दंगे करने का अधिकार, माँग रहा है संघ परिवार! शामिल है मोदी सरकार!
नूंह में साम्प्रदायिक साज़िशों को अपेक्षित सफलता न मिलने से बौखलाया संघ परिवार पुलिस-प्रशासन और सशस्त्र बलों की मदद से फिर से मेवात में दंगे भड़काकर देश में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण करने की फ़िराक़ में
मेहनतकशो चौकस रहो, दंगाइयों की कोई चाल कामयाब न होने पाये!

सम्पादकीय अग्रलेख

नूंह में दंगे भड़काने की संघी फ़ासिस्टों की चाल को जनता की ओर से उस प्रकार का समर्थन नहीं मिला जिसकी वे उम्मीद कर रहे थे। नूंह और हरियाणा की हिन्दू मेहनतकश जनता की बहुसंख्या ने संघियों की दंगाई कोशिशों को बड़े पैमाने पर नकार दिया है। समाज का एक छोटा हिस्सा है जो केवल और केवल मुसलमानों से नफ़रत की वजह से मोदी-शाह सरकार और संघ परिवार की ऐसी चालों का समर्थन कर रहा है। यह कुल हिन्दू आबादी का भी एक बेहद छोटा हिस्सा है। स्वयं यह भी बढ़ती महँगाई और बेरोज़गारी से तंग है। लेकिन मुसलमानों से अतार्किक घृणा और राजनीतिक चेतना की कमी के कारण वह संघी फ़ासिस्ट प्रचार के प्रभाव में है। अभी हो रही सभी दंगाई पंचायतों में इस छोटी-सी अल्पसंख्या से आने वाले लोग ही शामिल हैं। व्यापक मेहनतकश आबादी ने ऐसी दंगाई साज़िशों को ख़ारिज किया है। इस आबादी में जो मुखर हैं और बोलते हैं, उन्होंने स्पष्ट तौर पर बोलकर हार के डर से बौखलायी मोदी-शाह सरकार की साम्प्रदायिक फ़ासिस्ट चालों को नकारा है। लेकिन जो बहुसंख्यक आबादी मुखर नहीं भी है, वह मोदी सरकार और संघ परिवार की दंगाई चालों से बुरी तरह से चिढ़ी हुई और नाराज़ है।

संघ परिवार के दूरदर्शी चिन्तकों को भी समझ में आ रहा है कि इस बार जनता उसके दंगाई प्रचार में उस तरह से नहीं बह रही है, जैसे पिछले 10 वर्षों के दौरान बह जाया करती थी। मोदी सरकार गोदी मीडिया का पूरा इस्तेमाल भी कर रही है और गोदी मीडिया के तमाम चैनल इस प्रकार की दंगाई साम्प्रदायिक बातें कर रहे हैं कि हमारे देश के बेहद अधूरे अर्थों में जनवादी, सेक्युलर संविधान के तहत भी उसके तमाम एंकर व पत्रकार अब तक जेल में होने चाहिए थे! लेकिन मोदी सरकार द्वारा लाये गये ‘मृत काल’ में क़ानून-संविधान के तहत हासिल मरे-गिरे जनवादी अधिकारों का भी ज़्यादा कुछ अर्थ रह नहीं गया है। फ़ासीवादी शक्तियों ने एक लम्बी प्रक्रिया में राज्यसत्ता का ‘टेक-ओवर’ करने के काम में काफ़ी प्रगति की है। हिटलर के समान भारत के फ़ासीवादी शासन को आम तौर पर कोई आपवादिक क़ानून लाने की ज़रूरत पड़े, इसकी गुंजाइश कम है। यही बात आम तौर पर इक्कीसवीं सदी के फ़ासीवाद पर लागू होती है। इसलिए राज्य के निकायों द्वारा फ़ासीवादी शक्तियों पर किसी कार्रवाई की उम्मीद नगण्य है। यही वजह है कि गोदी मीडिया के एंकर खुलेआम दंगाई बातें कर रहे हैं। लेकिन गोदी मीडिया के दंगाई प्रचार का पिछले 3-4 सालों में असर यह हुआ है कि जनता का एक अच्छा-ख़ासा हिस्सा इसके चैनलों जैसे ज़ी न्यूज़़, रिपब्लिक न्यूज़़, आज तक, आदि को देखना छोड़ चुका है। जिस सोशल मीडिया का इस्तेमाल एक दौर में फ़ासीवादी संघ परिवार ने अपनी फ़ासीवादी फ़िरकापरस्त राजनीति को फैलाने में कुशलतापूर्वक किया था, वहाँ पर भी स्वत:स्फूर्त रूप से जनता द्वारा डाली जा रही मोदी सरकार-विरोधी सामग्री जैसे मीम्स, शॉर्ट्स, जीआयीएफ़ व वीडियो आदि की ऐसी बाढ़ आयी है कि भाजपा का आईटी सेल पूँजी की विराट ताक़त के बावजूद उससे निपट नहीं पा रहा है। वही भाजपा जो कुछ वर्षों पहले तक साम्प्रदायिक व्हाट्सऐप सन्देशों, यूट्यूब वीडियो, फ़ेसबुक पोस्टों पर रोकथाम करने की जनवादी माँग पर “अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता” का हवाला दे रही थी ताकि उसके नफ़रती चिण्टू सोशल मीडिया पर फ़ासीवादी कचरा फैलाने के लिए आज़ाद रहें, अब सोशल मीडिया पर लगाम कसने के लिए क़ानून लाने की बातें कर रही है! इसी से पता चलता है कि सोशल मीडिया पर भी एक अच्छी-ख़ासी आबादी मोदी सरकार के झूठ-फ़रेब और साम्प्रदायिक एजेण्डा के प्रति सशंकित हो चुकी है।

