विकास के नाम पर विनाश का मॉडल : गंगा विलास और टेण्ट सिटी

अमित (बनारस)

पिछली 13 जनवरी को बनारस में प्रधानमंत्री मोदी ने टेण्ट सिटी और गंगा विलास क्रूज़ को हरी झण्डी दिखायी। कमोबेश उसी के आसपास ऑक्सफ़ैम ने अपनी रिपोर्ट जारी करते हुए देश में अमीरी-ग़रीबी की खाई के बारे में आँकड़े प्रस्तुत किये। टेण्ट सिटी और गंगा विलास क्रूज़ को हरी झण्डी दिखाते समय प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि “ये भारत के विकास का एक उदाहरण है। पहले लोग इस तरह के अनुभव लेने के लिए विदेश जाते थे, लेकिन अब देश में ही ऐसी सुविधा उपलब्ध है।” अनजाने में ही सही, लेकिन मोदी ने जो बात कही, उसे अगर ऑक्सफ़ैम द्वारा जारी की गयी रिपोर्ट के तथ्यों और आँकड़ों की रोशनी में रखकर देखें तो यह बात बिल्कुल सटीक लगती है कि सही मायने में टेण्ट सिटी और गंगा विलास क्रूज़, भारत के विकास के उस मॉडल का एक उदाहरण देते हैं, जो मौजूदा फ़ासीवादी मोदी सरकार ने देश की जनता के ऊपर थोप दिया है। आइए देखते हैं, कैसे?

फ़ासिस्ट जब विकास की बात करते हैं…

सबसे पहले, टेण्ट सिटी की बात! बनारस में गंगा नदी के घाटों के सामने की तरफ़ पूर्वी किनारे पर रेत पर 10 हेक्टेयर में टेण्ट सिटी का निर्माण किया गया है। इस टेण्ट सिटी में रुकने का किराया 8,000 से 30,000 तक है। टेण्ट सिटी में पर्यटन को बढ़ावा देने के नाम पर तरह-तरह की गतिविधियाँ, घाटों का दृश्य देखने के लिए वाच टॉवर का निर्माण आदि की ख़बरें ख़ूब चर्चा में हैं। लेकिन यह सारा विकास किस क़ीमत पर हो रहा है, अब इसे भी जान लेते हैं। इस टेण्ट सिटी के निर्माण के कुछ ही दिनों बाद अख़बारों में बनारस में घाटों के धँसने की ख़बर आने लगी। इस बाबत जब जाँच पड़ताल की गयी तो बीएचयू के वैज्ञानिकों ने यह बताया कि पर्यटन को बढ़ावा देकर ‘विकास’ करने के नाम पर गंगा के पूर्वी छोर पर लम्बे समय से बालू का खनन नहीं कराया जा रहा है, जिसके कारण दूसरी तरफ़ घाटों की ओर गंगा की धारा का दबाव बढ़ रहा है और यहाँ घाटों में धँसाव शुरू हो गया है। वैज्ञानिकों की यह बात कुछ न्यूज़ पोर्टलों आदि पर आ तो गयी, लेकिन बनारस का प्रशासन इस मुद्दे पर चुप्पी मारकर बैठा हुआ है और बोल्डर डलवाने आदि के नाम पर खानापूर्ति करने में लगा है जो कि इस धँसाव को रोकने के लिए नाकाफ़ी साबित हो रहे हैं।

कुछ ऐसा ही हाल गंगा विलास क्रूज़ का है। यह क्रूज़ 13 जनवरी को रवाना हुआ और 51 दिनों की यात्रा करते यह क्रूज़ भारत के पाँच राज्यों और बांग्लादेश से होकर गुज़रेगा। इस यात्रा में शामिल होने वाले व्यक्ति की यात्रा का व्यय 50 से 55 लाख रुपये होगा मतलब लगभग 1 लाख रुपये प्रतिदिन। स्पा, सैलून, संगीत, जिम, ओपन स्पेस बालकनी आदि सुविधाओं से युक्त इस क्रूज़ पर जो आबादी विलासिता करने के लिए जायेगी, उसके बारे में सहज ही अन्दाज़ा लगाया जा सकता है!

ऑक्सफ़ैम की जिस रिपोर्ट का ऊपर हमने ज़िक्र किया है, वह बताती है कि देश के अरबपतियों की सम्पत्ति में हर मिनट 2.5 करोड़ रुपये की वृद्धि हुई है। ऊपर के 1 प्रतिशत अरबपतियों के पास देश की 40.5 प्रतिशत सम्पत्ति एकत्र हो चुकी है। जबकि नीचे की पचास प्रतिशत आबादी के पास देश की कुल सम्पत्ति का तीन प्रतिशत हिस्सा है। ज़ाहिर है कि गंगा विलास और बनारस में बनायी गयी इस टेण्ट सिटी का विकास नीचे की इस आबादी के लिए नहीं है, उसको तो बस उस विनाश का ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ेगा जिसकी क़ीमत पर यह विकास हुआ है।

