समान नागरिक संहिता के पीछे मोदी सरकार की असली मंशा है साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण जिसकी फसल 2024 के लोकसभा चुनावों में काटी जा सके!
स्त्री-पुरुष समानता सुनिश्चित करने वाली जनवादी, सेक्युलर व समानतामूलक समान नागरिक संहिता अवश्य होनी चाहिए, मगर उसे किसी पर जबरन थोपा नहीं जा सकता!
सम्पादकीय अग्रलेख
सबसे पहले तो हमें यह समझ लेना चाहिए कि मोदी सरकार जिस वजह से समान नागरिक संहिता को लागू करने की बात कर रही है, उसके पीछे न तो “मुस्लिम बेटियों” के प्रति कोई सरोकार है, न समान नागरिक संहिता के जनवादी, सेक्युलर और समानतामूलक सिद्धान्त के प्रति कोई प्रतिबद्धता है। तो फिर भाजपा की मोदी सरकार समान नागरिक संहिता को लेकर हल्ला क्यों मचा रही है? इस बार हम इसी प्रश्न को अच्छी तरह से समझेंगे।
यदि मुसलमान औरतों के प्रति भाजपा का कोई सरोकार होता तो उसके नेता मुसलमान स्त्रियों को कब्र से निकालकर उनके बलात्कार का आह्वान मंचों से न करते, गुजरात के दंगों में मुसलमान औरतों का सामूहिक बलात्कार, गर्भ चीरकर भ्रूण निकालने जैसी वीभत्स और बर्बर घटनाएँ आर.एस.एस. व भाजपा के गुण्डों द्वारा न अंजाम दी जातीं। अगर उन्हें मुसलमान औरतों के प्रति न्याय को लेकर इतना दर्द उमड़ रहा होता तो बिलकिस बानो के बलात्कारियों और उसके बच्चे और परिवार के हत्यारों को भाजपा सरकार बरी न करती, न ही माया कोडनानी और बाबू बजरंगी जैसे लोग बरी होते या उन्हें पैरोल मिलती। साफ़ है कि मुसलमान औरतों के प्रति चिन्ता का हवाला देकर भाजपा तथाकथित समान नागरिक संहिता को मुसलमान आबादी पर थोपना चाहती है और असल में वह समान नागरिक संहिता के नाम पर हिन्दू पर्सनल लॉ को ही विशेष तौर पर मुसलमान आबादी पर थोपना चाहती है, जो कि उनकी धार्मिक व निजी आज़ादी का हनन होगा और इस प्रकार साम्प्रदायिक तनाव और ध्रुवीकरण को बढ़ाने का उपकरण मात्र होगा। मुसलमान औरतों के प्रति भाजपाइयों और संघियों के पेट में कितना दर्द है, यह सभी जानते हैं।
भाजपा सरकार ने 2016 में एक विधि आयोग गठित किया था जिसे इस मसले पर अपनी रिपोर्ट देनी थी। इस आयोग ने जो रिपोर्ट दी उसके अनुसार समान नागरिक संहिता को लागू करने के बजाय, तमाम धार्मिक निजी कानूनों में सुधार करके उसे ज़्यादा प्रगतिशील बनाने का सुझाव दिया गया। ज़ाहिर है, यह सुझाव मज़दूर वर्ग के नज़रिये से सही नहीं है। लेकिन मोदी सरकार ने उस रिपोर्ट को भी दरकिनार कर दिया और अब एक नया विधि आयोग बना दिया है, जिसे फिर से इसी मसले पर जाँच करनी है! इसकी एक वजह यह भी है कि पिछले विधि आयोग की रिपोर्ट ने मुस्लिम पर्सनल लॉ के अतिरिक्त हिन्दू पर्सनल लॉ में स्त्रियों के प्रति मौजूद गैर–बराबरी को भी चिन्हित किया था और दिखलाया था कि तमाम सुधारों के बावजूद अभी भी हिन्दू पर्सनल लॉ स्त्रियों के प्रति असमानतापूर्ण रुख रखता है।