सियासी हवा के कुछ बदलते रुख़ के पीछे जो सबसे अहम कारण है वह है पूँजीवादी आर्थिक संकट के दौर में पूँजीपति वर्ग को फ़ायदा पहुँचाने के लिए मोदी सरकार द्वारा लागू की गयी लूटखसोट की वे नीतियाँ, जिनके नतीजे के तौर पर देश की व्यापक आम जनता को अभूतपूर्व महँगाई और बेरोज़गारी का सामना करना पड़ रहा है। यह बुनियादी कारक है। अन्य सभी कारक सहायक हैं।

इस समय हमारे देश में महँगाई का सबसे प्रमुख तात्कालिक कारण है मोदी सरकार द्वारा आम मेहनतकश जनता पर अभूतपूर्व रूप से बढ़ाया गया अप्रत्यक्ष कर और पूँजीपतियों को कर्ज़माफ़ी से लेकर बैंकों में जमा जनता का धन लेकर विदेश भागने की छूट, पूँजीपतियों को औनेपौने दामों पर सौंपे जा रहे संसाधन और उन्हें प्रत्यक्ष करों से दी जा रही भारी छूट। पूँजीपतियों को दी जा रही इन सारी छूटों के कारण सरकारी ख़ज़ाने को जो नुकसान हो रहा है, मोदी सरकार उसकी भरपाई आम मेहनतकश जनता पर अप्रत्यक्ष करों, तरह-तरह के शुल्कों को लादकर कर रही है। नतीजा है भयंकर महँगाई।

उसी प्रकार, आज अभूतपूर्व बेरोज़गारी के लिए भी फ़ासीवादी मोदी सरकार की ही पूँजीपरस्त नीतियाँ ज़िम्मेदार हैं। निजीकरण और पूँजीपतियों को औने-पौने दामों पर जनता की सम्पत्ति बेचने की जो आँधी मोदी सरकार ने चलायी है, वह आज तक आज़ाद भारत की किसी पूँजीवादी सरकार ने इस क़दर नहीं चलायी है। निजीकरण, ठेकाकरण, कैज़ुअलीकरण और दिहाड़ीकरण के कारण नौकरियाँ समाप्त-सी हो गयी हैं। श्रम क़ानूनों में परिवर्तन कर इस पाशविक शोषण और लूट को भी क़ानूनी जामा पहनाने की तैयारियाँ मोदी सरकार ने कर रखी हैं। आज़ाद भारत के समूचे इतिहास में जनता ने ऐसी बेरोज़गारी भी कभी नहीं देखी है।

साथ ही, मोदी सरकार भाजपा की अन्य सरकारों के खाऊपियू नेताओं के भ्रष्टाचार ने सारी सीमाएँ लाँघ ली हैं। देश के सभी भ्रष्टाचारी, चाहे वे किसी भी पूँजीवादी दल में हों, भाजपा की वाशिंग मशीन में घुसकर मर्यादा पुरुषोत्तम हो जा रहे हैं चाहे वह हेमंत बिस्व सर्मा हो या अजित पवार। भ्रष्टाचार के कारण जो करोड़ों के वारे-न्यारे हो रहे हैं, वह भी आम जनता का ही धन है और उसकी भरपाई भी फिर जनता से ही करवाई जाती है।