वास्तव में फ़ासीवादी मोदी सरकार के शब्दकोश में विकास शब्द का मतलब ही विनाश है। ‘सबका साथ सबका विकास’ का जुमला उछालने वाली मोदी सरकार ने मुट्ठीभर ‘धनपशुओं का विकास और बाक़ी सबका विनाश’ की नीति पर अमल किया है। ऑक्सफ़ैम की रिपोर्ट इसी का एक नमूना पेश करती है। जब मोदी सरकार ने सत्ता में आने के साथ ही गंगा को स्वच्छ और निर्मल कर देने की क़समें खायी थीं, तभी यह समझ में आ गया था कि अब गंगा के साथ भी विकास के नाम पर विनाश की वही कहानी दुहरायी जायेगी। गंगा संरक्षण के नाम पर मंत्रालय बना देने वाली और ‘नमामि गंगे’ जैसी जुमलेबाज़ी करने वाली मोदी सरकार के कार्यकाल में स्थिति यह है कि 2014 से लेकर अब तक गंगा के संरक्षण के नाम पर लगभग 20 हज़ार करोड़ रुपये मंज़ूर किये जा चुके हैं। इस काम के लिए एक ट्रस्ट का भी गठन किया गया है। लेकिन गंगा की सफ़ाई के लिए सरकार कितनी गम्भीर है, इसे इसी से समझा जा सकता है कि ट्रस्ट का प्रमुख वित्त मंत्री को बनाया गया है, जिसकी व्यस्तता के कारण इस ट्रस्ट की बैठकें तक नहीं होतीं। ट्रस्ट के द्वारा अबतक लगभग 398 करोड़ रुपये की ही परियोजनाएँ स्वीकृत हैं, यानि मंज़ूर की गयी राशि में से भी एक बड़ी राशि ख़र्च ही नहीं हुई है। जो राशि ख़र्च हुई भी है, उसका इस्तेमाल गंगा के किनारों पर घाटों की मरम्मत कराने, हर की पौड़ी कॉम्प्लेक्स का निर्माण कराने, गंगा के किनारों पर पौधे लगाने आदि के लिए हुआ है। ज़ाहिर है कि गंगा की दुर्दशा के लिए ज़िम्मेदार मुख्य कारणों पर कोई काम किये बिना ऐसी हवा-हवाई दिखावटी परियोजनाओं के ज़रिए केवल अरबों-खरबों के वारे-न्यारे किये जा सकते हैं और प्रचार किया जा सकता है, लेकिन वास्तव में गंगा की स्थिति में सुधार होना पाना असम्भव है। इसको इसी से समझा जा सकता है कि पिछले एक साल में ही गंगा का पानी बनारस में कई बार काला पड़ चुका है। पिछले दिनों राज्यसभा में जलशक्ति मंत्रालय के राज्य मंत्री ने बताया कि गंगा में हर दिन लगभग 28 करोड़ लीटर अपशिष्ट छोड़ा जाता है। इसका नतीजा यह है कि गंगा के किनारे रहने वाली एक बड़ी आबादी भयंकर बीमारियों के ख़तरे से जूझती रहती है। बीएचयू के चिकित्सा विज्ञान संस्थान द्वारा किये गये एक अध्ययन के अनुसार गंगा के किनारों पर रहने वाली आबादी में स्ट्रोक, दौरे और सेप्टिक एन्सेफ़ैलोपैथी जैसी न्यूरोलॉजिकल बीमारियाँ आम हैं। साथ ही बहुत-से लोग पार्किंसंस, मायोपैथी और माइलिटिस जैसी बीमारियों के भी शिकार हैं। इन बीमारियों का शिकार होने की सबसे अधिक सम्भावना 50 से 70 साल के लोगों में होती है। हाल ही में आये एक अध्ययन के अनुसार गंगा नदी की बेसिन में भूजल में आर्सेनिक की मात्रा बढ़ने के समय आने वाले समय में इस क्षेत्र में भयंकर बीमारियों का ख़तरा मँडरा रहा है।

अब अगर इस पूरी तस्वीर को सामने रखें तो हमें स्पष्ट तौर पर विकास का वह मॉडल दिखायी देता है जो जनता के विनाश की बदौलत खड़ा हुआ है। यानी पूँजीपतियों के लिए टेण्ट सिटी और गंगा विलास तथा आम लोगों के लिए घाटों का धँसाव, नदी में प्रदूषण और भयंकर बीमारियों के ख़तरे के रूप में विनाश। अब यह हमें तय करना है कि हम विनाश के मॉडल को और ढोयेंगे और अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए विनाश के कगार पर खड़ी एक ज़हरीली दुनिया छोड़कर जायेंगे या इस विनाश के मॉडल को पलटकर सही मायने में एक इन्सानों के रहने लायक़ समाज बनाने की दिशा में आगे बढ़ेंगे।

 

मज़दूर बिगुल, फरवरी 2023


 

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