यह भी ग़ौरतलब है कि मोदी सरकार पिछले 9 सालों में समान नागरिक संहिता का कोई मसौदा लेकर नहीं आयी है। इसका इस्तेमाल केवल साम्प्रदायिक तनाव फैलाने के लिए किया जा रहा है। मोदी सरकार ने स्पष्ट ही नहीं किया है कि इसके आने पर सभी पर्सनल लॉ समाप्त होंगे या नहीं, यह समान नागरिक संहिता कहीं हिन्दू पर्सनल लॉ का ही एक संस्करण तो नहीं होगी, क्या इसमें सम्पत्ति के उत्तराधिकार को पूर्ण रूप से स्त्री-पुरुष समानता पर आधारित बना दिया जायेगा, क्या इसमें विवाह व तलाक से जुड़े कानूनों में पूर्ण स्वतन्त्रता के साथ अलग होने की व्यवस्था की जायेगी जो फिलहाल हिन्दू पर्सनल लॉ में मौजूद नहीं है? इन सभी प्रश्नों पर मोदी सरकार कुछ बोल भी नहीं रही है और न ही समान नागरिक संहिता का कोई मसौदा अब तक पेश कर पायी है। साफ़ है कि साम्प्रदायिक तनाव की सिगड़ी को गरमाये रखना ही उसका मक़सद है।
तीसरी बात यह है कि यदि कोई समान नागरिक संहिता पूर्ण रूप से जनवादी, सेक्युलर और समानतामूलक रूप में लायी भी जाती है, तो उसे किसी भी नागरिक पर जबरन थोपा नहीं जा सकता है। मिसाल के तौर पर, यदि कोई दो नागरिक अपनी स्वेच्छा से अपने धर्म या समुदाय के पारम्परिक नियम-कायदों के अनुसार शादी करना चाहते हैं या तलाक लेना चाहते हैं, तो इसमें राज्यसत्ता कोई हस्तक्षेप तब तक नहीं कर सकती है जब तक कि इन दोनों में से कोई एक नागरिक कानूनी तौर पर हस्तक्षेप के लिए राज्यसत्ता के पास जाये।
चौथी बात यह है कि कोई भी जनवादी व सेक्युलर राज्यसत्ता किसी भी धार्मिक पर्सनल लॉ को कोई मान्यता नहीं दे सकती है। उसके लिए केवल एक ही नागरिक संहिता हो सकती है। इसलिए कोई भी जनवादी व सेक्युलर सरकार हर प्रकार के धार्मिक पर्सनल लॉ की कानूनी मान्यता को समाप्त कर देगी। इसका अर्थ यह नहीं है कि कोई समुदाय अपने समुदाय की पारम्परिक या धार्मिक कानूनी प्रथा के अनुसार विवाह नहीं कर सकता या तलाक नहीं ले सकता। यह उस नागरिक की आज़ादी होगी। लेकिन यदि कोई भी ऐसा नागरिक किसी विवाद के निपटारे के लिए राज्यसत्ता के पास आता है तो वह न्याय किसी धार्मिक पर्सनल लॉ के तहत नहीं किया जायेगा, बल्कि वह समान नागरिक संहिता के तहत किया जायेगा, चाहे वह मसला विवाह का हो, तलाक का हो या फिर सम्पत्ति से जुड़ा हुआ हो। यदि किसी को समान नागरिक संहिता के तहत न्याय नहीं चाहिए तो वह अपने धर्म की संस्थाओं या धर्म-गुरुओं के पास जाए। लेकिन एक सेक्युलर व जनवादी राज्यसत्ता किसी धार्मिक कानून के तहत न्याय नहीं दे सकती है, बल्कि एक सेक्युलर व जनवादी नागरिक संहिता के तहत ही न्याय दे सकती है, जो कि सभी नागरिकों के लिए समान है और जनवाद, सेक्युलरिज़्म व समानता पर आधारित है।
मसला क्या है और इस पर हमारा रवैया क्या होना चाहिए?
मसला यह है कि समान नागरिक संहिता अवश्य होनी चाहिए जो कि सही मायने में सेक्युलर व जनवादी हो तथा स्त्री-पुरुष समानता पर आधारित हो। ज़ाहिरा तौर पर, आप पितृसत्तात्मक व जातिवादी तथा साम्प्रदायिक भाजपा से एक ऐसी समान नागरिक संहिता की उम्मीद नहीं कर सकते हैं। दूसरी बात, सर्वहारा वर्ग का नज़रिया यह है कि ऐसी समान नागरिक संहिता की स्थापना के साथ ही सारे धार्मिक पर्सनल लॉ औपचारिक व कानूनी तौर पर अपनी मान्यता खो देंगे। तीसरी बात, इसका यह अर्थ नहीं है कि यदि दो नागरिक स्वेच्छा से अपने धर्म या समुदाय के पारम्परिक कानूनों के तहत अपने निजी मसलों को चलाना चाहते हैं, तो राज्यसत्ता उसमें कोई दख़लन्दाज़ी करेगी। ऐसी दख़लन्दाज़ी तभी हो सकती है जब किसी धार्मिक प्रथा के आधार पर कोई सामाजिक उत्पीड़न या हत्या करता है, मसलन, सती प्रथा पर कोई यह हवाला देकर अमल नहीं कर सकता है कि उसकी प्राचीन धार्मिक परम्पराओं का यह अंग है। इसके अलावा, जातिगत मसले पर्सनल या निजी नहीं बल्कि सामाजिक मसले हैं और जातिगत भेदभाव किसी भी रूप में दण्डनीय अपराध होना चाहिए और कोई भी अपने धर्म का हवाला देकर इन पर अमल नहीं कर सकता है। अफ़सोस की बात है कि केवल अस्पृश्यता को ही हमारे देश का कानून अवैध ठहराता है लेकिन जाति आधारित विवाह करने के लिए विज्ञापन देने, अपने जातिगत दम्भ का खुलेआम प्रदर्शन करने आदि के अन्य रूपों को रोकने का कोई रास्ता भारत के कानून में नहीं है। बहरहाल, जाति का प्रश्न वैसे भी व्यक्तिगत कानून के दायरे में आता ही नहीं है और उसके दायरे में मुख्यत: विवाह, तलाक, व उत्तराधिकार सम्बन्धी कानून आते हैं। ऐसे में, यदि दो नागरिक अपनी इच्छा से अपने धार्मिक पारम्परिक कानून का पालन करना चाहते हैं, तो उन्हें ऐसा करने से कोई राज्यसत्ता रोक नहीं सकती है। लेकिन उन दोनों में से कोई भी नागरिक विवाह, तलाक या उत्तराधिकार के मसले में अपने प्रति हुई नाइंसाफ़ी के जवाब में न्याय के लिए न्यायपालिका के पास आता है, तो वह इसका निपटारा किसी धार्मिक कानून या परम्परा के आधार पर नहीं, बल्कि समान नागरिक संहिता के आधार पर ही करेगी क्योंकि ऐसे धार्मिक कानूनों को एक जनवादी सेक्युलर राज्यसत्ता की न्यायपालिका कोई मान्यता ही नहीं देती है।
इसलिए हमारी माँग यह होनी चाहिए कि एक समान नागरिक संहिता जो कि क्रान्तिकारी जनवादी उसूलों पर आधारित हो, उसे अवश्य बनाया जाना चाहिए और सभी धार्मिक पर्सनल कानूनों की आधिकारिक या सरकारी मान्यता को समाप्त कर दिया जाना चाहिए। दूसरा, इस समान नागरिक संहिता को (चाहे वह कितनी ही जनवादी व सेक्युलर क्यों न हो) आप किसी नागरिक पर उसके निजी मसलों के सन्दर्भ में थोप नहीं सकते हैं, इसलिए इस नागरिक संहिता को भी जबरन किसी पर भी नहीं थोपा जाना चाहिए। तीसरी बात, किसी धार्मिक कानून या परम्परा के तहत यदि दो नागरिक किसी संविदा या करारनामे में जुड़ते हैं या उससे अलग होते हैं, तो भी यदि कोई एक नागरिक भी न्याय हेतु राज्यसत्ता की न्यायपालिका के पास आता है तो उसे न्याय एकसमान नागरिक संहिता के तहत ही मिलेगा, अन्यथा वह अपने धर्मगुरुओं या धार्मिक संस्थाओं के पास जा सकता है। ये इस मसले पर सर्वहारा उसूल हैं, जिन्हें हमें समझना चाहिए।
अब इन उसूलों की रोशनी में हम यह समझने का प्रयास करते हैं कि भाजपा की मोदी सरकार क्या कर रही है और उसके वास्तविक इरादे क्या हैं।
