काकोरी ऐक्शन की विरासत से प्रेरणा लो! धार्मिक कट्टरता के ख़िलाफ़ सच्ची धर्मनिरपेक्षता के लिए आगे आओ!
सौम्य ध्रुव
भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन का इतिहास क्रान्तिकारी संघर्षों से भरा पड़ा है। काकोरी ऐक्शन ऐसी ही एक ऐतिहासिक घटना थी। 9 अगस्त 1925 को क्रान्तिकारियों ने काकोरी में एक ट्रेन में सरकारी ख़ज़ाना लूटा था। इसी घटना को ‘काकोरी ऐक्शन’ के नाम से जाना जाता है। क्रान्तिकारियों का मक़सद ट्रेन से सरकारी ख़ज़ाना लूटकर उन पैसों से हथियार खरीदना था ताकि अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ चल रहे संघर्ष को मज़बूती मिल सके। इस घटना को अंजाम देने में रामप्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाकउल्ला खां, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, रोशन सिंह, चन्द्रशेखर आज़ाद सहित तमाम क्रान्तिकारी शामिल थे। ये सभी क्रान्तिकारी ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ (एचआरए) के सदस्य थे जिसकी स्थापना 1923 में शचीन्द्रनाथ सान्याल ने अन्य क्रान्तिकारियों के साथ मिलकर की थी।
इस लूट का विवरण देते हुए लखनऊ के पुलिस कप्तान मि. इंग्लिश ने 11 अगस्त 1925 को कहा, “क्रान्तिकारी ख़ाकी क़मीज़ और हाफ़ पैण्ट पहने हुए थे। उनकी संख्या 25 थी। ये सब पढ़े-लिखे लग रहे थे। पिस्तौल में जो कारतूस मिले थे, वे वैसे ही थे जैसे बंगाल की राजनीतिक क्रान्तिकारी घटनाओं में इस्तेमाल किये गये थे।”
इस घटना से बौखलाई अंग्रेज़ सरकार ने अपने पुलिस और ख़ुफ़िया विभागों की पूरी ताक़त क्रान्तिकारियों की धरपकड़ के लिए झोंक दी। देश के कई हिस्सों में बड़े पैमाने पर गिरफ़्तारियाँ हुईं। 40 से ज़्यादा लोगों को गिरफ़्तार किया गया। काकोरी ऐक्शन महज एक ट्रेन डकैती नहीं थी बल्कि ब्रिटिश सरकार को एक चेतावनी थी कि हम भले ही मुट्ठीभर क्रान्तिकारी हैं पर तुम्हारे साम्राज्य की चूलें हिला सकते हैं।
यह देश के क्रान्तिकारी स्वतन्त्रता आन्दोलन का विशेष दौर था जिसकी कुछ विशिष्टताएँ थीं। आगे चलकर भगतसिंह, सुखदेव, भगवतीचरण वोहरा जैसे क्रान्तिकारियों के चिन्तन की रोशनी में भारत का क्रान्तिकारी आन्दोलन भी इस नतीजे पर पहुँच गया था कि मज़दूर वर्ग की अगुवाई में जनता ही इतिहास बनाती है, क्रान्तिकारी पार्टी की अगुवाई में ही मज़दूर वर्ग जनता को नेतृत्व दे सकता है और महज़ कुछ बहादुर क्रान्तिकारी दस्ते हिंसक ऐक्शन के द्वारा अंग्रेज़ी राज के लिए समस्या तो पैदा कर सकते हैं, लेकिन उसे नेस्तनाबूद नहीं कर सकते। फिर भी क्रान्तिकारी आतंकवाद के इससे पहले के दौर के अपने अहम योगदान थे और इसमें क्रान्तिकारियों ने वीरता और बलिदान की शानदार मिसालें कायम कीं। काकोरी ऐक्शन का इसमें एक ख़ास स्थान है।
काकोरी की इस घटना ने ब्रिटिश सरकार में खौफ़ पैदा कर दिया। काकोरी ऐक्शन का ऐतिहासिक मुक़दमा लगभग 10 महीने तक लखनऊ की अदालत में चला। इस मुकदमे में रामप्रसाद ‘बिस्मिल’, अशफ़ाक़उल्ला खाँ, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी और रोशन सिंह को फाँसी की सज़ा सुनायी गयी। शचीन्द्रनाथ सान्याल को कालापानी और मन्मथनाथ गुप्त को 14 साल की सज़ा हुई। योगेशचन्द्र चटर्जी, मुकन्दीलाल, गोविन्द चरणकर, राजकुमार सिंह, रामकृष्ण खत्री को 10-10 साल की सज़ा हुई। विष्णुशरण दुब्लिश और सुरेशचन्द्र भट्टाचार्य को 7 साल और भूपेन्द्रनाथ, रामदुलारे त्रिवेदी और प्रेमकिशन खन्ना को 5-5 साल की सज़ा हुई। चन्द्रशेखर आज़ाद सरकार की हर कोशिश के बाद भी उसके हाथ नहीं आये और संगठन को नये सिरे से खड़ा करने में लगे रहे।