दिक्कत यह है कि देश के अम्बानी, अडानी, टाटाबिड़ला यही खेल खेलने के लिए मोदी सरकार को सत्ता में लाये थे और अब इस खेल को रोकना मोदी सरकार के बस की बात नहीं है। पूँजीवादी आर्थिक संकट तो बढ़ती बेरोज़गारी व महँगाई का ढाँचागत कारण है ही, लेकिन मोदी सरकार की पूँजीपरस्त नीतियाँ और उन नीतियों को भी कुप्रबन्धन व भ्रष्टाचार के साथ लागू करने का नतीजा यह है कि अब तक के महँगाई और बेरोज़गारी के सारे रिकॉर्ड ध्वस्त हो गये हैं। महँगाई पर काबू पाने और रोज़गार सृजन के लिए पूँजीवादी व्यवस्था के दायरे में भी जितनी कल्याणकारी नीतियाँ सम्भव हैं, फ़ासीवादी मोदी सरकार उन्हें लागू कर ही नहीं सकती क्योंकि फ़ासीवादी मोदी सरकार को 2014 और फिर 2019 में पूँजीपति वर्ग द्वारा भारी आर्थिक राजनीतिक समर्थन से सत्ता में पहुँचाने का मकसद ही था, फ़ासीवादी धक्काज़ोरी और दमनकारी तौरतरीकों के साथ पूँजीपरस्त नीतियों को लागू करवाना, जनता के प्रतिरोध को कुचलना और जनता को धर्म के नाम पर और जाति के नाम पर बाँटकर आपस में लड़ाना ताकि वह संगठित हो ही सके। अब जबकि पूँजीपति वर्ग ने मोदी सरकार को सत्ता में पहुँचाया ही ये सब करने के लिए था, तो वह कुछ अलग भला कैसे कर सकती है?

यानी आर्थिक नीतियों में पूँजीवादी दायरे के भीतर कोई ख़ास बदलाव करना मोदी सरकार के लिए सम्भव ही नहीं है। ऐसा करने पर वह पूँजीपति वर्ग का समर्थन खो बैठेगी। नतीजतन, मोदी सरकार के पास 2024 के चुनावों में विजय को हासिल करने के लिए दो ही हथियार बचते हैं, जो दोनों ही फ़ासीवादी राजनीति की विशिष्टता हैं : साम्प्रदायिकता और अन्धराष्ट्रवाद। साम्प्रदायिकता के तन्दूर को गर्म करने का काम शुरू हो चुका है, जैसा कि नूंह की घटनाएँ ज़ाहिर कर रही हैं। उसी प्रकार, आतंकी घुसपैठ की घटनाएँ भी सहसा बढ़ने लगी हैं! साम्प्रदायिकता और अन्धराष्ट्रवाद दोनों की आग भड़काने के लिए अयोध्या के राम मन्दिर पर भी सहसा आतंकी हमला हो जाये तो कोई ताज्जुब की बात नहीं होगी, ऐसा अन्देशा भाजपा के शासन में ही कई राज्यों के राज्यपाल रहे सत्यपाल मलिक ज़ाहिर कर चुके हैं। अब जब इतना भीतर का और भाजपा सरकार के क़रीब रह चुका व्यक्ति यह बोल रहा है, तो इसे निश्चित ही नज़रन्दाज़ नहीं किया जा सकता है। मलिक ने पहले भी पुलवामा हमले की पोल खोल दी थी, जिससे 2019 के चुनावों के पहले वोटों के ध्रुवीकरण की भाजपा की साज़िश बेनक़ाब हो चुकी है। हमला करने वाले आतंकियों को अपने गाड़ी में लेकर घूम रहे भाजपा के चहेते डीएसपी देविन्दर सिंह के मामले का क्या हुआ, यह सहसा सभी न्यूज़़ चैनलों से ग़ायब हो गया! ऐसे में, सत्यपाल मलिक द्वारा ज़ाहिर की गयी आशंका, कि भाजपा सत्ता के लिए किसी भी हद तक जा सकती है, मायने रखती है। और ख़ास तौर पर जब मोदी सरकार की स्वीकार्यता जनता में इतने निचले स्तर पर हो, तो बौखलाहट में फ़ासीवादी ताक़तें किस हद तक जा सकती हैं, यह देश का मेहनतकश अवाम पहले भी देख चुका है। नूंह में दंगे भड़काने से लेकर उत्तर प्रदेश के बनारस में ज्ञानवापी मस्जिद में त्रिशूल और शिवलिंग ढूँढकर नये सिरे से मन्दिर-मस्जिद का झगड़ा शुरू करने तक हर प्रयास संघ परिवार और मोदी सरकार लगातार कर रहे हैं। अगर आम मेहनतकश और मज़दूर आबादी ने बेरोज़गारी और महँगाई के मसले को छोड़कर इन फ़र्ज़ी और बकवास मुद्दों पर ज़रा भी ध्यान दिया तो उन्हें इसका भयंकर नतीजा भुगतना पड़ेगा, यह तय है।