मोदी सरकार उत्तर–पूर्व के तमाम आदिवासी व ईसाई समुदायों को यह भरोसा दिला रही है कि उनके जनजातीय पारम्परिक कानूनों व ईसाई पर्सनल लॉ पर समान नागरिक संहिता लागू नहीं की जायेगी। इसी प्रकार इस बात के कयास भी लगाये जा रहे हैं कि कुछ अन्य धार्मिक समुदायों को भी इस भावी समान नागरिक संहिता से छूट दे दी जायेगी। तो इसका अर्थ क्या हुआ? इसका अर्थ यह है कि यह एकसमान नागरिक संहिता केवल मुसलमान आबादी पर थोपने के लिए है। यह सच है कि मुसलमान कट्टरपंथी धार्मिक गुरू व संस्थाएँ आम तौर पर समान नागरिक संहिता का विरोध करती हैं और अपने पितृसत्तात्मक मूल्यों से संचालित होकर मुस्लिम पर्सनल लॉ में किसी भी प्रकार के सुधार को रोक देती हैं। दूसरी तरफ़, स्वयं मुसलमान समाज के भीतर से कई लोग एक जनवादी व सेक्युलर एकसमान नागरिक संहिता की माँग करते हैं और साथ ही कई मुस्लिम पर्सनल लॉ में बड़े सुधार करके उसे स्त्रियों के प्रति समानतापूर्ण बनाने की माँग उठाते हैं। ऐसे सभी मुसलमानों ने मोदी सरकार की मंशा पर सन्देह प्रकट किया है और स्पष्ट किया है कि मोदी सरकार समान नागरिक संहिता के नाम पर हिन्दू पर्सनल लॉ को केवल मुसलमानों के ऊपर थोपने का षड्यन्त्र कर रही है, ताकि साम्प्रदायिक तनाव को भड़काया जा सके। वैसे भी यदि एक भी समुदाय को समान नागरिक संहिता को न मानने की छूट देने के लिए भाजपा की मोदी सरकार तैयार है, तो सब पर बाध्यताकारी तौर पर लागू होने वाली जिस समान नागरिक संहिता की भाजपा बात कर रही है, वह तो रही ही नहीं! फिर तो वह सिर्फ मुसलमान आबादी पर समान नागरिक संहिता को जबरन थोपकर साम्प्रदायिक तनाव को भड़काने का एक उपकरण हो गया। यह भी स्पष्ट है कि भाजपा जो तथाकथित समान नागरिक संहिता लायेगी उसमें हिन्दू अविभाजित परिवार जैसे प्रावधानों को समाप्त नहीं किया जायेगा जिसके ज़रिये धनी हिन्दू सम्पत्तिशाली तबके हज़ारों करोड़ रुपये टैक्स में बचाते हैं।
और भाजपा ठीक इसी मंशा से समान नागरिक संहिता को लेकर हल्ला कर रही है, ताकि साम्प्रदायिक तनाव को गरमाया जा सके और 2024 में लोकसभा चुनावों में इस साम्प्रदायिक तनाव का फ़ायदा उठाकर सत्ता में पहुँचा जा सके। महँगाई, बेरोज़गारी और भ्रष्टाचार के मसले पर भाजपा सरकार पूरी तरह से बेनक़ाब हो चुकी है और जनता उसकी असलियत को हर बीतते दिन के साथ समझती जा रही है। आज टमाटर, अन्य सब्ज़ियों व खाद्य पदार्थों की क़ीमतों ने आम आदमी की जेब पर डाका डाला हुआ है। सारे भ्रष्टाचारी भाजपा में शामिल हो रहे हैं। महाराष्ट्र में जिस व्यक्ति को नरेन्द्र मोदी ने मध्यप्रदेश में 5 दिन पहले के अपने भाषण में सबसे बड़े भ्रष्टाचारी की संज्ञा दी थी, वह आज भाजपा की गठबन्धन सरकार में महाराष्ट्र में उपमुख्यमन्त्री बन चुका है, यानी अजित पवार! यानी, भाजपा में जाओ और अपने ऊपर से भ्रष्टाचार के केसों को हटवाओ। विपक्ष के नेताओं को इसी प्रकार डराकर भाजपा अपने 2024 में हारने के डर को दूर करने की कोशिशों में लगी हुई है। इस समय तेजस्वी यादव व राजद के लोगों को नौकरी के लिए ज़मीन मसले में डराया जा रहा है। बेशक़, सारी ही पूँजीवादी चुनावबाज़ पार्टियों में भ्रष्टाचार के ऐसे मसले हो सकते हैं और हैं हीं। लेकिन अगर कोई पार्टी भ्रष्टाचार में सबसे आगे है, तो वह भाजपा ही है। क्या हम राफेल घोटाले, व्यापम घोटाले और एनपीए घोटाले को भूल गये हैं? ये तो आज़ाद भारत के इतिहास के सबसे बड़े घोटाले हैं!