वास्तव में काकोरी ऐक्शन उस समय तक चले आ रहे क्रान्तिकारी आन्दोलन के गुणात्मक रूप से नयी मंजिल में प्रवेश कर जाने का प्रतीक बन गया। काकोरी ऐक्शन में शामिल ये क्रान्तिकारी राजनीतिक चेतना और वैचारिकता के धरातल पर अपने पहले की पीढ़ी के क्रान्तिकारियों से आगे बढ़े हुए थे। उनके पास एक स्पष्ट स्वप्न था कि आने वाला समाज कैसा होगा। एचआरए के घोषणापत्र की शुरुआत इन शब्दों से होती है – “हर इन्सान को निःशुल्क न्याय चाहे वह ऊँच हो या नीच, अमीर हो या ग़रीब, हर इन्सान को वास्तविक समान अवसर, चाहे वह ऊँच हो या नीच, अमीर हो या ग़रीब।”
एच.आर.ए. के कुछ क्रान्तिकारी निजी जीवन में धार्मिक थे लेकिन ये क्रान्तिकारी धर्म को राजनीति से अलग रखने के कट्टर हिमायती थे। अपनी शहादत से पहले रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ ने लिखा था – “अब देशवासियों से मेरा एक ही निवेदन है कि अगर उन्हें हमारे मरने का रत्तीभर भी दुख है, तो वे किसी भी तरह से हिन्दू-मुस्लिम एकता स्थापित करें, यही हमारी अऩ्तिम इच्छा है और वही हमारा स्मारक हो सकता है।”
अशफ़ाक़उल्ला खाँ ने भी इसी तरह लिखा था – “सात करोड़ मुसलमानों को शुद्ध करना नामुमकिन है और इसी तरह यह सोचना भी फ़िज़ूल है कि पच्चीस करोड़ हिन्दुओं से इस्लाम क़बूल करवाया जा सकता है। मगर हाँ, यह आसान है कि हम सब ग़ुलामी की बेड़ियाँ अपनी गर्दन में डाले रहें।”
वास्तव में यह वही दौर था जब देश में अंग्रेज़ों की ‘फूट डालो-राज करो’ की नीति पूरे देश में जनता को जाति-धर्म की आग में झोंकने में लगी हुई थी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे फ़ासीवादी संगठन काम कर रहे थे और 27 सितम्बर 1925 को इसकी औपचारिक स्थापना हो चुकी थी। बहुत से धार्मिक कट्टरपन्थी संगठन अस्तित्व में आ चुके थे। लेकिन इन क्रान्तिकारियों ने इन फ़ासीवादी-धार्मिक कट्टरपन्थियों की सच्चाई को पहचाना था और धर्मनिरपेक्षता को अपना आदर्श बनाया था।
काकोरी ऐक्शन के इन क्रान्तिकारियों की शहादत के बाद भगतसिंह और उनके साथियों ने इस विरासत को और आगे बढ़ाते हुए समाजवाद को अपने लक्ष्य के तौर पर अपनाया और भगतसिंह की पहल पर संगठन का नया नाम हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचएसआरए) रखा गया। आज स्थिति यह है कि देश की चुनावी राजनीति ने ‘समाजवाद’ शब्द को घिसा हुआ सिक्का बना दिया है। ‘धर्मनिरपेक्षता’ के आदर्श की स्थिति यह हो गयी है कि देश में धर्मनिरपेक्ष (सेक्युलर) शब्द को गाली की तरह प्रयोग किया जाता है। अंग्रेज़ों के नक्शेक़दम पर चलते हुए उनकी भूरी औलादों ने आज़ादी के 75 सालों में देश को जाति-धर्म के नाम पर लड़ाते-बाँटते हुए अपनी सत्ता चलायी है। फ़ासीवादी भाजपा और संघ परिवार ने इस मामले में अब तक के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिये हैं। हाल ही में हरियाणा में हुए साम्प्रदायिक दंगे इसकी एक बानगी है।
आज काकोरी ऐक्शन के शहीदों को याद करते हुए उनकी विरासत को लोगों तक पहुँचाना, जाति-धर्म के नाम पर जनता को लड़ाने-बाँटने वाले धार्मिक कट्टरपन्थियों की पोल खोलते हुए जनता को उनके असली सवालों पर एकजुट करना हर इन्साफ़पसन्द इन्सान का फ़र्ज़ बनता है। अब यह हमारे ऊपर है कि हम अपने फ़र्ज़ की आवाज़ को अनसुना करेंगे या इन क्रान्तिकारियों के रास्ते पर चलते हुए इनके सपनों के समाज के निर्माण के लिए आगे आयेंगे।
मज़दूर बिगुल, अगस्त 2023
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन