ़े का स्रोत है। इसलिए पूँजीपति हर सूरत में बेशी श्रम की मात्रा को बढ़ाना चाहता है, बेशी श्रमकाल को बढ़ाना चाहता है। जब तक आवश्यक श्रमकाल को कम नहीं किया जा सकता, तब तक पूँजीपति श्रमकाल को निरपेक्ष रूप से बढ़ाने के तरीके से ही अतिरिक्त श्रमकाल को बढ़ाने का प्रयास करता है। वहीं मज़दूर वर्ग इस प्रयास को नाकाम करने के लिए संघर्ष करता है और एक मानवीय जीवन के अधिकार के लिए अपने काम के घण्टों को कम करने की लड़ाई लड़ता है।
कार्यदिवस की सीमा दो कारकों पर निर्भर करती है: कार्यदिवस की लम्बाई को इतना नहीं बढ़ाया जा सकता कि मज़दूर वर्ग अपनी श्रमशक्ति का न्यूनतम आवश्यक स्वस्थ स्थिति में पुनरुत्पादन ही न कर सके। औद्योगिक क्रान्ति के दौर में इंग्लैण्ड में जब पूँजीपति वर्ग ने मुनाफ़े की अपनी अन्धी हवस में कार्यदिवस को 14, 16 और कई जगहों पर 18 घण्टे तक बढ़ा दिया, मज़दूरों की जीवन प्रत्याशा घटकर 21-22 वर्षों पर आ गयी, बच्चों व स्त्रियों के श्रम के भयंकर शोषण के फलस्वरूप बाल मृत्यु दर, अरक्तता और रोगों का घटाटोप मज़दूर वर्ग में छा गया और मज़दूर वर्ग के लिए अपनी श्रमशक्ति का स्वस्थ स्थिति में पुनरुत्पादन ही सम्भव नहीं रह गया तो पूँजीपति वर्ग की राज्यसत्ता ने कार्यदिवस की लम्बाई पर कुछ कानूनी सीमाएँ लागू करना शुरू किया। पूँजीवादी राज्यसत्ता पूँजीपति वर्ग के दूरगामी आम राजनीतिक हितों को ध्यान में रख कर काम करती है; वह अलग–अलग पूँजीपतियों के समान तात्कालिक व्यक्तिगत आर्थिक हितों को प्राथमिकता नहीं देती, बल्कि पूँजीपति वर्ग के राजनीतिक शासन को क़ायम रखने को अपना लक्ष्य बनाती है। नतीजतन, वह कई बार व्यक्तिगत पूँजीवादी हितों को नज़रन्दाज़ कर सकती है, व्यक्तिगत पूँजीपतियों की माँगों को अस्वीकार कर सकती है और कई बार पूँजीवादी व्यवस्था के औपचारिक नियमों के उल्लंघन पर किसी या किन्हीं पूँजीपतियों को दण्डित भी कर सकती है। पूँजीवादी राज्यसत्ता की यह सापेक्षिक स्वायत्तता ही उसके वर्ग चरित्र को आम लोगों के सामने धूमिल करने का काम करती है और लोगों में यह भ्रम पैदा करती है कि वह निष्पक्ष है। लेकिन थोड़ा क़रीबी से निगाह डालते ही साफ़ हो जाता है कि ऐसा करते समय भी पूँजीवादी राज्यसत्ता पूँजीपति वर्ग के दूरगामी आम राजनीतिक हितों की ही सेवा करती है। बहरहाल, काम के घण्टों पर एक कानूनी सीमा रखने के पीछे भी पूँजीवादी राज्यसत्ता का यही प्रकार्य मौजूद था। यदि मज़दूर वर्ग अपनी श्रमशक्ति का पुनरुत्पादन ही स्वस्थ स्थिति में नहीं कर पायेगा, यदि उसका विद्रोह श्रम और पूँजी के बीच एक सतत् युद्ध जैसी स्थिति पैदा करेगा और मज़दूर वर्ग के रैडिकल चरित्र को उभारेगा तो फिर पूँजीवादी व्यवस्था और पूँजीपति वर्ग के शासन के लिए न तो यह आर्थिक तौर पर अच्छी बात होगी और न ही राजनीतिक तौर पर। इसलिए पहला कारक जिस पर कार्यदिवस की लम्बाई निर्भर करती है वह है पूँजीवादी राज्यसत्ता द्वारा पूँजीवाद और पूँजीपति वर्ग को दीर्घायु बनाने के लिए ही कार्यदिवस की लम्बाई पर एक कानूनी सीमा आरोपित करना जो कि मज़दूर वर्ग और पूँजीपति वर्ग के बीच जारी संघर्ष के आधार पर समय-समय पर संशोधित होती है। दूसरे शब्दों में, श्रमशक्ति का मूल्य आम तौर पर कभी भी विचारणीय अवधि के लिए उस भौतिक सीमा के नीचे नहीं जाता है जिसके नीचे मज़दूर वर्ग अपने श्रमशक्ति का न्यूनतम काम योग्य स्थिति में पुनरुत्पादन नहीं कर सकता।