नूंह की स्थिति एक बात और भी ज़ाहिर कर रही है। यदि कहीं पर संघ परिवार के दंगाइयों की लहर में व्यापक मेहनतकश जनता नहीं बहती है, तो वे पुलिस प्रशासन सशस्त्र बल का सहारा लेकर मुसलमान आबादी पर अत्याचार करेंगे, उनके बीच हत्याकाण्ड और दंगे करेंगे। नूंह में पहली बार अपने नापाक मंसूबों में नाकाम होने के बाद, बजरंग दल और विश्व हिन्दू परिषद के दंगाई, बलवाई और गुण्डे लगातार भड़काऊ बयानबाज़ियाँ और साम्प्रदायिक “पंचायतें” कर रहे हैं, मेवात की सीमा पर दंगाई सभाएँ कर रहे हैं और यह सारा काम पुलिस संरक्षण में हो रहा है। 28 अगस्त को फिर से विहिप व बजरंग दल की “शोभा यात्रा” को नूंह में निकालने की घोषणा की गयी है। ज़ाहिर है, अगर यह यात्रा निकलती है तो इसका मतलब होगा, पुलिस सशस्त्र बल के संरक्षण में मोनू मानेसर और बिट्टू बजरंगी जैसे साम्प्रदायिक गुण्डे और हत्यारे नूंह में बवाल करेंगे, दंगे करेंगे और हत्याकाण्ड भी कर सकते हैं। बिना इस राजकीय संरक्षण के इन नफ़रती चिण्टुओं की पैण्ट गीली हो जाती है। लेकिन जब सत्ता में ही फ़ासीवादी बैठे हों और जब राज्यसत्ता के समस्त निकायों का ही भीतर से फ़ासीवादीकरण हो चुका हो, तो ऐसे फ़ासीवादी गुण्डों को कोई डर नहीं रहता। जब दंगाइयों के सरदार ही सत्ता में हों, तो भला डर होगा भी कैसे? हर रोज़ विहिप व बजरंग दल के गुण्डों की ओर से नफ़रती और भड़काऊ बयान व वीडियो जारी किये जा रहे हैं, दूसरी तरफ़ कोर्ट की फटकार के बावजूद खट्टर सरकार नूंह में मुसलमान आबादी के घरों पर बुलडोज़र चला रही है, मुसलमान युवकों की गिरफ्तारियाँ हो रही हैं और संघी दंगाइयों से आत्मरक्षा करने का दण्ड उन्हें दिया जा रहा है। एक तरह से उन्हें बताया जा रहा है कि दंगाई फिर अपने आपको नूंह के लोगों का “जीजा” बताते हुए, उनका अपमान करते हुए, उनके इलाक़े में बलवा, दंगा, तोड़फोड़, मारपीट व हत्याएँ करेंगे, लेकिन इस बार नूंह के मुसलमान अपनी आत्मरक्षा करने का भी प्रयास न करें। चुपचाप उनके साथ जो भी किया जाय वह झेल लें! यही मोदी का “नया भारत” और “(अ)मृतकाल” है।

संघी दंगाइयों के लिए एक ही बात चिन्ताजनक है : नूंह आसपास के इलाक़ों में इन तमाम बेहूदा हरक़तों के बावजूद हरियाणा में और देश में भाजपा का सितारा बुलन्द नहीं हो पा रहा है। व्यापक जाट आबादी के मेहनतकश व मध्यवर्गीय हिस्सों ने व कुछ इलाक़ों में मौजूद सिख आबादी ने मेवात के मुसलमान मेहनतकशों के साथ एकता ज़ाहिर की है और भाजपा के दंगाई चरित्र को सिरे से नकार दिया है। बाकी हिन्दू जनता के बड़े हिस्से ने भी मुखर या मौन रूप में संघी फ़ासिस्टों की दंगाई चालों को नकार दिया है। ख़ुद नूंह में मौजूद हिन्दू आबादी की बहुसंख्या ने दंगाइयों का साथ नहीं दिया है और इलाक़े में शान्ति को बिगाड़ने के लिए विहिप व बजरंग दल की निन्दा और भर्त्सना ही की है।

लेकिन फ़ासीवादियों के लिए पीछे हटना मुश्किल होता है। इससे उनकी अजेयता का भ्रम टूट जाता है और इनकी कतार में मौजूद दंगाई चवन्नियोंअठन्नियों का मनोबल भी टूट जाता है, जैसे कि बिट्टू बजरंगी मोनू मानेसर। इसलिए बाह्य और आन्तरिक दोनों ही कारणों से मोदी सरकार और भाजपा की खट्टर सरकार मेवात में साम्प्रदायिक तनाव और दंगों को राजकीय संरक्षण में भड़काते रहने के अलावा और कुछ नहीं कर सकती।