अब चूँकि भाजपा के पास 10 साल के काम के आधार पर वोट माँगने के लिए कुछ नहीं है, इसलिए वह बस तीन काम कर रही है: पहला, पूँजीवादी संसद के भीतर मौजूद विपक्ष को डरा–धमकाकर तोड़ना ताकि उसके खिलाफ़ विपक्ष साझे उम्मीदवारों को न उतार सके; दूसरा, देश में साम्प्रदायिक तनाव की ज्वाला को लव जिहाद, गोरक्षा और समान नागरिक संहिता के नाम पर भड़काते रहना, और तीसरा, पाकिस्तान और चीन के नाम पर अन्धराष्ट्रवाद की हवा बनाये रखना ताकि कुछ भी काम न आये, तो कोई नया पुलवामा काम आ जाये। संयोगवश ऐसी कोई घटना घट जाये तो अचरज मत करियेगा।
यही सच्चाई है और इसे हमें समझने की आवश्यकता है।
तमाम संशोधनवादी पार्टियाँ जैसे कि माकपा, भाकपा-माले व भाकपा समान नागरिक संहिता के विचार को ही आम तौर पर ख़ारिज कर रही हैं और कह रही हैं कि भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में यह लागू नहीं की जा सकती है। निश्चित तौर पर, सर्वहारा वर्ग भी किसी समान नागरिक संहिता को किसी नागरिक पर जबरन थोपेगा नहीं, क्योंकि यह जनवाद के उसूलों के खिलाफ है। लेकिन वह निश्चित ही एक समान नागरिक संहिता के निर्माण का समर्थन करेगा, जो सही मायने में जनवाद और सेक्युलरिज़्म पर आधारित हो और जो किसी पर थोपी न जाय। साथ ही, वह हर नागरिक के अपने समुदाय या धर्म की परम्परा या कानून पर निजी मसलों में अमल करने के अधिकार का भी खण्डन नहीं करेगा और केवल तभी इन निजी मसलों में हस्तक्षेप की हिमायत करेगा, जबकि कोई नागरिक न्याय हेतु राज्यसत्ता के पास आता है और तब भी राज्यसत्ता समान नागरिक संहिता के मातहत ही न्याय दे सकती है। लेकिन मज़दूर वर्ग की ग़द्दार इन संशोधनवादी पार्टियों ने अल्पसंख्यक आबादी के मौजूद धार्मिक कट्टरपंथी संस्थाओं व गुरुओं का तुष्टीकरण करने के नज़रिये से समान नागरिक संहिता का निरपेक्ष रूप से विरोध किया और पर्सनल लॉ में सुधार मात्र की माँग की है। विशिष्ट परिस्थितियों में, ऐसी माँग एक लघुकालिक माँग हो सकती थी लेकिन जिस प्रकार आम तौर पर संशोधनवादी पार्टियाँ लघुकालिक माँगों को दूरगामी लक्ष्य बनाकर पेश करती हैं और मज़दूर वर्ग की राजनीतिक चेतना को भ्रष्ट और कुन्द करती हैं, उसी प्रकार समान नागरिक संहिता के मसले पर भी भारत की विविधता का हवाला देकर उसका निरपेक्ष विरोध करके वे ऐसा ही कर रही हैं।
विविधता का हवाला देकर किसी भी प्रतिक्रियावादी चीज़ को सही ठहराया जा सकता है। जातिवाद को, ब्राह्मणवाद को, पितृसत्तात्मक मूल्यों को और साम्प्रदायिकता तक को विविधता का हवाला देकर सही ठहराया जा सकता है। मूलत: यह तर्क बहुसंस्कृतिवाद का तर्क है जो सभी समुदायों को एक-दूसरे की पारम्परिक प्रथाओं को बर्दाशत करने या उनके प्रति सहिष्णुता दिखलाने की हिदायत देता है और इस प्रकार समुदायों के बीच की दीवारों को बनाये रखता है और उनके बीच वर्गीय आधार पर एकजुटता बनाने की प्रक्रिया को भारी नुकसान पहुँचाता है। ऐसी कोई परस्पर सहिष्णुता और बर्दाश्त करने की हिदायतें काम नहीं आतीं क्योंकि हर धर्म की प्रतिक्रियावादी, जनविरोधी और पितृसत्तात्मक व जातिवादी परम्पराओं में ही आपस में अन्तरविरोध और टकराव है। नतीजतन, इनको लेकर स्वयं समुदायों के बीच टकराव पैदा करना हमेशा ही फ़िरकापरस्त ताक़तों के लिए आसान होता है। इसलिए सर्वहारा वर्ग का सिद्धान्त सहिष्णुता