दूसरा कारक जिस पर कार्यदिवस की लम्बाई निर्भर करती है वह है मज़दूर वर्ग द्वारा आराम और मनोरंजन के लिए ख़ाली वक्त के लिए लड़ाई। यानी मज़दूर वर्ग द्वारा पूँजीपति वर्ग के विरुद्ध वर्ग संघर्ष। यह मज़दूर वर्ग के अन्दर राजनीतिक चेतना के विकास और समाज के सांस्कृतिक व सभ्यता-सम्बन्धी विकास पर निर्भर करता है कि मज़दूर वर्ग अपने इस अधिकार के लिए किस तरह और कब लड़ता है। निश्चित तौर पर, ये दोनों कारक स्वयं ऐतिहासिक वर्ग संघर्ष पर निर्भर करते हैं। मज़दूर वर्ग जिस हद तक अपने आपको एक राजनीतिक वर्ग के रूप में, यानी सर्वहारा वर्ग के रूप में तब्दील कर पाता है, वह जिस हद तक अपने वर्ग के साझा हितों के प्रति सचेत हो पाता है, वह जिस हद तक समूचे पूँजीपति वर्ग को अपने शत्रु के तौर पर पहचान पाता है और वह किस हद तक पूँजीवादी राज्यसत्ता को समूचे पूँजीपति वर्ग के नुमाइन्दे के तौर पर देख पाता है, इसी से तय होता है कि वह कार्यदिवस की लम्बाई को कम करने की माँग को कैसे सूत्रबद्ध कर पाता है और किस तरह से उसके लिए लड़ पाता है। मार्क्स स्पष्ट तौर पर बताते हैं कि किसी भी समाज में संस्कृति और सभ्यता के स्तर और उसमें मज़दूर वर्ग की राजनीतिक वर्ग चेतना के स्तर के आधार पर ही मज़दूर वर्ग अपने वर्ग संघर्ष को संगठित करता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि इसी प्रक्रिया में उसकी वर्ग चेतना भी उत्तरोत्तर उन्नत होती है।
इन दो कारकों के आधार पर कार्यदिवस की लम्बाई दो सीमाओं के बीच बदलती रह सकती है: पहला, कार्यदिवस इतना छोटा नहीं हो सकता कि वह आवश्यक श्रमकाल से कम या उसके बराबर हो जाये; ऐसे में पूँजीपति का मुनाफ़ा ख़त्म हो जायेगा और वह निवेश ही नहीं करेगा। दूसरा, कार्यदिवस की लम्बाई इतनी ज़्यादा नहीं हो सकती है कि मज़दूर वर्ग अपनी श्रमशक्ति का न्यूनतम स्वस्थ स्थिति में पुनरुत्पादन ही न कर पाये। इन सीमाओं के बीच कार्यदिवस की लम्बाई वर्ग संघर्ष की स्थिति के अनुसार घटती–बढ़ती रह सकती है। मज़दूरी पर भी यही नियम लागू होता है। मज़दूरी इतनी कम नहीं हो सकती है कि मज़दूर अपनी श्रमशक्ति का पुनरुत्पादन न कर सके और न ही वह इतनी ज़्यादा हो सकती है कि मुनाफ़े और पूँजी संचय को असम्भव बना दे। इन दो सीमाओं के भीतर मज़दूरी कम या ज़्यादा हो सकती है और इन सीमाओं के भीतर उनमें होने वाला उतार–चढ़ाव वर्ग संघर्ष पर निर्भर करता है। इस प्रकार मार्क्स ने क्लासिकीय बुर्जुआ राजनीतिक अर्थशास्त्र में प्रचलित ‘मज़दूरी के लौह नियम’ (iron law of wages) का खण्डन किया (जिसे माल्थस, रिकार्डो, आदि जैसे क्लासिकीय राजनीतिक अर्थशास्त्री और बाद में फर्दिनान्द लासाल जैसे लोग मानते थे) और बताया कि उपरोक्त दो सीमाओं के भीतर मज़दूर वर्ग के वर्ग संघर्ष के अनुसार मज़दूरी ऊपर या नीचे होती रहती है। आम तौर पर, वह औसतन श्रमशक्ति के मूल्य के इर्द-गिर्द ही मण्डराती रहती है।
लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि स्वयं श्रमशक्ति का मूल्य ऐतिहासिक तौर पर दो कारकों से निर्धारित होता है: पहला, भौतिक व जैविक कारक, यानी काम करने योग्य स्थिति में श्रमशक्ति का जैविक पुनरुत्पादन और दूसरा, किसी भी देश में मज़दूर वर्ग का सांस्कृतिक व सभ्यता–सम्बन्धी विकास स्तर, यानी अपनी राजनीतिक व सांस्कृतिक चेतना के स्तर के अनुसार वह एक मानवीय जीवन की बुनियादी शर्तों में किन चीज़ों को शामिल करता है। पूँजीपति वर्ग हमेशा विचारधारात्मक व राजनीतिक तौर पर मज़दूर वर्ग की राजनीतिक व सांस्कृतिक चेतना को कुन्द कर उसे भौतिक जीवन के न्यूनतम पुनरुत्पादन के स्तर पर लाना चाहता है, ताकि वह जीवित रहने और काम कर पूँजीपति के लिए मुनाफ़ा पैदा करते जाने को ही जीवन मान ले। मज़दूर वर्ग का हिरावल दस्ता मज़दूर वर्ग के भीतर इस पूँजीवादी विचारधारा के विरुद्ध संघर्ष करता है, शोषण की सच्चाई को उजागर करता है और एक गरिमामय मानवीय जीवन की गतिमान बुनियादी शर्तों को स्पष्ट करता है। मार्क्स के लेखन में हर जगह हमें चीज़ों को द्वन्द्व में देखने यानी चीज़ों को उनकी गति में देखने, उनकी सम्पूर्णता में देखने और उनके अन्तर्सम्बन्धों में देखने की शिक्षा में मिलती है। इसे ही हम द्वन्द्वात्मक पद्धति कहते हैं और यही वैज्ञानिक पद्धति होती है। देखें, मार्क्स इस विषय में क्या लिखते हैं:
“जैसा कि हर माल के साथ होता है, श्रमशक्ति का मूल्य भी इस विशिष्ट माल के उत्पादन, और इसलिए उसके पुनरुत्पादन, के लिए ज़रूरी श्रमकाल से होता है। जहाँ तक इस माल का एक मूल्य है, यह उसमें वस्तुकृत औसत सामाजिक श्रम की एक निश्चित मात्रा से अधिक और किसी भी चीज़ का प्रतिनिधित्व नहीं करता। श्रमशक्ति एक जीवित व्यक्ति की क्षमता के रूप में ही अस्तित्वमान होती है। इसलिए इसके उत्पादन का अर्थ है उस व्यक्ति के अस्तित्व का क़ायम रहना। व्यक्ति के अस्तित्व के क़ायम रहने की शर्त को मानें, तो श्रमशक्ति के उत्पादन का अर्थ है उस व्यक्ति का या उसकी अजीविका का पुनरुत्पादन। अपनी आजीविका के लिए उसे गुज़ारा करने के निश्चित साधनों की निश्चित मात्रा की आवश्यकता होती है। इसलिए श्रमशक्ति के उत्पादन के लिए आवश्यक श्रमकाल वही श्रमकाल है जो उसके आजीविका के साधनों के उत्पादन के लिए आवश्यक है; दूसरे शब्दों में श्रमशक्ति का मूल्य उसके स्वामी के जीवन के लिए ज़रूरी आजीविका के साधनों का ही मूल्य है…दूसरी ओर, उसकी तथाकथित अनिवार्य आवश्यकताओं की संख्या और सीमा, और साथ ही जिस तरीके से ये आवश्यकताएँ पूरी होती हैं, स्वयं इतिहास का उत्पाद होते हैं और इसलिए किसी देश द्वारा अर्जित