देश के आम लोगों में मोदी सरकार को लेकर पूँजीपतियों की अकूत आर्थिक ताक़त के आधार पर चलाये गये आक्रामक फ़ासीवादी प्रचार के कारण जो भी वहम थे, वे टूट रहे हैं। 10 साल बहुत होते हैं। नोटबन्दी, कोरोनाकाल लॉकडाउन के दौरान आपराधिक कुप्रबन्धन, अभूतपूर्व महँगाई और बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार के टूटते रिकॉर्ड, अप्रत्यक्ष करों का भयंकर बोझमोदी सरकार के 10 साल के ये कारनामे अब साम्प्रदायिक प्रचार पर थोड़े भारी पड़ने लगे हैं। ज़ाहिर है, यह केवल शुरुआत है और इसकी वजह से क्रान्तिकारी ताक़तों और मज़दूर वर्ग को ज़रा भी निश्चिन्त या सन्तुष्ट नहीं होना चाहिए। हमें यह याद रखना चाहिए फ़ासीवादी ताक़तें अपनी गिरावट के दौर में हमेशा ज़्यादा आक्रामक हुआ करती हैं। हिटलर की नात्सी पार्टी को जर्मनी के आख़िरी स्वतन्त्र चुनावों में अपनी सीटों में 34 सीटों की भारी गिरावट का सामना करना पड़ा था। जुलाई 1932 के चुनावों में नात्सी पार्टी 230 सीटें मिली थीं, जबकि नवम्बर 1932 के चुनावों में उसे केवल 196 सीटें ही मिल पायी थीं। मार्च 1933 में नात्सी पार्टी ने राज्यसत्ता में अपनी घुसपैठ के बूते स्वतन्त्र चुनाव ही नहीं होने दिये थे और 288 सीटें जीतकर पहले गठबन्धन सरकार बनायी और फिर आपवादिक क़ानून लागू करके, औपचारिक तौर पर संसदीय जनतन्त्र को ही ख़त्म कर दिया। यानी, खुली तानाशाही को लागू करने के ठीक पहले जर्मनी में नात्सी पार्टी की लोकप्रियता गिरावट पर थी।

आज दुनिया के किसी भी देश में खुली तानाशाही लागू कर पूँजीवादी संसदीय जनवाद को ख़त्म करना फ़ासीवादी शक्तियों की मजबूरी नहीं है। आज का फ़ासीवाद जर्मनी व इटली में 20वीं सदी के आरम्भ में आये फ़ासीवाद से कुछ मामलों में अलग है। पहली बात तो यह है कि भारत जैसे देशों में संघ परिवार जैसा फ़ासीवादी संगठन पिछले लगभग 100 वर्षों से मौजूद है और समाज और राज्यसत्ता में लम्बी प्रक्रिया में अपनी पकड़ बनाने का काम करते रहे हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आज़ादी के पहले उपनिवेशवादियों की दलाली करता रहा और क्रान्तिकारियों व स्वतन्त्रता-योद्धाओं के ख़िलाफ़ अंग्रेज़ों से मुखबिरी करता रहा। उस वक्त भी देश में साम्प्रदायिकता फैलाकर यह औपनिवेशिक सत्ता के हाथों में खेलता रहा था। आज़ादी के बाद इसने योजनाबद्ध तरीके से राज्यसत्ता के तमाम निकायों में, पुलिस व सेना में, नौकरशाही में, न्यायपालिका में अपने लोग घुसाने शुरू किये। इसमें कांग्रेस के दक्षिणपंथियों और फिर भारत के लोहिया व जयप्रकाश नारायण जैसे समाजवादियों ने और साथ ही समूचे पूँजीपति वर्ग ने भरपूर मदद की। 1980 का दशक आते-आते संघ परिवार ने अपने अनुषंगी संगठनों व संस्थाओं का एक विराट ताना-बाना देश में खड़ा कर लिया था। देश में आर्थिक संकट था, पब्लिक सेक्टर पूँजीवाद सन्तृप्ति बिन्दु पर था, टुटपुँजिया वर्गों का एक हिस्सा संकट में सर्वहाराकरण से भयभीत था, तो दूसरा हिस्सा पूँजीपति बनने और श्रम को लूटने की प्रक्रिया को आसान बनाने के सपने सँजोये हुए था। इन दोनों ही हिस्सों के अस्पष्ट और धुंधले असन्तोष, आर्थिक सामाजिक असुरक्षा अनिश्चितता को छह दशकों से अपना राजनीतिक सांगठनिक सुदृढ़ीकरण कर रहे संघ परिवार नेराम मन्दिर आन्दोलनके ज़रिये भटकाया, ग़लत मोड़ दिया और उसके गुस्से के निशाने पर एक नकली दुश्मन को रख दिया, यानी मुसलमानों को। यानी, फ़ासीवादी ताक़तों ने वर्ग अन्तरविरोधों को एक ग़लत राजनीतिक अभिव्यक्ति दी। यहीं से चुनावी राजनीति में भी भाजपा का उभार होता है, जो 1992 में बाबरी मस्जिद के ध्वंस, देश भर में व्यवस्थित तरीके से साम्प्रदायीकरण, 1998 में वाजपेयी सरकार के बनने, 2002 में गुजरात दंगों के ज़रिये आगे बढ़ता है।

2004 में वाजपेयी सरकार देश में भयंकर महँगाई व बेरोज़गारी के कारण चुनाव हारती है। 2014 तक कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूपीए का शासन होता है, जिसके पहले कार्यकाल में मज़दूर वर्ग के जयचन्दों, यानी सीपीआयी, सीपीएम जैसे संसदीय वामपंथियों के दबाव व सलाह के कारण कुछ दिखावटी कल्याणकारी नीतियाँ लागू होती हैं। लेकिन 2007 में पूँजीवाद की 21वीं सदी की पहली महामन्दी के फटने के साथ भारत के पूँजीपति वर्ग को यह कल्याणवाद नागवाँर गुज़रने लगता है और मन्दी व मुनाफ़े की गिरती दर से बिलबिलाया हुआ पूँजीपति वर्ग तेज़ी से दक्षिणपंथी प्रतिक्रिया व फ़ासीवाद की शरण में जाता है, ताकि मज़दूर वर्ग व मेहनतकश आबादी को दबाकर रखा जाय, उसकी औसत मज़दूरी को गिराया जाय, कार्यदिवस बढ़ाया जाय, श्रम की सघनता बढ़ायी जाय और मुनाफ़े की दर को बढ़ाया जा सके। पूँजीपति वर्ग के भारी समर्थन व खर्चे के बूते बनायी गयी फ़र्ज़ी छवि के आधार पर नरेन्द्र मोदी के हाथ में 2014 में सत्ता आती है। उसके बाद से राज्यसत्ता के बचे-खुचे निकायों में भी फ़ासीवादी घुसपैठ तेज़ी से जारी रहती है और आज यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि भारत की पूँजीवादी सत्ता के निकायों में फ़ासीवादी ‘टेक-ओवर’ की प्रक्रिया गुणात्मक रूप से एक नयी मंज़िल में पहुँच चुकी है।

आज न तो भारत के पूँजीपति वर्ग को और न ही फ़ासीवादी शक्तियों को इस बात की ज़रूरत है कि 1933 में नात्सी पार्टी के समान कोई आपवादिक क़ानून लाकर पूँजीवादी संसदीय जनवाद को ख़त्म किया जाय। आज इस खोल को बनाये रखते हुए फ़ासीवादी शक्तियाँ वह सबकुछ कर सकती हैं, जो उन्होंने बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में जर्मनी और इटली में किया था।

निश्चित ही इस बदलाव का यह अर्थ भी है कि बुर्जुआ चुनावों में फ़ासीवादी ताक़तें, यानी भाजपा, हार भी सकती है और अस्थायी तौर पर सत्ता से बाहर जा सकती हैं। लेकिन इससे राज्यसत्ता के निकायों में फ़ासीवादी घुसपैठ कम नहीं होने वाली है। साथ ही, किसी अन्य पूँजीवादी पार्टी या पूँजीवादी पार्टी के गठबन्धन की सरकार का कोई भी दौर पूँजीवादी आर्थिक संकट के जारी रहने की सूरत में (जिसकी गुंजाइश सबसे ज़्यादा है) फिर से फ़ासीवादी भाजपा की चुनावी जीत की ज़मीन तैयार करेगी और यह जीत और भी बड़े पैमाने पर हो सकती है। बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध और पूर्वार्द्ध में फ़ासीवाद का सत्ता पर आरोहण इसी प्रकार होगा और होता रहा है: कई दौरों या ज्वरों के ज़रिये, जिसमें हर दौरे के साथ फ़ासीवाद और भी आक्रामक होता जायेगा।

बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध के फ़ासीवादी सत्ता के अनुभवों से पूँजीपति वर्ग ने और उसके सबसे प्रतिक्रियावादी हिस्सों ने भी सबक लिया है। किसी प्रकार का आपवादिक तानाशाहाना क़ानून लाकर पूँजीवादी जनवाद को औपचारिक रूप से समाप्त करना उनकी स्वीकार्यता और वर्चस्व को कमज़ोर करता है और ऐसा होने पर एक बार हिंस्र तौर पर किसी विद्रोह या युद्ध के नतीजे के तौर पर सत्ता से जाने के बाद लम्बे समय तक सत्ता में वापसी सम्भव नहीं रह जाती। इसलिए आपवादिक क़ानूनों को लाना फ़ासीवादी शक्तियों के लिए वांछनीय विकल्प नहीं है। साथ ही, पूँजीवादी जनवाद आज जिस मरी-गिरी हालत में पहुँच गया है, उसमें पूँजीपति वर्ग को इसे औपचारिक रूप से समाप्त कर खुली तानाशाही लाने की कोई आवश्यकता नहीं है।

लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि इस प्रकार की खुली तानाशाही आने की कोई सम्भावना ही नहीं है। वजह यह है कि पूँजीपति वर्ग और उसकी नुमाइन्दगी करने वाली पूँजीवादी पार्टी व उसके नेता के बीच भी एक अन्तर होता है। पूँजीवादी पार्टी व उसके नेता पूँजीपति वर्ग के राजनीतिक व आर्थिक हितों की नुमाइन्दगी करते हैं, लेकिन पूँजीपति वर्ग से उनकी एक सापेक्षिक स्वायत्तता भी होती है। वजह यह है कि उनका काम ही किसी एक पूँजीपति या कुछ पूँजीपतियों की नुमाइन्दगी करना नहीं बल्कि समूचे पूँजीपति वर्ग की नुमाइन्दगी करना होता है। दूसरी बात यह कि पूँजीवादी पार्टी व उसके नेता वर्ग के स्वयं अपने वैयक्तिक हित भी इसी प्रक्रिया में विकसित होते हैं। इसलिए मोदी और भाजपा, जो किसी भी हालत में सत्ता को नहीं छोड़ना चाहते, हार की आशंका में देश में आपातकाल लागू करने या कोई आपवादिक क़ानून लाने की दूरगामी भूल कर सकते हैं और इस सम्भावना के कम होने के बावजूद इससे पूरी तरह से इंकार नहीं किया जा सकता है। इसके लिए वे अपने पीछे खड़े टुटपुँजिया वर्ग के प्रतिक्रियावादी आन्दोलन का एक बटखरे के तौर पर इस्तेमाल कर पूँजीपति वर्ग का समर्थन हासिल करने का भी प्रयास कर सकते हैं। लेकिन यह प्रक्रिया अन्तरविरोधों और अनिश्चितताओं से भरी हुई है, टुटपुँजिया वर्गों के बहुलांश का भाजपा व मोदी को समर्थन भी कोई स्थायी रूप से पक्की चीज़ नहीं है और देश में आर्थिक व सामाजिक बेहाली की स्थिति फ़ासीवादियों के इन प्रयासों पर भारी भी पड़ सकती है, जिसका इस्तेमाल अन्य पूँजीवादी पार्टियाँ करने का प्रयास निश्चय ही करेंगी और कर भी रही हैं। ऐसे में, 2024 के चुनावों के पहले संघ परिवार व भाजपा देश को भयंकर दंगों, फ़िरकापरस्त मार-काट, हिंसा में झोंकने में ज़रा भी नहीं हिचकिचाएँगे। या वे किसी आतंकी हमले के बहाने या पाकिस्तान से किसी छोटे पैमाने के युद्ध को भड़काकर अन्धराष्ट्रवाद की लहर फैला सकते हैं या उसे बहाना बनाकर आपातकाल थोप सकते हैं, चुनावों को स्थगित कर सकते हैं। निश्चित तौर पर, फ़ासीवादी ताक़तें इस विकल्प को अपने लिए खुला रखे हुए हैं, चाहे इनकी सम्भावना कितनी भी कम क्यों न हो।

इन सभी सम्भावनाओं के मद्देनज़र मज़दूर वर्ग आम मेहनतकश आबादी के सामने क्या चुनौतियाँ और कार्यभार हैं?

सबसे अहम बात है हमारा यह दृढ़ संकल्प कि किसी भी क़ीमत पर साम्प्रदायिकता व अन्धराष्ट्रवाद की लहर में नहीं बहना है चाहे भाजपा व संघ परिवार कितना भी प्रयास करें और हमारी ज़िन्दगी के असल मुद्दों यानी बेरोज़गारी व महँगाई से जुड़ी हमारी माँगों पर अडिग रहना है। यह याद रखना है कि भाजपा व मोदी सरकार आम मेहनतकश जनता की सबसे बड़ी दुश्मन और धन्नासेठों, अमीरज़ादों व मालिकों की सबसे बड़ी दोस्त है। अपना कोई भी राजनीतिक फैसला लेते हुए इस बात को याद रखें।