और बर्दाश्त करने की बुर्जुआ उदारतावादी हिदायत देना नहीं है, बल्कि वैज्ञानिकता और तार्किकता के आधार पर हर ग़लत परम्परा या प्रथा की आलोचना करना और उसके आधार पर सर्वहारा वर्ग के नज़रिये से वर्गीय एकजुटता स्थापित करना है। लेकिन संशोधनवादियों में इस बात का साहस नहीं होता है और वे हमेशा प्रतिक्रियावादी और जनविरोधी परम्पराओं के सामने भी घुटना टेकने व उनसे समझौते करने को तैयार रहते हैं, जो कि अन्तत: आम तौर पर मेहनतकश जनता को ही नुकसान पहुँचाता है।
सर्वहारा वर्ग हमेशा ही समान नागरिक संहिता का समर्थन करता है, जो जनवादी, सेक्युलर व समानतापूर्ण उसूलों पर आधारित हो। वह हमेशा ही ऐसी समान नागरिक संहिता को भी जबरन किसी नागरिक पर थोपे जाने का विरोध करता है, जैसा कि भाजपा की मोदी सरकार मुसलमान आबादी के साथ करना चाहती है। सर्वहारा वर्ग हमेशा हर नागरिक की अपने धर्म या समुदाय की परम्पराओं के अनुसार अपने निजी मसलों के निपटारे की आज़ादी का सम्मान करता है, चाहे वह इन परम्पराओं से सहमत हो या न हो। वह मानता है कि एक सेक्युलर व जनवादी राज्यसत्ता को निजी मसले के निपटारे या उसमें न्याय की गुहार लगाने वाले किसी भी नागरिक को केवल और केवल समान नागरिक संहिता के आधार पर ही न्याय दे सकती है न कि किसी धार्मिक पर्सनल लॉ के आधार पर जिसको वह मान्यता दे ही नहीं सकती है। यह सर्वहारा वर्ग का क्रान्तिकारी नज़रिया है, जो आम तौर पर जनवाद, सच्चे सेक्युलरिज़्म और समानता के सिद्धान्तों पर खरा उतरता है और आम मेहनतकश जनता के भविष्य के लिए सर्वश्रेष्ठ है।
आम मेहनतकश जनता में पुराने सड़ चुके धार्मिक मूल्य-मान्यताओं और प्रतिक्रियावादी परम्पराओं के प्रति एक सही दृष्टिकोण विकसित हो, वे उनका परित्याग कर मानवतावाद, जनवाद, सेक्युलरिज़्म व समानता के उसूलों को अपने निजी जीवन के मसलों में भी अपनायें, यह मसला वास्तव में कानून पारित करने का मसला है ही नहीं। आप समानता या सेक्युलरिज़्म या जनवाद को भी गैर-जनवादी तरीके से किसी के ऊपर कानून बनाकर नहीं थोप सकते हैं। ऐसे में, यह मसला एक सामाजिक आन्दोलन का मसला बनता है जिस पर सतत् प्रचार करके जनता का स्तरोन्नयन करना क्रान्तिकारी सर्वहारा आन्दोलन का एक दूरगामी कार्यभार बनता है, जिस पर तात्कालित तौर पर ही अमल की शुरुआत हो जानी चाहिए। साथ ही, यह भी समझ लेना चाहिए कि समाजवाद और मज़दूर सत्ता के स्थापित होने के बाद भी कई सांस्कृतिक क्रान्तियों और समाजवादी शिक्षा व्यवस्था में कई पीढि़यों के पलने-बढ़ने, सामाजिक व आर्थिक असुरक्षा व अनिश्चितता के समाप्त होने के बाद ही जनता के बीच एक जनवादी और समानतामूलक तथा तार्किक व वैज्ञानिक चेतना पैदा हो सकती है। इसके लिए क्रान्ति के पहले भी राजनीतिक व सांस्कृतिक प्रचार हमारे आन्दोलन का एक ज़रूरी कार्यभार है। लेकिन आप समूचे समाज की सामाजिक व सांस्कृतिक चेतना के स्तरोन्नयन को कानूनों व आज्ञप्तियों को पारित करने का मसला नहीं बना सकते हैं।
इसलिए आज राजनीतिक तौर पर हमें उन्हीं उसूलों पर अमल करना चाहिए जिनकी हमने ऊपर चर्चा की है, जो जनवाद, सेक्युलरिज़्म और समानता पर आधारित हैं और जो हमें इस मसले पर एक सही सर्वहारा लाइन व कार्यक्रम अपनाने के योग्य बनाते हैं।
मज़दूर बिगुल, जुलाई 2023
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