सभ्यता के स्तर पर भी काफ़ी हद तक निर्भर करते हैं; विशेष तौर पर, वे उन स्थितियों पर निर्भर करते हैं जिनमें, और नतीजतन उन आदतों और अपेक्षाओं पर भी निर्भर करते हैं, जिनके साथ, स्वतन्त्र मज़दूरों का यह वर्ग बना है। इसलिए अन्य मालों के मामलों के विपरीत, श्रमशक्ति के मूल्य के निर्धारण में एक ऐतिहासिक और नैतिक तत्व भी होता है। फिर भी, किसी दिये गये दौर में किसी दिये गये देश में, मज़दूर की आजीविका के लिए ज़रूरी साधनों की औसत मात्रा एक ज्ञात तथ्य होती है।” (वही, पृ. 274-75)
बेशी मूल्य की दर और मात्रा
बेशी मूल्य की दर और मात्रा के कुछ सामान्य सूत्रों से हम मज़दूरी, मज़दूरों की संख्या, बेशी मूल्य की दर और बेशी मूल्य की मात्रा के बीच के रिश्तों को समझ सकते हैं। मान लें,
मज़दूरी = v, बेशी मूल्य = s; मज़दूरों की संख्या = n; कुल मज़दूरी = V; बेशी मूल्य की दर = s’; बेशी मूल्य की मात्रा = S
तो स्पष्ट है कि,
कुल मज़दूरी (V) = v * n
बेशी मूल्य की दर (s’) = s/v
बेशी मूल्य की मात्रा (S) = V * (s/v)
जैसा कि आप देख सकते हैं, यदि हमें मज़दूरों की संख्या और मज़दूरी पता हो, तो बेशी मूल्य की मात्रा बेशी मूल्य की दर पर निर्भर करेगी; अगर हमें बेशी मूल्य की दर और मज़दूरी पता हो, तो बेशी मूल्य की मात्रा मज़दूरों की संख्या पर निर्भर करेगी। इन सभी मात्राओं में एक साथ इस प्रकार के परिवर्तन भी हो सकते हैं कि आख़िर में बेशी मूल्य की मात्रा पर कोई अन्तर न पड़े क्योंकि सभी परिवर्तन एक दूसरे को प्रतिसन्तुलित कर रहे हों।
पूँजीपति हमेशा निरपेक्ष बेशी मूल्य बढ़ाकर यानी काम के घण्टों में निरपेक्ष बढ़ोत्तरी करके, बेशी मूल्य की दर को बढ़ाने का प्रयास करते हैं। लेकिन हम ऊपर देख चुके हैं कि इसकी एक सीमा होती है। एक सीमा के बाद निरपेक्ष बेशी मूल्य को नहीं बढ़ाया जा सकता है। जब यह सीमा नज़दीक आने लगती है, मज़दूर वर्ग का प्रतिरोध उग्र होता जाता है, तो पूँजीपति वर्ग नयी तकनोलॉजी को लाकर, नवोन्मेषों व मशीनरी का इस्तेमाल करके आम तौर पर श्रम की उत्पादकता को बढ़ाता है और सापेक्षिक बेशी मूल्य को बढ़ाता है। ग़ौरतलब है कि ये सारे परिवर्तन स्वयं सामाजिक श्रम का ही उत्पाद होते हैं, यानी नयी तकनोलॉजी, मशीनरी व तमाम नवोन्मेष, आदि। लेकिन चूँकि वे पूँजी के नियंत्रण और स्वामित्व में होते हैं और उसके द्वारा उत्पादन में लाये जाते हैं इसलिए ऐसा लगता है कि उत्पादक शक्तियों का यह विकास पूँजी की देन है। यह स्वामित्व के सम्बन्धों के आधार पर पैदा होने वाली विचारधारा है। लेकिन जैसे ही हम थोड़ा बारीकी में देखते हैं वैसे ही पता चलता है कि हरेक नयी तकनोलॉजी, मशीन या नवोन्मेष आम तौर पर आम मेहनतकश जनता के बुनियादी सामाजिक व्यवहार का, सामाजिक श्रम का उत्पाद होते हैं।
(अध्याय 13 अगले अंग में जारी; अगले अंक में ‘सापेक्षिक बेशी मूल्य’ उपशीर्षक के तहत चर्चा जारी रहेगी)
मज़दूर बिगुल, सितम्बर 2023
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