दूसरी बात यह है कि कोई भी अन्य पूँजीवादी पार्टी या पूँजीवादी पार्टियों का गठबन्धन अगर 2024 में भाजपा को हरा भी देता है (जो सम्भावना निश्चित तौर पर मौजूद है) तो भी यह भारत में फ़ासीवाद की निर्णायक हार नहीं होगी। बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध और इक्कीसवीं सदी में फ़ासीवाद की निर्णायक पराजय का सवाल मज़दूर क्रान्ति और मज़दूर सत्ता से जुड़ा हुआ है। उसके बिना फ़ासीवाद की फैसलाकुन हार मुमकिन नहीं है। किसी भी अन्य पार्टी या गठबन्धन की सरकार आना केवल मज़दूर वर्ग व आम मेहनतकश आबादी को ज्यादा से ज्यादा तात्कालिक राहत और अपनी क्रान्तिकारी तैयारी करने की कुछ मोहलत दे सकता है; इससे ज़्यादा कुछ भी नहीं। कांग्रेस या किसी तीसरे मोर्चे की सरकारों की नीतियों ने ही हमेशा फ़ासीवादी भाजपा के सत्ता तक पहुँचने का रास्ता साफ़ किया है और आम पूँजीवादी आर्थिक संकट के दौर में और कुछ हो भी नहीं सकता है।

तीसरी बात यह कि आज से ही यदि हम रोज़गार, महँगाई से आज़ादी, निशुल्क व समान शिक्षा, निशुल्क व समान चिकित्सा तथा आवास के अधिकार की ठोस माँगों पर अपने क्रान्तिकारी जनसंगठनों व यूनियनों के तहत जुझारू जनान्दोलन नहीं खड़ा करते, तो न तो 2024 में फ़ासीवादियों की चुनावी हार को सुनिश्चित किया जा सकता है और न ही इन माँगों पर 2024 में बनने वाली किसी भी सरकार द्वारा सुनवाई को सुनिश्चित किया जा सकता है। इन जुझारू जनान्दोलनों के बिना हम असंगठित ही रहेंगे, कमज़ोर ही रहेंगे और हमें खण्ड-खण्ड में बाँटकर हम पर हुकूमत करने की फ़िरकापरस्त ताक़तों की चाल भी कामयाब होती रहेगी, क्योंकि जनता की सच्ची, जुझारू, सेक्युलर व क्रान्तिकारी एकता संघर्षों के ज़रिये ही बनती है, “प्यार और मानवतावाद” के उपदेशों के ज़रिये नहीं। साथ ही, अगर हम संगठित नहीं होंगे तो कोई भी पूँजीवादी सरकार बिना किसी अर्थपूर्ण प्रतिरोध के उन्हीं नवउदारवादी आर्थिक नीतियों को आराम से लागू करना जारी रखेगी, जिसके फल बेरोज़गारी, महँगाई और भ्रष्टाचार के रूप में हमें अभी मिल रहे हैं।

चौथी बात, इन जनान्दोलनों को एक सूत्र में पिरोने के लिए देश में सर्वहारा वर्ग की क्रान्तिकारी पार्टी यानी देश में क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी का निर्माण और गठन बेहद आवश्यक है। ऐसी पार्टी के बिना बड़े से बड़े जनान्दोलन भी कालान्तर में या तो बिखर जाते हैं या फिर कुछ तात्कालिक आर्थिक माँगों के पूरा हो जाने पर विसर्जित हो जाते हैं। सर्वहारा वर्ग की क्रान्तिकारी पार्टी ही इन जनान्दोलनों को एकजुट कर सकती है, उन्हें एक ठोस कार्यक्रम दे सकती है, उन्हें एक आम राजनीतिक लक्ष्य दे सकती है।

इन चारों कार्यभारों को ध्यान में रखते हुए आज से ही सर्वहारा वर्ग के उन्नत तत्वों व मेहनतकश वर्गों का पक्ष चुनने वाले क्रान्तिकारियों को तैयारियाँ और काम शुरू कर देना होगा। आने वाला समय तीखे वर्ग संघर्ष का समय होगा। अगर सर्वहारा वर्ग एक राजनीतिक वर्ग के तौर पर अपने आपको संगठित नहीं करेगा, अगर वह आम मेहनतकश जनता के बीच पूँजीवादी विचारों व राजनीति के वर्चस्व को तोड़ने के लिए सतत् प्रचार नहीं करेगा, उसे संगठित नहीं करेगा, उसे नेतृत्व नहीं देगा, तो आने वाले वर्ग युद्ध में वह जीतने की उम्मीद नहीं कर सकता है।

मज़दूर बिगुल, सितम्‍बर 2023


 

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